"सदस्य:रविन्द्र प्रसाद/6": अवतरणों में अंतर

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;पर्यायवाची शब्द (समानार्थी शब्द / Synonyms Word)
{{चयनित लेख}}
जिन शब्दों के अर्थ में समानता होती है, उन्हें समानार्थक या पर्यायवाची शब्द कहते है या किसी शब्द-विशेष के लिए प्रयुक्त समानार्थक शब्दों को पर्यायवाची शब्द कहते हैं। यद्यपि पर्यायवाची शब्दों के अर्थ में समानता होती है, लेकिन प्रत्येक [[शब्द (व्याकरण)|शब्द]] की अपनी विशेषता होती है और भाव में एक-दूसरे से किंचित भिन्न होते हैं। पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करते हुए विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। अत: पर्यायवाची का अर्थ है - '''समान अर्थ देने वाल़ा''' । [[हिन्दी भाषा]] में एक शब्द के समान अर्थ वाले कई शब्द हमें मिल जाते हैं।
{{कबीर विषय सूची}}
====वर्णमाला क्रमानुसार पर्यायवाची शब्द====
{| style="background:transparent; float:right"
{| align=center width=100% cellspacing=0 cellpadding=3>
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| colspan="2"| {{वर्णमाला सूची}}
|
{{सूचना बक्सा साहित्यकार
|चित्र=Sant-Kabirdas.jpg
|चित्र का नाम=संत कबीरदास
|पूरा नाम=संत कबीरदास
|अन्य नाम=कबीरा, कबीर साहब
|जन्म=सन 1398 (लगभग)
|जन्म भूमि=[[लहरतारा|लहरतारा ताल]], [[काशी]]
|अभिभावक=
|पालक माता-पिता=नीरु और नीमा
|पति/पत्नी=लोई
|संतान=कमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री)
|कर्म भूमि=[[काशी]], [[बनारस]]
|कर्म-क्षेत्र=समाज सुधारक कवि
|मृत्यु=सन 1518 (लगभग)
|मृत्यु स्थान=[[मगहर]], [[उत्तर प्रदेश]]
|मुख्य रचनाएँ=[[साखी]], [[सबद]] और [[रमैनी]]
|विषय=सामाजिक
|भाषा=[[अवधी भाषा|अवधी]], सधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी
|विद्यालय=
|शिक्षा=निरक्षर 
|पुरस्कार-उपाधि=
|प्रसिद्धि=
|विशेष योगदान=
|नागरिकता=भारतीय
|संबंधित लेख=[[कबीर ग्रंथावली]], [[कबीरपंथ]], [[बीजक]], [[कबीर के दोहे]] आदि 
|शीर्षक 1=
|पाठ 1=
|शीर्षक 2=
|पाठ 2=
|अन्य जानकारी=कबीर का कोई प्रामाणिक जीवनवृत्त आज तक नहीं मिल सका, जिस कारण इस विषय में निर्णय करते समय, अधिकतर जनश्रुतियों, सांप्रदायिक ग्रंथों और विविध उल्लेखों तथा इनकी अभी तक उपलब्ध कतिपय फुटकल रचनाओं के अंत:साध्य का ही सहारा लिया जाता रहा है।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
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| valign="top"|
| style="width:18em; float:right;"|
===अ===
<div style="border:thin solid #a7d7f9; margin:10px">
*'''अग्नि''' - आग, अनल, पावक, दहन, वह्नि, कृशानु।
{|  align="center"
*'''अपमान''' - अनादर, अवज्ञा, अवहेलना, अवमान, तिरस्कार।
! कबीर की रचनाएँ
*'''अलंकार''' - आभूषण, भूषण, विभूषण, गहना, जेवर।
|}
*'''अहंकार'''- दंभ, गर्व, अभिमान, दर्प, मद, घमंड, मान।
<div style="height: 250px; overflow:auto; overflow-x: hidden; width:99%">
*'''अमृत'''- सुधा, अमिय, पीयूष, सोम, मधु, अमी।
{{कबीर की रचनाएँ}}
*'''असुर'''- दैत्य, दानव, राक्षस, निशाचर, रजनीचर, दनुज, रात्रिचर, तमचर।
</div></div>
*'''अतिथि'''- मेहमान, अभ्यागत, आगन्तुक, पाहूना।
|}
*'''अनुपम'''- अपूर्व, अतुल, अनोखा, अदभुत, अनन्य।
कबीर (जन्म- सन् 1398 [[काशी]] - मृत्यु- सन् 1518 [[मगहर]]) का नाम कबीरदास, कबीर साहब एवं संत कबीर जैसे रूपों में भी प्रसिद्ध है। ये [[मध्यकालीन भारत]] के स्वाधीनचेता महापुरुष थे और इनका परिचय, प्राय: इनके जीवनकाल से ही, इन्हें सफल साधक, भक्त कवि, मतप्रवर्तक अथवा समाज सुधारक मानकर दिया जाता रहा है तथा इनके नाम पर [[कबीरपंथ]] नामक संप्रदाय भी प्रचलित है। कबीरपंथी इन्हें एक अलौकिक अवतारी पुरुष मानते हैं और इनके संबंध में बहुत सी चमत्कारपूर्ण कथाएँ भी सुनी जाती हैं। इनका कोई प्रामाणिक जीवनवृत्त आज तक नहीं मिल सका, जिस कारण इस विषय में निर्णय करते समय, अधिकतर जनश्रुतियों, सांप्रदायिक ग्रंथों और विविध उल्लेखों तथा इनकी अभी तक उपलब्ध कतिपय फुटकल रचनाओं के अंत:साध्य का ही सहारा लिया जाता रहा है। फलत: इस संबंध में तथा इनके मत के भी विषय में बहुत कुछ मतभेद पाया जाता है।
*'''अर्थ'''- धन्, द्रव्य, मुद्रा, दौलत, वित्त, पैसा।
*'''अश्व'''- हय, तुरंग, घोड़ा, घोटक, हरि, बाजि, सैन्धव।
*'''अंधकार'''- तम, तिमिर, तमिस्र, अँधेरा, तमस, अंधियारा।
 
===आ===
* '''[[आम]]'''- रसाल, आम्र, सौरभ, मादक, अमृतफल, सहुकार।
* '''आग'''- अग्नि, अनल, हुतासन, पावक, दहन, ज्वलन, धूमकेतु, कृशानु, वहनि, शिखी, वह्नि।
* '''[[आँख]]'''- लोचन, नयन, नेत्र, चक्षु, दृग, विलोचन, दृष्टि, अक्षि।
* '''[[आकाश तत्व|आकाश]]'''- नभ, गगन, अम्बर, व्योम, अनन्त, आसमान, अंतरिक्ष, शून्य, अर्श।
* '''आनंद'''- हर्ष, सुख, आमोद, मोद, प्रमोद, उल्लास।
* '''[[आश्रम]]'''- कुटी, विहार, मठ, संघ, अखाडा।
* '''आंसू'''- नेत्रजल, नयनजल, चक्षुजल, अश्रु।
* '''[[आत्मा]]'''- जीव, देव, चैतन्य, चेतनतत्तव, अंतःकरण।
 
===इ===
* '''इच्छा'''- अभिलाषा, अभिप्राय, चाह, कामना, लालसा, मनोरथ, आकांक्षा, अभीष्ट।
* '''[[इन्द्र]]'''- सुरेश, सुरेन्द्र, देवेन्द्र, सुरपति, शक्र, पुरंदर, देवराज, महेन्द्र, मधवा, शचीपति, मेघवाहन, पुरुहूत, यासव।
*'''इन्द्राणि''' - इन्द्रवधू, मधवानी, शची, शतावरी, पोलोमी।
 
===ई===
* '''ईश्वर'''- परमात्मा, प्रभु, ईश, जगदीश, भगवान, परमेश्वर, जगदीश्वर, विधाता।
 
===उ===
*'''उपवन''' - बाग़, बगीचा, उद्यान, वाटिका, गुलशन।
*'''उक्ति''' - कथन, वचन, सूक्ति।
*'''उग्र''' - प्रचण्ड, उत्कट, तेज, महादेव, तीव्र, विकट।
*'''उचित''' - ठीक, मुनासिब, वाज़िब, समुचित, युक्तिसंगत, न्यायसंगत, तर्कसंगत, योग्य।
*'''उच्छृंखल''' - उद्दंड, अक्खड़, आवारा, अंडबंड, निरकुंश, मनमर्जी, स्वेच्छाचारी।
*'''उजड्ड''' - अशिष्ट, असभ्य, गँवार, जंगली, देहाती, उद्दंड, निरकुंश।
*'''उजला''' - उज्ज्वल, श्वेत, सफ़ेद, धवल।
*'''उजाड''' - जंगल, बियावान, वन।
*'''उजाला''' - प्रकाश, रोशनी, चाँदनी।
*उत्कष''' - समृद्धि, उन्नति, प्रगति, प्रशंसा, बढ़ती, उठान।
*'''उत्कृष्ट''' - उत्तम, उन्नत, श्रेष्ठ, अच्छा, बढ़िया, उम्दा।
*'''उत्कोच''' - घूस, रिश्वत।
*'''उत्पति''' - उद्गम, पैदाइश, जन्म, उद्भव, सृष्टि, आविर्भाव, उदय।
*'''उद्धार''' - मुक्ति, छुटकारा, निस्तार, रिहाई।
*'''उपाय''' - युक्ति, साधन, तरकीब, तदबीर, यत्न, प्रयत्न।
 
===ऊ===
*'''ऊधम''' - उपद्रव, उत्पात, धूम, हुल्लड़, हुड़दंग, धमाचौकड़ी।
 
===ए===
 
===ऐ===
*'''ऐक्य''' - एकत्व, एका, एकता, मेल।
*'''ऐश्वर्य''' - समृद्धि, विभूति।
 
===ओ===
*'''ओज''' - तेज, शक्ति, बल, वीर्य।
* '''ओंठ'''- ओष्ठ, अधर, होठ।
 
===औ===
*'''औचक''' - अचानक, यकायक, सहसा।
*'''औरत''' - स्त्री, जोरू, घरनी, घरवाली।
 
===ऋ===
*'''ऋषि''' - मुनि, साघु, यति, संन्यासी, तत्वज्ञ, तपस्वी।
 
===क===
*'''कच''' - बाल, केश, कुन्तल, चिकुर, अलक, रोम, शिरोरूह।
* '''[[कमल]]'''-  नलिन, अरविन्द, उत्पल, राजीव, पद्म, पंकज, नीरज, सरोज, जलज, जलजात, शतदल, पुण्डरीक, इन्दीवर।
*'''कबूतर''' - कपोत, रक्तलोचन, पारावत, कलरव, हारिल।
*'''कामदेव''' - मदन, मनोज, अनंग, काम, रतिपति, पुष्पधन्वा, मन्मथ।
*'''कण्ठ''' - ग्रीवा, गर्दन, गला, शिरोधरा।
* '''कृपा'''-  प्रसाद, करुणा, दया, अनुग्रह।
* '''किताब'''-  पोथी, ग्रन्थ, पुस्तक।
*'''किनारा''' - तीर, कूल, कगार, तट।
* '''कपड़ा'''-  चीर, वसन, पट, अंशु, कर, मयुख, वस्त्र, अम्बर, परिधान।
* '''किरण'''-  ज्योति, प्रभा, रश्मि, दीप्ति, मरीचि।
* '''किसान'''- कृषक, भूमिपुत्र, हलधर, खेतिहर, अन्नदाता।
* '''कृष्ण'''- राधापति, घनश्याम, वासुदेव, माधव, मोहन, केशव, गोविन्द, गिरधारी।
* '''कान'''-  कर्ण, श्रुति, श्रुतिपटल, श्रवण, श्रोत, श्रुतिपुट।
* '''कोयल'''-  कोकिला, पिक, काकपाली, बसंतदूत, सारिका, कुहुकिनी, वनप्रिया।
* '''क्रोध'''-  रोष, कोप, अमर्ष, कोह, प्रतिघात।
*'''कीर्ति''' - यश, प्रसिद्धि।
 
===ख===
*'''खग''' - पक्षी, द्विज, विहग, नभचर, अण्डज, शकुनि, पखेरू।
*'''खंभा''' स्तूप, स्तम्भ, खंभ।
*'''खल''' - दुर्जन, दुष्ट, घूर्त, कुटिल।
*'''खून''' - रक्त, लहू, शोणित, रुधिर।
 
===ग===
* '''[[गज]]'''- हाथी, हस्ती, मतंग, कूम्भा, मदकल ।
* '''[[गाय]]'''- गौ, धेनु, सुरभि, भद्रा, रोहिणी।
* '''[[गंगा]]'''- देवनदी, मंदाकिनी, भगीरथी, विश्नुपगा, देवपगा, ध्रुवनंदा, सुरसरिता, देवनदी, जाह्नवी, त्रिपथगा।
* '''[[गणेश]]'''- विनायक, गजानन, गौरीनंदन, गणपति, गणनायक, शंकरसुवन, लम्बोदर, महाकाय, एकदन्त।
* '''गृह'''- घर, सदन, गेह, भवन, धाम, निकेतन, निवास, आलय, आवास, निलय, मंदिर।
* '''गर्मी'''- ताप, ग्रीष्म, ऊष्मा, गरमी, निदाघ।
*'''गुरु''' - शिक्षक, आचार्य, उपाध्याय।


======
<blockquote>संत कबीर दास [[हिंदी]] [[साहित्य]] के [[भक्ति काल]] के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ़ झलकती है। लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व - प्रेमी का अनुभव था। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है।</blockquote>
*'''घट''' - घड़ा, कलश, कुम्भ, निप।
[[हज़ारी प्रसाद द्विवेदी|डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी]] ने लिखा है कि साधना के क्षेत्र में वे युग - युग के गुरु थे, उन्होंने संत काव्य का पथ प्रदर्शन कर [[साहित्य]] क्षेत्र में नव निर्माण किया था।
*'''घर''' - आलय, आवास, गेह, गृह, निकेतन, निलय, निवास, भवन, वास, वास-स्थान, शाला, सदन।
==जीवन परिचय==
*'''घृत''' - घी, अमृत, नवनीत।
{{Main|कबीर का जीवन परिचय}}
*'''घास''' - तृण, दूर्वा, दूब, कुश, शाद।
====जन्म====  
* कबीरदास के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर का जन्म काशी में [[लहरतारा]] तालाब में उत्पन्न [[कमल]] के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ। कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी [[रामानंद]] के प्रभाव से उन्हें [[हिन्दू धर्म]] की बातें मालूम हुईं। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी [[गंगा नदी|गंगा]] स्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में-
<blockquote><poem>हम कासी में प्रकट भये हैं,  
रामानन्द चेताये।</poem></blockquote>
[[चित्र:Sant kabir das.jpg|thumb|कबीरदास|200px|left]]
* कबीरपंथियों में इनके जन्म के विषय में यह पद्य प्रसिद्ध है-  
<blockquote><poem>चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रगट भए॥
घन गरजें दामिनि दमके बूँदे बरषें झर लाग गए।
लहर तलाब में कमल खिले तहँ कबीर भानु प्रगट भए॥<ref>{{cite web |url=http://www.hindisamay.com/kabir-granthawali/kabirgranth-prastawna.html |title=कबीर ग्रंथावली |accessmonthday=2 अगस्त |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=हिंदी समय डॉट कॉम |language=हिंदी }}</ref></poem></blockquote>
====मृत्यु====
कबीर ने [[काशी]] के पास [[मगहर]] में देह त्याग दी। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था। [[हिन्दू]] कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से। इसी विवाद के चलते जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ फूलों का ढेर पड़ा देखा। बाद में वहाँ से आधे [[फूल]] हिन्दुओं ने ले लिए और आधे [[मुसलमान|मुसलमानों]] ने। मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया। मगहर में कबीर की समाधि है। जन्म की भाँति इनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को लेकर भी मतभेद हैं किन्तु अधिकतर विद्वान उनकी मृत्यु संवत 1575 विक्रमी (सन 1518 ई.) मानते हैं, लेकिन बाद के कुछ इतिहासकार उनकी मृत्यु 1448 को मानते हैं।<ref>{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/religion/religion/personality/0906/06/1090606073_1.htm |title=संत कवि कबीर |accessmonthday=4 अगस्त |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=वेब दुनिया |language=हिंदी }}</ref>


======
==समकालीन सामाजिक परिस्थिति==
* '''चरण'''- पद, पग, पाँव, पैर, पाद।
{{Main|कबीर का समकालीन समाज}}
*'''चतुर''' - विज्ञ, निपुण, नागर, पटु, कुशल, दक्ष, प्रवीण, योग्य।
महात्मा कबीरदास के जन्म के समय में [[भारत]] की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक दशा शोचनीय थी। एक तरफ मुसलमान शासकों की धर्मांन्धता से जनता परेशान थी और दूसरी तरफ [[हिन्दू धर्म]] के कर्मकांड, विधान और पाखंड से [[धर्म]] का ह्रास हो रहा था। जनता में भक्ति- भावनाओं का सर्वथा अभाव था। पंडितों के पाखंडपूर्ण वचन समाज में फैले थे। ऐसे संघर्ष के समय में, कबीरदास का प्रार्दुभाव हुआ। जिस [[युग]] में कबीर आविर्भूत हुए थे, उसके कुछ ही पूर्व [[भारत|भारतवर्ष]] के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना घट चुकी थी। यह घटना [[इस्लाम]] जैसे एक सुसंगठित सम्प्रदाय का आगमन था। इस घटना ने भारतीय धर्म–मत और समाज व्यवस्था को बुरी तरह से झकझोर दिया था। उसकी अपरिवर्तनीय समझी जाने वाली जाति–व्यवस्था को पहली बार ज़बर्दस्त ठोकर लगी थी। सारा भारतीय वातावरण संक्षुब्ध था। बहुत–से पंडितजन इस संक्षोभ का कारण खोजने में व्यस्त थे और अपने–अपने ढंग पर भारतीय समाज और धर्म–मत को सम्भालने का प्रयत्न कर रहे थे।
* '''चंद्रमा'''- चाँद, हिमांशु, इंदु, विधु, तारापति, चन्द्र, शशि, हिमकर, राकेश, रजनीश, निशानाथ, सोम, मयंक, सारंग, सुधाकर, कलानिधि।
*'''चाँदनी''' - चन्द्रिका, कौमुदी, ज्योत्स्ना, चन्द्रमरीचि, उजियारी, चन्द्रप्रभा, जुन्हाई।
*'''चाँदी''' - रजत, सौध, रूपा, रूपक, रौप्य, चन्द्रहास।
*'''चोटी''' - मूर्धा, शीश, सानु, शृंग।


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{{seealso|कबीरपंथ|सूफ़ी आन्दोलन|भक्ति आन्दोलन}}
*'''छतरी''' - छत्र, छाता, छत्ता।
==साहित्यिक परिचय==
*'''छली''' - छलिया, कपटी, धोखेबाज।
{{दाँयाबक्सा|पाठ=कबीर की वाणी का अनुकरण नहीं हो सकता। अनुकरण करने की सभी चेष्टाएँ व्यर्थ सिद्ध हुई हैं। इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियाँ श्रोता को बलपूर्वक आकृष्ट करती हैं। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक सम्भाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को 'कवि' कहने में संतोष पाता है।|विचारक=[[हज़ारी प्रसाद द्विवेदी]]}}
*'''छवि''' - शोभा, सौंदर्य, कान्ति, प्रभा।
कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। उनकी कविता का एक-एक शब्द पाखंडियों के पाखंडवाद और धर्म के नाम पर ढोंग व स्वार्थपूर्ति की निजी दुकानदारियों को ललकारता हुआ आया और असत्य व अन्याय की पोल खोल धज्जियाँ उड़ाता चला गया। कबीर का अनुभूत सत्य अंधविश्वासों पर बारूदी पलीता था। सत्य भी ऐसा जो आज तक के परिवेश पर सवालिया निशान बन चोट भी करता है और खोट भी निकालता है।
*'''छानबीन''' - जाँच, पूछताछ, खोज, अन्वेषण, शोध, गवेषण।
====कबीरदास की भाषा और शैली====
*'''छैला''' - सजीला, बाँका, शौकीन।
{{Main|कबीर की भाषा शैली}}
*'''छोर''' - नोक, कोर, किनारा, सिरा।
कबीरदास ने बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है। '''भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में कहलवा लिया– बन गया है तो सीधे–सीधे, नहीं दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार–सी नज़र आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फ़रमाइश को नाहीं कर सके।''' और अकह कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है वैसी बहुत ही कम लेखकों में पाई जाती है। असीम–अनंत ब्रह्मानन्द में [[आत्मा]] का साक्षीभूत होकर मिलना कुछ वाणी के अगोचर, पकड़ में न आ सकने वाली ही बात है। पर 'बेहद्दी मैदान में रहा कबीरा' में न केवल उस गम्भीर निगूढ़ तत्त्व को मूर्तिमान कर दिया गया है, बल्कि अपनी फ़क्कड़ाना प्रकृति की मुहर भी मार दी गई है। वाणी के ऐसे बादशाह को साहित्य–रसिक काव्यानंद का आस्वादन कराने वाला समझें तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। फिर व्यंग्य करने में और चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानते। पंडित और क़ाज़ी, अवधु और जोगिया, मुल्ला और मौलवी सभी उनके व्यंग्य से तिलमिला जाते थे। अत्यन्त सीधी भाषा में वे ऐसी चोट करते हैं कि खानेवाला केवल धूल झाड़ के चल देने के सिवा और कोई रास्ता नहीं पाता।
====पंचमेल खिचड़ी भाषा====
[[चित्र:26-maghar.jpg|thumb|250px|कबीरदास की मजार और समाधि, [[मगहर]], [[उत्तर प्रदेश]]]]
'''कबीर की रचनाओं में अनेक भाषाओं के शब्द मिलते हैं यथा - [[अरबी भाषा|अरबी]], [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]], [[पंजाबी भाषा|पंजाबी]], [[बुन्देली बोली|बुन्देलखंडी]], [[ब्रजभाषा]], [[खड़ीबोली]] आदि के शब्द मिलते हैं इसलिए इनकी भाषा को 'पंचमेल खिचड़ी' या 'सधुक्कड़ी' भाषा कहा जाता है।''' प्रसंग क्रम से इसमें कबीरदास की भाषा और शैली समझाने के कार्य से कभी–कभी आगे बढ़ने का साहस किया गया है। जो वाणी के अगोचर हैं, उसे वाणी के द्वारा अभिव्यक्त करने की चेष्टा की गई है; जो मन और बुद्धि की पहुँच से परे हैं; उसे बुद्धि के बल पर समझने की कोशिश की गई है; जो देश और काल की सीमा के परे हैं, उसे दो–चार–दस पृष्ठों में बाँध डालने की साहसिकता दिखाई गई है। कहते हैं, समस्त [[पुराण]] और महाभारतीय संहिता लिखने के बाद व्यासदेव में अत्यन्त अनुताप के साथ कहा था कि 'हे अधिल विश्व के गुरुदेव, आपका कोई रूप नहीं है, फिर भी मैंने ध्यान के द्वारा इन ग्रन्थों में रूप की कल्पना की है; आप अनिर्वचनीय हैं, व्याख्या करके आपके स्वरूप को समझा सकना सम्भव नहीं है, फिर भी मैंने स्तुति के द्वारा व्याख्या करने की कोशिश की है। वाणी के द्वारा प्रकाश करने का प्रयास किया है। तुम समस्त–भुवन–व्याप्त हो, इस ब्रह्मांण्ड के प्रत्येक अणु–परमाणु में तुम भिने हुए हो, तथापि तीर्थ–यात्रादि विधान से उस व्यापित्व को खंडित किया है।


===ज===
==व्यक्तित्व==
*'''[[जल]]'''- अमृत, सलिल, वारि, नीर, तोय, अम्बु, उदक, पानी, जीवन, पय, पेय।
{{Main|कबीर का व्यक्तित्व}}
*'''जगत''' - संसार, विश्व, जग, जगती, भव, दुनिया, लोक, भुवन।
[[हिन्दी साहित्य]] के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता है, [[तुलसीदास]]। परन्तु तुलसीदास और कबीर के व्यक्तित्व में बड़ा अन्तर था। यद्यपि दोनों ही भक्त थे, परन्तु दोनों स्वभाव, संस्कार और दृष्टिकोण में एकदम भिन्न थे। मस्ती, फ़क्कड़ाना स्वभाव और सबकुछ को झाड़–फटकार कर चल देने वाले तेज़ ने कबीर को हिन्दी–साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है। [[चित्र:Kabir.jpg|thumb|left|200px|कबीर]]
*'''जीभ''' - रसना, रसज्ञा, जिह्वा, रसिका, वाणी, वाचा, जबान।
====आकर्षक वक्ता====
* '''जंगल'''- विपिन, कानन, वन, अरण्य, गहन, कांतार, बीहड़, विटप।
कबीर की वाणियों में सबकुछ को छाकर उनका सर्वजयी व्यक्तित्व विराजता रहता है। उसी ने कबीर की वाणियों में अनन्य–असाधारण जीवन रस भर दिया है। कबीर की वाणी का अनुकरण नहीं हो सकता। अनुकरण करने की सभी चेष्टाएँ व्यर्थ सिद्ध हुई हैं। इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियाँ श्रोता को बलपूर्वक आकृष्ट करती हैं। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक सम्भाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को 'कवि' कहने में संतोष पाता है। ऐसे आकर्षक वक्ता को 'कवि' न कहा जाए तो और क्या कहा जाए? परन्तु यह भूल नहीं जाना चाहिए कि यह कविरूप घलुए में मिली हुई वस्तु है। कबीर ने कविता लिखने की प्रतिज्ञा करके अपनी बातें नहीं कही थीं। उनकी छंदोयोजना, उचित–वैचित्र्य और [[अलंकार]] विधान पूर्ण–रूप से स्वाभाविक और अयत्नसाधित हैं। काव्यगत रूढ़ियों के न तो वे जानकार थे और न ही क़ायल। अपने अनन्य–साधारण व्यक्तित्व के कारण ही वे सहृदय को आकृष्ट करते हैं। उनमें एक और बड़ा भारी गुण है, जो उन्हें अन्यान्य संतों से विशेष बना देता है।
* '''जेवर''' - गहना, अलंकार, भूषण, आभरण, मंडल।
*'''ज्योति''' - आभा, छवि, द्युति, दीप्ति, प्रभा, भा, रुचि, रोचि।


======
==रचनाएँ==
* '''झूठ'''- असत्य, मिथ्या, मृषा, अनृत।
{{Main|कबीर की रचनाएँ}}
कबीरदास ने [[हिन्दू]]-[[मुसलमान]] का भेद मिटा कर हिन्दू-भक्तों तथा मुसलमान फ़कीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयांगम कर लिया। संत कबीर ने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से बोले और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। कबीरदास अनपढ़ थे। कबीरदास के समस्त विचारों में राम-नाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, [[ईद-उल-फ़ितर|ईद]], मस्जिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे। कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है। कबीर की वाणी का संग्रह `[[बीजक]]' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं-
#[[रमैनी]]
#[[सबद]]
#[[साखी]]
====बीजक====
{{दाँयाबक्सा|पाठ=[[हिन्दी साहित्य]] के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता है, [[तुलसीदास]]।|विचारक=[[हज़ारी प्रसाद द्विवेदी]]}}
{{Main|बीजक}}
'बीजक' कबीरदास के मतों का पुराना और प्रामाणिक संग्रह है, इसमें संदेह नहीं। एक ध्यान देने योग्य बात इसमें यह है कि 'बीजक' में 84 रमैनियाँ हैं। रमैनियाँ [[चौपाई]] [[छंद]] में लिखी गई हैं। इनमें कुछ रमैनियाँ ऐसी हैं। जिनके अंत में एक-एक साखी उद्धृत की गई है। साखी उद्धृत करने का अर्थ यह होता है कि कोई दूसरा आदमी मानों इन रमैनियों को लिख रहा है और इस रमैनी-रूप व्याख्या के प्रमाण में कबीर की साखी या गवाही पेश कर रहा है। जालंधरनाथ के शिष्य कुण्णपाद (कानपा) ने कहा है: 'साखि करब जालंधरि पाए', अस्तु बहुत थोड़ी-सी रमैनियाँ (नं. 3,28 32, 42, 56, 62, 70, 80) ऐसी हैं जिनके अंत में साखियाँ नहीं हैं। परंतु इस प्रकार उद्धृत करने का क्या अर्थ हो सकता है? इस पुस्तक में मैंने 'बीजक' को निस्संकोच प्रमाण-रूप में व्यवहृत है, पर स्वय 'बीजक' ही इस बात का प्रमाण है कि साखियों को सबसे अधिक प्रामाणिक समझना चाहिए, क्योंकि स्वंय 'बीजक' ने ही रमैनियों की प्रामाणिकता के लिए साखियों का हवाला दिया है। इसीलिए कबीरदास के सिद्धांतों की जानकारी का सबसे उत्तम साधन साखियाँ है।<ref> साखी आँखी ज्ञान की, समुझि देखु मन माहि। विन साखी संसार कौ, झगरा छूटत नाहि॥ साखी, 369</ref>
====अवधू और अवधूत====
[[साहित्य|भारतीय साहित्य]] में यह 'अवधू' शब्द कई संप्रदायों के सिद्ध आचार्यों के अर्थ में व्यवहुत हुआ है। साधारणत: जागातिक द्वंद्वों से अतीत, मानापमान-विवर्जित, पहुँचे हुए योगी को अवधूत कहा जाता है। यह शब्द मुख्यतया तांत्रिकों, सहजयानियों और योगियों का है। सहजयान और वज्रयान नामक बौद्ध तांत्रिक मतों में 'अवधूती वृत्ति' नामक एक विशेष प्रकार की यौगिक वृत्ति का उल्लेख मिलता है।<ref>चयपिद, 27-2;17-। देखिए; पृष्ठ 124 का दोहा भी देखिए।</ref> [[कबीर की रचनाएँ#अवधू और अवधूत|...और पढ़ें]]
====निरंजन कौन है?====
मध्ययुग के योग, मंत्र और भक्ति के [[साहित्य]] में 'निरंजन' शब्द का बारम्बार उल्लेख मिलता है। नाथपंथ में भी 'निरंजन' शब्द खूब परिचित है। साधारण रूप में 'निरंजन' शब्द निर्गुण [[ब्रह्मा|ब्रह्म]] का और विशेष रूप से [[शिव]] का वाचक है। नाथपंथ की भाँति एक और प्राचीन पंथ भी था, जो निरंजन पद को परमपद मानता था। जिस प्रकार नाथपंथी नाथ को परमाराध्य मानते थे, उसी प्रकार ये लोग 'निरंजन' को। आजकल [[निरंजनी सम्प्रदाय|निरंजनी]] साधुओं का एक सम्प्रदाय राजपूताने में वर्तमान है। कहते हैं, इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक स्वामी निरानंद निरंजन भगवान (निर्गुण) के उपासक थे। [[कबीर की रचनाएँ#निरंजन कौन है?|...और पढ़ें]]
==कबीर के दर्शन पर शोध==
कबीरदास का व्यक्तित्व संत कवियों में अद्वितीय है। [[हिन्दी साहित्य]] के 1200 वर्षों के इतिहास में [[तुलसीदास|गोस्वामी तुलसीदास]] जी के अतिरिक्त इतना प्रतिभाशाली व्यक्तित्व किसी कवि का नहीं है। कबीर के दर्शन पर शोध 18वीं शताब्दी में आरम्भ हो चुका था किन्तु उसका वैज्ञानिक विवेचन सन् 1903 में एच.एच. विन्सन ने किया। उन्होंने कबीर पर 8 ग्रन्थ लिखे। इसके बाद विशप जी.एच. वेप्टकॉट ने कबीर द्वारा लिखित 84 ग्रन्थों की सम्पूर्ण सूची प्रस्तुत की। इसी प्रकार [[अयोध्यासिंह उपाध्याय|अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध']] द्वारा सम्पादित कबीर वचनावली में 21 ग्रन्थ, [[रामकुमार वर्मा|डॉ. रामकुमार वर्मा]] द्वारा रचित 'हिन्दी साहित्य के आलोचनात्मक इतिहास' में 61 ग्रन्थ तथा [[नागरीप्रचारिणी सभा]] की रिपोर्ट में 140 ग्रन्थों की सूची मिलती है। [[कबीर ग्रन्थावली]] में कुल 809 साखियाँ, 403 पद और 7 रमैनियाँ संग्रहित हैं। साहित्यिक क्षेत्र में [[पद (काव्य)|पदों]] और [[साखी|साखियों]] का ही अधिक प्रचार हुआ परन्तु [[बीजक]] प्राय: उपेक्षित रहा। [[अमृतसर]] के [[गुरुद्वारे अमृतसर|गुरुद्वारे]] में बीजक का ही पाठ होता है। कबीर के दार्शनिक सिद्धान्तों का सार बीजक में उपलब्ध है। कबीर का प्रमुख साहित्य [[रमैनी]], साखी और शब्द बीजक में उपलब्ध है। डॉ. पारसनाथ तिवारी ने बीजक के 32 संस्करणों की सूची दी है।<ref>{{cite web |url=http://senjibqa.wordpress.com/category/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%80/ |title=कबीर की साखी |accessmonthday= 11 जनवरी|accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=E Learning |language= हिंदी}}</ref>
====कबीर के दोहे====
[[चित्र:Kabir-1.jpg|thumb|300px|कबीरदास]]
{{Main|कबीर के दोहे}}
यहाँ [[कबीरदास]] के कुछ दोहे दिये गये हैं। 
<poem>(1) साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं ॥</poem>
'''व्याख्या:-''' कबीर दास जी कहते हैं कि संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता। जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता।
<poem>(2) जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।</poem>
'''व्याख्या:-''' संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।
{{कबीर के दोहे}}
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= |माध्यमिक=माध्यमिक2 |पूर्णता= |शोध= }}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
* [[अनिल चौधरी]] द्वारा निर्देशित दूरदर्शन पर बना धारावाहिक "कबीर" एक उत्कृष्ट रचना है।
* [[हज़ारी प्रसाद द्विवेदी]] की रचना "[[कबीर -हज़ारी प्रसाद द्विवेदी|कबीर]]" संत कबीर पर सबसे उत्कृष्ट रचना है।
*[http://www.rachanakar.org/2009/11/blog-post_17.html प्रोफेसर महावीर सरन जैन का आलेख : कबीर की साधना]


===ट===
==बाहरी कड़ियाँ==
*'''टक्कर''' - मुठभेड़, लड़ाई, मुकाबला।
; यू-ट्यूब लिंक
*'''टहलुआ''' - नौकर, सेवक, खिदमतगार।
*[http://www.youtube.com/watch?v=vbMAjo_Ei3Y&feature=player_embedded मगहर का विडियो (यू ट्यूब पर)]
*'''टाँग''' - पाँव, पैर, टंक।
*[http://www.youtube.com/watch?v=cNl_pK0u9-k झीनी चदरिया (आवाज- पं. कुमार गंधर्व)]
*'''टीका''' - तिलक, चिह्न, दाग, धब्बा।
*[http://www.youtube.com/watch?v=f5Vlsdv_z0s सुनता है गुरु ज्ञानी (आवाज- पं. कुमार गंधर्व)]
*'''टोना''' - टोटका, जादू, यंत्रमंत्र, लटका।
*[http://www.youtube.com/watch?v=EHy0r12mfcA निर्भय निर्गुण गुन रे गाऊंगा (आवाज- पं. कुमार गंधर्व और विदुषी वसुंधरा कोमकली)]
 
*[http://www.youtube.com/watch?v=mKc3gy-SHmE उड़ जायेगा हंस अकेला (आवाज- पं. कुमार गंधर्व)]
===ठ===
==संबंधित लेख==
*'''ठंढ''' - ठंड, शीत, सरदी।
{{कबीर}}{{भारत के कवि}}{{समाज सुधारक}}
*'''ठग''' - छली, धूर्त, धोखेबाज्।
[[Category:कवि]]
*'''ठाँव''' - स्थान, जगह, ठिकाना।
[[Category:जीवनी साहित्य]]
*'''ठिंगना''' - बौना, वामन, नाटा।
[[Category:निर्गुण भक्ति]]
*'''ठीक''' - उपयुक्त, उचित, मुनासिब्।
[[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]]
*'''ठेठ''' - निपट, निरा, बिल्कुल।
[[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:चरित कोश]]
 
[[Category:साहित्य कोश]]
===ड===
[[Category:समाज सुधारक]]
*'''डंडा''' - सोंटा, छड़ी, लाठी।
[[Category:भक्ति काल]]
*'''डाली''' - भेंट, उपहार।
[[Category:कबीर]]
 
[[Category:दार्शनिक]]
===ढ===
[[Category:चयनित लेख]]
*'''ढब''' - ढंग, रीति, तरीका, ढर्रा।
__INDEX__
*'''ढाँचा''' - पंजर, ठठरी।
__NOTOC__
*'''ढील''' - शिथिलता, सुस्ती, अतत्परता।
*'''ढूँढ''' - खोज, तलाश, छानबीन।
*'''ढोर''' - चौपाया, मवेशी।
 
===त===
*'''तरुवर''' - वृक्ष, पेड़, द्रुम, तरु, विटप, रूंख, पादप।
*'''तलवार''' - असि, कृपाण, करवाल, खड्ग, चन्द्रहास।
*'''तालाब'''-  सरोवर, जलाशय, सर, पुष्कर, पोखरा, जलवान, सरसी, तड़ाग।
*'''तीर''' - शर, बाण, विशिख, शिलीमुख, अनी, सायक।
 
===थ===
*'''थोड़ा''' - अल्प, न्यून, जरा, कम।
*'''थाती''' - जमापूँजी, धरोहर, अमानत।
*'''थाक''' - ढेर, समूह।
*'''थप्पड़''' - तमाचा, झापड़।
*'''थंभ''' - खंभ, खंभा, स्तम्भ।
 
===द===
*'''दास'''- सेवक, नौकर, चाकर, परिचारक, अनुचर, भृत्य, किंकर।
*'''दधि''' - दही, गोरस, मट्ठा, तक्र।
* '''दरिद्र'''- निर्धन, ग़रीब, रंक, कंगाल, दीन।
* '''दिन'''- [[दिवस]], याम, दिवा, वार, प्रमान, वासर, अह्न।
*'''दीन''' - ग़रीब, दरिद्र, रंक, अकिंचन, निर्धन, कंगाल।
*'''दीपक''' - दीप, दीया, प्रदीप।
* '''दुःख'''- पीड़ा,कष्ट, व्यथा, वेदना, संताप, शोक, खेद, पीर, लेश।
* '''[[दूध]]'''- दुग्ध, क्षीर, पय, गौरस, स्तन्य।
* '''दुष्ट'''- पापी, नीच, दुर्जन, अधम, खल, पामर।
*'''दाँत''' - दशन, रदन, रद, द्विज, दन्त, मुखखुर।
* '''दर्पण'''- शीशा, आरसी, आईना, मुकुर।
* '''[[दुर्गा]]'''- चंडिका, भवानी, कुमारी, कल्याणी, महागौरी, कालिका, शिवा, चण्डी, चामुण्डा।
* '''[[देवता]]'''- सुर, देव, अमर, वसु, आदित्य, लेख, अजर, विबुध।
*'''देह''' - काया, तन, शरीर, वपु, गात।
| valign="top"|
 
===ध===
* '''धन'''- दौलत, संपत्ति, सम्पदा, वित्त।
* '''धरती'''- धरा, धरती, वसुधा, ज़मीन, पृथ्वी, भू, भूमि, धरणी, वसुंधरा, अचला, मही, रत्नवती, रत्नगर्भा।
* '''धनुष'''- चाप्, शरासन, कमान, कोदंड, धनु।
 
===न===
* '''नदी'''- सरिता, तटिनी, सरि, सारंग, जयमाला, तरंगिणी, दरिया, निर्झरिणी।
* '''नया'''- नूतन, नव, नवीन, नव्य।
* '''नाव'''- नौका, तरणी, तरी।
 
===प===
* '''पवन'''- वायु, हवा, समीर, वात, मारुत, अनिल, पवमान, समीरण, स्पर्शन।
* '''पहाड़'''- पर्वत, गिरि, अचल, शैल, धरणीधर, धराधर, नग, भूधर, महीधर।
* '''पक्षी'''- खेचर, दविज, पतंग, पंछी, खग, चिडिया, गगनचर, पखेरू, विहंग, नभचर।
* '''पति'''- स्वामी, प्राणाधार, प्राणप्रिय, प्राणेश, आर्यपुत्र।
* '''पत्नी'''- भार्या, वधू, वामा, अर्धांगिनी, सहधर्मिणी, गृहणी, बहु, वनिता, दारा, जोरू, वामांगिनी।
* '''पुत्र'''- बेटा, आत्मज, सुत, वत्स, तनुज, तनय, नंदन।
* '''पुत्री'''- बेटी, आत्मजा, तनूजा, सुता, तनया।
* '''पुष्प'''- फूल, सुमन, कुसुम, मंजरी, प्रसून, पुहुप।
 
===फ===
*'''फूल''' - पुष्प, सुमन, कुसुम, गुल, प्रसून।
 
===ब===
* '''बादल'''- मेघ, घन, जलधर, जलद, वारिद, नीरद, सारंग, पयोद, पयोधर।
* '''बालू'''- रेत, बालुका, सैकत।
* '''बन्दर'''- वानर, कपि, कपीश, हरि।
* '''बिजली'''- घनप्रिया, इन्द्र्वज्र, चंचला, सौदामनी, चपला, दामिनी, ताडित, विद्युत।
*'''बगीचा''' - बाग़, वाटिका, उपवन, उद्यान, फुलवारी, बगिया।
*'''बाण''' - सर, तीर, सायक, विशिख, शिलीमुख, नाराच।
*'''बाल''' - कच, केश, चिकुर, चूल।
*'''ब्रह्मा''' - विधि, विधाता, स्वयंभू, प्रजापति, पितामह, चतुरानन, विरंचि, अज, कर्तार, कमलासन, नाभिजन्म, हिरण्यगर्भ।
*'''बलदेव''' - बलराम, बलभद्र, हलायुध, राम, मूसली, रोहिणेय, संकर्षण।
*'''बहुत''' - अनेक, अतीव, अति, बहुल, प्रचुर, अपरिमित, प्रभूत, अपार, अमित, अत्यन्त, असंख्य।
*'''ब्राह्मण''' - द्विज, भूदेव, विप्र, महीदेव, भूमिसुर, भूमिदेव।
 
===भ===
*'''भय''' - भीति, डर, विभीषिका।
*'''भाई''' - तात, अनुज, अग्रज, भ्राता, भ्रातृ।
* '''भूषण'''- जेवर, गहना, आभूषण, अलंकार।
*'''भौंरा''' - मधुप, मधुकर, द्विरेप, अलि, षट्पद, [[भृंग]], भ्रमर।
 
===म===
* '''मनुष्य'''- आदमी, नर, मानव, मानुष, मनुज।
* '''मदिरा'''- शराब, हाला, आसव, मधु, मद।
* '''मोर'''- केक, कलापी, नीलकंठ, नर्तकप्रिय।
* '''मधु'''- शहद, रसा, शहद, कुसुमासव।
* '''मृग'''- हिरण, सारंग, कृष्णसार।
* '''मछली'''- मीन, मत्स्य, जलजीवन, शफरी, मकर।
* '''माता'''- जननी, माँ, अंबा, जनयत्री, अम्मा।
* '''मित्र'''- सखा, सहचर, साथी, दोस्त।
 
===य===
*'''[[यमराज|यम]]''' - सूर्यपुत्र, जीवितेश, श्राद्धदेव, कृतांत, अन्तक, धर्मराज, दण्डधर, कीनाश, यमराज।
*'''[[यमुना]]''' - कालिन्दी, सूर्यसुता, रवितनया, तरणि-तनूजा, तरणिजा, अर्कजा, भानुजा।
*'''युवति''' - युवती, सुन्दरी, श्यामा, किशोरी, तरुणी, नवयौवना।
 
===र===
*'''रमा''' - इन्दिरा, हरिप्रिया, श्री, लक्ष्मी, कमला, पद्मा, पद्मासना, समुद्रजा, श्रीभार्गवी, क्षीरोदतनया।
* '''रात'''- रात्रि, रैन, रजनी, निशा, यामिनी, तमी, निशि, यामा, विभावरी।
* '''राजा'''- नृप, नृपति, भूपति, नरपति, नृप, भूप, भूपाल, नरेश, महीपति, अवनीपति।
*'''रात्रि''' - निशा, क्षया, रैन, रात, यामिनी, शर्वरी, तमस्विनी, विभावरी।
*'''[[राम|रामचन्द्र]]''' - अवधेश, सीतापति, राघव, रघुपति, रघुवर, रघुनाथ, रघुराज, रघुवीर, रावणारि, जानकीवल्लभ, कमलेन्द्र, कौशल्यानन्दन।
*'''[[रावण]]''' - दशानन, लंकेश, लंकापति, दशशीश, दशकंध, दैत्येन्द्र।
*'''[[राधा|राधिका]]''' - राधा, ब्रजरानी, हरिप्रिया, वृषभानुजा।
 
===ल===
*'''लड़का''' - बालक, शिशु, सुत, किशोर, कुमार।
*'''लड़की''' - बालिका, कुमारी, सुता, किशोरी, बाला, कन्या।
* '''लक्ष्मी'''- कमला, पद्मा, रमा, हरिप्रिया, श्री, इंदिरा, पद्मजा, सिन्धुसुता, कमलासना।
*'''लक्ष्मण''' - लखन, शेषावतार, सौमित्र, रामानुज, शेष।
*'''लौह''' - अयस, लोहा, सार।
*'''लता''' - बल्लरी, बल्ली, बेली।
 
===व===
*'''वायु''' - हवा, पवन, समीर, अनिल, वात, मारुत।
*'''वसन''' - अम्बर, वस्त्र, परिधान, पट, चीर।
*'''विधवा''' - अनाथा, पतिहीना, राँड़।
* '''विष'''- ज़हर, हलाहल, गरल, कालकूट।
* '''वृक्ष'''- पेड़, पादप, विटप, तरू, गाछ, दरख्त, शाखी, विटप, द्रुम।
* '''[[विष्णु]]'''- नारायण, दामोदर, पीताम्बर, चक्रपाणी।
*'''विश्व''' - जगत, जग, भव, संसार, लोक, दुनिया।
*'''विद्युत''' - चपला, चंचला, दामिनी, सौदामिनी, तड़ित, बीजुरी, घनवल्ली, क्षणप्रभा, करका।
*'''वारिश''' - वर्षण, वृष्टि, वर्षा, पावस, बरसात।
*'''वीर्य''' - जीवन, सार, तेज, शुक्र, बीज।
*'''वज्र''' - कुलिस, पवि, अशनि, दभोलि।
*'''विशाल''' - विराट, दीर्घ, वृहत, बड़ा, महा, महान।
*'''वृक्ष''' - गाछ, तरु, पेड़, द्रुम, पादप, विटप, शाखी।
 
===श===
* '''[[शिव]]'''- भोलेनाथ, शम्भू, त्रिलोचन, महादेव, नीलकंठ, शंकर।
* '''शरीर'''- देह, तनु, काया, कलेवर, अंग, गात।
* '''शत्रु'''- रिपु, दुश्मन, अमित्र, वैरी, अरि, विपक्षी, अराति।
*'''शिक्षक'''- गुरु, अध्यापक, आचार्य, उपाध्याय।
*'''शेर''' - केहरि, केशरी, वनराज, सिंह, शार्दूल, हरि, मृगराज।
*'''शेषनाग''' - अहि, नाग, भुजंग, व्याल, उरग, पन्नग, फणीश, सारंग।
*'''शुभ्र''' - गौर, श्वेत, अमल, वलक्ष, शुक्ल, अवदात।
*'''शहद''' - पुष्परस, मधु, आसव, रस, मकरन्द।
 
===श्र===
 
===ष===
*'''षंड''' - हीजड़ा, नपुंसक, नामर्द।
*'''षडानन''' - षटमुख, कार्तिकेय, षाण्मातुर।
 
===स===
*'''सीता''' - वैदेही, जानकी, भूमिजा, जनकतनया, जनकनन्दिनी, रामप्रिया।
* '''[[साँप]]'''- अहि, भुजंग, ब्याल, सर्प, नाग, विषधर, उरग, पवनासन।
* '''सूर्य'''- रवि, सूरज, दिनकर, प्रभाकर, आदित्य, दिनेश, भास्कर, दिनकर, दिवाकर, भानु, अर्क, तरणि, पतंग, आदित्य, सविता, हंस, अंशुमाली, मार्तण्ड।
* '''संसार'''- जग, विश्व, जगत, लोक, दुनिया।
* '''[[सोना]]'''- स्वर्ण, कंचन, कनक, हेम, कुंदन।
* '''[[सिंह]]'''- केसरी, शेर, महावीर, हरि, मृगपति, वनराज, शार्दूल, नाहर, सारंग, मृगराज।
* '''समुद्र'''- सागर, पयोधि, उदधि, पारावार, नदीश, जलधि, सिंधु, रत्नाकर, वारिधि।
*'''सम''' - सर्व, समस्त, सम्पूर्ण, पूर्ण, समग्र, अखिल, निखिल।
*'''समीप''' - सन्निकट, आसन्न, निकट, पास।
* '''समूह'''- दल, झुंड, समुदाय, टोली, जत्था, मण्डली, वृंद, गण, पुंज, संघ, समुच्चय।
*'''सभा''' - अधिवेशन, संगीति, परिषद, बैठक, महासभा।
*'''सुन्दर''' - कलित, ललाम, मंजुल, रुचिर, चारु, रम्य, मनोहर, सुहावना, चित्ताकर्षक, रमणीक, कमनीय, उत्कृष्ट, उत्तम, सुरम्य।
*'''सन्ध्या''' - सायंकाल, शाम, साँझ, प्रदोषकाल, गोधूलि।
* '''स्त्री'''- सुन्दरी, कान्ता, कलत्र, वनिता, नारी, महिला, अबला, ललना, औरत, कामिनी, रमणी।
* '''सुगंधि'''- सौरभ, सुरभि, महक, खुशबू।
* '''स्वर्ग'''- सुरलोक, देवलोक, दिव्यधाम, ब्रह्मधाम, द्यौ, परमधाम, त्रिदिव, दयुलोक।
*'''स्वर्ण''' - सुवर्ण, कंचन, हेन, हारक, जातरूप, सोना, तामरस, हिरण्य।
*'''सरस्वती''' - गिरा, शारदा, भारती, वीणापाणि, विमला, वागीश, वागेश्वरी।
*'''सहेली''' - आली, सखी, सहचरी, सजनी, सैरन्ध्री।
*'''संसार''' - लोक, जग, जहान, जगत, विश्व।
 
===ह===
*'''हस्त''' - हाथ, कर, पाणि, बाहु, भुजा।
* '''[[हिमालय]]'''- हिमगिरी, हिमाचल, गिरिराज, पर्वतराज, नगेश।
*'''हिरण''' - सुरभी, कुरग, मृग, सारंग, हिरन।
*'''होंठ''' - अक्षर, ओष्ठ, ओंठ।
*'''हनुमान''' - पवनसुत, पवनकुमार, महावीर, रामदूत, मारुततनय, अंजनीपुत्र, आंजनेय, कपीश्वर, केशरीनंदन, बजरंगबली, मारुति।
*'''हिमांशु''' - हिमकर, निशाकर, क्षपानाथ, चन्द्रमा, चन्द्र, निशिपति।
*'''हंस''' - कलकंठ, मराल, सिपपक्ष, मानसौक।
* '''[[हृदय]]'''- छाती, वक्ष, वक्षस्थल, हिय, उर।
* '''हाथ'''- हस्त, कर, पाणि।
* '''हाथी'''- नाग, हस्ती, राज, कुंजर, कूम्भा, मतंग, वारण, गज, द्विप, करी, मदकल।
 
===त्र===
 
 
===ज्ञ===
 
 
|}

13:17, 15 नवम्बर 2016 का अवतरण

कबीर विषय सूची
रविन्द्र प्रसाद/6
संत कबीरदास
संत कबीरदास
पूरा नाम संत कबीरदास
अन्य नाम कबीरा, कबीर साहब
जन्म सन 1398 (लगभग)
जन्म भूमि लहरतारा ताल, काशी
मृत्यु सन 1518 (लगभग)
मृत्यु स्थान मगहर, उत्तर प्रदेश
पालक माता-पिता नीरु और नीमा
पति/पत्नी लोई
संतान कमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री)
कर्म भूमि काशी, बनारस
कर्म-क्षेत्र समाज सुधारक कवि
मुख्य रचनाएँ साखी, सबद और रमैनी
विषय सामाजिक
भाषा अवधी, सधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी
शिक्षा निरक्षर
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख कबीर ग्रंथावली, कबीरपंथ, बीजक, कबीर के दोहे आदि
अन्य जानकारी कबीर का कोई प्रामाणिक जीवनवृत्त आज तक नहीं मिल सका, जिस कारण इस विषय में निर्णय करते समय, अधिकतर जनश्रुतियों, सांप्रदायिक ग्रंथों और विविध उल्लेखों तथा इनकी अभी तक उपलब्ध कतिपय फुटकल रचनाओं के अंत:साध्य का ही सहारा लिया जाता रहा है।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
कबीर की रचनाएँ

कबीर (जन्म- सन् 1398 काशी - मृत्यु- सन् 1518 मगहर) का नाम कबीरदास, कबीर साहब एवं संत कबीर जैसे रूपों में भी प्रसिद्ध है। ये मध्यकालीन भारत के स्वाधीनचेता महापुरुष थे और इनका परिचय, प्राय: इनके जीवनकाल से ही, इन्हें सफल साधक, भक्त कवि, मतप्रवर्तक अथवा समाज सुधारक मानकर दिया जाता रहा है तथा इनके नाम पर कबीरपंथ नामक संप्रदाय भी प्रचलित है। कबीरपंथी इन्हें एक अलौकिक अवतारी पुरुष मानते हैं और इनके संबंध में बहुत सी चमत्कारपूर्ण कथाएँ भी सुनी जाती हैं। इनका कोई प्रामाणिक जीवनवृत्त आज तक नहीं मिल सका, जिस कारण इस विषय में निर्णय करते समय, अधिकतर जनश्रुतियों, सांप्रदायिक ग्रंथों और विविध उल्लेखों तथा इनकी अभी तक उपलब्ध कतिपय फुटकल रचनाओं के अंत:साध्य का ही सहारा लिया जाता रहा है। फलत: इस संबंध में तथा इनके मत के भी विषय में बहुत कुछ मतभेद पाया जाता है।

संत कबीर दास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ़ झलकती है। लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व - प्रेमी का अनुभव था। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है।

डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि साधना के क्षेत्र में वे युग - युग के गुरु थे, उन्होंने संत काव्य का पथ प्रदर्शन कर साहित्य क्षेत्र में नव निर्माण किया था।

जीवन परिचय

जन्म

  • कबीरदास के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ। कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म की बातें मालूम हुईं। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी गंगा स्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में-

हम कासी में प्रकट भये हैं,
रामानन्द चेताये।

कबीरदास
  • कबीरपंथियों में इनके जन्म के विषय में यह पद्य प्रसिद्ध है-

चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रगट भए॥
घन गरजें दामिनि दमके बूँदे बरषें झर लाग गए।
लहर तलाब में कमल खिले तहँ कबीर भानु प्रगट भए॥[1]

मृत्यु

कबीर ने काशी के पास मगहर में देह त्याग दी। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से। इसी विवाद के चलते जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ फूलों का ढेर पड़ा देखा। बाद में वहाँ से आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने। मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया। मगहर में कबीर की समाधि है। जन्म की भाँति इनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को लेकर भी मतभेद हैं किन्तु अधिकतर विद्वान उनकी मृत्यु संवत 1575 विक्रमी (सन 1518 ई.) मानते हैं, लेकिन बाद के कुछ इतिहासकार उनकी मृत्यु 1448 को मानते हैं।[2]

समकालीन सामाजिक परिस्थिति

महात्मा कबीरदास के जन्म के समय में भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक दशा शोचनीय थी। एक तरफ मुसलमान शासकों की धर्मांन्धता से जनता परेशान थी और दूसरी तरफ हिन्दू धर्म के कर्मकांड, विधान और पाखंड से धर्म का ह्रास हो रहा था। जनता में भक्ति- भावनाओं का सर्वथा अभाव था। पंडितों के पाखंडपूर्ण वचन समाज में फैले थे। ऐसे संघर्ष के समय में, कबीरदास का प्रार्दुभाव हुआ। जिस युग में कबीर आविर्भूत हुए थे, उसके कुछ ही पूर्व भारतवर्ष के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना घट चुकी थी। यह घटना इस्लाम जैसे एक सुसंगठित सम्प्रदाय का आगमन था। इस घटना ने भारतीय धर्म–मत और समाज व्यवस्था को बुरी तरह से झकझोर दिया था। उसकी अपरिवर्तनीय समझी जाने वाली जाति–व्यवस्था को पहली बार ज़बर्दस्त ठोकर लगी थी। सारा भारतीय वातावरण संक्षुब्ध था। बहुत–से पंडितजन इस संक्षोभ का कारण खोजने में व्यस्त थे और अपने–अपने ढंग पर भारतीय समाज और धर्म–मत को सम्भालने का प्रयत्न कर रहे थे।

इन्हें भी देखें: कबीरपंथ, सूफ़ी आन्दोलन एवं भक्ति आन्दोलन

साहित्यिक परिचय

कबीर की वाणी का अनुकरण नहीं हो सकता। अनुकरण करने की सभी चेष्टाएँ व्यर्थ सिद्ध हुई हैं। इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियाँ श्रोता को बलपूर्वक आकृष्ट करती हैं। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक सम्भाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को 'कवि' कहने में संतोष पाता है।

कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। उनकी कविता का एक-एक शब्द पाखंडियों के पाखंडवाद और धर्म के नाम पर ढोंग व स्वार्थपूर्ति की निजी दुकानदारियों को ललकारता हुआ आया और असत्य व अन्याय की पोल खोल धज्जियाँ उड़ाता चला गया। कबीर का अनुभूत सत्य अंधविश्वासों पर बारूदी पलीता था। सत्य भी ऐसा जो आज तक के परिवेश पर सवालिया निशान बन चोट भी करता है और खोट भी निकालता है।

कबीरदास की भाषा और शैली

कबीरदास ने बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है। भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में कहलवा लिया– बन गया है तो सीधे–सीधे, नहीं दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार–सी नज़र आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फ़रमाइश को नाहीं कर सके। और अकह कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है वैसी बहुत ही कम लेखकों में पाई जाती है। असीम–अनंत ब्रह्मानन्द में आत्मा का साक्षीभूत होकर मिलना कुछ वाणी के अगोचर, पकड़ में न आ सकने वाली ही बात है। पर 'बेहद्दी मैदान में रहा कबीरा' में न केवल उस गम्भीर निगूढ़ तत्त्व को मूर्तिमान कर दिया गया है, बल्कि अपनी फ़क्कड़ाना प्रकृति की मुहर भी मार दी गई है। वाणी के ऐसे बादशाह को साहित्य–रसिक काव्यानंद का आस्वादन कराने वाला समझें तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। फिर व्यंग्य करने में और चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानते। पंडित और क़ाज़ी, अवधु और जोगिया, मुल्ला और मौलवी सभी उनके व्यंग्य से तिलमिला जाते थे। अत्यन्त सीधी भाषा में वे ऐसी चोट करते हैं कि खानेवाला केवल धूल झाड़ के चल देने के सिवा और कोई रास्ता नहीं पाता।

पंचमेल खिचड़ी भाषा

कबीरदास की मजार और समाधि, मगहर, उत्तर प्रदेश

कबीर की रचनाओं में अनेक भाषाओं के शब्द मिलते हैं यथा - अरबी, फ़ारसी, पंजाबी, बुन्देलखंडी, ब्रजभाषा, खड़ीबोली आदि के शब्द मिलते हैं इसलिए इनकी भाषा को 'पंचमेल खिचड़ी' या 'सधुक्कड़ी' भाषा कहा जाता है। प्रसंग क्रम से इसमें कबीरदास की भाषा और शैली समझाने के कार्य से कभी–कभी आगे बढ़ने का साहस किया गया है। जो वाणी के अगोचर हैं, उसे वाणी के द्वारा अभिव्यक्त करने की चेष्टा की गई है; जो मन और बुद्धि की पहुँच से परे हैं; उसे बुद्धि के बल पर समझने की कोशिश की गई है; जो देश और काल की सीमा के परे हैं, उसे दो–चार–दस पृष्ठों में बाँध डालने की साहसिकता दिखाई गई है। कहते हैं, समस्त पुराण और महाभारतीय संहिता लिखने के बाद व्यासदेव में अत्यन्त अनुताप के साथ कहा था कि 'हे अधिल विश्व के गुरुदेव, आपका कोई रूप नहीं है, फिर भी मैंने ध्यान के द्वारा इन ग्रन्थों में रूप की कल्पना की है; आप अनिर्वचनीय हैं, व्याख्या करके आपके स्वरूप को समझा सकना सम्भव नहीं है, फिर भी मैंने स्तुति के द्वारा व्याख्या करने की कोशिश की है। वाणी के द्वारा प्रकाश करने का प्रयास किया है। तुम समस्त–भुवन–व्याप्त हो, इस ब्रह्मांण्ड के प्रत्येक अणु–परमाणु में तुम भिने हुए हो, तथापि तीर्थ–यात्रादि विधान से उस व्यापित्व को खंडित किया है।

व्यक्तित्व

हिन्दी साहित्य के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता है, तुलसीदास। परन्तु तुलसीदास और कबीर के व्यक्तित्व में बड़ा अन्तर था। यद्यपि दोनों ही भक्त थे, परन्तु दोनों स्वभाव, संस्कार और दृष्टिकोण में एकदम भिन्न थे। मस्ती, फ़क्कड़ाना स्वभाव और सबकुछ को झाड़–फटकार कर चल देने वाले तेज़ ने कबीर को हिन्दी–साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है।

कबीर

आकर्षक वक्ता

कबीर की वाणियों में सबकुछ को छाकर उनका सर्वजयी व्यक्तित्व विराजता रहता है। उसी ने कबीर की वाणियों में अनन्य–असाधारण जीवन रस भर दिया है। कबीर की वाणी का अनुकरण नहीं हो सकता। अनुकरण करने की सभी चेष्टाएँ व्यर्थ सिद्ध हुई हैं। इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियाँ श्रोता को बलपूर्वक आकृष्ट करती हैं। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक सम्भाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को 'कवि' कहने में संतोष पाता है। ऐसे आकर्षक वक्ता को 'कवि' न कहा जाए तो और क्या कहा जाए? परन्तु यह भूल नहीं जाना चाहिए कि यह कविरूप घलुए में मिली हुई वस्तु है। कबीर ने कविता लिखने की प्रतिज्ञा करके अपनी बातें नहीं कही थीं। उनकी छंदोयोजना, उचित–वैचित्र्य और अलंकार विधान पूर्ण–रूप से स्वाभाविक और अयत्नसाधित हैं। काव्यगत रूढ़ियों के न तो वे जानकार थे और न ही क़ायल। अपने अनन्य–साधारण व्यक्तित्व के कारण ही वे सहृदय को आकृष्ट करते हैं। उनमें एक और बड़ा भारी गुण है, जो उन्हें अन्यान्य संतों से विशेष बना देता है।

रचनाएँ

कबीरदास ने हिन्दू-मुसलमान का भेद मिटा कर हिन्दू-भक्तों तथा मुसलमान फ़कीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयांगम कर लिया। संत कबीर ने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से बोले और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। कबीरदास अनपढ़ थे। कबीरदास के समस्त विचारों में राम-नाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे। कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है। कबीर की वाणी का संग्रह `बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं-

  1. रमैनी
  2. सबद
  3. साखी

बीजक

हिन्दी साहित्य के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता है, तुलसीदास

'बीजक' कबीरदास के मतों का पुराना और प्रामाणिक संग्रह है, इसमें संदेह नहीं। एक ध्यान देने योग्य बात इसमें यह है कि 'बीजक' में 84 रमैनियाँ हैं। रमैनियाँ चौपाई छंद में लिखी गई हैं। इनमें कुछ रमैनियाँ ऐसी हैं। जिनके अंत में एक-एक साखी उद्धृत की गई है। साखी उद्धृत करने का अर्थ यह होता है कि कोई दूसरा आदमी मानों इन रमैनियों को लिख रहा है और इस रमैनी-रूप व्याख्या के प्रमाण में कबीर की साखी या गवाही पेश कर रहा है। जालंधरनाथ के शिष्य कुण्णपाद (कानपा) ने कहा है: 'साखि करब जालंधरि पाए', अस्तु बहुत थोड़ी-सी रमैनियाँ (नं. 3,28 32, 42, 56, 62, 70, 80) ऐसी हैं जिनके अंत में साखियाँ नहीं हैं। परंतु इस प्रकार उद्धृत करने का क्या अर्थ हो सकता है? इस पुस्तक में मैंने 'बीजक' को निस्संकोच प्रमाण-रूप में व्यवहृत है, पर स्वय 'बीजक' ही इस बात का प्रमाण है कि साखियों को सबसे अधिक प्रामाणिक समझना चाहिए, क्योंकि स्वंय 'बीजक' ने ही रमैनियों की प्रामाणिकता के लिए साखियों का हवाला दिया है। इसीलिए कबीरदास के सिद्धांतों की जानकारी का सबसे उत्तम साधन साखियाँ है।[3]

अवधू और अवधूत

भारतीय साहित्य में यह 'अवधू' शब्द कई संप्रदायों के सिद्ध आचार्यों के अर्थ में व्यवहुत हुआ है। साधारणत: जागातिक द्वंद्वों से अतीत, मानापमान-विवर्जित, पहुँचे हुए योगी को अवधूत कहा जाता है। यह शब्द मुख्यतया तांत्रिकों, सहजयानियों और योगियों का है। सहजयान और वज्रयान नामक बौद्ध तांत्रिक मतों में 'अवधूती वृत्ति' नामक एक विशेष प्रकार की यौगिक वृत्ति का उल्लेख मिलता है।[4] ...और पढ़ें

निरंजन कौन है?

मध्ययुग के योग, मंत्र और भक्ति के साहित्य में 'निरंजन' शब्द का बारम्बार उल्लेख मिलता है। नाथपंथ में भी 'निरंजन' शब्द खूब परिचित है। साधारण रूप में 'निरंजन' शब्द निर्गुण ब्रह्म का और विशेष रूप से शिव का वाचक है। नाथपंथ की भाँति एक और प्राचीन पंथ भी था, जो निरंजन पद को परमपद मानता था। जिस प्रकार नाथपंथी नाथ को परमाराध्य मानते थे, उसी प्रकार ये लोग 'निरंजन' को। आजकल निरंजनी साधुओं का एक सम्प्रदाय राजपूताने में वर्तमान है। कहते हैं, इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक स्वामी निरानंद निरंजन भगवान (निर्गुण) के उपासक थे। ...और पढ़ें

कबीर के दर्शन पर शोध

कबीरदास का व्यक्तित्व संत कवियों में अद्वितीय है। हिन्दी साहित्य के 1200 वर्षों के इतिहास में गोस्वामी तुलसीदास जी के अतिरिक्त इतना प्रतिभाशाली व्यक्तित्व किसी कवि का नहीं है। कबीर के दर्शन पर शोध 18वीं शताब्दी में आरम्भ हो चुका था किन्तु उसका वैज्ञानिक विवेचन सन् 1903 में एच.एच. विन्सन ने किया। उन्होंने कबीर पर 8 ग्रन्थ लिखे। इसके बाद विशप जी.एच. वेप्टकॉट ने कबीर द्वारा लिखित 84 ग्रन्थों की सम्पूर्ण सूची प्रस्तुत की। इसी प्रकार अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' द्वारा सम्पादित कबीर वचनावली में 21 ग्रन्थ, डॉ. रामकुमार वर्मा द्वारा रचित 'हिन्दी साहित्य के आलोचनात्मक इतिहास' में 61 ग्रन्थ तथा नागरीप्रचारिणी सभा की रिपोर्ट में 140 ग्रन्थों की सूची मिलती है। कबीर ग्रन्थावली में कुल 809 साखियाँ, 403 पद और 7 रमैनियाँ संग्रहित हैं। साहित्यिक क्षेत्र में पदों और साखियों का ही अधिक प्रचार हुआ परन्तु बीजक प्राय: उपेक्षित रहा। अमृतसर के गुरुद्वारे में बीजक का ही पाठ होता है। कबीर के दार्शनिक सिद्धान्तों का सार बीजक में उपलब्ध है। कबीर का प्रमुख साहित्य रमैनी, साखी और शब्द बीजक में उपलब्ध है। डॉ. पारसनाथ तिवारी ने बीजक के 32 संस्करणों की सूची दी है।[5]

कबीर के दोहे

कबीरदास

यहाँ कबीरदास के कुछ दोहे दिये गये हैं।

(1) साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं ॥

व्याख्या:- कबीर दास जी कहते हैं कि संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता। जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता।

(2) जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।

व्याख्या:- संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।

कबीरदास जी के कुछ प्रसिद्ध दोहे

गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूँ पाय।
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।।

ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये ।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।।

लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥

बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ।।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ।।

तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ।।

माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।।

मांगन मरण सामान है, मत मांगो कोई भीख,।
मांगन से मरना भला, ये सतगुरु की सीख ॥

चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये ।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ।।

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब ।।

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप ।
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप ।।

जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान ।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण ।।

कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये।
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये॥

कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ॥

कबीर खडा बाज़ार में, सबकी मांगे खैर ।
ना काहूँ से दोस्ती, ना काहूँ से बैर ॥

उठा बगुला प्रेम का, तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला, तिन का तिन के पास॥

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।

राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय ।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय ॥

साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥

साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए ।।

सुमिरन सूरत लगाईं के, मुख से कछु न बोल ।
बाहर का पट बंद कर, अन्दर का पट खोल ।।

कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोई सुरमा, जाती बरन कुल खोए ।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कबीर ग्रंथावली (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) हिंदी समय डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 2 अगस्त, 2011।
  2. संत कवि कबीर (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) वेब दुनिया। अभिगमन तिथि: 4 अगस्त, 2011।
  3. साखी आँखी ज्ञान की, समुझि देखु मन माहि। विन साखी संसार कौ, झगरा छूटत नाहि॥ साखी, 369
  4. चयपिद, 27-2;17-। देखिए; पृष्ठ 124 का दोहा भी देखिए।
  5. कबीर की साखी (हिंदी) E Learning। अभिगमन तिथि: 11 जनवरी, 2014।

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