"कृष्ण तृतीय": अवतरणों में अंतर
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08:50, 21 मार्च 2011 का अवतरण
- गोविन्द चतुर्थ के बाद 'अमोघवर्ष तृतीय' (936-940) राष्ट्रकूट राज्य का स्वामी बना। उसके शासन काल की कोई घटना उल्लेखनीय नहीं है।
- उसका उत्तराधिकारी कृष्ण तृतीय (940-968) बड़ा प्रतापी था। उसने एक बार फिर राष्ट्रकूटों के गौरव को स्थापित किया, और दक्षिण व उत्तर दोनों दिशाओं में अपनी शक्ति का विस्तार किया।
- उत्तरी भारत पर आक्रमण कर उसने गुर्जर प्रतिहारों से कालिन्जर और चित्रकूट जीत लिए। पर उसकी विजय यात्राओं का श्रेय प्रधानतया दक्षिणी भारत था।
- -इस योग्य शासक ने सिंहासनारूढ़ होकर गंगों की सहायता से चोलों को परास्त कर कांची एवं तंजावुर पर अधिकार कर लिया एवं यहां पर विजय के उपलक्ष्य में एक स्तम्भ एवं एक मंदिर का निर्माण करवाया।
- 'कांचीयुम तंजेयमगकोड' (कांची तन्जौर का विजेता) की उपाधि धारण की । चोलों को परास्त करने के बाद कृष्ण तृतीय रामेश्वर तक पहुंच गया।
- राज्यारोहण के समय इसने अकाल वर्ष की उपाधि धारण की तथा कृष्ण तृतीय के उत्तराधिकारी खोटिख के शासन के समय सियक परमार ने राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेत पर आक्रमण कर उसे पूर्णतः ध्वस्त कर दिया।
- चालुक्य (कल्याणी) नरेश तैलप ने खोटिख के भतीजे कर्क को परास्त कर कल्याणी के चालुक्य वंश की नीव डाली।
- अरब लेखकों ने राष्ट्रकूट वंश को बलहरा (बल्लीराज) कहकर संबोधित किया है।
- काञ्जी पर फिर उसने अपना आधिपत्य स्थापित कर तंजौर की विजय की।
- तंजौर की विजय को इतना महत्त्वपूर्ण माना गया, कि कृष्ण तृतीय ने 'तंजजयुकोण्ड' (तंजौर विजेता) का विरुद धारण किया।
- चोल, पांड्य और केरल की विजयों के कारण कन्याकुमारी तक उसका साम्राज्य विस्तृत हो गया, और सिंहल द्वीप (लंका) के राजा ने भी उसे प्रसन्न रखने का प्रयत्न किया।
- इसमें सन्देह नहीं कि कृष्ण तृतीय एक महान विजेता था, और उसने एक बार फिर राष्ट्रकूट शक्ति को उत्कर्ष की चरम सीमा पर पहुँचा दिया था।
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