न्याय दर्शन

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न्याय संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है व्युत्पत्ति के आधार पर मार्गदर्शन करने वाला, बाद में इसका निश्चित अर्थ नियम हो गया, जो व्यक्ति को किसी निष्कर्ष, पाठ की व्याख्या के सिद्धांत या तर्क तक ले जाता है। भारतीय व्याख्यात्मक और विवेकपूर्ण चिंतन के आरंभिक काल में न्याय का उपयोग सामान्यत: मीमांसा द्वारा विकसित विवेचन के सिद्धांतों के लिये किया गया है। लेकिन बाद में इस शब्द का उपयोग भारतीय दर्शन की छ्ह प्रणालियों (दर्शनों) में से एक के लिए होने लगा, जो अपने तर्क तथा ज्ञान मीमांस के विश्लेषण के लिए महत्त्वपूर्ण था। न्याय दर्शन की सबसे बड़ी देन निष्कर्ष की विवेचना प्रणाली का विस्तृत वर्णन है।

अन्य प्रणालियों के समान न्याय में भी दर्शन और धर्म, दोनों हैं ; लेकिन इसका धार्मिक तत्व सामान्यत: आस्तिकता या ईश्वर के आस्तित्व को स्थापित करने से आगे नहीं बढ़ता। ईश्वर तक पहुँचने के मार्ग को इसने विचार तथा तकनीक की अन्य परंपराओं के लिए छोड़ दिया है। न्याय का परम उद्देश्य मनुष्य के उस दु:खभोग को समाप्त करना है। जिसका मूल कारण वास्तविकता की अज्ञानता है। अन्य प्रणालियों के अनुसार, इसमें भी यह स्वीकार किया जाता है सम्यक ज्ञान से ही मुक्ति मिल सकती है। इसके बाद यह मुख्यत: सम्यक ज्ञान के साधनों की विवेचना करता है।

अपनी तत्त्व मीमांसा में न्याय, वैशेषिक प्रणाली के साथ जुड़ा है और 10वीं शताब्दी से इन दोनों विचारधाराओं को अक्सर संयुक्त रूप में प्रस्तुत किया जाता है। न्याय का प्रमुख ग्रंथ 'न्याय सूत्र' है, जिसका श्रेय गौतम (लगभग दूसरी शताब्दी ई.पू.) को दिया जाता है।

न्याय प्रणाली गौतम और उनके महत्त्वपूर्ण आरंभिक भाष्यकार वात्स्यायन (लगभग 450 ई.) से लेकर उदयन (10वीं शताब्दी) तक 'प्राचीन न्याय' के रूप में स्थापित रही, जब तक कि बंगाल में न्याय के नए मत (नव्य न्याय या नया न्याय) का उदय नहीं हुआ। 'नव्य न्याय' के सबसे प्रख्यात दार्शनिक इसके संस्थापक गणेश (13वीं शताब्दी) थे। उन्होंने दार्शनिक वक्तव्यों के प्रतिपादन की नई तकनीक का विकास किया और न्यायिक यथार्थ तथा प्रमाणिक ज्ञान बनाए रखने के संबंध में नए रास्ते निकाले।

न्याय मत का मानना है कि ज्ञान के चार मान्य साधन हैं : अनुभूति (प्रत्यक्ष), अर्थ निकालना (अनुमान), तुलना करना (उपमान) और शब्द (साक्य)। अप्रामाणिक ज्ञान में स्मृति, शंका, भूल और काल्पनिक वाद-विवाद शामिल हैं।

कारण-कार्य संबंध के न्याय सिद्धांत में कारण को प्रभाव के सहज (बिना शर्त के) और अपरिवर्तनीय पूर्ववर्ती के रूप में परिभाषित किया गया है। 'प्रभाव अपने कारण में पहले से अस्तित्व नहीं रखता है', इस परिणाम पर बल देने के कारण न्याय सिद्धांत सांख्य योग तथा वेदांती विचारधाराओं से भिन्न है। तीन प्रकार के कारणों का उल्लेख है : अंतर्निहित या भौतिक कारण (तत्त्व, जिससे प्रभाव की उत्पत्ति होती है); ग़ैर अंतर्निहित कारण (जो कारण की उत्पत्ति में सहायता करता है); और सक्षम कारण (वस्तु, क्रिया या शक्ति, जो भौतिक कारण के उत्पादन में सहायता करती है)। न्याय सिद्धांत में ईश्वर ब्रह्मांड का भौतिक कारण के उत्पादन में सहायता करती है)। न्याय सिध्दांत में ईश्वर ब्रह्मांड का भौतिक कारण नही है, क्योंकि अणु और आत्माएं भी शाश्वत हैं। वह तो सक्षम कारण है।

आस्तिक दर्शनों में न्याय दर्शन का प्रमुख स्थान है। वैदिक धर्म के स्वरूप के अनुसन्धान के लिए न्याय की परम उपादेयता है। इसीलिए मनुस्मृति में श्रुत्यनुगामी तर्क की सहायता से ही धर्म के रहस्य को जानने की बात कही गई है। वात्स्यायन ने न्याय को समस्त विद्याओं का 'प्रदीप' कहा है। 'न्याय' का व्यापक अर्थ है- विभिन्न प्रमाणों की सहायता से वस्तुतत्त्व की परीक्षा[1] प्रमाणों के स्वरूप वर्णन तथा परीक्षण प्रणाली के व्यावहारिक रूप के प्रकटन के कारण यह न्याय दर्शन के नाम से अभिहित है। न्याय का दूसरा नाम है आन्वीक्षिकी अर्थात अन्वीक्षा के द्वारा प्रवर्तित होने वाली विद्या। अन्वीक्षा का अर्थ है- प्रत्यक्ष या आगम पर आश्रित अनुमान अथवा प्रत्यक्ष तथा शब्द प्रमाण की सहायता से अवगत विषय का अनु-पश्चात ईक्षणपर्यालोचन - ज्ञान अर्थात अनुमति। अन्वीक्षा के द्वारा प्रवृत्त होने से न्याय विद्या आन्वीक्षिकी है।

न्याय दर्शन का स्थान

भारतीय दर्शन के इतिहास में ग्रन्थ सम्पत्ति की दृष्टि से वेदान्त दर्शन को छोड़कर न्याय दर्शन का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। विक्रम पूर्व पञ्चमशतक से लेकर आज तक न्याय दर्शन की विमल धारा अबाध गति से प्रवाहित है। न्याय दर्शन के विकास की दो धारायें दृष्टिगोचर होती हैं।

  • प्रथम धारा सूत्रकार गौतम से आरम्भ होती है, जिसे षोडश पदार्थों के यथार्थ निरूपक होने से 'पदार्थमीमांसात्मक' प्रणाली कहते हैं। इस प्रथम धारा को 'प्राचीन न्याय' कहा जाता है। प्राचीन न्याय में मुख्य विषय 'पदार्थमीमांसा' है।
  • दूसरी प्रणाली को 'प्रमाणमीमांसात्मक' कहते हैं, जिसे गंगेशोपाध्याय ने 'तत्त्वचिन्तामणि' में प्रवर्तित किया। इस द्वितीय धारा को 'नव्यन्याय' कहते हैं और इस 'नव्यन्याय' में 'प्रमाणमीमांसा' वर्णित है।

न्यायसूत्र के रचयिता

न्यायसूत्र के रचयिता का गोत्र नाम 'गौतम' और व्यक्तिगत नाम 'अक्षपाद' है। न्यायसूत्र पाँच अध्यायों में विभक्त है जिनमें प्रमाणादि षोडश पदार्थों के उद्देश्य, लक्षण तथा परीक्षण किये गये हैं। वात्स्यायन ने न्यायसूत्रों पर विस्तृत भाष्य लिखा लिखा है। इस भाष्य का रचनाकाल विक्रम पूर्व प्रथम शतक माना जाता है। न्याय दर्शन से सम्बद्ध 'उद्योतकर' का 'न्यायवार्तिक', 'वाचस्पति मिश्र' की 'तात्पर्यटीका', 'जयन्तभट्ट' की 'न्यायमञ्जरी', 'उदयनाचार्य' की 'न्याय-कुसुमाज्जलि', 'गंगेश उपाध्याय' की 'तत्त्वचिन्तामणि' आदि ग्रन्थ अत्यन्त प्रशस्त एवं लोकप्रिय हैं। न्याय दर्शन षोडश पदार्थो के निरूपण के साथ ही 'ईश्वर' का भी विवेचन करता है। न्यायमत में ईश्वर के अनुग्रह के बिना जीव न तो प्रमेय का यथार्थ ज्ञान पा सकता है और न इस जगत के दु:खों से ही छुटकारा पाकर मोक्ष पा सकता है। ईश्वर इस जगत की सृष्टि, पालन तथा संहार करने वाला है। ईश्वर असत पदार्थों से जगत की रचना नहीं करता, प्रत्युत परमाणुओं से करता है जो सूक्ष्मतम रूप में सर्वदा विद्यमान रहते हैं। न्यायमत में ईश्वर जगत का निमित्त कारण है, उपादान कारण नहीं। ईश्वर जीव मात्र का नियन्ता है, कर्मफल का दाता है तथा सुख-दु:खों का व्यवस्थापक है। उसके नियन्त्रण में रहकर ही जीव अपना कर्म सम्पादन कर जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त करता है।

न्यायसूत्र के अनुसार दु:ख से अत्यन्त विमोक्ष को ‘अपवर्ग’ कहा गया है [2] मुक्तावस्था में आत्मा अपने विशुद्ध रूप में प्रतिष्ठित और अखिल गुणों से रहित होता है। मुक्तात्मा में सुख का भी अभाव रहता है अत: उस अवस्था में 'आनन्द' की भी प्राप्ति नहीं होती। उद्योतकर के मत में नि:श्रेयस के दो भेद हैं- अपर नि:श्रेयस तथा परनि:श्रेयस। तत्त्वज्ञान ही इन दोनों का कारण है। जीवन मुक्ति को अपरनि:श्रेयस और विदेहमुक्ति को परनि:श्रेयस कहते हैं।

भारतीय दर्शन-साहित्य को न्यायदर्शन की सबसे अमूल्य देन शास्त्रीय विवेचनात्मक पद्धति है। प्रमाण की विस्तृत व्याख्या तथा विवेचना कर न्याय ने जिन तत्त्वों को खोज निकाला है, उनका उपयोग अन्य दर्शन ने भी कुछ परिवर्तनों के साथ किया है। हेत्वाभासों का सूक्ष्म विवरण देकर न्याय दर्शन ने अनुमान को दोषमुक्त करने का मार्ग प्रशस्त किया है। न्यायदर्शन की तर्कपद्धति श्लाघनीय है।

न्याय शास्त्र का इतिहास

उपक्रम

कोऽयं ललाटतटनेत्रपुटस्य गर्वात्
खर्वी करोति जगदित्यभिधाय शम्भो।
य: साभ्यसूयमकरोच्चरणेऽक्षिलक्ष्मीं
जीयात् स गौतममुनिर्मुनिवृन्दवन्द्य:॥[3]

वेद में सांसारिक बन्धनों से मुक्ति के लिए आत्मदर्शन या तत्त्वसाक्षात्कार आवश्यक तत्त्व के रूप में निर्दिष्ट है। बृहदारण्यक उपनिषद का कहना है कि पहले आत्मा आदि पदार्थों का शास्त्र द्वारा श्रवण उपासना, पुन: हेतु द्वारा मनन अर्थात विवेचन रूप उपासना और पश्चात निदिध्यासन - एक चित्त होकर ध्यान रूप उपासना करनी चाहिए।[4] आत्मदर्शन के साधन - मनन रूप उपासना - सम्पादनार्थ मुख्यत: न्याय शास्त्र का आविर्भाव हुआ। चूँकि श्रवण के पश्चात मनन का विधान है, अत: इस शास्त्र की प्रक्रिया को शास्त्रों में अन्वीक्षा कहा गया है। अनु अर्थात श्रवणमनु, ईक्षा दर्शनं मननम् इति अन्वीक्षा- यही उक्त पद की व्युत्पत्ति है। श्रवण के बाद युक्ति द्वारा आत्मा आदि पदार्थों की ईक्षा-दर्शन-मनन अर्थात शास्त्रानुमत रीति से अनुमान करना ही अन्वीक्षा है।

अभिधान

इसी अन्वीक्षा के निर्वाहार्थ प्रकाशित विद्या आन्वीक्षिकी नाम से प्रसिद्ध हुई। प्रत्यक्ष और आगम के अविरोधी अनुमान अन्वीक्षा है।[5] न्यायविद्या या न्याय शास्त्र इसका नामान्तर है। इसे समझने के लिए इसके प्रतिपाद्य सभी पदार्थों का परिज्ञान आवश्यक है, जिन्हें यह विद्या प्रकाशित करती है। हेतुविद्या, हेतुशास्त्र, युक्तिविद्या, युक्तिशास्त्र, तर्कविद्या तथा तर्कशास्त्र आदि इस आन्वीक्षिकी विद्या के नामान्तर हैं। चूँकि यहाँ अनुमान की प्रधानता है और अनुमान का मुख्य अवयव है हेतु, अत: हेतुविद्या आदि इसके अन्वर्थक नाम हैं। इसी तरह युक्त एवं तर्क का साङ्गोपाङ्ग विवेचन यहाँ प्रमुख रूप से होता है, अत: तर्कशास्त्र या युक्तिशास्त्र आदि नाम भी इसका संगत है। परीक्षित प्रमाणों के आधार पर ही प्रमेय का यहाँ प्रतिपादन किया जाता है, अत: इसे 'प्रमाणशास्त्र' भी कहते हैं। 'प्राधान्येय व्यपदेशा: भवन्ति' इस सूक्ति के आधार पर इसकी प्रमाणशास्त्रता सिद्ध है। यहाँ प्रमाण का विवेचन प्रमुख रूप से किया गया है।

इस आन्वीक्षिकी का अपना एक अलग वैशिष्ट्य है कि यह अध्यात्म विद्या होकर भी शास्त्रान्तर के परिज्ञानार्थ प्रक्रिया का निर्देश कर प्रदीप की तरह उपकारिका होती है। अत: इसे 'प्रक्रियाशास्त्र' भी कहते हैं। आचार्य उदयन ने कहा है- ‘यावदुक्तोपपन्न इति नैयायिका:’ [6]- जितना कहने से विषय स्पष्टत: समझ में आ जाए, नैययायिक उतना अवश्य कहता है, अर्थात विषय (प्रतिपाद्य) का परिशुद्ध रूप में परिज्ञान इस शास्त्र का लक्ष्य रहा है। ठीक यही बात 'न्यायभाष्य' में कही गयी है। जितने शब्द समूह के कथन से साधनीय अर्थ की सिद्धि होती है उस शब्द समूह के प्रतिज्ञा आदि पाँच अवयव कहे गये हैं, जिसे परमन्याय कहते हैं।[7]

यद्यपि श्रीमद्भागवत में प्रसिद्ध न्यायशास्त्र से भिन्न केवल अध्यात्मविद्या-विशेष रूप अर्थ में इस 'आन्वीक्षिकी' विद्या का उल्लेख मिलता है। कहा गया है कि भगवान के षष्ठ अवतार दत्तात्रेय ने अलर्क और प्रह्लाद आदि को 'आन्वीक्षिकी' रूपा अध्यात्मविद्या का उपदेश दिया था-

षष्ठमत्रेरपत्यत्वं वृत: प्राप्तोऽनसूयया।
आन्वीक्षिकीमलर्काय प्रह्लादादिभ्य ऊचिवान्॥[8]

यहाँ 'आन्वीक्षिकी' की व्याख्या 'श्रीधरस्वामी' की है। तथापि 'न्यायभाष्य' में वात्स्यायन ने स्पष्ट कहा है कि आन्वीक्षिकी का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ यही न्यायशास्त्र है।

परिचय

न्यायभाष्यकर ने स्पष्ट कहा है कि उपनिषद आदि अध्यात्मविद्या से इसमें पार्थक्य दिखाने के लिए उन संशय आदि चौदह पदार्थों का प्रतिपादन भी यहाँ आवश्यक है।[9] चूँकि वेद, वार्ता तथा दण्डनीति से भिन्न चतुर्थी विद्या के रूप में इसकी प्रतिष्ठा है, अत: इसके असाधारण प्रतिपाद्य उक्त संशय आदि चौदह पदार्थ विद्या के अपने असाधारण प्रतिपाद्य होते हैं। चूँकि संशय आदि चौदह पदार्थों का विवेचन न्याय शास्त्र में किया गया है, अत: शास्त्रान्तर से इसका पार्थक्य अवश्य सिद्ध होता है। न्यायवार्त्तिक में आचार्य उद्योतकर ने भी इसकी पुष्टि में कहा है कि न्याय दर्शन में यदि संशय आदि चौदह पदार्थों का विवेचन नहीं होता तो यह चतुर्थी विद्या नहीं कहलाती, बल्कि त्रयी के अन्तर्गत अध्यात्मविद्या के रूप में प्रतिष्ठित होती।[10] निष्कर्ष यह हुआ कि संशय आदि पदार्थों के विवेचन के कारण शास्त्रों में चतुर्थी विद्या के रूप में निर्दिष्ट यह आन्वीक्षिकी 'गौतमीय न्यायदर्शन' ही है कोई अन्य विद्या नहीं।

प्राचीनता

इस न्यायशास्त्र की उत्पत्ति कब हुई- यह कहना तो कठिन है, किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वह भूमि भारतवर्ष ही है, जहाँ इसका उद्भव हुआ। कश्मीर के राजा शाङ्करवर्मा के धर्म सचिव नैय्यायिक 'जयन्तभट्ट' ने 'न्यायमञ्जरी' में कहा है कि सृष्टि के आदि से ही वेद की तरह न्याय दर्शन आदि की प्रवृत्ति देखी जाती है। किसी ने इसे संक्षिप्त करके कहा तो किसी ने उसी को विस्तारपूर्वक समझाया। अतएव उन लोगों को इस शास्त्र का कर्ता मान लिया गया[11] वस्तु:स्थिति के विचार करने पर यह बात संगत प्रतीत होती है। ऋग्वेद के सूक्तों में युक्तिवाद का आभास मिलता है।[12] ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका प्रयोग देखा जाता है।[13] उपनिषदों में तत्त्वज्ञान के विचार के समय इस युक्तिवाद का विस्तार से व्यवहार किया गया है।[14] रामायण, महाभारत, भागवत तथा मनुस्मृति आदि धर्म-ग्रन्थों में इसका शास्त्र के रूप में उपयोग हुआ है।

  • रामायण के उत्तरकाण्ड में श्रीराम की यज्ञ सभा में हेतुवाद में कुशल हेतुक अर्थात नैयायिक विद्वान को ससम्मान निमन्त्रित करने की बात कही गयी है।[15]
  • महाभारत में निर्दिष्ट है कि नीति, धर्म और सदाचार की प्रतिष्ठा के लिए देवगण की प्रार्थना पर विधाता ने शतसहस्र अध्यायों को प्रकाशित किया। जहाँ धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष आदि अनेक विषय तथा त्रयी, आन्वीक्षिकी, वार्ता और दण्डनीति आदि विविध विद्याएँ प्रकाशित हुईं।[16]
  • भागवत में प्रतिपादित है कि विश्वस्सृष्टा के हृदयाकाश से व्याहृति और प्रणव के साथ आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति रूप चार विद्याएँ, उत्पन्न हुईं।[17] यहीं यह भी कहा गया है कि बलराम और श्रीकृष्ण धनुर्वेद तथा राजनीति के साथ आन्वीक्षिकी विद्या का भी अध्ययन करते थे।[18]
  • भगवान मनु ने राज्य संचालन के लिए शास्त्रान्तरों के साथ इस विद्या के अध्ययन पर भी बल दिया है।[19]
  • याज्ञवल्क्य ने कहा है कि राजा को अपनी सभी प्रकार की दुर्बलताओं से बचने के लिए आन्वीक्षिकी, दण्डनीति, वार्ता और त्रयी की शिक्षा लेनी चाहिए।[20]
  • इसी तरह की बात गौतम के धर्मसूत्र में भी कही गयी है।[21]
  • विष्णु पुराण में तथा याज्ञवल्क्य स्मृति में विद्याओं की गिनती के समय न्यायविस्तर तथा न्यायशब्द से इस आन्वीक्षिकी का उल्लेख हुआ है।[22]

व्यापकता

फलत: इस विद्या की व्यापकता और महत्ता प्राचीन काल से ही निर्विवाद रूप से सिद्ध है। एक समय में यह शास्त्र अपने उत्कर्ष से अफ़ग़ानिस्तान तक पहुँच गया और वहाँ अपना प्रचार-प्रसार कर समृद्ध हुआ। खुर्दा अवेस्ता में युक्तिवादी गौतम का उल्लेख ही इसमें प्रमाण है।[23] पूरब दिशा की ओर भी इसने बर्मा तक अपना स्थान बना लिया था। बर्मी लिपि में आज भी 'नव्यन्याय' के ग्रन्थ उपलब्ध हैं।[24] उत्तर में जहाँ तक बौद्ध दर्शन का प्रचार-प्रसार हुआ वहाँ न्याय दर्शन के प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव को मानना ही होगा। बौद्ध दर्शन का प्रबल प्रतिपक्षी नैय्यायिक ही रहा है। अत: चीन देश तिब्बत आदि में इसका कभी अवश्य प्रचार रहा होगा। यही कारण है कि हमारे पूर्वजों ने निरन्तर इसकी प्रशंसा की तथा इसकी शिक्षा पर अधिक बल दिया। महाभारत स्पष्टत: कहता है कि न्याय शास्त्र को छोड़कर केवल वेद का अवलम्बन करके कोई मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता है। अर्थात न्याय शास्त्र सम्मत मनन सर्वथा आवश्यक है। वेदवादं व्यपाश्रित्य मोक्षोऽस्तीति प्रभाषितुम्। अपेतन्यायशास्त्रेण सर्वलोकविगर्हणा॥[25]

न्याय दर्शन पर आक्षेप

यद्यपि प्राचीन काल से ही तर्कविद्या या हेतुशास्त्र की निन्दा भी शास्त्रों में देखी जाती है। अतएव इसकी उपादेयता में सन्देह होना या इस शास्त्र के प्रति अनादर भाव का होना स्वाभाविक है।

  • रामायण में कहा गया है कि क्या आप लोकायतिकों की सेवा करते हैं? ये तो अनर्थ करने में ही कुशल हैं। पाण्डित्य का दम्भ ही इनमें रहता है। धर्मशास्त्र के रहते हुए ये तर्क करके उन धर्मशास्त्रीय विषयों की उपेक्षा करते हैं और अभिमान में चूर रहते हैं।[26]
  • महाभारत कहता है कि वेद निन्दक ब्राह्मण निरर्थक तर्कविद्या में अनुरक्त है।[27]
  • मनुस्मृति में कहा गया है कि हेतुशास्त्र का अवलम्बन कर जो ब्राह्मण वेद और स्मृति की अवहेलना करे उसका परित्याग करना चाहिए।[28] तथापि यह मानना होगा कि नास्तिक न्यायविद्या के प्रसंग में ये सारी बातें कही गयी हैं। गौतमीय न्यायशास्त्र इस निन्दा का लक्ष्य नहीं है।

प्राचीन काल में आन्वीक्षिकी विद्या की दो परम्परायें रही होंगी। एक वेदानुगामिनी, जो परलोक और ईश्वर में विश्वास रखती रही और दूसरी केवल तर्क करने वाली परम्परा रही होगी। दूसरी परम्परा ने इसकी प्रक्रिया तो अपनायी किन्तु वह इसके हार्दिक अभिप्राय को नहीं पकड़ पायी या उसे छोड़ दिया। अत: युक्तिविद्या की इस दूसरी परम्परा की निन्दा और इसकी पहली परम्परा की अर्थात गौमतीय न्यायविद्या की प्रशंसा सर्वत्र शास्त्रों में की गयी है। ‘तर्काप्रतिष्ठानात्’ (2/1/11/) इस वेदान्तसूत्र का संकेत भी इसी ओर है। गौतमीयन्यायविद्या भगवान व्यास के लिए निन्द्य नहीं है। अतएव शंकर भगवत्पाद ने वेदान्तसूत्र के भाष्य में प्रमाण के रूप में न्याय दर्शन के द्वितीय सूत्र का उपयोग किया है।[29] यह संभव भी नहीं है कि एक ही ग्रन्थ में एक ही लेखक एक ही शास्त्र की प्रशंसा और निन्दा एक साथ करे।

आदि प्रवर्तक अक्षपाद गौतम

उपलब्ध न्याय दर्शन के आदि प्रवर्तक महर्षि गोतम या गौतम हैं। यही अक्षपाद नाम से भी प्रसिद्ध हैं। उन्होंने उपलब्ध न्यायसूत्रों का प्रणयन किया तथा इस आन्वीक्षिकी को क्रमबद्ध कर शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठापित किया। न्यायवार्त्तिककार उद्योतकराचार्य ने इनको इस शास्त्र का कर्ता नहीं वक्ता कहा है। यदक्षपाद: प्रवरो मुनीनां शमाय शास्त्रं जगतो जगाद।[30] अत: वेदविद्या की तरह इस आन्वीक्षिकी को भी विश्वसृष्टा का ही अनुग्रहदान मानना चाहिए। महर्षि अक्षपाद से पहले भी यह विद्या अवश्य रही होगी। इन्होंने तो सूत्रों में बाँधकर इसे सुव्यवस्थित, क्रमबद्ध एवं पूर्णांग करने का सफल प्रयास किया है। इससे शास्त्र का एक परिनिष्ठित स्वरूप प्रकाश में आया और चिन्तन की धारा अपनी गति एवं पद्धति से आगे की ओर उन्मुख होकर बढ़ने लगी। वात्स्यायन ने भी न्यायभाष्य के उपसंहार में कहा है कि ऋषि अक्षपाद को यह विद्या प्रतिभात हुई थी- योऽक्षपादमृर्षि न्याय: प्रत्यभाद् वदतां वरम्।

न्याय-सूत्रों के परिसीलन से भी ज्ञात होता है कि इस शास्त्र की पृष्ठभूमि में अवश्य ही चिरकाल की गवेषणा तथा अनेक विशिष्ट नैयायिकों का योगदान रहा होगा। अन्यथा न्यायसूत्र इतने परिष्कृत एवं परिपूर्ण नहीं रहते। चतुर्थ अध्याय में सूत्रकार ने प्रावादुकों के मतों का उठा कर संयुक्तिक खण्डन किया है तथा अपने सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा की है। इससे प्रतीत होता है कि उनके समक्ष अनेक दार्शनिकों के विचार अवश्य उपलब्ध थे। महाभारत में भी इसकी पुष्टि देखी जाती है। वहाँ कहा गया है कि न्याय दर्शन अनेक हैं उनमें से हेतु, आगम और सदाचार के अनुकूल न्यायशास्त्र पारिग्राह्य है-

न्यायतन्त्राण्यनेकानि तैस्तैरुक्तानि वादिभि:।
हेत्वागमसदाचरैर्यद् युक्तं तत्प्रगृह्यताम्॥[31]

न्यायसूत्र का काल

न्यायसूत्र के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। म.म. हरप्रसाद शास्त्री इसका काल खृष्टीय द्वितीय शतक मानते हैं। सूत्रों में शून्यवाद का खण्डन पाकर डा. याकोबी महाशय न्यायसूत्रों का रचनाकाल खृष्टीय तृतीय शताब्दी मानते हैं। महामहोपाध्याय सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने अपने 'भारतीय न्यायशास्त्र' के इतिहास में कहा है कि लक्षणसूत्रों का निर्माण मिथिला के निवासी महर्षि गौतम ने खृष्टपूर्व षष्ठ शतक में किया है और परीक्षासूत्रों की रचना खृष्टीय द्वितीय शतक में प्रभासतीर्थ के निवासी महर्षि अक्षपाद ने की है। फलत: उपलब्ध न्यायसूत्र दो भिन्न समयों में भिन्न ऋषियों के द्वारा रचे गये हैं। इनकी दो प्रमुख युक्तियाँ यहाँ देखी जाती हैं- बौद्ध दर्शन के शून्यवाद का खण्डन तथा कौटिल्य के द्वारा आन्वीक्षिकी विद्या में न्याय का अपरिग्रह एवं सांख्य, योग और लोकायत का परिग्रह।

न्याय के प्रतिपाद्य

अब, यहाँ न्यायदर्शन के प्रतिपाद्य उपर्युक्त सोलह पदार्थों का यथाक्रम संक्षेप में परिचय प्रस्तुत है-

प्रमाण

प्रपूर्वक मा धातु से करण अर्थ में ल्युट् प्रत्यय करके ल्युट् के अन आदेश होने पर प्रमाण पद निष्पन्न होता है। जिससे विषय का यथार्थ अनुभव हो उसे उस विषय में प्रमाण कहा जाता है, जो इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है। प्रमा अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञान का करण प्रमाण है। ज्ञान की उत्कृष्टता उसके यथार्थ होने से होती है। यद्यपि यथार्थ ज्ञान अनुभव और स्मरण के भेद से दो प्रकार के होते हैं तथापि स्मरण का असाधारण कारण रूप करण अनुभव ही होता है अत: अनुभव ही प्रमुख रूप से 'प्रमा' कहलाता है। स्मरण तो अनुभूत विषय का ही होता है, अत: स्मरण स्थल में अनुभव ही प्रमाण होता है। फलत: अनुभव रूप प्रधान प्रमा का असाधारण कारण प्रमाण होता है। अनुभव के चार प्रकार कहे गये हैं-

  1. प्रत्यक्ष,
  2. अनुमिति,
  3. उपमिति
  4. शब्दबोध।

अतएव प्रमाण भी चार प्रकार के माने गये हैं-

  1. प्रत्यक्ष,
  2. अनुमान,
  3. उपमान
  4. शब्द।[32]

प्रत्यक्ष

प्रत्यक्ष के बिना किसी अन्य प्रमाण की सत्ता सम्भव नहीं है। अतएव यहाँ सबसे पहले प्रत्यक्ष का उल्लेख हुआ है। इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से जन्य तथा अव्यभिचारी अर्थात यथार्थ ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है।[33] यहाँ इन्द्रिय से घ्राण आदि पञ्चेन्द्रिय और मनस विवक्षित है तथा अर्थ से इन सभी इन्द्रियों के ग्राह्य भिन्न-भिन्न विषय। इस प्रत्यक्ष ज्ञान का करण ही प्रत्यक्ष प्रमाण होता है जो प्राचीन के मत में इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष रूप है और नीवन के मत में इन्द्रिय रूप है। प्राचीन नैय्यायिक की दृष्टि में असाधारण कारण का परिष्कार क्रिया की सिद्धि में जो प्रकृष्ट उपकारक हो उसे करण कहकर किया गया है, जो यहाँ इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष होता है।

नवीन नैय्यायिक ने व्यापारवान कारण को करण कहकर असाधारण कारण का परिष्कार किया है। अत: इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण होता है क्योंकि इन्द्रिय ही यहाँ व्यापारवान है। इस मत में चक्षुषा पश्यति, घ्राणेन जिघ्रति आदि प्रयोग भी उपोद्बलक होते हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्यक्षात्मक ज्ञान भी प्रमाण होता है क्योंकि हानबुद्धि, उपादानबुद्धि और उपेक्षाबुद्धि को यदि उसका फल माना जाए तो वह इन बुद्धियों का ‘करण’ अवश्य होगा। भाष्यकार ने इस तरह से प्रत्यक्षान तथा उसके करण (इन्द्रियार्थसन्निकर्ष या इन्द्रिय) दोनों को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा है।

यद्यपि प्रत्यक्ष प्रमा के कारण आत्ममन: संयोग, इन्द्रियमन:संयोग तथा इन्द्रिय और विषय का सन्निकर्ष आदि अनेक माने गये हैं, तथापि उनमें इन्द्रिय और अर्थ का सन्निकर्ष ही प्रधान है- यह समझाने के लिए प्रत्यक्ष सूत्र में उसका शब्दश: उल्लेख हुआ है। सन्निकर्ष दो प्रकार का होता है- लौकिक और अलौकिक।

  • लौकिक सन्निकर्ष के छह प्रकार होते हैं।
  1. संयोग
  2. संयुक्त समवाय
  3. संयुक्त समवेत समवाय
  4. समवाय
  5. समवेत समवाय
  6. विशेषण-विशेष्य-भाव।

घट आदि द्रव्य का प्रत्यक्ष संयोग सन्निकर्ष से होता है और घटगत रूप के प्रत्यक्ष में द्वितीय सन्निकर्ष, घट के रूपगत रूपत्व प्रत्यक्ष में तृतीय सन्निकर्ष अपेक्षित है। शब्द के प्रत्यक्ष में चतुर्थ सन्निकर्ष एवं शब्दत्व के प्रत्यक्ष में पंचम सन्निकर्ष की अपेक्षा होती है। समवाय संबन्ध तथा अभाव के प्रत्यक्ष में छठवाँ सन्निकर्ष लगता है। इस लौकिक प्रत्यक्ष के दो प्रकार कहे गये हैं- सविकल्प और निर्विकल्प। विकल्प से विशेषण-विशेष्य-भाव अभिप्रेत हे। फलत: विशेषण-विशेष्य-भाव से रहित निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है और उससे युक्त सविकल्पक। वाचस्पतिमिश्र ने कहा है कि प्रत्यक्ष सूत्र में अव्यपदेश्य तथा व्यवसायात्मक पदों से सूत्रकार का यही अभिप्राय विवक्षित है।

  • अलौकिक सन्निकर्ष के तीन प्रकार होते हैं-
  1. सामान्य लक्षण,
  2. ज्ञान लक्षण
  3. योगज।

सामान्य लक्षणा - सामान्य ही लक्षण अर्थात स्वरूप है जिस सन्निकर्ष का उसे सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति कहते हैं। सामान्य से इन्द्रिय संबद्ध विशेष्यक ज्ञान के प्रकारीभूत पदार्थ विवक्षित है, जो धर्म स्वरूप होता है। वह कदाचित जाति रूप और कदाचित प्रकार रूप देखा गया है। धूमस्वरूप सन्निकर्ष से सकल धूम का अलौकिक प्रत्यक्ष रूप ज्ञान इसका उदाहरण होता है। यहाँ चक्षुष इन्द्रिय से संबद्ध धूम विशेष्यक ज्ञान उत्पन्न होता है, इसमें प्रकार होता है, धूमत्व, जो सन्निकर्ष होकर देशान्तरीय और कालान्तरीय सभी धूम का ज्ञान कराता है। यहाँ इन्द्रिय का संबन्ध लौकिक अभीष्ट हे। अत: सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति (सन्निकर्ष) से बहिरिन्द्रिय के द्वारा ज्ञानोत्पत्ति के समय में, इस सन्निकर्ष में इन्द्रिय जन्यता अपेक्षित है। फलत: इन्द्रिय के साथ विषय के लौकिक सन्निकर्ष से जो विशिष्ट विषय का ज्ञान होता है, उसमें प्रकारीभूत सामान्य ही सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति है। मानस प्रत्यक्ष स्थल में यही सन्निकर्ष ज्ञान प्रकारीभूत सामान्य रूप होता है।

सामान्य लक्षणा पद में कदाचित लक्षण पद का विषय भी अर्थ लिया गया है। इन्द्रिय संबद्ध विशेष्यक घटज्ञान अभी हुआ और दूसरे दिन उक्त संबन्ध के बिना भी उक्त ज्ञान के प्रकारीभूत पदार्थ रूप सामान्य के विद्यमान रहने से इस प्रत्यासत्त से अलौकिक प्रत्यक्ष होने लगेगा, जो अनुभव विरुद्ध है। अत: लक्षण का अर्थ यहाँ विषय होता है। और सामान्य विषयक ज्ञान रूप प्रत्यासत्ति उसका अर्थ होता है 'न तु ज्ञायमान सामान्य रूप प्रत्यासत्ति।' अब यह आपत्ति नहीं होगी। पद दिन में उक्त ज्ञान की अविद्यमानता से उक्त दोष संभव नहीं है।

इसके मानने में युक्ति यह है कि उक्त सन्निकर्षजन्य प्रत्यक्ष के नहीं मानने पर वह्नि के साथ धूम का महानस में प्रत्यक्ष होने पर भी सकलदेशीय धूम के साथ चक्षुष् इन्द्रिय के संयोग के अभाव में क्या सर्वत्र ही धूम वह्नि का व्याप्य है तथा धूम युक्त सभी स्थलों में वह्नि रहता है या नहीं- इस तरह का जो संशय होता है, वह नहीं हो पाएगा। अप्रत्यक्ष धर्मों में किसी धर्म का संशय नहीं होता है और उक्त स्थल में सभी धर्म का प्रत्यक्ष अन्यथा संभव नहीं है।

सामान्य धर्म के प्रत्यक्ष रूप अलौकिक सन्निकर्षजन्य सकल धूम के प्रत्यक्ष मानने पर धूमत्वेन, सकल धूम में वह्नित्वेन सकल वह्नि की व्याप्ति का निश्चय करके धूम हेतु से वह्न का सार्वत्रिक एवं सार्वकालिक अनुमिति होती है जो इस सन्निकर्ष के बिना संभव नहीं है।

ज्ञानलक्षणा- दूसरा अलौकिक सन्निकर्ष है। ज्ञान ही लक्षण अर्थात स्वरूप है जिसका वह ज्ञानलक्षणा प्रत्यासत्ति (सन्निकर्ष) कहलाता है। जिस इन्द्रिय से जिस विषय का ज्ञानलक्षणा सन्निकर्षजन्य प्रत्यक्ष इष्ट होता है, उस इन्द्रिय से संयुक्त मनस के साथ संयुक्त आत्मा में समवेत उस विषयक ज्ञान ही उस विषय के प्रत्यक्ष में अलौकिक सन्निकर्ष होता है। चन्दनखण्ड में सौरभ का चाक्षुष प्रत्यक्ष ज्ञानलक्षणा से होता है। यहाँ चक्षुष संयुक्त मनस से संयुक्त आत्मा में सौरभ का स्मरण रूप ज्ञान समवेत है, वह ज्ञान विषय तो सम्बन्ध से सौरभ में विद्यमान है। अत: वह ज्ञान ही (चक्षुष से युक्त मनस और मनस से युक्त आत्मा में समवेत सौरभ ज्ञान ही) सौरभ के साथ चक्षुष का सन्निकर्ष है, जिससे दूरस्थित चन्दनखण्ड के लोक प्रत्यक्ष के समय उसके सौरभ का अलौकिक चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है। इसे उपनय भी कहते हैं। अतएव इस सन्निकर्ष से अन्य प्रत्यक्ष को उपनीत भान कहा जाता है। न्यायमत में इस सन्निकर्ष से भ्रमात्मक प्रत्यक्ष होता है। रस्सी में सर्प के भ्रमस्थल में, रस्सी में सर्प तो रहता नहीं है, अतएव सर्पात्मक विषय के साथ इन्द्रिय का कोई भी लौकिक सन्निकर्ष संभव नहीं है। असत या अलीक पदार्थ भ्रम का भी विषय नहीं होता है। अत: सिद्ध है कि जिस विषय का यथार्थज्ञान संभव है उसी विषय का भ्रम भी हो सकता है। फलत: किसी सत्पदार्थ में ही किसी सत्पदार्थ का भ्रम होता है। उपर्युक्त इस भ्रमस्थल में ज्ञानलक्षण सन्निकर्ष ही सर्प के भ्रमात्मक प्रत्यक्ष का चरम कारण होता है। ज्ञान ही जिस सन्निकर्ष का स्वरूप हो उसे ज्ञानलक्षण कहते हैं। बाह्य पदार्थविषयक सविकल्पक ज्ञान का मानस प्रत्यक्ष रूप अनुव्यवसाय[34] भी ज्ञानलक्षणसन्निकर्ष से ही होता है। इस अनुव्यवसाय में मन: संयुक्त आत्मा में उक्त घटविषयक सविकल्पक ज्ञान समवाय सम्बन्ध से विशेषण रूप में विषय होता है। क्योंकि घटत्व विशिष्ट घटविषयक ज्ञान से युक्त मैं हूँ- यही तो उस मानस प्रत्यक्ष का स्वरूप होता है। यहाँ घट का ज्ञान बाह्य पदार्थ में स्वतंत्र रूप से मनस की प्रवृत्ति नहीं है। अत: मानना होगा कि मैं घटत्व विशिष्ट घटविषयक ज्ञानवान हूँ- इस मानस प्रत्यक्ष में ज्ञानांश लौकिक प्रत्यक्ष है और घटांश अलौकिक प्रत्यक्ष। इसका सन्निकर्ष है ज्ञानलक्षणा। यद्यपि सामान्य लक्षणा और ज्ञानलक्षणा दोनों ही प्रत्यासत्ति (सन्निकर्ष) ज्ञानस्वरूप ही है तथापि दोनों में परस्पर पार्थक्य हे। इस सामान्य लक्षणा अपने आश्रय का ज्ञान कराती है। कारिकावली में विषयी 'यस्य तस्यैव व्यापारो ज्ञानलक्षण:' इस कारिका से बात स्पष्ट होती है।

योगज - अलौकिक सन्निकर्ष का तीसरा प्रभेद है- योगज। महायोगी का समाधि विशेष रूप योग से जन्य सन्निकर्ष ही योगज सन्निकर्ष है। इस सन्नकिर्ष से योगी भूत, भविष्यत व्यवहित एवं दूरस्थ आदि विषयों का अलौकिक प्रत्यक्ष कर लेते हैं।

अनुमान

प्रत्यक्षजनित यथार्थ ज्ञान ही अनुमान प्रमाण होता है। जिस किसी प्रकार के प्रत्यक्ष ज्ञान से जनित यथार्थ ज्ञान अनुमान नहीं होता है, अपितु प्रत्यक्ष ज्ञान विशेष उसका कारण होता है। अनुमान में हेतु का प्रत्यक्ष, हेतु के साथ साध्य के संबन्ध का प्रत्यक्ष और उस सम्बन्ध विशिष्ट हेतु का प्रत्यक्ष तथा उक्त अवसर पर उक्त सम्बन्ध विशिष्ट हेतु का स्मरण आवश्यक है। जिस पदार्थ के सभी आधारों में जो अन्य पदार्थ निश्चित रूप से रहता है, उस पदार्थ का वह अन्य पदार्थ व्याप्त होता है और अपर पदार्थ व्यापक। जहाँ व्याप्त पदार्थ रहता है उस स्थल में व्यापक पदार्थ अवश्य रहता है। अत: व्याप्य पदार्थ के द्वारा व्यापक पदार्थ की अनुमति होती हैं व्याप्य पदार्थ हेतु और व्यापक पदार्थ साध्य कहलाता है। जहाँ साध्य की सिद्धि की जाती है वह 'पक्ष' कहलाता है। यथा ‘पर्वतो वह्निमान् धूमात्’ इस अनुमान में पर्वत पक्ष, वह्नि साध्य और धूम हेतु होता है। चूँकि वह्नि के बिना धूम की उत्पत्ति स।भव नहीं है, अत: जहाँ धूम रहेगा उस स्थल में आग अवश्य रहेगी धूम है व्याप्य और वह्नि है व्यापक। दोनों का पारस्परिक अविनाभाव संबन्ध ही व्याप्ति कहलाती है। उस व्याप्ति के प्रत्यक्षात्मक ज्ञान के बिना अनुमति नहीं हो सकती है। पहले महानस (रसोईघर) में धूम और वह्नि का सहचार दर्शन होता है। पुन: वह्नि से रहित स्थल में धूम को नहीं देखकर धूम में वह्नि की व्याप्ति रूप संबन्ध विशिष्ट हेतु का स्मरण होता है। पुन: वह्नि के व्याप्य धूम से युक्त है यह पर्वत, इस तरह से धूम का प्रत्यक्ष पर्वत में होता है। यही तृतीय लिंगपरामर्श या परामर्श शब्द से अभिहित होता है।

धूम का प्रथम दर्शन महानस में होता है, उसका द्वितीय दर्शन है पर्वत में जो पहली बार वह देखा गया और तृतीय दर्शन है उक्त व्याप्ति से युक्त धूम का जो पुन: दर्शन होता है। यही तृतीय हेतु दर्शन परामर्श है। निष्कर्ष यह हुआ कि साध्य धर्म की व्याप्ति से युक्त हेतु अनुमान के आश्रय पक्ष में विद्यमान है- इस प्रकार का निश्चमात्मक ज्ञान ही लिंगपरामर्श है, जो अनुमिति का चरम कारण है। प्राचीन नैय्यायिक इसे ही अनुमान प्रमाण कहते हैं।

नव्य नैय्यायिक व्याप्तिज्ञान को अनुमान कहते हैं। इनके मत में वही अनुमिति का करण होता है। प्राचीन मत में चरम व्यापार को करण कहा गया है और नवीन मत में व्यापारवान कारण को। अत: दृष्टिभेद के कारण मतभेद यहाँ स्वाभाविक है। यहाँ भी प्रत्यक्षज्ञान की तरह हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धि को फल मानकर अनुमिति को अनुमान प्रमाण कहा जा सकता हैं। सूत्रकार ने इसके तीन प्रकार बताये हैं- पूर्ववत्, शेषवत्, तथा सामान्यतोदृष्ट।[35] कारण यदि हेतु रूप में विद्यमान हो और कार्य साध्य हो तो उसे पूर्ववत अनुमान कहते हैं। यथा बादल की घटा देखकर वृष्टि होने का अनुमान होता है। कार्य यदि हेतु रूप में विद्यमान हो और कारण साध्य हो तो वह शेषवत अनुमान होता है। यथा नदी की पूर्णता एवं शीघ्रगति देखकर अतीत वृष्टि का अनुमान होता है। किसी पदार्थ के साथ किसी पदार्थ की व्याप्ति के प्रत्यक्ष होने पर उसके सदृश किसी अन्य पदार्थ के साथ अन्य पदार्थ की व्याप्ति का निश्चय करके उस व्याप्तिविशिष्ट हेतु से अप्रत्यक्ष पदार्थ की अनुमिति सामान्यतो-दृष्ट कहा गया है। इच्छा आदि गुणों से आत्मा का अनुमान इसका उदाहरण होता है।

जहाँ इच्छा आदि गुण रहते हैं, वह आत्मा है- ऐसी व्याप्ति संभव नहीं है। किन्तु जो गुण है वह किसी द्रव्य में अवश्य आश्रित है। यथा रूपादि गुण पृथ्वी आदि में आश्रित है। इस तरह सामान्य रूप से दृष्ट व्याप्ति के निश्चय से इच्छा आदि गुणों का आश्रय देह आदि से भिन्न आत्मा की अनुमिति होती है। इच्छा आदि गुण हैं- वे किसी द्रव्य में अवश्य आश्रित हैं। इस प्रकार गुणत्व हेतु से इच्छा आदि गुण के द्रव्याश्रि तत्त्व सिद्ध होने पर, उक्त गुण देह तथा इन्द्रियादि का आश्रित नहीं है तथा किसी द्रव्य का अवश्य आश्रित है- इतना सिद्ध करने के पश्चात् वह द्रव्य आत्मा ही है, जहाँ इच्छादि गुण आश्रित है। यह परिशेषत: सिद्ध होता है।

अनुमान को अन्य प्रकार से भी विभक्त किया गया है, यथा स्वार्थानुमान और परार्थानुमान। जो अनुमान अपने लिए किया जाये उसे स्वार्थानुमान कहते हैं। इसमें पंचावयव वाक्य का मानस स्मरण भी हो सकता है, उपपादन आवश्यक नहीं है। जो दूसरों को समझाने के लिए अनुमान होता है वह परार्थानुमान है। इसमें पंचावयव वाक्य का विधिवत उपपादन अपेक्षित है। नव्य नैयायिकों ने अन्य प्रकार से इसके तीन प्रकार बताये हैं- केवलान्वयी, केवल-व्यतिरेकी तथा अन्वयव्यतिरेकी। यद्यपि, अन्वयी, व्यतिरेकी तथा अन्वयव्यतिरेकी का उल्लेख वार्त्तिक में मिलता है तथापि इन प्रभेदों के साथ नव्य नैयायिकों का नाम प्रचारित इसलिए है कि इन्होंने इन प्रकारों का व्यवहार अधिक किया है।

केवलान्वयी- जो सभी वस्तुओं में विद्यमान हो, जिसका अभाव कहीं उपलब्ध नहीं होता हो, वह केवलान्वयी है। केवल अन्वय ही जहाँ घटता है। यथा ‘सर्वं ज्ञेयं वाच्यत्वात्,’ यहाँ ‘तदभावे तदभाव:’ रूप व्यतिरेक नहीं घटता है। इसके लक्षण में ‘वृत्तिमदत्यन्ताभावाप्रतियोगित्वम्’ कहा गया है। वृत्तिमान् से तात्पर्य है वृत्ति नियामक संबन्ध से जो वर्तमान हो। वृत्तिमान् अत्यन्ताभाव का जो प्रतियोगी नहीं है वह केवलान्वयी कहलाता है। आत्मा तथा आकाश आदि नित्य द्रव्य अवृत्ति पदार्थ है। क्योंकि वृत्ति नियामक संयोग आदि संबन्ध से ये कहीं रहते नहीं हैं।

केवलव्यतिरेकी – जिस हेतु में केवल व्यतिरेक सहचारज्ञान से व्याप्तिज्ञान का निश्चय होता है, उससे उत्पन्न अनुमिति केवलव्यतिरेकी कहलाता है। यथा पृथिवी सबसे भिन्न पदार्थ है, क्योंकि इसमें गन्ध होता है, जिसमें गन्ध नहीं है वह पृथिवी भी नहीं है।

अन्वयव्यतिरेकी- जिस हेतु में अन्वय सहचारज्ञान और व्यतिरेक सहचारज्ञान से अन्वयव्याप्ति का ज्ञान होता है, उसे अन्वयव्यतिरेकी अनुमान कहते हैं। जैसे पर्वत में आग है धूम रहने से। यहाँ ‘जहाँ-जहाँ धूम रहता है उस स्थल में वह्नि अवश्य रहती है’- इस तरह का अन्वय-सहचार का ज्ञान और ‘जहाँ-जहाँ आग नहीं रहती है उस स्थल में धूम भी नहीं रहता है’- इस तरह का व्यतिरेक सहचारज्ञान अन्वयव्याप्ति का जनक होता हैं।

उपमान

पहले से यथार्थ रूप में ज्ञात (प्रसिद्ध) पदार्थ के सादृश्य के प्रत्यक्ष से पूर्वत: अज्ञात (साध्य) पदार्थ के ज्ञान में जो करण हो उसे ‘उपमान प्रमाण’ कहते हैं[36] उपमान प्रमाण से होनेवाली अनुभूति का नाम ‘उपमिति’ है गवय पशु में गलकम्बल रूप गौ का लक्षण नहीं है किन्तु अन्य प्रकार से बहुत सादृश्य दोनों में (गौ तथा गवय) घटता है। नागरिक गवय को कभी देखा नहीं है किन्तु किसी आरण्यक ने उससे कहा कि गवय गौ के सदृश होता है। पश्चात् किसी समय नागरिक ने पहली बार गवय को देखा, उसमें गाय के सादृश्य का प्रत्यक्ष करके पूर्वश्रुत अरण्यवासी के वाक्य का स्मरण किया और उसे गवय समझ लिया अर्थात् गवयत्व विशिष्ट पशु में गवय शब्द की वाच्यत्वरूप शक्त् का निश्चय किया। न्यायमत में प्रमाणान्तर से इस तरह गवय शब्द के वाच्यत्व का निर्णय नहीं हो सकता है। अतएव उपमान नामक पृथक् प्रमाण मानना आवश्यक है।

आचार्य उदयन ने गवय में गाय के सादृश्य के प्रत्यक्ष को ही उपमिति का करण कहकर वाक्यार्थ के स्मरण को उसका व्यापार कहा है। प्राचीनों के मत से व्यापार रूप चरम कारण ही मुख्य करण है, वही मुख्य उपमान प्रमाण है। इससे होनेवाली उपमिति रूप प्रमा भी कदाचित उपमान प्रमाण है जिसका फल होता है- हीनबुद्धि, उपादानबुद्धि और उपेक्षाबुद्धि।

वैधर्म्योपमिति- जैसे प्रसिद्ध पदार्थ के सादृश्य के प्रत्यक्ष से उपमिति होती है, उसी तरह वैधर्म्य के प्रत्यक्ष से भी उपमिति होती है जिसे वैधर्म्योपमिति कहते हैं। जैसे किसी व्यक्ति को यह ज्ञात नहीं है कि करभ पद ऊँट का वाचक है, उस व्यक्ति ने किसी जानकार व्यक्ति से करभ पद को सुना और समझा कि वह बहुत कुरूप होता है, कठोर काँटा खाता है तथा उसका गला बड़ा लम्बा होता है। पश्चात उसने कभी यदि ऊँट को देखकर उसमें गाय आदि पशुओं के वैधर्म्य को देखकर पूर्वश्रुत वाक्य के स्मरण द्वारा ऊँट में करभ शब्द के वाच्यत्व का निश्चय कर लेता है। इस तरह का शक्तिनिर्णय वैधर्म्योपमिति है।

मीमांसक तथा वेदान्त सम्प्रदाय उपमान प्रमाण को मानता है, किन्तु उनकी प्रक्रिया कुछ भिन्न है। इनके मत में गवयत्व विशिष्ट गवय पशु में गवय शब्द के वाच्यत्व के बोधक उपमान का फल उपमिति को नहीं माना जा सकता है। अपितु गवय पशु में गाय के सादृश्य के प्रत्यक्ष होने पर वह पूर्वदृष्टि गाय इस गवय के सदृश है- इस तरह से उस गो पदार्थ में प्रत्यक्ष दृष्ट गवय के सादृश्य का ज्ञान होता है। यही उपमान का फल उपमिति है। यहाँ पूर्वदृष्ट गाय के प्रत्यक्ष नहीं रहने पर उसमें गवय के सादृश्य का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है। न्याय सम्प्रदाय में तो पूर्वदृष्ट गाय में गवय का सादृश्यबोध स्मरणात्मक ज्ञान है। वह गाय इस गवय के सदृश है- इस तरह से पूर्वदृष्ट गाय का स्मरण होता है, वह उपमान प्रमाण का फल नहीं हो सकता है।

शब्द प्रमाण

आप्त व्यक्ति का वाक्य शब्द प्रमाण है।[37] जो व्यक्ति जिस विषय का तत्त्वज्ञ है और उस तत्त्व को प्रकाशित करने के लिए ही यथार्थ वाक्य का व्यवहार करता है, उसी व्यक्त को उस विषय में आप्त कहा गया है। उस विषय में उस व्यक्ति का उपदेश अर्थात् उस विषय का बोधक वाक्य ‘शब्द प्रमाण’ होता है। नव्य नैय्यायिकों ने तो वाक्य के पद समूहों स्मरणात्मक ज्ञान को ही वाक्यार्थबोध के ‘करण’ होने के नाते शब्द प्रमाण कहा है। ‘पदज्ञानं तु करणम्’। अभिप्राय यह है कि शब्दबोध से पहले ‘पदज्ञानं तु करणम्’। प्रथमत: पद का ज्ञान पुन: उसके अर्थ का स्मरण होता है। प्रत्येक पद के ज्ञान होने पर भी बाद में उन सब पदों के बारे में समूहालम्बन स्मरण होता है, पुन: प्रत्येक पदार्थ का स्मरण होता है। इस पदार्थ-स्मरणरूप व्यापार से पूर्वोत्पन्न वह पद स्मरण वाक्यार्थबोध का करण होने के नाते शब्द प्रमाण कहलाता है।

यद्यपि शाब्दबोध के अव्यवहित पूर्वक्षण में उस वाक्य के विद्यमान नहीं रहने से वह शब्द प्रमाण नहीं हो सकता है। इस मत में शब्द चरम कारण पदार्थ-स्मरण ही मुख्य शब्द प्रमाण है। यह दो प्रकार का होता है दृष्टार्थक और अदृष्टार्थक। आप्त वाक्य का प्रतिपाद्य अर्थ इस लोक व्यवहार में प्रत्यक्षादि से परिज्ञात होता है, वह दृष्टार्थक शब्द प्रमाण है। जिस आप्त वाक्य का प्रतिपाद्य लोक-व्यवहार में प्रमाणान्तर से नहीं समझा जा सकता है, वह अदृष्टार्थक शब्द प्रमाण है। लोकवाक्य यदि इसका पहला प्रकार है तो वेदवाक्य इसका दूसरा प्रकार है। वेद आदि शास्त्र में दृष्टार्थक वाक्य भी बहुत से हैं और सत्यार्थक लौकिक वाक्य को सुनकर तदनुसार लोक व्यवहार चलता है। जो व्यक्ति जिस विषय में यथार्थ वक्ता है, उस विषय में उस व्यक्ति का वाक्य ही आप्त वाक्य है,- जिसे प्रमाण कहते हैं। भाष्यकार ने आप्त का लक्षण कहकर आगे कहा है कि यह लक्षण ऋषि, आर्य तथा म्लेच्छों के लिए समान है।

प्रमेय

न्याय दर्शन में प्रमाण के वाद प्रमेय का उल्लेख हुआ हा। प्रथम सूत्र में उल्लिखित तत्त्वज्ञान से प्रमिति अभिप्रेत है, जिसकी उत्पत्ति में इसके विषय अपेक्षित होते जो प्रमेय कहलाते हैं। मुमुक्षुओं के लिए इस प्रमेय पदार्थ का ज्ञान आवश्यक है। प्रकृष्ट - सर्वश्रेष्ठ, मेय-ज्ञेय= प्रमेय बारह प्रकार के यहाँ हे गये हैं- आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मनस्, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दु:ख और अपवर्ग[38]। वस्तुमात्र, जो प्रमाण से सिद्ध किया जाता है, प्रमेय होता है अतएव महर्षि गौतम ने अवसर पर प्रमाण को भी प्रमेय कहा है- ‘प्रमेया च तुला प्रामाण्यवत्‘ (2/1/16)। जैसे सुवर्ण आदि द्रव्य के गुरुत्व विशेष का निर्धारण तराजू (तुला) से होता है, उस समय तराजू (तुला) गुरुत्व निर्धारक होने से प्रमाण माना जाता है। किन्तु उस तराजू (तुला) में ही यदि किसी का सन्देह हो तो दूसरे तराजू पर उसे रखकर उसके प्रामाण्य की परीक्षा की जाती है, तब वह प्रमेय हो जाता है। इसी तरह प्रमेय के साधक प्रत्यक्ष आदि प्रमाण हैं, किन्तु उनमें यदि प्रामाण्य सन्दिग्ध हो जाए तो प्रमाणान्तर से उसकी प्रामाण्यसिद्धि के समय वह प्रमाण भी प्रमेय हो जाता है।

भाष्यकार ने वैशेषिक शास्त्र के पदार्थों को भी यहाँ प्रमेय में समाविष्ट किया है। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय आदि भी प्रमेय कहे गये हैं। इन पदार्थों के भेद-प्रभेद चूँकि असंख्य हैं, अतएव नैय्यायिकों को अनियत प्रमेयवादी कहा गया है। न्यायमत में प्रमेय अनन्त हैं, किन्तु उन प्रमेयों में आत्मा आदि उपर्युक्त बारह प्रमेयों का तत्त्वसाक्षात्कार सकल पदार्थविषयक विथ्याज्ञान की निवृत्ति के द्वारा मुक्ति का साक्षात्कार होता है। अतएव इन्हें प्रमेय अर्थात उत्कृष्ट ज्ञेय कहा गया है।

आत्मा

पहला प्रमेय है आत्मा,, जिसके इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दु:ख, और ज्ञान अनुमापक हेतु हैं।[39] इच्छा आदि गुणों से (हेतुओं से) अनुमान के आधार पर इन गुणों का आश्रय सिद्ध होता है, पश्चात् इच्छा आदि गुणों का अधिकरण देह आदि नहीं हो सकते हैं- इस अनुमान के द्वारा देह आदि से भिन्न उन गुणों के आश्रयरूप में आत्मा की सिद्धि होती है। मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ- इस प्रकार से सुख आदि के मानस-प्रत्यक्ष के समय में प्रत्येक जीव स्व का भी (आत्मा का भी) मानस प्रत्यक्ष कर लेता है। किन्तु मिथ्या अभिमान में लिप्त जीव उस समय में देह आदि से भिन्नरूप में आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं कर पाता हे। इसी तात्पर्य से महर्षि कणाद जीवात्मा को अप्रत्यक्ष कहकर उसके विषय में अनुमान-प्रमाण दिखाते हैं। इच्छा आदि आत्मा के असाधारण (विशेष) गुण हैं। अन्यथा इच्छा आदि गुण आत्मा के लक्षण नहीं हो सकते। न्यायमत में आत्मा की अनेकता, विभुता तथा नित्यता मानी गयी है। धर्माधर्म रूप अदृश्य का आश्रय आत्मा यहाँ ज्ञान आदि गुणों का अधिकरण है। यही कारण है कि कोई सुखी और कोई दु:खी इस संसार में देखा जाता हैं। आत्मा ज्ञान स्वरूप नहीं माना गया है। पश्चात ईश्वर भी नित्यज्ञान, नित्यसुख आदि के आधाररूप में यहाँ स्वीकृत हुए हैं, जो इस संसार का कर्ता, वेद का निर्माता तथा अदृष्ट का अधिष्ठाता कहा जाता है।

शरीर

दूसरा प्रमेय शरीर है। आत्मा के प्रयत्न से जो क्रिया होती है उसका नाम है चेष्टा। इस चेष्टा का आश्रय शरीर होता है। अत: चेष्टाश्रयत्व शरीर का लक्षण होता है।[40] इसी तरह प्राण आदि इन्द्रियसमूह भी शरीर को ही आश्रय बनाकर रहता है, अतएव ये शरीराश्रित हैं। शरीर के साथ ही इन इन्द्रियों की सत्ता है। अत: अवच्छेदकता-संम्बन्ध से शरीर उनका आश्रय होता है। इन्द्रियाश्रयत्व भी शरीर का लक्षण है। अर्थाश्रयत्व भी शरीर का लक्षण होता है। यहाँ अर्थ से सुख और दु:ख अभिप्रत है।

यद्यपि महर्षि गौतम के मत से जीवात्मा ही साक्षात सम्बन्ध से सुख तथा दु:ख का आश्रय होता है, तथापि जीवात्मा अपने शरीर से ही सुख और दु:ख का भोग करता है। शरीर से बाहर उसका सुख-दु:ख का) अनुभव नहीं होता है। प्रत्येक जीवात्मा का अपना शरीर ही सकल सुख तथा दु:ख के भोग का आयतन या अधिष्ठान है। अत: सुखाश्रय और दु:खश्रय भी शरीर होता है।

इन्द्रिय

तीसरा प्रमेय इन्द्रिय है। यद्यपि छठां प्रमेय मनस भी इन्द्रिय है। तथापि मनस के विषय में विशेष ज्ञान के लिए यहाँ उसका पृथक उल्लेख किया गया है। यद्यपि सांख्य आदि दर्शनों में वाक, पाणि, पाद, पायु, और उपस्थ- इन पाँच कर्मेन्द्रियों का भी यहाँ परिग्रह हुआ है। और वहीं यह भी कहा गया है कि अहंकार सभी इन्द्रियों को उत्पन्न करता है। तथापि महर्षि गौतम हस्त आदि अंगविशेषों को इन्द्रिय नहीं मानते हैं। इन के मत में घ्राण आदि पाँच इन्द्रियों हैं, [41] क्योंकि वे प्रत्यक्षात्मक ज्ञान के साक्षात साधन हैं। हस्त आदि इन्द्रियों के सदृश हैं। अतएव उनमें इन्द्रिय पद का लाक्षणिक प्रयोग होता है। ‘तात्पर्य’ टीकाकार वाचस्पति मिश्र[42] भी न्याय के इस सिद्धान्त के समर्थन में कहते हैं। कि यदि असाधारण कार्य के साधन हस्त आदि को इन्द्रिय कहा जाय तब तो कण्ठ, हृदय, आमाशय तथा पक्वाशय को भी कर्मेंन्द्रिय कहा जा सकता है। गौतम के मत में अहंकार किसी इन्द्रिय का उपादान कारण नहीं है, किन्तु पृथिवी आदि पंचभूत ही क्रमश: घ्राण आदि पाँच इन्द्रियों के उपादान कारण हैं। न्यायदर्शन में इन्द्रिय को भौतिक पदार्थ कहा गया है। इन्द्रिय-लक्षणसूत्र के अन्त में महर्षि गौतम ने ‘भूतेभ्य:’ पद का प्रयोग किया है।

इनकी मूल युक्ति यही है कि गन्ध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्दों के बीच में घ्राण इन्द्रिय जब केवल गन्ध को ही ग्रह करता है तथा रसना केवल रस का ही प्रत्यक्ष कराता है, तब उसे भौतिक ही कहना उचित होगा। क्योंकि तत्तत भूतजन्यत्व ही वहाँ अनुमान द्वारा सिद्ध होता है। श्रवणेन्द्रिय उत्पन्न नहीं होता है। क्योंकि जीव का कर्णगोलकावच्छिन्न नित्य आकाश ही वस्तुत: श्रवण है। उसी कर्णगोलक की उत्पत्ति मानकर शास्त्र में श्रवणेन्द्रिय को उत्पन्न कहा गया है। कर्णगोलक उपाधि के भेद से श्रवणेन्द्रियरूप आकाश के भेद की कल्पना की जाती है। महर्षि गौतम ने आकाश को श्रवणेन्द्रिय की योनि (मूल) कहा है। श्रवणेन्द्रिय भी अभौतिक पदार्थ नहीं है। किन्तु आकाशात्मक भूतरूप है।

गौतम के मत में आकाश विभु अर्थात सर्वव्यापी तथा नित्य पदार्थ हे। विभुद्रव्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है। अत एव आकाश रूप श्रवणेन्द्रिय वस्तुत: नित्य पदार्थ है। गौतम के इन्द्रिय - लक्षणसूत्र में - ‘भूतेभ्य’’ इस पद में पंचमी विभक्ति का अर्थ जन्यत्व नहीं हैं किन्तु प्रयोजकत्व है। जिसकी सत्ता के बिना जिसकी सत्ता सिद्ध नहीं होती है, उसे उसका प्रयोज्य कहते हैं। आकाश की सत्ता के बिना श्रवणेन्द्रिय की सत्ता सिद्ध नहीं होती है, अतएव वह आकाश का प्रयोज्य है और आकाश उसका प्रयोजक।

अर्थ

चौथा प्रमेय का नाम अर्थ है यह इन्द्रिय का अर्थ होता है। क्रमश: पाँच इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य पाँच विशेष गुण - गन्ध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द को इन्द्रियार्थ कहते हैं।[43] गन्ध, रस, रूप तथा स्पर्श पृथिवी के गुण हैं। रस, रूप तथा स्पर्श जल के गुण हैं, रूप और स्पर्श तेजस के गुण हैं केवल स्पर्श वायु का और केवल शब्द आकाश का गुण है। जिस इन्द्रिय में जिस गुण का उत्कर्ष रहता है, उससे उसी गुण का प्रत्यक्ष होता है। घ्राण पार्थिव द्रव्य है। उसमें यद्यपि गन्ध, रूप, रस तथा स्पर्श इन चार गुणों का समावेश रहता है तथापि गन्ध का ही उत्कर्ष रहता है। अतएव उससे गन्ध का ही प्रत्यक्ष होता है। जिस द्रव्य तथा जिस गुण में प्रत्यक्ष का प्रयोजक धर्म रहता है, उस द्रव्य और गुण का प्रत्यक्ष होता है। केवल उद्भूतत्त्व धर्म से युक्त रूप विशेष और उस रूप से युक्त द्रव्य का ही प्रत्यक्ष होता है। यद्यपि रूप चक्षुष में भी है किन्तु वह उद्भूतत्त्व धर्म-विशिष्ट नहीं है। अतएव उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है। जैसे पाषाण आदि अनेक द्रव्यों में गन्ध रहने पर भी उसमें गन्ध की उत्कटता नहीं है, अत: उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है। इसी तरह से घ्राणगत गन्ध का भी प्रत्यक्ष नहीं होता है। रसना आदि इन्द्रियों में रहने वाले रस आदि गुणों का प्रत्यक्ष नहीं होता है। इस मत में इन्द्रिय को अतीन्द्रिय माना गया है।

बुद्धि

पाँचवाँ प्रमेय बुद्धि है। ‘बुद्धयते येनेति बुद्धि:’ जिसके द्वारा ज्ञान होता है- इस अर्थ में निष्पन्न ‘बुद्धि’ शब्द यद्यपि जीव के अन्त:करण अथवा मनस का वाचक हे। महर्षि गौतम ने बाद में इसी अर्थ में बुद्धिपद का प्रयोग किया है। तथापि प्रमेय के रूप में बुद्धि की चर्चा हे, वह आत्मा का प्रत्यक्ष आदि ज्ञानरूप है।[44] ज्ञानार्थक ‘बुध्’ धातु से भाव में क्तिन् प्रत्यय करने पर निष्पन्न बुद्धि पद ज्ञानरूप अर्थ का वाचक होता है। इसी को उपलब्धि भी कहते हैं। न्यायमत में बुद्धि, उपलब्धि और ज्ञान भिन्न पदार्थ नहीं हैं।

मन

छठा प्रमेय मनस है। जीव के सुख तथा दु:ख आदि के मानस-प्रत्यक्ष का कारण अन्तरिन्द्रिय मनस है। मनस के अस्तित्व साधक अनेक हेतुओं के रहने पर भी महर्षि गौतम ने अपने एक विशेष हेतु को प्रदर्शित किया है- ‘युग्पज् ज्ञानानुपपत्तिर्मनसो लिङ्गम्‘ 1/1/16 । एक समय में अनेक इन्द्रियों से अनेक विषयों के प्रत्यक्ष का नहीं होना मनस को सिद्ध करता है। जिस काल में किसी विषय के साथ किसी इन्द्रिय का सन्निकर्ष रहने पर भी एक समय में अनेक विषयों का प्रत्यक्ष नहीं होता है। किन्तु समय के विलम्ब से ही अपर प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है अत: अनुमान होता है। जीव के शरीर में इस तरह का पदार्थ अवश्य है, जिसका संयोग यदि इन्द्रिय से नहीं है, तो उस इन्द्रिय से प्रत्यक्ष नहीं होता है।

वह पदार्थ परमाणु की तरह अतिसूक्ष्म है। अतएव एक समय में अनेक इन्द्रियों से उसका संयोग नहीं हो पाता है। इन्द्रिय के साथ जिसका संयोग होने पर उस इन्द्रिय से ग्राह्य विषय का प्रत्यक्ष होता है। और जिसके संयोग के अभाव में अन्य कारणों के रहने पर भी प्रत्यक्ष नहीं होता है, वही अतिसूक्ष्म द्रव्य मनस है। जीव के देह में वह एक ही मनस रहता है। शरीर में एक से अधिक मनस की सत्ता यदि मान ली जाये तो एक काल में विभिन्न इन्द्रियों के साथ अनेक मनस का संयोग संभव हो जायेगा, जो अनेक विषयों का प्रत्यक्ष एक काल में करा देगा। उस एक ही मनस को यदि शरीरव्यापी मान लिया जाय तो एक समय में सभी इन्द्रियों के साथ उसका संयोग होना संभव हो जायेगा, जिससे अनेक विषयों का प्रत्यक्ष अनेक इन्द्रियों से एक समय में होने लगेगा।[45] मनस की परीक्षा प्रकरण में उसके विभुत्व का खण्डन किया गया है। ‘न गत्यभावात्’ 3/2/8 मनस विभु (सर्वव्यापी) नहीं है। विभुद्रव्य में गति-क्रिया नहीं रहती है और मनस का व्यापार चलता रहता है। मृत्यु के समय में मनस शरीर से बाहर चला जाता है। वह विभु नहीं हो सकता है।

प्रवृत्ति

सातवाँ प्रमेय है प्रवृत्ति । मनुष्यों के शुभाशुभ कर्म[46] प्रवृत्ति पद से लिये जाते हैं। यह तीन प्रकार का होता है-

  1. शारीरिक,
  2. वाचनिक और
  3. मानसिक।

दान, रक्षा और सेवा शारीरिक शुभ कर्म हैं। सत्य, हित तथा प्रिय बोलना और स्वाध्याय वाचनिक शुभ कर्म हैं। दया, अस्पृहा और श्रद्धा मानसिक शुभ कर्म हैं। इसी तरह हिंसा, स्तेय तथा अगम्यागमन शारीरिक अशुभ कर्म हैं। कठोर, मिथ्या, असंबद्ध कथन तथा चुगलखोरी वाचिक अशुभ कर्म हैं। परद्रोह, परधन में लोभ तथा नास्तिकता मानसिक अशुभ कर्म हैं। यद्यपि शुभाशुभ कर्मजन्य धर्मोधर्म भी प्रवृत्ति पद से लिया जाता है तथापि वह उसका मुख्य नहीं गौण अर्थ है। शुभ एवं अशुभ कर्म कारणरूपा मुख्य प्रवृत्ति है, पुण्य और पाप कार्यरूपा गौण प्रवृत्ति है। इस तरह प्रवृत्ति के दो प्रकार होते हैं।

दोष

आठवाँ प्रमेय है दोष। जीवात्मा के राग, द्वेष और मोह इन तीनों को दोष कहते हैं।[47] यह प्रवृत्ति का जनक-उत्पादक होता है। विषय में आसक्तिरूप राग, दूसरों के अनिष्ट की इच्छा रूप अथवा द्विष्ट साधनता ज्ञानजन्य गुण रूप, द्वेष तथा हित में अहित बुद्धि और अहित में हित बुद्धि रूप, मोह जीवात्मा को शुभाशुभ कर्मों में प्रवृत्त कराता है। काम, क्रोध, मत्सर, असूया, प्रभृति दोष इन तीन प्रकारों के दोष में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं। इनमें भी मोह सबसे अधर्म है।

प्रेत्यभाव

नवम प्रमेय है प्रेत्यभाव। इसका अर्थ होता है मरण के बाद जन्म।[48] जीव के धर्माधर्म रूप प्रवृत्ति का फल होता है उसका पुनर्जन्म होना। धर्माधर्म दोषमूलक है, अत: पुनर्जन्म भी परम्परा संबन्ध से दोषमूलक ही होता है। जीवात्मा नित्य है। अतएव उसकी उत्पत्ति और विनाश नहीं होता है। अनादिकाल से ही जीव बारम्बार स्थूल शरीर को धारण करता आ रहा है, जिसे यहाँ पुनरुत्पत्ति या प्रेत्यभाव कहते हैं। जीवात्मा के नित्य होने से ही उसका पुनर्जन्म रूप प्रेत्यभाव सिद्ध होता है।

फल

दसवाँ प्रमेय है फल। इसके दो प्रकार हैं- मुख्य और गौण। जीव के सुख तथा दु:ख का भोग उसका मुख्य फल है और उस भोग का साधन देह तथा इन्द्रिय आदि गौण फल कहलाते हैं। जीव का फल किसी भी प्रकार का क्यों न हो, वह उसके पूर्वजन्मकृत धर्म और अधर्म से उत्पन्न होता है और वह धर्माधर्म उसके दोष से उत्पन्न होता है। फलत: धर्माधर्म रूप प्रवृत्ति और राग तथा द्वेष आदि से उत्पन्न पदार्थ मात्र ही जीव का फल कहलाता है।[49] दोष रूप जल से सिक्त आत्मरूप भूमि में धर्म और अधर्म रूप बीज सुख और दु:ख रूप फल को उत्पन्न करता है।

दु:ख

ग्यारहवाँ प्रमेय है दु:ख। दु:ख क्या है- इसके ज्ञान के बिना अपवर्ग-प्राप्ति का अधिकार ही नहीं बनता है। बांधना, पीड़ा तथा ताप आदि शब्द का अर्थ ही दु:ख हैं।[50] प्राचीन आचार्यों के मत से इसके तीन भेद हैं- आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक। जो ‘त्रिताप‘ पद से प्रसिद्ध है। प्रतिकूल अनुभूति के कारण दु:ख स्वभाव से ही अप्रिय पदार्थ है। इसका लक्षण ‘प्रतिकूल वेदनीय‘ कहा गया है। आचार्य उद्योतकर ने इसके इक्कीस प्रकार बताए हैं।

जीवों के दु:ख का घर है शरीर, उस दु:ख के साधन घ्राण आदि छह इन्द्रियाँ, उन इन्द्रियों के ग्राह्य विभिन्न छ: विषय, उन छह विषयों के ज्ञान तथा दु:ख से लिप्त सुख ये बीस प्रकार के गौण दु:ख है और मुख्य दु:ख प्रतिकूल वेदनीय है। भाष्यकार ने कहा है- जहाँ सुख है वहाँ दु:ख अवश्य रहता है। सुख के साथ दु:ख का अविनाभाव संबन्ध है। फलत: जीवों के सुख भी दु:ख हैं। सुख के कारण शरीर आदि तो दु:ख है ही। इन सभी दु:खों की आत्यन्तिक निवृत्ति को ही मुक्ति के रूप में व्याख्या की गयी है। यहाँ एक बात अवधेय है। यह कदापि नहीं मानना चाहिए कि महर्षि गौतम सुख पदार्थ को नहीं मानते हैं। उन्होंने अनेक सूत्रों में सुख पद का व्यवहार किया है। किन्तु उनका कहना है कि मुमुक्षु व्यक्ति सुख का भी दु:ख के रूप में ही ध्यान करता है अतएव प्रमेय वर्ग में उसका उल्लेख नहीं किया गया है।

अपवर्ग

बारहवाँ प्रमेय अपवर्ग है। दु:ख की आत्यन्तिक निवृत्ति ही अपवर्ग है।[51] सुषुप्तिकाल में तथा प्रलय आदि में जो दु:ख की सामयिक निवृत्ति होती है, वह आत्यन्तिक दु:खनिवृत्ति नहीं है। जिस दु:ख की निवृत्ति के बाद पुन: कदापि जन्म नहीं हो अर्थात् दु:खोत्पत्ति के कारण का अभाव ही आत्यन्तिक दु:खनिवृत्ति है। इस अपवर्ग की प्राप्ति के उपाय न्यायदर्शन के द्वितीय सूत्र में वर्णित हैं। तत्त्वज्ञान के उदय से मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है और मिथ्याज्ञान के अभाव में रागद्वेषात्मिका प्रवृत्ति नहीं होती है। प्रवृत्ति के अभाव में इस संसार में किसी का जन्म नहीं होता है और जब जन्म ही नहीं होगा तो दु:खों का भोग वहाँ कैसे किसको होगा। इस तरह तत्त्वज्ञान की प्रक्रिया से अपवर्ग का लाभ होता है। यहाँ इसके उपसंहार में इतना कहना आवश्यक है कि इन बारह प्रमेयों में हेय और उपादेय का भी विचार किया गया है। शरीर आदि दु:खपर्यन्त दश प्रमेय हेय अर्थात् त्याज्य हैं। प्रथम और अन्तिम अर्थात् आत्मा और अपवर्ग उपादेय (ग्रहण करने योग्य) हैं। आत्मा का न तो उच्छेद संभव है और न तो उसका उच्छेद किसी का काम्य हो सकता है। अतएव वह उपादेय है। अपवर्ग तो आत्मा का परम तथा चरम लक्ष्य है, क्योंकि वही चिरस्थायी होता है, वह तो उपादेय है ही। दु:ख स्वभाव से ही अप्रिय होने से अवश्य हेय है।

संशय

अज्ञात और निश्चित पदार्थों में न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है, अपितु सन्दिग्ध पदार्थ में उसकी प्रवृत्ति देखी जाती है अत: न्याय के पूर्वाग के रूप में यहाँ संशय को माना गया हैं। अभिप्राय यह है कि जिज्ञासा ज्ञान की जननी है, जो संशय के बिना नहीं होती। किसी एक धर्मी में नाना विरुद्ध धर्मों का ज्ञान ही संशय पदार्थ है। जैसे अन्धकार में खड़े हुए लम्बायमान वस्तु में शाखापत्र रहित वृक्ष (ठूँठ) तथा पुरुष के होने का सन्देह होता है। न्यायसूत्रकार तथा भाष्यकार ने इसके पाँच प्रकार कहे हैं-[52]

  1. साधारण धर्म विशिष्ट धर्मी के ज्ञान से
  2. असाधारण धर्म विशिष्ट धर्मी के ज्ञान से
  3. एक आधार में दो विरुद्ध पदार्थों को कहने वाले विप्रतिपत्ति वाक्य से
  4. उपलब्धि की अव्यवस्था अर्थात अनियम से
  5. अनुपलब्धि की अव्यवस्था से संशय होता है।

यहाँ विशेषज्ञान की इच्छा रहती है किन्तु विशेष धर्म की उपलब्धि नहीं रहती है। हाँ. उसकी स्मृति अवश्य रहती है। यहाँ संशय के प्रकार में भाष्यकार से न्यायवार्त्तिककार का मतभेद है। वार्त्तिककार की दृष्टि में उपलब्धि तथा अनुपलब्धि की अव्यवस्था से क्रमश: साधक प्रमाण एवं बाधक प्रमाण का अभाव विवक्षित है। ये दोनों ही संशय मात्र सामान्य कारण है, किसी ख़ास प्रकार के संशय के कारण नहीं हैं। फलत: इनके मत में संशय तीन ही प्रकार के होते हैं। परवर्ती नैयायिकों ने यहाँ वार्त्तिककार का ही अनुसरण किया है। यहाँ यह अवधेय है कि वादी और प्रतिवादी को अपने सिद्धान्तों में संशय नहीं रहता है, किन्तु मध्यस्थ के सन्देह निराकरण के लिए वे (वादी और प्रतिवादी) परस्पर प्रतिज्ञा आदि पञ्चावयव वाक्यों के प्रयोग के द्वारा अपने पक्ष का स्थापन और परपक्ष के खण्डन का प्रयास करते हैं।

प्रयोजन

संशय की तरह प्रयोजन भी न्याय का पूर्वांग है। प्रयोजन के बिना जब मन्द (मूर्ख) भी कहीं प्रवृत्त नहीं होता।[53] तो न्याय की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है। जिस पदार्थ को हेय या उपादेय समझकर उसे छोड़ने या पाने के लिए व्यक्ति उपाय करता है, उसे प्रयोजन कहते हैं। मुख्य तथा गौण के भेद से इसके दो प्रकार माने गये हैं। सुख की उपलब्धि तथा दु:ख की निवृत्ति में जीव की स्वत: इच्छा होती है, अतएव उसे मुख्य या स्वत: सिद्ध प्रयोजन कहते हैं। और सुख तथा दु:ख की निवृत्ति के उपायों को गौण या परम्परा प्रयोजन कहते हैं।[54]

दृष्टान्त

जिस पदार्थ में लौकिक तथा परीक्षक दोनों की बुद्धि का साम्य हो, वैषम्य (विरोध) नहीं रहे, उस पदार्थ को दृष्टान्त कहते हैं।[55] स्वाभाविक रूप से तथा शास्त्रों के अनुशीलन से होने वाले बुद्धि के प्रकर्ष का लाभ जिसने नहीं किया है वह लौकिक पद से यहाँ अभिप्रेत है और जिसने शास्त्रों के अनुशीलन से बुद्धि का प्रकर्ष प्राप्त किया है तथा लौकिक को भी तत्त्व समझाने की सामर्थ्य रखता है वह परीक्षक है। यहाँ अवधेय है कि दृष्टान्त अंशत: ही समान होता है, सर्वांशत: नहीं। अतएव किस सन्दर्भ में किस भाव में तथा किस अंश में दृष्टान्त का उल्लेख हुआ है- इसका प्रणिधान आवश्यक है। इस दृष्टान्त के बिना प्रतिपक्षी को कुछ समझाना संभव नहीं है। स्वपक्ष-समर्थन तथा परपक्ष-खण्डन का यह एक उपकरण है। इसमें लोक एवं प्रमाण दोनों से सिद्ध पदार्थ ही प्रयुक्त होता है। इसके दो प्रकार माने गये हैं- साधर्म्य दृष्टान्त और वैधर्म्य दृष्टान्त। यह भी न्याय का पूर्वांग है।

सिद्धान्त

किसी सिद्धान्त की स्थापना के लिए ही दृष्टान्तमूलक न्यायवाक्य का प्रयोग होता है। अतएव उक्त न्याय के आश्रय के रूप में इसका परिग्रह हुआ है। स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि सिद्धान्त क्या है तथा इसके कितने प्रभेद हैं। शास्त्रसिद्ध पदार्थ का निश्चय ही सिद्धान्त है। न्यायसूत्र कहता है कि ‘तन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थिति: सिद्धान्त:’ 1/1/26 । यहाँ तन्त्र पद शास्त्र का वाचक है। अत: वह (शास्त्र) जिसका आधार हो उसका स्वीकारात्मक निश्चय ही सिद्धान्त है। इसके चार प्रभेद यहाँ निर्दिष्ट हैं-

  1. सर्वतन्त्र - जो सभी शास्त्रों के अविरोधी हो और किसी एक शास्त्र में कहा गया हो, वह सर्वतन्त्र सिद्धान्त है।
  2. प्रतितन्त्र - जिस सम्प्रदाय का जो सिद्धान्त अपने शास्त्र में सिद्ध है और अन्य शास्त्रों में मान्य नहीं है, वह प्रतितन्त्र सिद्धान्त है।
  3. अधिकरण - जिस पदार्थ के सिद्ध होने से अन्य पदार्थ की सिद्धि होती है, वह अधिकरण सिद्धान्त है। अर्थात् जिस पदार्थ की सिद्धि के बिना जो अन्य पदार्थ अन्य प्रमाणों से सिद्ध नहीं होता है वही पदार्थ अधिकरण सिद्धान्त है।
  4. अभ्युपगम - जिस स्थल में प्रतिवादी किसी पदार्थ में अपरीक्षित धर्म को स्वीकार कर लेता है, उस पदार्थ में उसके (वादी के) असम्मत अन्य विशेष धर्म की परीक्षा करता है, उस स्थल में प्रतिवादी का स्वीकृत अपर सिद्धान्त अभ्युपगम सिद्धान्त कहलाता है।[56]

अवयव

न्याय की प्रक्रिया से सिद्धान्त के निश्चय हेतु अवयव पदार्थों का तत्त्वज्ञान आवश्यक है। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन- इन पाँच खण्ड वाक्यों को अवयव कहते हैं[57] इसे न्याय का स्वरूप कहा गया है। वाचस्पति मिश्र ने कहा है कि जैसे सावयव द्रव्य के सभी अवयव मिलकर उस द्रव्य के स्वरूप को धारण करते हैं, इसी तरह यथाक्रम प्रतिज्ञा आदि पाँचों वाक्य मिलकर न्याय नामक महावाक्य का रूप धारण करते हैं। यह महावाक्य वक्ता के विशिष्ट अर्थ के प्रतिपादन में समर्थ होता है। फलत: यथाक्रम उच्चरित प्रतिज्ञा आदि पञ्चावयव रूप वाक्य समष्टि ही न्याय है। प्रतिज्ञा आदि खण्डवाक्य इसके अवयव कहलाते हैं। अवयव का यहाँ गौण प्रयोग हुआ है, मुख्य प्रयोग तो इसका अवयवी के (द्रव्य के) अंग रूप में प्रसिद्ध है।

प्रतिज्ञा

प्रतिज्ञा से साध्य का निर्देश अभिप्रेत है।[58] यहाँ साध्य पद के दो अर्थ होते हैं- धर्म तथा धर्मी। किसी धर्मी में धर्म के अनुमान करने के उद्देश्य से यदि न्याय का व्यवहार होता है, तो वह अनुमेय धर्म साध्य होता है और यदि उसी धर्म से युक्त धर्मी साध्य होता हा, तो वह (धर्मी का साध्य होना) उसका दूसरा प्रकार है। फलत: साधनीय धर्मविशिष्ट धर्मी के बोधक वाक्य को प्रतिज्ञा कहते हैं।

हेतु

अनुमेय धर्म के लिंग को अथवा हेतुत्व बोधक वाक्य को हेतु-शब्द से लिया जाता है। वाक्यात्मक इस हेतु के दो प्रकार होते हैं- साधर्म्य हेतु और वैधर्म्य हेतु।[59] यहाँ साधर्म्य और वैधर्म्य से साध्यधर्मी और उदाहृत पदार्थ (दृष्टान्त) का समान या असमान धर्म यथाक्रम विवक्षित है, जहाँ हेतु के साथ साध्य अर्थात् अनुमेय धर्म की व्याप्ति का निश्चय होता है। इस हेतु का पञ्चरूपत्व- पक्षसत्व, सपक्षसत्व, विपक्षासत्व, असत्प्रतिपक्षत्व तथा अबाधितत्त्व अपेक्षित है। अन्यथा इनमें से किसी एक के नहीं कहने पर हेतु हेतु नहीं रहकर हेत्वाभास हो जाता है। उदाहरण- जिस वाक्य से हेतु और साध्य में व्याप्यव्यापकभाव संबन्ध ज्ञात होता है उसे उदाहरण वाक्य कहते हैं। इसके दो प्रकार हैं- साधर्म्योंदाहरण तथा वैधर्म्योदाहरण। साध्य धर्मी के समान धर्म की स्थिति के कारण, जिस पदार्थ में साध्य धर्म भी रहता है, उस पदार्थ को साधर्म्य दृष्टान्त कहते हैं। अन्वय दृष्टान्त भी इसका नामान्तर है। इस दृष्टान्त वाचक वाक्य को साधर्म्योदाहरण कहा गया हैं इसी तरह वैधर्म्यबोधक या व्यतिरेक दृष्टान्त का वाचक वाक्य वैधर्म्योदाहरण पद से अभिहित होता है।[60]

उपनय

उदाहरण वाक्य के दो प्रकार होने से उपनय वाक्य के भी दो प्रकार होना स्वाभाविक है। उदाहरणाक्य के अनुसार साध्य धर्मी के साथ ‘तथा‘ अथवा ‘न तथा’ जोड़कर उपसंहार वाक्य का कथन उपनय पद से अभिप्रेत है।[61] साधर्म्योपनय तथा वैधर्म्योपनय में ‘तथा’ एवं ‘न तथा’ यथाक्रम वाक्य में जोड़ा जाता है।

निगमन

प्रतिज्ञावाक्य के बाद जो हेतुवाक्य कहा जाता है, उसका उल्लेख करते हुए प्रतिज्ञावाक्य का पुन: कथन ‘निगमन’ है।[62] यह एक रूप ही होता है। इसके प्रकारान्तर नहीं होते। आचार्य भासर्वज्ञ ने अपने न्यायसार में निगमन के भी दो प्रकारों को कहा है किन्तु वह न तो प्रचलित है और न सम्प्रदायस्वीकृत ही। भाष्यकार की दृष्टि से इन अवयवों में न्यायसम्मत चारों प्रमाणों का संकलन हुआ है। प्रतिज्ञा में शब्द, हेतु में अनुमान, उदाहरण में प्रत्यक्ष और उपनय में उपमान प्रमाण अनुलग्न है। लोहे के छड़ की तरह स्वतन्त्र रूप में विद्यमान इन चारों प्रमाणों का एकत्र संग्रह निगमन वाक्य में होता है। न्यायदर्शन यद्यपि प्रमाण- संप्लव- एक विषय की सिद्धि में अनेक प्रमाणों का उपयोग और प्रमाण-व्यवस्था- एक प्रमाण से एक विषय की सिद्धि दोनों को मानता है, तथापि यहाँ प्रमाण-सम्प्लव पर ही बल दिया गया प्रतीत होता है। फलत: न्यायवाक्य में एक ही विषय में सभी प्रमाणों की सामर्थ्य का प्रदर्शन होता है। यद्यपि प्राचीनतम काल में दश अवयवों की मान्यता रही है। इन उपर्युक्त पाँच अवयवों के साथ जिज्ञासा, संशय, शक्यप्राप्ति, प्रयोजन और संशयव्युदास को यहाँ अवयव के रूप में परिग्रह किया गया है, तथापि न्यायभाष्यकार ने इनकी उपेक्षा कर पाँच अवयववाद की स्थापना की है।

अभिप्राय यह है कि जिज्ञासा आदि परप्रतिपादक नहीं होते हैं। अतएव न्याय के अवयव नहीं हो सकते। दूसरी बात यह है कि निश्चित वचन ही साधक होते हैं। जिज्ञासा और संशय स्वरूपत: निश्चित नहीं हैं। प्रयोजन तो साधन के पश्चात अवगत होते हैं। संशयव्युदास और शक्यप्राप्ति की भी यही स्थिति है। अतएव ये न्याय के अवयव नहीं हो सकते हैं। भाष्यकार ने यहाँ कहा है कि कथा के उत्थापन में यद्यपि संशय आदि समर्थ हैं, अवधारणीय अर्थ के उपकारक हैं, किन्तु तत्त्वार्थ की साधकता इनमें नहीं अपितु प्रतिज्ञादि में ही है। जिस दर्शन में दो या तीन अवयव माना गया है, वहाँ भी इन स्वीकृत पाँच अवयवों में ही कम किया है अर्थात उसका भी आधार यह पंचावयव ही है। अवयवों में ह्रास या वृद्धि का आधार इसी पंचावयव को माना गया है। फलत: इस पंचावयव की प्राचीनता और प्रामाणिकता नि:सन्दिग्ध है।

  • अतएव विष्णुधर्मोत्तरपुराण में इन पाँच अवयवों का उल्लेख मिलता है-

प्रतिज्ञा हेतुदृष्टान्तावुपसंहार एव च ।
तथा निगमनं चैव पञ्चावयवमिष्यते॥[63]

  • महाभारत के सभापर्व में नारद का पंचावयव वाक्य के गुण-दोषों के जानकार के रूप में उल्लेख मिलता है- पंचावयव वाक्यस्य गुणदोषवित्।
  • चरक संहिता के विमान स्थान में इस पंचावयव न्याय वाक्य का अक्षरश: वर्णन किया गया है। अतएव इस सिद्धान्त की रूढमूलता एवं परम्परा सिद्ध होती है।

तर्क

जिस पदार्थ के तत्त्व का निश्चय नहीं होता है, उसके तत्त्वनिर्णय के लिए उसमें कारण रूप प्रमाण की उत्पत्ति से जो ऊह किया जाता है वही तर्क है।[64] दो धर्मों के सन्देह होने पर एकतरफा पक्ष में प्रमाण की उपलब्धि का ऊह (मानसज्ञान) करना तर्क है। यह ऊह न तो प्रमाण है और न तो प्रमाण का फल तत्त्व निश्चय ही। अपि तु प्रमाण का सहकारी ज्ञानविशेष रूप है। उदयनाचार्य ने तात्पर्य परिशुद्धि में अनिष्ट पदार्थ के प्रसंग अर्थात आपत्ति को तर्क कहा है। वरदराज ने तार्किकरक्षा में इनका अनुसरण करते हुए मूलत: इस अनिष्ट का दो भेद माना है- प्रामाणिक का परित्याग और अप्रामाणिक का परिग्रह।

तर्कोऽनिष्टप्रसङ्ग: स्यादनिष्टं द्विविधं स्मृतम्।
प्रामाणिकपरित्यागस्तथेतरपरिग्रह:॥[65]

इस तर्क के पाँच भेद स्वीकृत हैं-

  1. आत्माश्रय,
  2. अन्योन्याश्रय,
  3. चक्रक,
  4. अनवस्था
  5. अनिष्टप्रसङ्ग।
  • वरदराज की तार्किकरक्षा में कहा गया है- आत्माश्रयादिभेदेन तर्क: पञ्चविध: स्मृत:। [66]

पदार्थ की उत्पत्ति, स्थिति और ज्ञान में यह तर्क किया जाता है। उपर्युक्त आत्माश्रय आदि चार प्रकारों से भिन्न सभी प्रकारों के तर्क इसके पंचम प्रकार में अन्तर्भूत होते हैं। अतएव लाघव, गौरव, विनिगमन विरह तथा प्रथमोपस्थितत्त्व आदि पृथक तर्क के प्रभेद नहीं माने जाते, अपितु अनिष्ट प्रसंग में इनका अन्तर्भाव हो जाता है। सम्प्रदाय का कहना है कि चूँकि लाघव आदि में आपत्ति का स्वरूप नहीं है, अतएव इन्हें तर्क नहीं कहा जा सकता है। इन सब में भी तर्क की तरह प्रमाण की सहकारिता या उपकारकत्व विद्यमान है, अत: तर्क की तरह व्यवहार इनका होता रहा है। फलत: तर्क के पाँच ही प्रकार न्याय दर्शन में माने गये हैं। वृत्तिकार विश्वनाथ सिद्धान्त पंचानन ने व्यापक पदार्थ के अभाव में व्याप्य पदार्थ के आरोप से उस व्यापक पदार्थ के आरोप[67] रूप ऊह को तर्क कहा गया है। व्याप्य पदार्थ को आपादक और व्यापक पदार्थ को आपाद्य कहा जाता है। जिस पदार्थ की आपत्त की जाए, वह आपाद्य और जिस पदार्थ के आरोप से आपत्ति की जाए, वह आपादक होता है। आपादकारोप से आपाद्यारोप एवं आपाद्याभाव के आरोप से आपाद का भाव का आरोप व्याप्ति का निश्चायक होता है। तार्किक रक्षा में इस तर्क के पाँच अंग कहे गये हैं। आपादक में आपा की व्याप्ति ही तर्क का प्रथम अंग है। प्रतितर्क का अभाव इसका दूसरा अंग है। आपा के विपरीत आधार में अवस्थान इसका तृतीय अंग है। प्रामाणिक का परित्याग और अप्रामाणिक का परिग्रह क्रमश: इसका चतुर्थ और पंचम अंग हैं। इन पांच अंगों में से किसी एक भी अंग के अभाव में तर्क यथार्थ तर्क न होकर तर्काभास हो जाता है। तर्क विषय का परिशोधक और व्याप्ति का ग्राहक होता है। अनुकूल तर्क का अस्तित्व तथा प्रतिकूल तर्क का अभाव प्रमाण के प्रामाण्य के साधन में सहायक होता है। जो तर्क अनुमान स्थल में, हेतु में साध्य धर्म के व्यभिचार-संशय का निवर्तक होता हो, वह व्याप्ति का ग्राहक है और अनुकूल तर्क विषय का परिशोधक होता है।

निर्णय

तत्त्व का अवधारणा निर्णय कहलाता है। यह न्यायवाक्य तथा तर्क से सिद्ध किया जाता है। अभिप्राय यह है कि वादी और प्रतिवादी अपने पक्ष का स्थापन और परपक्ष का खण्डन करता है। इससे मध्यस्थ तत्त्व का अवधारण करता है। यह अवधारण ही निर्णय है।[68]

वाद

विचारणीय विषय में अनेक वक्ताओं के वाक्यसमूह को कथा कहा जाता है। किसी एक वक्ता के पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष, दोष एवं उसका समाधान रूप वाक्यसमूह कथा नहीं होती है। विचारणीय विषय में वादी एवं प्रतिवादी की उक्ति-प्रत्युक्तिरूप वचनसमूह कथा कहलाती है। इसके तीन प्रकार-वाद, जल्प और वितण्डा माने गये हैं। तत्त्वनिर्णय के लिए गुरु तथा शिष्य में जो विचार किया जाता है वह वाद कथा है। इस वाद में प्रमाणत: तर्क से स्वपक्ष का स्थापन और परपक्ष का खण्डन किया जाता है, जो सिद्धान्त का अविरोधी और पंचावयव वाक्य से युक्त होता है। यहाँ पक्ष और प्रतिपक्ष का परिग्रह किया जाता है। इस तरह के वादी एवं प्रतिवादी के वचनसमूह वाद[69] पद से अभिप्रेत है। इस कथा में किसी भी पक्ष को जय की इच्छा नहीं रहती है, केवल तत्त्वनिर्णय के लिए वाद किया जाता है।

जल्प

जल्प [70] कथा में विजय की इच्छा से वादी और प्रतिवादी अपने-अपने सिद्धान्त का स्थापन और परपक्ष का खण्डन करते हैं। यहाँ छल, जाति तथा हेत्वाभास का प्रयोग एवं निग्रह स्थान का प्रदर्शन भी विहित है।

वितण्डा

जल्पकथा में यदि प्रतिपक्षी के मत का स्थापन नहीं होता है तो वह वितण्डा कहलाती है।[71] वितण्डा कथा में प्रतिवादी वादी के मत का खण्डन करता है और अपने मत का स्थापन नहीं करता है। उसका अन्तर्निहित आशय यह है कि वादी के मत के खण्डन कर देने पर उसका मत स्वत: सिद्ध हो जाएगा। इस आशा से वह अपना मत स्थापित नहीं करता है, केवल वादी के मत का निराकरण करता है। अभिप्राय यह है कि वैतण्डिक का भी अपना मत होता अवश्य है, किन्तु वह उसका स्थापन नहीं करता करता है। जल्पकथा में वादी और प्रतिवादी दोनों ही नियमपूर्वक जञ्चावयव वाक्य का प्रयोग करते हैं तथा अपना-अपना मत अवश्य स्थापित करते हैं।

जल्प और वितण्डा के अंग रूप में वादीनियम, प्रतिवादी नियम सभापति नियम, मध्यस्थ नियम तथा सदस्य नियम आदि का निर्देश प्राचीन आचार्यों ने किया है। वादी और प्रतिवादी होने की अपेक्षित योग्यता देखकर मध्यस्थ द्वारा उसकी नियुक्ति की जाती है। जिसकी बात सब मानें ऐसा प्रभावशाली व्यक्ति सभापति हो सकता है और वह मध्यस्थ का चयन करता है, तब कथा (विचार) आरम्भ होती है। वादी मध्यस्थ के समक्ष पंचावयव वाक्य के द्वारा मध्यस्थ के प्रश्न के अनुसार अपना पक्ष प्रस्तुत करता है। इसमें दोष नहीं है- इसका युक्तिपूर्वक उपपादन करता है। पुन: प्रतिवादी वादी के मत का संक्षेप में अनुवाद करके उसमें दोष दिखाकर अपना पक्ष स्थापित करता है। अनुवाद के माध्यम से ही प्रतिवादी यह सिद्ध करना चाहता है कि वह वादी के वक्तव्य को अच्छी तरह जानता है। अन्यथा प्रतिवादी के पक्ष में निग्रह स्थान की उद्भावना भी हो सकती है। फलत: निग्रह और अनुग्रह में समर्थ प्रभावशाली सभापति, निष्पक्ष एवं शास्त्र मर्मज्ञ मध्यस्थ तथा अनुशिष्ट अर्थात यथाविहित नियम के परिपालन में निष्ठावान वादी और प्रतिवादी विचार के लिए आवश्यक माने गये हैं। क्रोध एवं कलह की गुंजाइश यहाँ नहीं होती है।

वाद कथा में इस तरह सभापति या मध्यस्थ आवश्यक नहीं होते। वह तो पर्णकुटी या वृक्ष की छाया में बैठकर भी संभव है। गुरु तथा शिष्य तत्त्वज्ञान के लिए यहाँ प्रवृत्त होते हैं। इस कथा में जय-पराजय यहाँ अभिप्रेत नहीं है। मुमुक्ष व्यक्ति को भी तत्त्वनिर्णय एवं उसकी दृढ़ता के लिए इस आन्वीक्षिकी विद्या का अध्ययन, धारणा तथा निरन्तर चिन्तन रूप अभ्यास आवश्यक है। तद्विद्य, असूया से रहित शिष्य, गुरु, सतीर्थ्य और शास्त्र में निष्णात आदि किसी के समीप जाकर वाद कथा की जा सकती है। 'तद्विद्य सम्भाषा' या 'तद्विद्य संवाद' पद से प्राचीन काल में इसी को कहा जाता है। उपर्युक्त तीन कथाओं में वाद सर्वश्रेष्ठ है। यह तत्त्वनिर्णय से सहायक होता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है- 'वाद: प्रवदतामहम्’ [72] समय-समय पर जल्प एवं वितण्डा भी करनी पड़ती है। अतएव इनके तत्त्वज्ञान भी आवश्यक हैं।

हेत्वाभास

अनुमान में जो प्रकृत हेतु नहीं रहता है किन्तु हेतु की तरह प्रतीत होता है उसे हेत्वाभास कहते हैं। इस हेत्वाभास के ज्ञान के बिना उक्त तीनों प्रकारों की कथा का अधिकार ही नहीं किसी को होता है। इस हेत्वाभास के पाँच प्रकार होते हैं- सव्यभिचार, विरुद्ध, प्रकरणसम् (सत्प्रतिपक्ष) साध्यसम (असिद्ध) और कालातीत (बाध)। [73] जो पदार्थ हेतु के सभी लक्षणों से युक्त नहीं है किन्तु सादृश्य के कारण हेतु की तरह प्रतीत होता है उसे हेत्वाभास कहते हैं। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार होती है- ‘हेतुवदाभासन्ते इति’। तार्किकरक्षा में वरदराज ने कहा है कि हेतु के किसी एक भी लक्षण से रहित होने पर बहुत लक्षणों से युक्त भी हेतु हेत्वाभास होता है और उसके पाँच प्रकार माने गये है-

हेतो: केनापि रूपेण रहिता: कैश्चिदन्विता:।
हेत्वाभासा: पञ्चधा ते गौतमेन प्रपञ्चिता:॥

अनुमान स्थल में पहले यह जानना आवश्यक है कि हेतु के क्या लक्षण हैं। महर्षि गौतम हेतुवाक्य के लक्षणसूत्र में 'साध्य साधनम्' पद से और पश्चात पाँच प्रकारों के हेत्वाभास के द्वारा हेतु के सामान्य लक्षण की सूचना हेते हैं इसी के आधार पर आधुनिक नैयायिक पक्षसत्व, सपक्षसत्व, विपक्षासत्व, असत्प्रतिपक्षितत्त्व और अबाधितत्त्व – इन पाँच धर्मों को हेतु के सामान्य लक्षण के रूप में मानते हैं। कहीं-कहीं इनमें से चार धर्मों को भी इसका लक्षण माना गया है। क्योंकि सपक्षसत्व और विपक्षासत्व सर्वत्र संभव नहीं होता हैं जहाँ साध्य का अनुमान करना अभीष्ट हो उसे 'पक्ष' कहते हैं। जहाँ साध्य का अस्तित्व निश्चित रूप से रहता है उसे 'सपक्ष' कहते हैं। जहाँ साध्य का अभाव निश्चित रूप से रहता है उसे 'विपक्ष' कहते हैं। सत्प्रतिपक्ष और बाधक अभाव तो उक्त दोनों हेत्वाभास के लक्षण करने पर स्वत: स्पष्ट हो जाएगा। हेतु के इन पाँच धर्मों में से किसी एक के नहीं रहने पर उक्त पाँच प्रकार के हेत्वाभास होते हैं।

यथा विपक्ष में हेतु की असत्ता नहीं रहने पर सव्यभिचार नामक हेत्वाभास होता है। सपक्ष में हेतु की सत्ता के अभाव में विरुद्ध हेत्वाभास होता है। असत्प्रतिपक्षितत्त्व के नहीं होने से सत्प्रतिपक्ष (प्रकरणसम) हेत्वाभास होता है। पक्ष में हेतु के नहीं रहने से साध्यसम (असिद्ध) हेत्वाभास होता है और अबाधितत्त्व नहीं हरने से कालातीत(बाध) हेत्वाभास होता है।

सव्यभिचार

जो हेतु सपक्ष तथा विपक्ष में रहता है वह सव्यभिचार कहलाता है। किसी एक अन्त में जो नियत रूप से नहीं रहता है अर्थात अनेक अन्तों में विद्यमान है उसे सव्यभिचार कहते हैं।[74] विपक्षासत्वरूप हेतु के लक्षण के नहीं घटने से हेतु साध्यधर्म का व्यभिचारी होता है। इस हेतु में व्याप्ति ही नहीं हो पाती है। अतएव अनुमान के प्रमुख साधन व्याप्ति का यह प्रतिबन्धक होता है। विपक्ष में हेतु का निश्चित अस्तित्व ही यहाँ दोष है। इस दोष के रहने पर व्याप्ति का निश्चय संभव नहीं है, अत: इस हेतु से अनुमिति नहीं होती है। साध्यधर्म के व्यभिचार का अभाव ही व्याप्ति का स्वरूप है, जो अनुमान का अंग माना गया है। प्राचीन नैयायिकों ने इसके दो प्रकारों को कहा है-

  • साधारण - जो हेतु पक्ष, सपक्ष और विपक्ष में रहता है उसे साधारण सव्यभिचार कहते हैं।
  • असाधारण - जो हेतु केवल पक्ष में ही रहता है, सपक्ष या विपक्ष में नहीं रहता है उसे असाधारण सव्यभिचार कहते हैं।

नव्य नैययायिक गंगेश उपाध्याय ने इसके तीसरे प्रकार अनुपसंहारी का भी निर्देश किया है। अनुपसंहारी हेतु का सभी पदार्थ पक्ष ही होता है। सपक्ष या विपक्ष इसका अप्रसिद्ध होता है। सपक्ष या विपक्ष रूप दृष्टान्त के अभाव में उस तरह के हेतु के साथ साध्यधर्म की व्याप्ति का निश्चय नहीं हो पाता है। अभिप्राय यह है कि सभी पदार्थों को अनुमान के पक्ष मान लेने पर वहाँ जो भी हेतु होगा अनुसंहारी ही होगा।

विरुद्ध

जो हेतु साध्यधर्म का व्याघातक होता है अर्थात् साध्याभाव का साधक होता है वह विरुद्ध[75] नामक हेत्वाभास है। जैसे शब्द में नित्यत्व धर्म के सिद्ध्यर्थ उत्पत्तिमत्व हेतु विरुद्ध है।

प्रकरणसम (सत्प्रतिपक्ष)

जहाँ किसी एक पक्ष का निर्णय नहीं होकर संशय के विषय रूप पक्ष और प्रतिपक्ष के विषय में जिज्ञासा होती है अर्थात् प्रकरण के विषय में चिन्ता होत है, वहाँ निर्णय के लिए कहा गया हेतु प्रकरणसम[76]सत्प्रतिपक्ष) नामक हेत्वाभास होता है। यहाँ प्रकरण से प्रतिवादी का पक्ष और प्रतिपक्ष रूप दो धर्म विवक्षित है। इन दो धर्मों के विषय में मध्यस्थ की जिज्ञासा ही न्यायसूत्रगत प्रकरणचिन्तापद से अभिप्रेत है।

साध्यसम (असिद्ध)

साध्यता के कारण जो पदार्थ साध्यधर्म के सदृश रहता है वह ‘साध्यसम’[77] या ‘असिद्ध’ हेत्वाभास होता हैं यहाँ हेतु में पक्ष सत्त्वरूप हेतु का लक्षण नहीं रहता है, अत: हेतु न होकर वह हेत्वाभास होता है। परवर्तीकाल में यह साध्यसम 'असिद्ध' कहलाने लगा। न्यायवार्त्तिक में इसके तीन भेद कहे गये हैं-

  1. स्वरूपासिद्ध - पक्ष में यदि हेतु ही नहीं रहे तो स्वरूपासिद्ध कहलाता है। जैसे हृद द्रव्य है, क्योंकि वहाँ धूम है। ‘ह्रदो द्रव्यं धूमात्’।
  2. आश्रयासिद्ध - पक्षतावाच्छेदक धर्म यदि पक्ष में नहीं रहे तो पक्षासिद्ध या आश्रयासिद्ध होता है। जैसे ‘काञ्चनमय: पर्वतो वह्निमान्’ इस अनुमान में काञ्चनमयत्व धर्म पर्वत में नहीं रहता है।
  3. अन्यथासिद्ध - जो हेतु अन्यथा दूसरे प्रकार से सिद्ध हो जाए उसे अन्यथासिद्ध कहते हैं। जैसे छाया द्रव्य है क्येकि इसमें गति देखी जाती है- ‘छाया द्रव्यं गतिमत्वात्।’ यहाँ आलोकविशेष के अभाव को छाया मानने पर भी स्थानान्तर में उसका दर्शन हो सकता हैं क्योंकि प्रतिवादी के मत में अभाव का भी चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है। किन्तु अन्य दार्शनिकों के मत में छाया द्रव्य पदार्थ नहीं है, तो भी स्थानान्तर में उसका दर्शन होता है। अत: यह हेतु अन्यथासिद्ध हुआ। सोपाधिक हेतु को भी अन्यथासिद्ध कहा गया है।
  • नव्य नैयायिक की दृष्टि में असिद्ध का तीसरा भेद अन्यथासिद्ध न होकर व्याप्यत्वासिद्ध होता हैं हेतु की व्यर्थ विशेषणवत्ता व्याप्यत्वासिद्धि कहलाती है। तर्कभाषा में इसके दो उपभेद माने गये हैं- हेतु में व्याप्तिनिश्चय का अभाव और उपाधि से युक्त हेतु की सत्ता।
  • किसी-किसी नैयायिक की दृष्टि में सिद्धसाधन और अप्रयोजक दो अधिक हेत्वाभास होते हैं भासर्वज्ञ ने न्यायसार में अनध्यवसित को छठा हेत्वाभास माना है। किन्तु आचार्य उदयन ने न्यायकुसुमाञ्जलि[78] में हेत्वाभास के पाँच से अधिक प्रकारों को गौतमसम्मत नहीं कहा है। अन्यथा हेत्वाभास का विभाजक न्यायसूत्र व्यर्थ हो जाएगा।
  • आचार्य उदयन की दृष्टि में अन्य सभी हेत्वाभासों का इन्हीं पाँच हेत्वाभासों में अन्तर्भाव होता है। जैसे सिद्धसाधन का अन्तर्भाव आश्रयासिद्धि में होता है।
  • साध्यधर्म की व्याप्ति से युक्त पक्षधर्मरूप जो हेतु, वह साध्यधर्म के सदृश है अर्थात् असिद्ध है साध्यसम है। यहाँ यही अभिप्राय गौतम का प्रतीत होता है।
  • यहाँ यह जानना आवश्यक है कि उपाधि किसे कहते हैं। अनुमान के स्थल में जो पदार्थ साध्य का व्यापक हो और साधन का अव्यापक है उसे ‘उपाधि’[79] कहते हैं। यह उपाधि सन्दिग्ध एवं निश्चित के भेद से दो प्रकार की होती है। जिस पदार्थ के साध्य धर्म की व्यापकता में अथवा हेतु की अव्यापकता में अथवा इन दोनों में ही सन्देह हो वह सन्दिग्ध उपाधि है। सन्दिग्ध उपाधि के स्थल में, हेतु में साध्य धर्म के व्यभिचार का सन्देह होने से उस हेतु से अनुमिति नहीं होती है। निश्चित उपाधि के स्थल में उस उपाधि पदार्थ के व्यभिचारित्व हेतु से हेतु पदार्थ में उस साध्य धर्म के व्यभिचार की अनुमति होती है। जिससे व्यभिचार निश्चय रूप प्रतिबन्धक के विद्यमान रहने से व्याप्तिनिश्चय नहीं हो पाता हा। और उसके अभाव में अनुमति भी नहीं होती है। अप्रयोजक भी वहीं हेतु होता है जहाँ उपाधि का सन्देह या निश्चय रहता है। इस स्थल में हेतु में साध्य के व्यभिचार संशय का निवर्तक अनुकूल तर्क नहीं रहता है।

कालातीत (बाधित)

जो हेतु अनुमान के काल बीत जाने पर प्रयुक्त होता है वह कालातीत[80] या बाधित कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जब तक पक्ष (धर्मी) में साध्य धर्म के अभाव का निश्चय नहीं हुआ है, तब तक उस धर्मी में उस साध्य धर्म की अनुमिति हो सकती है। किन्तु किसी सबल प्रमाण से उस साध्यधर्म के अभाव के निश्चय हो जाने पर, उस धर्मी में उस धर्म की अनुमिति का समय नहीं रह पाता है। फलत: अनुमान के काल बीत जाने पर जो प्रयुक्त होता है वह कालातीत है। तार्किकरक्षा में कहा गया है-

कालातीतो बलवता प्रमाणेन प्रबाधित:। (बलवान् प्रमाण से बाधित हेतु बाध, बाधित या कालातीत कहलाता है।)

छल

जल्प और वितण्डा कथाओं में प्रतिवादी यदि अवसर पर किसी कारण से सदुत्तर नहीं दे पाता है, तो पराजय के भय से चुप न रहकर असदुत्तर कहने के लिए भी कभी विवश हो जाता है। यह असदुत्तर विशेष ही छल पदार्थ है। वादी के अभिमत शब्दार्थ से भिन्न अर्थ की कल्पना करके वादी के वचन का खण्डन करना छल नामक असदुत्तर होता है।[81] इसके तीन प्रकार वर्णित हैं-

  1. वाक्छल - विविधार्थक पद के प्रयोग करने पर वक्ता के विवक्षित अर्थ से भिन्न अर्थ को लेकर जो निषेध किया जाता है उसे वाक्छल कहते[82] हैं।
  2. सामान्य छल - सम्भाव्यमान पदार्थ के सम्बन्ध में अतिव्यापक किसी सामान्य धर्म की सत्ता से वक्ता के अनभिमत किसी असंभव अर्थ की कल्पना से जो निषेध किया जाता है उसे सामान्य छल[83] कहते हैं।
  3. उपचारच्छल - वादी किसी लाक्षणिक पद का प्रयोग करता है और प्रतिवादी उसके मुख्य अर्थ को लेकर निषेध करता है, इस असदुत्तर को उपचारच्छल कहते हैं।[84]

जाति

जाति शब्द के यद्यपि अनेक अर्थ प्रसिद्ध हैं, किन्तु यहाँ असद् उत्तर विशेष के अर्थ में वह प्रयुक्त हैं। जल्प और वितण्डा कथाओं में जो उत्तर प्रतिवादी के अपने उत्तर की भी हानि कर सकता है अर्थात जो समान रूप से दोनों पक्षों की हानि कर सकता है वह 'जाति' या 'जात्युत्तर' है। यह जाति पद उक्त अर्थ में पारिभाषिक है। महर्षि गौतम ने इसके लक्षण में कहा है कि व्याप्ति की अपेक्षा नहीं करके केवल किसी साधर्म्य या वैधर्म्य से दोष का प्रदर्शन जाति है।[85] इस जाति के चौबीस प्रकार यहाँ निर्दिष्ट हैं- साधर्म्यसमा, वैधर्म्यसमा, उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यसमा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा, साध्यसमा, प्राप्तिसमा, प्राप्तिसमा, अप्राप्तिसमा, प्रसंगसमा, प्रतिदृष्टान्तसमा, अनुत्पत्तिसमा, संशयसमा, प्रकरणसमा, अहेतुसमा, अर्थापत्तिसमा, अविशेषसमा, उपपत्तिसमा, उपलब्धिसमा, अनुपलब्धिसमा, अनित्यसमा, नित्यसमा और कार्यसमा।[86] न्याय दर्शन के पंचम अध्याय के प्रथम आह्निक में इनके लक्षण तथा असदुत्तर होने में युक्तियाँ दिखायी गयी हैं।

निग्रहस्थान

परजय रूप निग्रह तथा खलीकार रूप निग्रह के स्थान अर्थात कारण को निग्रहस्थान कहते हैं। वादी या प्रतिवादी की विप्रतिपत्ति अर्थात किसी विषय में विपरीत ज्ञान, रूप भ्रम और बहुत स्थलों में अप्रतिपत्ति अर्थात अज्ञान इसके निग्रहस्थान होने में मूल है। इससे वादी या प्रतिवादी की विप्रतिपत्ति विपरीतज्ञान या अप्रतिपत्ति- अज्ञान अनुमित होता है, अत: ये निग्रहस्थान[87] माने गये हैं। न्यायदर्शन के पंचम अध्याय के द्वितीय आह्निक में इस निग्रहस्थान के प्रभेद एवं उन प्रभेदों के लक्षण कहे गये हैं। प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञासंन्यास, हेत्वन्तर, अर्थान्तर, निरर्थक, अविज्ञातार्थ, अपार्थक, अप्राप्तकाल, न्यून, अधिक, पुनरुक्त, अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप, मतानुज्ञा, पर्यनुयोज्योपेक्षण, निरनुयोज्यानुयोग, अपसिद्धान्त और हेत्वाभास।[88] निग्रहस्थान के ये बाईस प्रभेद यहाँ स्वीकृत हैं।

पहले सव्यभिचार आदि पाँच प्रकारों के हेत्वाभास के लक्षण आदि कहे गये हैं। इन लक्षणों से युक्त प्रत्येक हेत्वाभास निग्रहस्थान होता है। वाचस्पति मिश्र आदि अनेक प्राचीन आचार्यों ने अपनी व्याख्या में न्यायदर्शन के अन्तिम सूत्र में समागत ‘च’ शब्द से अन्य निग्रहस्थानों की ओर सूत्रकार के संकेत का निर्देश किया है। तत्त्वचिन्तामणि की असिद्धि भाग की दीक्षिति के अन्त में अघुनाथ शिरोमणि ने भी कहा है कि चकार से अन्य निग्रहस्थान भी अभिप्रेत[89] है। यहाँ कहा गया है कि व्यर्थ विशेषण से युक्त व्याप्यत्वासिद्ध नामक हेत्वाभास नहीं होता है, अपितु वह दोष वादी का है कि व्यर्थ विशेषण से युक्त हेतु का प्रयोग करता है। अत: वह निग्रहस्थान ही है। इन बाईस प्रकारों के निग्रहस्थान में अपसिद्धान्त तथा हेत्वाभास का व्यवहार तत्त्वनिर्णय के उद्देश्य से की गयी वाद कथा में होती है। किसी-किसी के मत से अन्य निग्रहस्थानों का व्यवहार भी वाद कथा में किया जा सकता है। जल्प और वितण्डा कथाओं में तो इनका अव्याहृत व्यवहार होता है। विजय की कामना से ही उन कथाओं का प्रवर्तन होता हैं। इन निग्रहस्थानों के विशेष परिचय के बिना किसी विचार का होना ही कठिन हैं आत्मरक्षा के साथ परपक्ष के शातन हेतु इसका ज्ञान अवश्य अपेक्षित है। दूसरों के द्वारा असदुत्तर के व्यवहार करने पर उसको निग्हीत करने के लिए तथा स्वयं इसके व्यवहार नहीं करने के लिए इन असदुत्तरों का तथा निग्रहस्थानों का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है।

उपर्युक्त इन सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान से नि:श्रेयस लाभ की बात न्यायदर्शन के प्रथम सूत्र में निर्दिष्ट है। यह नि:श्रेयस दो प्रकार के माने गये हैं- ऐतिक अभ्युदय और आमुष्मिक अपवर्ग। कौटिल्य का यह कहना है कि आन्वीक्षिकी विपत्ति एवं अभ्युदय के समय में बुद्धि को संयमित करती है[90] इसके ऐहिक अभ्युदय की ओर संकेत करता है और अपवर्ग के साधन का विवरण चतुर्थ अध्याय के तत्त्वज्ञान परिपालन तथा उसकी विवृद्धि प्रकरण में स्पष्टत: निर्दिष्ट है। अपवर्गप्राप्ति के उपाय न्यायदर्शन के द्वितीय सूत्र में ही कहे गये हैं, जो यहाँ अपवर्ग के सन्दर्भ में अभिहित हैं।

प्रमाता की प्रमेय विषयक प्रमिति प्रमाणों पर ही आधारित रहती है। अतएव प्रमाण सर्वाधिक महत्त्वशाली माना गया है। यही कारण है कि इस शास्त्र में प्रमाणों का विवेचन प्रधान रूप से हुआ है तथा पदार्थों के परिगणन के समय सबसे पहले इसी का उल्लेख है। भाष्यकार वात्स्यायन ने कहा है कि प्रमाणों के अर्थवान होने पर ही प्रमाता, प्रमेय और प्रमिति अर्थ से युक्त होती है। किसी एक के नहीं रहने से अर्थ उपपन्न नहीं हो पाता हे। प्रमाणों में भी यहाँ प्रमुखता अनुमान की है। अत: आन्वीक्षिकी इसका सार्थक नाम है। यहाँ एक बात और आलोचनीय है। न्यायदर्शन केवल अध्यात्मविद्या या मोक्षशास्त्र ही नहीं है, यह एक प्रक्रियाशास्त्र भी है। न्यायदर्शन की विचारपद्धति शास्त्रान्तर के परिज्ञान में भी सहायिका होती है। यही कारण है कि सभी विद्याओं का प्रदीप, सभी कार्यों के उपाय तथा सभी धर्मों का आश्रय इसे कहा गया है-

प्रदीप: सर्वविद्यानामुपाय: सर्वकर्मणाम्।
आश्रय: सर्वधर्माणां शाश्वदान्वीक्षिकी मता॥[91]

न्यायमंजरी में जयन्तभट्ट ने न्यायशास्त्र को विद्यास्थान कहा है। यहाँ विद्यास्थानत्व से चौदह प्रसिद्ध विद्याओं के पुरुषार्थ साधनता के उपाय को ही लिया जाता है। वेदन अर्थात ज्ञान ही विद्या है, इस ज्ञान से घटादि विषयक ज्ञान नहीं विवक्षित है अपितु पुरुषार्थ साधन का ज्ञान विवक्षित है। उसका स्थान अर्थात आश्रय उपाय- यह न्यायविद्या है। इससे न्यायविद्या[92] का प्रक्रियाशास्त्रत्व एवं अध्यात्मशास्त्रत्व दोनों उपपन्न होता है।

पाश्चात्त्य विद्वान् ने इसका नाम वादशास्त्र रक्खा है, क्योंकि यहाँ वाद, जल्प तथा वितण्डा आदि का विचार अर्थात शास्त्रार्थ की परिपाटी न्यायसूत्र में ही आरम्भ हो गया था और उसका पल्लवन उदयनाचार्य के न्यायपरिशिष्ट तथा शंकर मिश्र के वादिविनोद आदि में देखा जाता है। इन सोलह पदार्थों से अतिरिक्त किन्तु उनसे ही साक्षात या परम्परया संबद्ध न्यायदर्शन के प्रसिद्ध विषयों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है। जैसे - *परत: प्रामाण्यवाद,

  • अन्यथाख्याति,
  • आरम्भवाद,
  • अवयवी की सिद्धि
  • ईश्वरसिद्धि आदि।

परत: प्रामाण्यवाद

प्रमाणों का प्रामाण्य स्वत: सिद्ध है या परत: अर्थात ज्ञानग्राहक सामग्री से ही वह उपपन्न होता है या अतिरिक्त कारण की अपेक्षा रखता है- इस तरह की विप्रतिपत्ति के उठने पर नैय्यायिक यहाँ द्वितीय कोटि को स्वीकार करता है अर्थात परत: प्रामाण्य मानता है। 'प्रदीपप्रकाशसिद्धिवत् तत्त्सिद्धे:' 2/1/19। इस सूत्र से परत: प्रामाण्यवाद की ओर ही महर्षि गौतम का स्वारस्य प्रतीत होता है। जैसे प्रदीप का प्रकाश चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा विदित होता है अर्थात प्रदीपान्तर की अपेक्षा नहीं रहने पर भी प्रदीप के देखने हेतु चक्षुष इन्द्रिय अवश्य अपेक्षित होती है। अतएव अन्धव्यक्ति को उस प्रदीप का दर्शन नहीं हो पाता है। इसी तरह प्रमाणों का प्रामाण्य भी प्रामाणान्तर से सिद्ध होता है। जैसे प्रदीप स्वत: प्रकाश नहीं है उसके प्रकाश-दर्शन के लिए द्रष्टा को चक्षुष इन्द्रिय आवश्यक है वैसे ही प्रमाणों के प्रामाण्य में भी प्रमाणान्तर की अपेक्षा अवश्य होती है। उक्त प्रदीप के दर्शन हेतु चक्षुष इन्द्रिय के आवश्यक होने पर भी उसका ज्ञान उस समय में आवश्यक नहीं होता है। ऐसे ही प्रमाणों के प्रामाण्य साधक प्रमाण के रहने पर भी उसका ज्ञान आवश्यक नहीं होता है। क्योंकि सर्वत्र प्रमाण में प्रामाण्य का संशय नहीं होता है। कहीं-कहीं प्रमाण के द्वारा यथार्थ ज्ञान के उत्पन्न होने पर भी उस ज्ञान में यथार्थता का संशय होता है। इस स्थल में उक्त प्रमाण पदार्थ में भी यथार्थता का सन्देह होता है। फलत: यथार्थ ज्ञान का तथा यथार्थ प्रमाण का यथार्थत्व प्रामाणान्तर से निश्चित होता है। इसी का नाम है ‘परतो ग्राह्यत्व’।

अभिप्राय यह है कि प्रमाण की प्रामाण्यसिद्धि के लिए प्रमाणान्तर को मानना होगा। यह प्रमाणान्तर अनुमान स्वरूप होता है, अत: वह प्रामाण्य का साधक कहलाता है। प्रमाण के द्वारा किसी विषय के ज्ञान होने पर व्यक्ति उस विषय में प्रवृत्त होकर सफलता प्राप्त करता है। यहाँ उक्त प्रमा ज्ञान के द्वारा उसका कारण रूप प्रमाण भी सफल प्रवृत्ति का जनक होता है। उक्त अनुमान का स्वरूप इस प्रकार का होता है (मेरा) यह ज्ञान यथार्थ है, क्योंकि इसमें सफल प्रवृत्ति की जनकता विद्यमान है, जो ऐसा नहीं है वह यथार्थ भी नहीं है। 'इदं ज्ञानं यथार्थं सफलप्रवृत्तिजनकत्वात्, यत्रैवम् तत्रैवम्।' मृगतृष्णा में जल के भ्रम होने पर उससे उत्पन्न जल पीने की प्रवृत्ति सफल नहीं होती है, अत: वह भ्रम कदापि प्रमाण नहीं होता है और प्रमाण के द्वारा यथार्थ जल के ज्ञान होने पर उसके पीने से पिपासा का उपशम होता है अर्थात जलपान में पिपासु व्यक्ति की प्रवृत्त सफल होती है। अत: निर्विवाद रूप से यह प्रमाण होता है। उक्त अनुमान के द्वारा पूर्व में उत्पन्न जलज्ञान की यथार्थता उपपन्न होती है।

वेद आदि शास्त्र रूप अदृष्टार्थक शब्द प्रमाण का प्रामाण्य भी दूसरे प्रमाण- अनुमान से सिद्ध होता है। वेदवाक्यजन्य शब्दबोध का जो यथार्थत्व है वह उस वेद के वक्ता पुरुष के वेदार्थविषयक यथार्थज्ञान रूप गुण से उत्पन्न है। अत: उस सतरह के पुरुष से कृत होने के नाते न्यायमत में वेद पौरुषेय है और उस आप्त पुरुष (ईश्वर) के प्रमाण होने से ही वेद में प्रामाण्य सिद्ध होता है। प्रमाण के प्रामाण्य साधक इस अनुमान प्रमाण में प्रामाण्य के सन्देह नहीं होने पर, इस अनुमान के प्रामाण्य की सिद्धि हेतु अनुमानान्तर की आवश्यकता नहीं होती है। सभी प्रमाणों में प्रामाण्य का सन्देह नहीं होता है। अन्यथा व्यक्ति के प्रमाणमूलक निश्चय होने पर जो व्यवहार या प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं, वह उत्पन्न नहीं होंगी। अत: न्यायमत में प्रमाण परत: ग्राह्य है किन्तु परत: ग्राह्य ही नहीं है, कदाचित स्वत: ग्राह्य भी है।

'ज्ञानविकल्पानां भावाभावसंवेदनादध्यात्मम्' (5/1/31।) इस न्यायसूत्र में ‘ज्ञानविकल्प’ से विशिष्टविषयक ज्ञान (सविकल्पकज्ञान) को लिया जाता है, जिसके मानस प्रत्यक्ष रूप अर्थात अनुव्यवसाय को यह सूत्र अभिव्यक्त करता है। घटत्वरूप से घटविषयक ज्ञान होने पर, दूसरे क्षण में घटत्वविशिष्ट घट को मैं जानता हूँ (घटत्वेन घटमहं जानामि) इस तरह का जो मानसबोध होता है, उसी का नाम है- अनुव्यवसाय। इस अनुव्यवसाय के प्रामाण्य का साधक प्रमाणान्तर-अनुमान-मानना आवश्यक हैं अन्यथा इस अनुव्यवसाय में प्रामाण्य नहीं आ पायेगा। अत: न्यायमत में सविकल्पकज्ञान तथा अनुव्यवसाय स्वत: प्रकाश नहीं है, अपितु दोनों ही पर प्रकाश्य हैं अनुव्यवसाय में प्रमात्व या भ्रमत्व विषय नहीं होता है। अनुमान से उसके भ्रमत्व या प्रमात्व का निश्चय किया जाता है। फलत: भ्रमत्व एवं प्रमात्व दोनों ही परत: ग्राह्य होते हैं। स्वत: नहीं। भ्रमात्मक ज्ञान की उत्पत्ति जैसे किसी दोष से होती है वैसे उसके भ्रमत्व के निश्चय में भी वह दोष कारण होता है। प्रमात्मक ज्ञान की उत्पत्ति जैसे किसी गुण से होती है वैसे उसके प्रमात्व के निश्चय में भी वह गुण कारण होता है। इसी प्रक्रिया से प्रमाणों का परत: प्रामाण्य उपपन्न होता है। भ्रमात्मक ज्ञान की उत्पत्ति का विशेष कारण यहाँ दोष पद से तथा प्रमात्मक ज्ञान की उत्पत्ति का विशेष कारण गुण पद से विवक्षित हैं।

परत: प्रामाण्यवादी नैय्यायिक का कहना है कि किसी विषय में किसी को वस्तुत: प्रमाज्ञान होने पर भी जब किसी स्थल में सन्देह होता है कि यह ज्ञान प्रमात्मक है या नहीं? तब उस प्रमाज्ञान के बोधक कारण के द्वारा ही उसके प्रमात्व का निश्चय हो जाने पर उस विषय में संशय हो ही नहीं सकता है। कारण रहने पर कार्य अवश्य होता है। यदि ज्ञानग्राहक सामग्री ही प्रमात्व का निशचायक होगा तब संशय कैसे हो सकता है। किन्तु सन्देह अनुभव सिद्ध है, अत: उसका अपलाप संभव नहीं है। यदि माना जाए कि ऐसे स्थल में ज्ञाता पुरुष के किसी दोष के प्रतिबन्धक रूप में रहने पर, पहले उस ज्ञान में प्रमात्व का निश्चय नहीं हो पाता है। तो कहना होगा कि किस तरह का दोष यहाँ प्रमात्व के निश्चय का प्रतिबन्धक हैं साथ ही दोष के रहने पर यह ज्ञान भ्रमात्मक ही क्यों नहीं होता? ज्ञान के प्रमात्व-निश्चय में किसी दोष को प्रतिबन्धक मानने पर, उसके अभाव को अतिरिक्त कारण मानना होगा। क्योंकि कार्यमात्र के प्रति प्रतिबन्धक का अभाव कारण होता है। प्रमाज्ञान के प्रमात्व-निश्चय में अतिरिक्त किसी कारण की अपेक्षा नहीं होती है- अर्थात प्रमात्व स्वतोग्राह्य है- यह नहीं कहा जा सकता है। इसी तरह प्रमात्मक ज्ञान की उत्पत्ति में गुण के रूप में किसी अतिरिक्त प्रमाण के नहीं मानने पर भी दोषाभाव को कारण मानना ही होगा। क्योंकि भ्रम के जनक दोष रहने पर भ्रमात्मक ज्ञान अवश्य होता है, प्रमात्मक ज्ञान नहीं होता है। प्रमा ज्ञान की उत्पत्ति या उसका प्रमात्व यदि सर्वत्र दोषाभाव रूप अतिरिक्त कारण से उत्पन्न होता है तो उत्पत्तिपक्ष में भी स्वत: प्रामाण्यवाद की रक्षा नहीं हो पाती है। तस्मात् परत: प्रामाण्यवाद युक्ति एवं प्रमाण से प्रतिपन्न होता है।

अन्यथाख्याति

जो धर्म जहाँ नहीं रहता है, उस धर्म के साथ उस वस्तु का ज्ञान अर्थात भ्रमज्ञान अन्यथाख्याति कहलाता है। अन्य प्रकार से ज्ञान उसका व्युत्पत्तिलम्य अर्थ होता है। ख्याति पद यहाँ ज्ञान का वाचक है। विशेष्यता के व्यधिकरण धर्म अन्य पद से विवक्षित है। अभिप्राय यह है कि शुक्तिका में जो रजत का भ्रम होता है। यहाँ प्रातिभासिक रजत की उत्पत्ति नहीं होती है अपितु नेत्रदोष, दूरत्व तथा अस्फुट आलोक आदि दोषों के कारण शुक्तिका के अपना धर्म शुक्तित्व का ग्रहण नहीं हो पाता है, किन्तु सादृश्य एवं चाकचिक्य आदि के कारण रजतत्त्व रूप धर्म की कल्पना के बल पर वह शुक्तिका रजतत्वरूप से परिग्रहीत हो जाती है, जिसे भ्रम कहते हैं। यही है अन्यथाख्याति।

आरम्भवाद

परमाणु प्रभृति उपादान कारणात्मक द्रव्य में असत अर्थात् उत्पत्ति के पहले अविद्यमान-अवयवी द्रव्य की उत्पत्ति ही आरम्भ पद का अर्थ होता है और इसका प्रतिपादक मत आरम्भवाद कहलाता है। परमाणुकारणवाद इसी का नामान्तर है। न्यायदर्शन के चतुर्थ अध्याय में इसका प्रतिपादन देखा जाता है। ‘व्यक्ताद् व्यक्तानां प्रत्यक्ष प्रामाण्यात्।’ यह प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है कि व्यक्त कारण से व्यक्त कार्य की उत्पत्ति होती है। इन्द्रिय से ग्राह्य द्रव्य व्यक्त पद से यहाँ विवक्षित है। यद्यपि कार्य द्रव्य का मूल कारण परमाणु अतीन्द्रिय माना गया है, तथापि इन्द्रियग्राह्य द्रव्य के सजातीय होने के कारण वह भी व्यक्त कहलाता है।

इस जगत के मूल कारण रूप अतीन्द्रिय इस परमाणु का अस्तित्व प्रत्यक्षमूलक अनुमान के द्वारा उत्पन्न होता है। रूप आदि गुणविशिष्ट मृत्तिका आदि स्थूल भूतों से तज्जातीय अन्य घटादि द्रव्य की उत्पत्ति देखकर, इसी दृष्टान्त के आधार पर अतीन्द्रिय परमाणु भी सिद्ध किया जाता है। घटादि द्रव्य के जो रूप, रस आदि विशेष गुण उत्पन्न होते हैं, उनके मूल कारण परमाणु में भी वे गुण अवश्य विद्यमान रहते हैं। उपादान (समवायि) कारण में विद्यमान विशेष गुण ही कार्य द्रव्य में तज्जातीय विशेष गुण के जनक होते हैं। अतएव लाल धागे से बने हुए वस्त्र लाल ही होते हैं। नियम है कि कारणगत गुण कार्यगत गुण के जनक होते हैं- ‘कारणगुणा: कार्यगुणानारभते’। अवधेय है कि यह नियम विशेष गुण में लागू होता है, सामान्य गुण में नहीं। अतएव परमाणुओं की द्वित्वसंख्या (सामान्य गुण) से द्व्यणुक में जो परिमाण उत्पन्न होता है, उसके, संख्या के विजातीय गुण होने पर भी कोई क्षति नहीं है।

यहाँ आरम्भवाद की स्थापना से नैय्यायिक को सत्कार्यवाद के प्रति असहमति का प्रदर्शन भी अभिप्रेत है। इसी बात को समझाने के लिए सूत्रकार ने व्यक्त से व्यक्त की उत्पत्ति की बात कही है। त्रिगुणात्मिका प्रकृति (अव्यक्त) को इस जगत के मूल कारण के रूप में स्वीकार करना नैय्यायिकों को इष्ट नहीं है। जयन्तभट्ट ने अपनी न्यायमंजरी[93] में कहा है कि उपर्युक्त सूत्र में व्यक्त पद से कपिल मुनि के स्वीकृत अव्यक्त कारण का निषेध करके परमाणुओं में शरीर आदि कार्य की कारणता कही गयी है। ‘व्यक्तादिति कपिलाभ्युपगतत्रिगुणात्मकाव्यक्तरूपकारणनिषेधेन परमाणूनां शरीरादौ कार्ये कारणत्वमाह’।[94] फलत: असत्कार्यवाद भी आरम्भवाद का नामान्तर है। वह इससे भिन्न नहीं है।

यहाँ प्रक्रिया यह है कि दो परमाणुओं के संयोग से सबसे पहले जो द्रव्य उत्पन्न होता है उसका नाम द्यणुक है। इसका प्रत्युक्ष नहीं होता है। वह अणु परिमाण का होता है। तीन द्यणुकों के संयोग से जो द्रव्य उत्पन्न होता हा, उसका नाम त्रसरेणु या त्र्यणुक है। सबसे पहले इसी में स्थूलत्व या महत्परिमाण उत्पन्न होता है, अत: इसका प्रत्यक्ष होता हैं प्रत्यक्ष के प्रति महत्परिमाण कारण होता है और महत्परिमाण की उत्पत्ति में तीन कारण कहे गये हैं-

  1. द्रव्य के उपादान कारण में विद्यमान बहुत्व संख्या,
  2. महत्परिमाण और
  3. प्रचय विशेषज्ञ (शिथिल संयोग विशेष)। द्यणुक के कारण में इन तीनों में से एक भी विद्यमान नहीं हे। किन्तु त्रसरेणु के समवायि (उपादान) कारण में बहुत्व संख्या वर्तमान है। अत: उसका प्रत्यक्ष होता है। बहुत्व संख्या के कारण यहाँ स्थूलत्व या महत्परिमाण उत्पन्न होता है। मनुस्मृति में इस त्रसरेणु का लक्षण किया गया है, जो न्यायदर्शन के अनुकूल है-

जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रज:
प्रथमं तत्प्रमाणानां त्रसरेणुं प्रचक्षते 118/132।

यहाँ अवधेय है कि द्यगुकों के संयोग से किसी द्रव्य की उत्पत्ति मानने पर उसका प्रत्यक्ष नहीं हो पायेगा। क्योंकि वहाँ महत्परिमाण या स्थूलत्व का अभाव रहेगा। महत्परिमाण प्रत्यक्ष के प्रति कारण होता है। उपर्युक्त महत्परिमाण के कारणों में से एक भी यहाँ नहीं है। अत: तीन द्यणुकों से त्रसरेणु की उत्पत्ति मानी जाती हे, जहाँ बहुत्व संख्या महत्परिमाण का जनक होती है। फलत: इस त्रसरेणु की उत्पत्ति द्यणुक से और द्यणुक की उत्पत्ति परमाणु से होती है। परमाणु की सिद्धि हेतु नैय्यायिक का कहना है कि सावयव द्रव्य के अवयव विभाग का अन्त कहीं मानना होगा, जहाँ वह माना जाएगा वहीं परमाणु है। अन्यथा पर्वत और सर्षप में तुल्य परिमाणता हो जाएगी, जो अनुभव विरुद्ध है।

सावयव द्रव्य के अवयव परम्पराओं का विभाग करते-करते ऐसे किसी छोटे अंश में उस विभाग का अन्त होता है, जिसका कोई अंश नहीं होता। वही अति सूक्ष्म अंश परमाणु है। पर्वत आदि के अवयव तथा उसके अवयव आदि परम्परा का विभाग होने पर अन्त में जहाँ उसका विश्राम होता है, उन परमाणुओं की संख्या अधिक होने पर, वह अवयवी क्रमश: महत्, महत्तर और महत्त्म होता है। और जिसकी (अवयवी की) अवयव-परम्परा के विभाग के समय परमाणां की संख्या कम होती है, वह लघु, लघुतर एवं लघुतम यथाक्रम होता है। इस तरह परिमाण के तारतम्य से छोटा-बड़ा अवयवी उपपन्न होता है। इस अवयव- विभाग का यदि कहीं अन्त नहीं हो तो जैसे पर्वत के अवयव विभाग का अन्त नहीं है वैसे सर्षप (सरसों) के अवयव विभाग का भी अन्त नहीं होगा। ऐसी परिस्थिति में सर्षप तथा पर्वत दोनों ही अनन्त अवयवविशिष्ट होने से दोनों की तफलय परिमाणता मानने में कोई बाधा नहीं होगी। किन्तु यह अनुभव विरुद्ध है, अत: अवयव परम्परा का विश्राम परमाणु में मानना आवश्यक है।

न्यायदर्शन के चतुर अध्याय में ‘संयोगोपपत्तेश्च’ तथा ‘अनवस्थाकारित्वाद नवस्थानुपपत्तेश्चाप्रतिषेध:’ 4/2/24-25। सूत्रों के द्वारा उपर्युक्त अभिप्राय की सम्पुष्टि होती है। यहाँ कहा गया है कि परमाणु के अवयव मानने पर, उसका अवयव पुन: उसका अवयव आदि अनन्त अवयव-परम्परा की सिद्धि रूप आपत्ति होगी, जो अनावस्था कहलाती है। अनावस्था दोष में प्रयोजक होने से परमाणु का अवयव सिद्ध नहीं होता है। चूँकि यह अनावस्था बीजांकुर की तरह प्रामाणिक नहीं है अत: न तो मान्य है और न उत्पन्न ही होता है। यह भी नहीं कहा जा सकता है कि जन्य द्रव्य की अवयव-परम्परा के चरम विभाग के बाद कुछ अवशिष्ट ही नहीं रहता है। अत: परमाणु की सत्ता सिद्ध नहीं होती है। क्योंकि विभाग के लिए विभाग के आधार कभी नष्ट नहीं होते हैं। निराश्रय विभाग तो अलीक हो जाएगा। अत: जिन दो में विभाग होता है, उन दोनों की सत्ता अवश्य होती है। न्यायभाष्यकार ने स्पष्ट कहा है कि विभाग से विभज्यमान द्रव्यों की हानि नहीं होती है- ‘विभागस्य विभज्यमानहानिर्नोपपद्यते’ (4/2/25।)

अवयवी की सिद्धि में युक्तियाँ

परमाणु की सिद्धि की प्रक्रिया ही अवयवी द्रव्य की सिद्धि करती है। अवयवी का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है सावयव पदार्थं इसके तीन प्रकार कहे गये हैं-

  1. आद्यावयवी यथा द्व्यणुक
  2. अन्तरावयवी यथा त्रसरेणु, चतुरणुक, कपालिका तथा कपाल आदि
  3. अन्त्यावयवी यथा घट, पट आदि।

बौद्ध दार्शनिक को छोड़कर प्राय: सभी दार्शनिक अवयवी को स्वीकार करते हैं। अत: बौद्ध दार्शनिक के समक्ष अवयवी को उपपन्न करने के लिए नैय्यायिकों ने सफल प्रयास किया है। बौद्धों का कहना है कि परमाणुओं के समूह से ही किसी पदार्थ की स्थूलता या महत्परिमाण उपपन्न हो जाएगा, अवयवी मानने की आवश्यकता क्या है ! परमाणु के अप्रत्यक्ष होने पर भी उसके समूह में प्रत्यक्षता आ जाएगी जैसे एक बाल के प्रत्यक्ष नहीं होने पर भी उसके समूह का प्रत्यक्ष होता है। पदार्थ में एकत्व बुद्धि की उपपत्ति हेतु भी अवयवी मानना आवश्यक नहीं है। जैसे धान के ढेर में एकत्व बुद्धि होती है उसी तरह यहाँ भी वह बुद्धि हो जाएगी । इसके उत्तर में नैय्यायिकों ने कहा है कि बाल का दृष्टान्त यहाँ नहीं संघटित होता है, क्योंकि दूर से एक बाल के प्रत्यक्ष नहीं होने पर भी निकट में उसका प्रत्यक्ष होता है और परमाणु तो दूरस्थ हो या निकटस्थ सर्वत्र वह अतीन्द्रिय ही है। अत: इसके समूह का भी प्रत्यक्ष नहीं होगा। यही कारण है कि तीन द्व्यणुकों से त्रसरेणु की उत्पत्ति कही गयी है छह परमाणुओं से नहीं। न्यायसूत्रकार ने स्पष्ट कहा है कि अवयवी के नहीं मानने पर किसी भी प्रत्यक्ष योग्य पदार्थ का प्रत्यक्ष नहीं होगा- 'सर्वाग्रहणमवयव्यसिद्धै:' (2/1/35) दूसरी बात यह है कि धारणा और आकर्षण अवयवी में ही उत्पन्न होते हैं। अन्यथा किसी काष्ठ खण्ड या घट आदि के एक देश के धारण और आकर्षण होने पर उसके समुदाय का धारण और आकर्षण नहीं होगा। परमाणु स्वरूप जो अंश धारित या आकृष्ट होगा उसी अंश का धारण और आकर्षण होगा सम्पूर्ण का नहीं। क्योंकि अंशी या अवयवी पदार्थ स्वीकृत नहीं है। इसलिए परमाणुपुंज से भिन्न उक्त प्रक्रिया के द्वारा परमाणुओं से ही गठित अवयवी द्रव्य अवश्य मान्य है। ‘धारणाकर्षणोपपत्तेश्च’ 2/1/36। न्यायसूत्र का यही तात्पर्य है।

ईश्वरसिद्धि

ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायसूत्रकार के समक्ष ईश्वर विवेच्य विषय नहीं था अपितु उपास्य के रूप में वह प्रसिद्ध था। ईश्वर के अस्तित्व में किसी को सन्देह नहीं थां अत एव सूत्रकार ने इस पर अपना मन्तव्य प्रस्तुत नहीं किया है। अन्यथा ऋषि की दृष्टि से इसका ओझल होना असंभव है। प्रावादुकों के मत के प्रसंग में जो ईश्वर के विषय में तीन सूत्र उपलब्ध होते हैं, वे तो निराकरणीय मतों के मध्य विद्यमान है। अतएव उनका महत्त्व अधिक नहीं माना जा सकता। उसका आशय तो कुछ भिन्न ही प्रतीत होता है। वार्त्तिक एवं तात्पर्य टीका में यहाँ मतभेद है। एक केवल ईश्वरकारणतावाद को पूर्वपक्ष के रूप में लेता है तो अपर ईश्वर में अभिन्न निमित्त उपादान कारणतावाद को पूर्वपक्ष रूप में स्वीकार करता है। यह मतभेद प्रमाणित करता है कि सम्प्रदाय में ईश्वरवाद प्रचलित नहीं था। किन्तु पूर्वपक्षी के रूप में बौद्ध, मीमांसक एवं अन्य दार्शनिकों के खड़ा होने पर आचार्य उदयन ने उनके मुखविधान हेतु एक विशाल प्रकरण ग्रन्थ भी प्रस्तुत किया, व्याख्यामुखेन इसका उपपादन तो किया ही। वही प्रकरण ग्रन्थ है न्यायकुसुमांजलि, जिसकी व्याख्या एवं उपव्याख्याएँ इस वर्तमान शताब्दी में भी लिखी जा रही हैं। सबसे पहले ईश्वर के विषय में भाष्यकार के समक्ष बौद्ध आदि की ओर से समस्या आयी होगी। अत: इन्होंने इसका समाधान किया है।

न्यायभाष्यकार ने बुद्धि आदि आत्म-विशेष गुणों से युक्त आत्म-विशेष को ईश्वर कहा है[95] वह अधर्म, मिथ्याज्ञान तथा प्रमाद आदि जीव सुलभ गुणों से रहित है, अत: जीव से भिन्न है। साथ ही ज्ञान (सम्यग्ज्ञान, विवेकज्ञान तथा नित्यज्ञान) (धर्मरूप प्रवृत्ति, क्लेशरहित प्रवृत्ति) तथा समाधिरूप सम्पत्ति से युक्त है वह, जो अन्य आत्मा में सर्वथा असम्भव है। धर्म तथा समाधि के फलरूप अणिमा आदि अष्टविध ऐश्वर्य ईश्वर में सदा विद्यमान रहते हैं।[96] अत: संसारी तथा मुक्त दोनों प्रकार के जीव से भिन्न ईश्वर अपने प्रकार का एक स्वयं वही है। यह ईश्वर किसी भी प्रकार के कर्म का अनुष्ठान किये बिना केवल संकल्प से सब कुछ करता रहता है। ईश्वर का संकल्पजन्य यह धर्म प्रत्येक जीव में समवेत धर्माधर्म रूप अदृष्ट को और पृथिवी आदि महाभूतों को सृष्टि के लिए प्रवृत्त करता है। यद्यपि कर्म के अभाव में धर्म का अस्तित्व ईश्वर में संभव नहीं है तथापि संकल्पात्मक आन्तरिक कर्म करते रहने के कारण नित्य धर्म का आश्रय वह माना गया है। ईश्वर का स्वभाव भी संकल्पात्मक है तथा उनके स्वकृत कर्म (संकल्प) का फल संसार के निर्माण में तत्परता है। संकल्प मात्र से वह संसार की रचना करता है।

ईश्वर हम लोगों का आप्त भी है। अतएव उसके वचनसमूह वेद विश्वसनीय हैं। जैसे पिता पुत्र के लिए आप्त होता है इसी तरह ईश्वर भी सभी प्राणियों के लिए आप्त है।[97] भाष्यकार ने यहाँ जीव तथा ईश्वर के सम्बन्ध के बीच केवल आप्तता के विषय में ही पिता-पुत्र का दृष्टान्त माना है। यह नहीं समझना चाहिये कि जैसे पुत्र का उत्पादक पिता होता है या पिता का अंश पुत्र होता है इस तरह जीव का उत्पादक ईश्वर है या ईश्वर का अंश है जीव। भाष्यकार ने अपने वक्तव्य के उपसंहार में कहा है कि बुद्धि आदि गुणों के आश्रय होने से आत्मा ही ईश्वर है। यदि ईश्वर आत्मलिंग बुद्धि आदि से रहित होता तो वह हनिरुपाख्य हो जाता। उसका विध्यात्मक वर्णन संभव नहीं होता। फलत: बुद्धि आदि आत्म विशेष गुणों से युक्त आत्मविशेषरूप सगुण ईश्वर सिद्ध होता है।

आचार्य उद्योतकर ने इसका संयुक्तिक पल्लवन किया है। इनकी दृष्टि में ईश्वर इस संसार का निमित्त कारण तथा अदृष्ट का अधिष्ठाता है। न्यायदर्शन का आरम्भवाद प्रसिद्ध है, जहाँ चारों महाभूतों के परमाणुसमूह को परम्परया संसार का समवायि (उपादान) कारण कहा गया है। कर्मों की सहायता से ईश्वर परमाणुओं के द्वारा सभी कार्यों को उत्पन्न करता है। अतएव वह निमित्त कारण है। जिस जीव के जिस कर्म का विपाक काल आता है, उस जीव को उस कर्म के अनुसार वह इस संसार में फल देता है- यही है ईश्वर का अनुग्रह। ईश्वर का ऐश्वर्य नित्य है, वह धर्म का (पूर्वकृत कर्म का) फल नहीं है। ईश्वर की संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग और बुद्धि – ये छह गुण नित्य विद्यमान रहते हैं। इसमें अक्लिष्ट तथा अव्याहत इच्छा भी है। यह शरीरी नहीं है।

परमाणुओं में जो क्रिया देखी जाती है वह प्रवृत्ति के पहले बुद्धिमान कर्ता से अधिष्ठित है। बुद्धिमान के अधिष्ठान के बिना अचेतन में क्रिया नहीं होती है। बढ़ई के अधिष्ठान के बिना कुल्हाडी लकड़ी को नहीं काट पाती है। अत: अचेतन परमाणुओं में क्रिया देखकर अनुमान होता है कि वह किसी चेतन से अधिष्ठित है। हम लोग उस क्रिया का अधिष्ठाता नहीं हो सकते हैं। क्योंकि अधिष्ठाता को अधिष्ठेय का प्रत्यक्ष ज्ञान आवश्यक है। परमाणुओं में महत्त्व के अभाव रहने से मानव इन्द्रियों से उसका प्रत्यक्ष संभव नहीं है। अत: अतीन्द्रिय परमाणुओं का प्रत्यक्ष करने वाला, हम लोगों से भिन्न, बुद्धिमान ईश्वर परमाणुओं की क्रिया का अधिष्ठाता सिद्ध होता है। धर्म और अधर्म बुद्धिमान कारण से अधिष्ठित होकर जीव को सुख एवं दु:ख का उपभोग कराते हैं। चूँकि धर्म और अधर्म करण है और करण किसी चेतन से अधिष्ठित होकर ही कार्य कर सकता है। अत: उसका अधिष्ठाता ईश्वर माना गया है और जीव उसका आश्रय होता है।

तात्पर्याचार्य वाचस्पति मिश्र ने वेद के कर्तारूप में भी ईश्वर की सिद्धि की है। इनका कहना है कि वेद पुरुष विशेष अर्थात ईश्वर का प्रणीत है। इस संसार का निर्माता परमेश्वर परम करुणामय तथा सर्वज्ञ है। इष्टलाभ तथा अनिष्टनिवृत्ति के उपायों के विषय में अज्ञ तथा विविध दु:ख रूप दहन में नियत रूप से जलते हुए जीवों की दु:ख से विरति के लिए ईश्वर अवश्य उपाय करता है। क्योंकि वह जीवों का पिता है। जीवों के स्रष्टा तथा कृत कर्मों के अनुसार फलभोग करानेवाला रंगेश्वर के लिए यह असंभव था कि वह इन जीवों के कल्याण हेतु हितप्राप्ति तथा अहितनिवृत्ति का उपदेश नहीं देता। वेद उस ईश्वर के विधि-निषेधात्मक उपदेश वाक्यों का समूह ही तो हे। वर्ण और आश्रम के धर्म तथा इसके आधार आदि की व्यवस्था करने वाला ईश्वरप्रणीत वेद प्रमाण है, आप्त वाक्य होने से जैसे मन्त्र एवं आयुर्वेद प्रमाण हे। अर्थात जैसे चिकित्सा शास्त्र में निर्दिष्ट औषधि के सेवन से रोगमुक्ति तथा मन्त्र की साधना से इष्टसिद्धि देखी जाती है, इसी तरह वेदोपदिष्ट आचरण से भी शुभी फल पाकर व्यक्ति उसे प्रमाण मानता है। यही कारण है कि चिरकाल से ऋषि, मुनि आदि महाजनों के द्वारा वह परिगृहीत है। चूँकि ईश्वर सर्वज्ञ है, अतएव उसके वचन समूह रूप वेद में भ्रम तथा प्रमाद आदि की गुंजाइश नहीं है। आचार्य उदयन के समक्ष दो प्रमुख पूर्वपक्षियों की आर से आक्रमण हुआ था अतएव इन्होंने पूर्ववर्ती अपने आचार्यों की मान्यताओं का पल्लवन करके आठ हेतुओं से ईश्वर को सिद्ध करने का सफल प्रयास किया है। 'न्यायकुसुमांजलि' के पंचम स्तवक में कार्य, आयोजन, धृत, पद, प्रत्यय, श्रुति, वाक्य और संख्याविशेष रूप आठ ईश्वर साधक हेतुओं का उल्लेख हुआ है-

कार्यायोजनधृत्यादे: पदात् प्रत्ययत: श्रुते:।
वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्यय:॥ 5/1॥

और इनकी दो प्रकारों से व्याख्या हुई है। पहली व्याख्या से बौद्धों के द्वारा किये गये आक्षेपों का परिहार हुआ है और दूसरी व्याख्या मीमांसकों के आक्षेपों का समाधान करता है। आचार्य उदयन के इन आठों ईश्वर साधक हेतु उद्योतकराचार्य तथा वाचस्पति के द्वारा निर्दिष्ट उपर्युक्त तीन हेतुओं का ही पल्लवन है। अत: संसार का कर्तृत्व, अदृष्ट का अधिष्ठातृत्व और वेद का निर्मातृत्व हेतुओं से ईश्वर अवश्य सिद्ध होता है।

टीका टिप्पणी

  1. प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय:। (वा.न्या.भा. 1/1/1)।
  2. ‘तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्ग: (न्यायसूत्र 1/1/22)।
  3. यह पद्य भुवनेश्वर के अनन्तवासुदेव के मन्दिर में उत्कीर्ण है।
  4. आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो

    मैत्रेय्यात्मना वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या वा विज्ञानेनेदं सर्व विज्ञातम्। (बृह. उप. 4.2.51)
    श्रोतव्य: पूर्वमाचार्यत आगमतश्च। पश्चान्मन्तव्यस्तर्कत इति (शाङ्करभाष्यम्।)
    श्रोतव्य: श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:।
    मत्वा च सततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥
    -प्रो. तङ्गास्वामी ने अपनी दर्शनमञ्जरी में मानव उपपुराण अध्याय 6 का पद्य कहा है।
    तत्त्वचिन्तामणि में, न्यायतत्त्वालोक पृ0 2 में तथा विवरणप्रमेयसंग्रह पृ0 2 में यह पद्य उल्लिखित है।

  5. प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यान्वीक्षणमन्वीक्षा तया प्रवर्तत इत्यान्वीक्षिकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रम् (न्यायभाष्य 1.1.1
  6. न्यायकुसुमाञ्जलि आरम्भिक उपक्रम अंश।
  7. साधनीयार्थस्य यावति शब्दसमूहे सिद्धि: परिसमाप्यते
    तस्य पञ्चावयवा: प्रतिज्ञादय’ समूहमपेक्ष्यावयवा उच्यन्ते।
    तस्य पञ्चावयवा: प्रतिज्ञादय: सोऽयं परमो न्याय इति।(न्यायभाष्य 1.1.1)

  8. भागवत 1.2.11
  9. इमास्तु चतस्रो विद्या: पृथक् प्रस्थाना: प्राणभृतामनुग्रहायोपदिश्यन्ते। यासां चतुर्थीयमान्वीक्षिकी न्यायविद्या। तस्या: पृथक् प्रस्थाना: संशयादय: पदार्था:। येषां पृथग्वचनमन्तरेणाध्यात्मविद्यामात्रमियं स्यात् यथोपनिषद:। 1.1.1. न्या0 भा0
  10. तस्या: संशयादि प्रस्थानमन्तरेणाध्यात्मविद्यामात्रमियं स्यात्। तस्मात् पृथगुच्यन्ते 1.1.1
  11. आदिसर्गात् प्रभृतिवेदवदिमा विद्या: प्रवृत्ता:। संक्षेपविस्तरविवक्षया तु तांस्तान् कर्तृना चक्षते इति (न्यायमञ्जरी पृ0 5
  12. ऋग्वेद 1.164
  13. अस्यवामस्य पलितस्य होतु:।
  14. छान्दोग्य उपनिषद के नारद-सनत्कुमार-संवाद में विद्याओं का विवरण देते समय ‘वाकोवाक्य’ पद का व्यवहार हुआ है, जिसकी व्याख्या शंकर भगवत्पाद ने तर्कशास्त्र की है एवं सुबालोपनिषद के द्वितीय खण्ड में वेद के साथ न्याय शास्त्र का भी उल्लेख हुआ है 'तस्यैतस्य महतो भूतस्य नि:श्वसितमिवैतद् ऋग्वेदो यजुर्वेद:............ न्यायो मीमांसा धर्मशास्त्रीणीति'
  15. "हेतूपचारकुशलान् हेतुकांश्च बहुश्रुतान् 8"। बा. रा. उ. का. 7/94/8/ वाग्मिन: परस्परजिगीषया हेतुवादान् /1/14/19/ नावादकुशलो द्विज: /1/14/21/
  16. ततोऽध्यायसहस्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजम्।
    यत्र धर्मस्तथैवार्थ: कामश्चैवापि वर्णित:॥
    त्रयी चान्वीक्षिकी चैव वार्ता च भरतर्षभ।
    दण्डनीतिश्च विपुला विद्यास्तत्र निदर्शिता: (शांति पर्व 59.29, 33)

  17. आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तथैव च। एवं व्याहृतयश्चासन् प्रणवो ह्यस्य दहृत:॥ तृ. स्क. 12.44
  18. सरहस्यं धनुर्वेदं धर्मान् न्यायपथांस्तथा। तथा चान्वीक्षिकीं विद्यां राजनीतिञ्च षड्विधाम्॥ दशम स्कन्ध 85.38, यहाँ न्यायपथ से मीमांसा और आन्वीक्षिकी से यह न्यायविद्या तर्कशास्त्र अभिप्रेत है।
  19. त्रैविद्येभ्यस्त्रयीं विद्याद् दण्डनीतिञ्च शाश्वतीम्। आन्वीक्षिकीञ्चात्मविद्यां वार्तारम्भांश्च लोकत:॥ मनुस्मृति 7.43
  20. स्वरन्ध्रगोप्तान्वीक्षिक्यां दण्डनीत्यां तथैव च।
  21. राजा सर्वस्येष्टे ब्राह्मणवर्जं साधुकारी स्यात्। साधुवादी त्रय्यामान्वीक्षिक्यां चाभिविनीत:॥ (गौतमधर्मसूत्र, अध्याय 11
  22. अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तर:।
    पुराणं धर्मशास्त्रञ्च विद्या ह्येताश्चतुर्दश।
    आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्चेति ते त्रय:।
    अर्थशास्त्रं चतुर्थ तु विद्या ह्यष्टादशैव तु॥ (विष्णुधमोत्तरपुराण......)
    पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्रङ्गमिश्रिता:।
    वेदा: स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चर्तुदश॥ (याज्ञ. स्मृ. 1.3
  23. डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा सम्पादित तथा विद्या भूषण का 'हिस्ट्री आफ इण्डियन लॉजिक' पृ0 20-291
  24. शिक्षामन्त्रालय भारत सरकार द्वारा प्रकाशित पूर्व एवं पश्चिम दर्शन का इतिहास- (History of philosophy Eastern and Western) डा. विभूतिभूषण भट्टाचार्य का लेख)। (प्रथम भाग)
  25. शान्तिपर्व 268.64
  26. काञ्चित् लोकायतिकान् ब्राह्मणांस्तात सेवसे। अनर्थकुशला ह्येते बाला: पण्डितमानिन:॥ धर्मशास्त्रेषु मुख्येषु विद्यमानेषु दुर्बुधा:। बुद्धिमान्वीक्षिकीं प्राप्य निरर्थ प्रवदन्ति ते। (वाल्मीकि रामायण. अयोध्या काण्ड 100.38-39
  27. भवेत् पण्डितमानी च ब्राह्मणो वेदनिन्दक:। आन्वीक्षिकीं तर्कविद्यामनुरक्तो निरर्थिकाम्॥ (अनुशासन पर्व 37.12
  28. योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विज: स साधुर्भिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दक:॥ (मनु. 2.11) हेतुकान् वकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्। (मनु. 2.11
  29. द्र. शाङ्करभाष्य 1/1/4/
  30. न्यायवार्त्तिक का मङ्गलाचरण।
  31. महाभारत शान्तिपर्व 210.22
  32. न्यायसूत्र 1/1/31
  33. न्यायसूत्र 1/1/4।
  34. घटत्वेन घटमहं जानामि’ इस तरह से सविकल्पज्ञान का जो मानस प्रत्यक्ष होता है वही अनुव्यवसाय है।
  35. न्यायसूत्र 1.1.5।
  36. न्यायसूत्र 1/1/6।
  37. न्यायसूत्र 1/1/7।
  38. न्यायसूत्र 1/1/9।
  39. न्यायसूत्र 1/1/9।
  40. न्यायसूत्र 1/1/11
  41. न्यायसूत्र 1/1/12
  42. न्यायसूत्र 3/1/61 की तात्पर्यटीका
  43. न्यायसूत्र 1/1/14
  44. न्यायसूत्र 1/1/15
  45. न्यायसूत्र 3.2.56-59
  46. न्यायसूत्र 1.1.17
  47. वही 1.1.18
  48. न्यायसूत्र 1/1/19
  49. न्यायसूत्र 1/1/20
  50. न्यायसूत्र 1/1/21
  51. न्यायसूत्र 1/1/22
  52. न्यायसूत्र 1.1.23
  53. प्रयोजनमनुद्दश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते।
  54. न्यायसूत्र 1.1.24
  55. न्यायसूत्र 1.1.25
  56. न्यायसूत्र 1/1/ 28-31 ।
  57. न्यायसूत्र 1/1/32 ।
  58. न्यायसूत्र 1।1।33।
  59. वही 1।1।34-35
  60. न्यायसूत्र 1।1।36-37
  61. न्यायसूत्र 1।1। 38
  62. न्यायसूत्र 1।1।39
  63. विष्णुधर्मोत्तरपुराण 3.5.5
  64. न्यायसूत्र 1।1।40।
  65. तार्किकरक्षा कारिका सं. 70
  66. तार्किकरक्षा का.सं. 71
  67. आरोप से भ्रमात्मक ज्ञान विवक्षित है। यह दो प्रकार का होता है आहार्य और अनाहार्य। आहार्य से कृत्रिम और अनाहार्य से स्वाभाविक अर्थ अभिप्रेत है। अतएव बाधाकालिक इच्छाजन्य ज्ञान को आहार्य कहा गया है। आहार्य भ्रम ही आरोप है।
  68. न्यायसूत्र 1।1।41 ।
  69. न्यायसूत्र 1।2।1।
  70. न्यायसूत्र 1।2।2।
  71. न्यायसूत्र 1।2।3।
  72. गीता '10/32
  73. न्यायसूत्र 1।2।4।
  74. न्यायसूत्र 1।2।5।
  75. न्यायसूत्र 1।2।6।
  76. न्यायसूत्र 1।2।6।
  77. वही 1।2।8।
  78. न्यायकुसुमाञ्जलि 3।7
  79. साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वम्।
  80. न्यायसूत्र 1।2।5।
  81. न्यायसूत्र 1।2।10।
  82. न्यायसूत्र 1/2/12/
  83. न्यायसूत्र 1/2/13/
  84. न्यायसूत्र 1.1.14/
  85. न्यायसूत्र 1/2/18
  86. न्यायसूत्र 5/1/1/
  87. न्यायसूत्र 1/2/19/
  88. न्यायसूत्र 5/2/1
  89. चकारेण समुच्चितं पृथगेव निग्रहस्थानम्।
  90. व्यसनेऽभ्युदये च बुद्धिमवस्थापयति। (कौटिलीय अर्थशास्त्र प्रारम्भिक भाग
  91. न्यायभाष्य 1/1/1 तथा कौटिलीय अर्थशास्त्र, विद्योद्देश प्रकरण
  92. पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्राङ्गमिश्रिता:। वेदा: स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश॥ (याज्ञ. स्मृ. 1/3
  93. सं. पं सूरृयनारायण शुक्ल, 1934 में बनारस से प्रकाशित
  94. न्यायमंजरी द्वितीय भाग पृ. 72 पंक्ति 15-16
  95. न चात्मकल्पादन्य: कल्प: सम्भवति। न तावदस्य बुद्धिं विना कश्चिद् धर्मों लिङ्भूत: शक्य उपपादयितुम्। न्यायभाष्य 4/1/19
  96. अधर्ममिथ्या ज्ञानप्रमादहान्या धर्मज्ञानसमाधिसम्पदा च विशिष्टमात्मान्तरमीश्वर:। तस्य च समाधिफलमष्टविधमैश्वर्यम्।
  97. आप्तकल्पश्चार्य यथा पिता अपत्यानां तथा पितृभूत ईश्वरो भूतानाम्। (न्यायभाष्य 4/1/19



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