"मुलाक़ात -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़": अवतरणों में अंतर
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यह रात उस दर्द का शजर है | यह रात उस दर्द का शजर है | ||
जो मुझसे तुझसे अज़ीमतर है | जो मुझसे तुझसे अज़ीमतर है | ||
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इसी की शबनम से, ख़ामुशी के | इसी की शबनम से, ख़ामुशी के | ||
यह चंद क़तरे, तेरी ज़बीं पर | यह चंद क़तरे, तेरी ज़बीं पर | ||
बरस के, हीरे पिरो गए हैं | बरस के, हीरे पिरो गए हैं | ||
(2) | |||
बहुत सियह है यह रात लेकिन | |||
इसी सियाही में रूनुमा है | |||
वो नहरे-ख़ूँ जो मेरी सदा है | |||
इसी के साए में नूर गर है | |||
वो मौजे-ज़र जो तेरी नज़र है | |||
वो ग़म जो इस वक़्त तेरी बाँहों | |||
के गुलसिताँ में सुलग रहा है | |||
(वो ग़म जो इस रात का समर है) | |||
कुछ और तप जाए अपनी आहों | |||
की आँच में तो यही शरर है | |||
हर इक सियह शाख़ की कमाँ से | |||
जिगर में टूटे हैं तीर जितने | |||
जिगर से नीचे हैं, और हर इक | |||
का हमने तीशा बना लिया है | |||
(3) | |||
अलम नसीबों, जिगर फ़िगारों | |||
की सुबह अफ़्लाक पर नहीं है | |||
जहाँ पे हम-तुम खड़े हैं दोनों | |||
सहर का रौशन उफ़क़ यहीं है | |||
यहीं पे ग़म के शरार खिल कर | |||
शफ़क का गुलज़ार बन गए हैं | |||
यहीं पे क़ातिल दुखों के तीशे | |||
क़तार अंदर क़तार किरनों | |||
के आतशीं हार बन गए हैं | |||
यह ग़म जो इस रात ने दिया है | |||
यह ग़म सहर का यक़ीं बना है | |||
यक़ीं जो ग़म से करीमतर है | |||
सहर जो शब से अज़ीमतर है | |||
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14:08, 20 जून 2013 के समय का अवतरण
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