असुर जाति

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असुर जाति झारखण्ड में और बंगाल में पाई जाती है। इस जाति के लोग स्वयं को महिषासुर का वंशज मानते हैं। इतिहासकारों के अनुसार महाभारत काल में झारखण्ड मगध के अंतर्गत आता था और ये बाहुबलि जरासंध के आधिपत्य में था। अनुमान किया जाता है कि जरासंध के वंशजों ने लगभग एक हज़ार वर्ष तक मगध में एकछत्र शासन किया था। जरासंध शैव था और असुर उसकी जाति थी। के. के. ल्युबा का कथन है कि झारखण्ड में रहने वाले वर्तमान असुर महाभारत कालीन असुरों के ही वंशज हैं। झारखण्ड की पुरातात्विक खुदाईयों में मिलने वाली असुर कालीन ईंटों तथा राँची गजेटियर में वर्ष 1917 में प्रकाशित निष्कर्षों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।

ऐतिहासिक तथ्य

600 ईसा पूर्व जब मुण्डा लोग झारखण्ड आए तो उनका सामना असुरों से हुआ था। मुण्डाओं की लोकगाथा 'सोसोबोंगा' में उनके आगमन और असुरों से संघर्ष का विस्तार से वर्णन है। भारत के विख्यात मानवशास्त्री शरतचंद्र राय अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'मुण्डाज एण्ड देयर कंट्री' में इसका समर्थन करते हैं। मुण्डा जब झारखण्ड आए तो उनकी एक शाखा संथाल परगना की ओर गई थी। इन लोगों को आज संथाल के नाम से जानते हैं, जबकि दूसरी शाखा राँची की पश्चिमी घाटियों में चली गही थी। राँची की ओर आने वाली शाखा मुण्डा कहलाई। बाद में ये मुण्डा लोग ही असुरों से भिड़े। बाद के इतिहासकारों के अनुसार लगभग 1206 ई. में उरांव कर्नाटक की ओर से नर्मदा के किनारे-किनारे विंध्य एवं सोन की घाटियों से होते हुए रोहतासगढ़ पहुँचे। जहाँ उन्होंने राज किया और फिर अपना राजपाट खोकर पराजित होने के पश्चात् राँची की ओर आ गये। तब उनका सामना मुण्डाओं से हुआ। उरांवों के आने के बाद मुण्डा लोग दक्षिण की ओर चले गए। यह इलाका आज का खूंटी क्षेत्र है, जहाँ मुण्डाओं की बहुलता है।

व्यवसाय

असुर जाति के लोग मुख्यतः लोहा गलाने का व्यवसाय करते थे और असंदिग्ध रूप से मुण्डा एवं अन्य आदिवासी समुदायों के आने से पहले झारखण्ड में उनकी एक विकसित सभ्यता विद्यमान थी। इस जाति के लोग कृषि जीवी नहीं थे और उस समय में झारखण्ड में कृषि प्रधान समाज की उपस्थिति के प्रमाण नहीं मिलते। मुण्डा लोग जब यहाँ आए, तब उन्होंने ही व्यवस्थित कृषि और जीवन-समाज पद्धति की मजबूत नींव डाली। यह भी उल्लेखनीय है कि असुरों के समय में झारखण्ड के कुछ इलाकों में जैनियों का प्रभाव था। ख़ासकर, हज़ारीबाग़ और मानभूम आदि इलाके में। पारसनाथ में जैन तीर्थ का होना तथा उस क्षेत्र में सराक जाति की उपस्थिति और उनके रीति-रिवाज इसके जीवंत साक्ष्य हैं।

दशहरे पर शोक मनाना

झारखण्ड के गुमला ज़िले के सुदूरवर्ती पठारी क्षेत्र में जंगलों व पहाड़ की तराईयों में रहने वाले असुर जाति के लोग दशहरे के अवसर पर शोक मनाते हैं। नवरात्र और विजयादशमी के अवसर पर जब पूरा देश हर्ष व उल्लास में डूबा रहता है, तब झारखण्ड के जंगल व पहाड़ों से अटूट रिश्ता बनाकर बसने वाले असुर जाति के लोग अपने आराध्य देव महिषासुर के वध से दुखी होकर शोक मनाते हैं। इस दिन वे न तो एक दूसरे के घर मेहमाननवाजी करते हैं और न ही नये वस्त्र पहनते हैं। वे इस दिन महिषासुर के शोक में विशेष पकवान भी नहीं बनाते हैं। अपने आराध्य देव की दुर्गा के द्वारा वध किये जाने पर वे अपने को बेसहारा महसूस करते हैं। इस जाति के कुछ युवक जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर शहरों की ओर रूख कर रहें हैं, वे बाहरी लोंगों के संपर्क में आकर अपनी परम्परा को भूलने लगे हैं, लेकिन गाँवों में रहने वाले असुर आज भी अपनी पूर्वजों की परंपरा को संजो कर रखना अपना धर्म मानते हैं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. असुर जनजाति समुदाय (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 12 जनवरी, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

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