सिंधिया वंश
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सिंधिया परिवार ग्वालियर का मराठा शासक परिवार है, जिसने 18वीं शताब्दी के एक कालखण्ड में उत्तर भारत की राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाई। इस वंश की स्थापना रणोजी सिंधिया ने की थी, जिन्हें 1726 ई. में पेशवा (मराठा राज्य के प्रमुख मंत्री) द्वारा मालवा का प्रभारी बनाया गया था। 1750 ई. में मृत्यु होने से पहले रणोजी सिंधिया ने उज्जैन में अपनी राजधानी स्थापित कर ली थी। बाद में सिंधिया राजधानी को ग्वालियर के पहाड़ी दुर्ग में ले आये।
- रणोजी के उत्तराधिकारियों में महादजी सिंधिया (शासन काल, 1761-1794 ई.) सम्भवत: सबसे महान् उत्तराधिकारी थे। महादजी सिंधिया ने पेशवा से अलग उत्तर भारत में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था।
- ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ हुए युद्ध (1775-1782 ई.) में वह पश्चिमोत्तर भारत के मान्यता प्राप्त शासक के रूप में उभरे।
- फ़्राँसीसी अधिकारियों की सहायता से उन्होंने राजपूतों को हराया और मुग़ल बादशाह शाहआलम को अपने संरक्षण ले लिया।
- सन 1791 के अंत तक महादजी सिंधिया ने राजपूतों को भी नत कर दिया। नर्मदा से सतलुज तक का पूरा उत्तरी भारत उनके आधिपत्य में था। अपनी सफलता के चरमोत्कर्ष में, 12 वर्षों बाद, वह महाराष्ट्र लौटे थे।
- दो वर्ष पूना में रहकर (1792-1794) महादजी सिंधिया ने महाराष्ट्र संघ को पुन: संगठित करने का सतत, किंतु विफल प्रयत्न किया।
- जून, 1793 में लाखेरी में तुकोजी होल्कर की पूर्ण पराजय महादजी की अंतिम विजय थी, यद्यपि पारस्परिक विभेद से दु:खी महादजी ने इसे 'विजय दिवस' संबोधित करने की अपेक्षा 'शोक दिवस' ही की संज्ञा दी। 12 फ़रवरी, 1794 को उनकी मृत्यु हुई।
- इस बीच उनके चचेरे पोते दौलत राम को गम्भीर पराजय का सामना करना पड़ा, जब 1803 ई. में उनका अंग्रेज़ों से टकराव हुआ। चार लड़ाइयों में जनरल ग्रेरार्ड द्वारा हराए जाने पर उन्हें फ़्राँसीसियों से प्रशिक्षित अपनी सेना को तोड़ना पड़ा और एक सन्धि पर हस्ताक्षर करना पड़ा। उन्होंने दिल्ली का नियंत्रण छोड़ दिया, लेकिन 1817 ई. तक राजपूताना को अपने पास रखा।
- 1818 ई. में सिंधिया अंग्रेज़ों के अधीन हो गये और 1947 ई. तक एक रजवाड़े के रूप में बने रहे।
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