ठुमरी
ठुमरी भारतीय संगीत की एक गायन शैली है, जिसमें रस, रंग और भाव की प्रधानता होती है। ख़याल शैली के द्रुत लय की रचना (छोटा ख़याल) और ठुमरी में मूलभूत अन्तर यही होता है कि छोटा ख़याल में शब्दों की अपेक्षा राग के स्वरों और स्वर संगतियों पर विशेष ध्यान रखना पड़ता है, जबकि ठुमरी में रस के अनुकूल भावाभिव्यक्ति पर ध्यान रखना पड़ता है। प्रायः ठुमरी गायक या गायिका को एक ही शब्द अथवा शब्द समूह को अलग-अलग भाव में प्रस्तुत करना होता है। इस प्रक्रिया में राग के निर्धारित स्वरों में कहीं-कहीं परिवर्तन करना पड़ता है।
उत्पत्ति
प्राचीन काल में एक 'छलिका' नामक शैली थी। इसमें अभिनय तथा गायन की पद्धति थी। महाकवि कालिदास ने 'मालविकाग्निमित्र' नामक नाटक में मालविका द्वारा छलिका का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है। ठुमरी इसका ही परिवर्तित रूप मानी जाती है। एक दुसरे मत के अनुसार- राजा मानसिंह तोमर ने ठुमरी को जन्म दिया। अन्य मत यह भी है कि ठुमरी का जन्म उन लोक गीतों से हुआ है, जो कि नृत्य के साथ गाये जाते थे। भाषा विज्ञान की दृष्टी से ठुमरी 'ठुमक' शब्द से निकली है, जिसका अर्थ है 'सुन्दर-पादक्षेप'। इससे स्पष्ट होता है कि ठुमरी और नृत्य का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा होगा। एक विचार यह भी है कि ठुमरी का जन्म अवध के नवाबो के दरबार में हुआ। उन नवाबों को ख़याल शैली पसंद नहीं थी। उन्हें तो कोई हल्की शैली चाहिए थी, जिसका कि नृत्य के साथ प्रयोग किया जा सके और ठुमरी ही इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त थी।[1]
विभाजन
ठुमरी में स्वरों का विस्तार क्रमबद्ध नहीं था। धीरे-धीरे ठुमरी में क्रमबद्धता आती गयी और इसे 'शास्त्रीय संगीत' में स्थान मिला। इसके दो भाग हो गए-
- विलंबित ठुमरी
- द्रुत ठुमरी
रसों कि दृष्टी से ठुमरी श्रृंगार व करुण रस पर ही आधारित होती है, किन्तु शांत और भक्ति रस के भी गीत ठुमरी शैली में गाये जाते हैं।
राग
ठुमरी के लिए मुख्य राग होते हैं- भैरवी, काफी, तिलंग, गारा, पीलू, झिंझोटी, पहाड़ी, खमाज आदि। ठुमरी के ताल भी निश्चित हैं- कहरवा, दादरा, दीपचंदी, आदि। ख़याल, टप्पा, ध्रुपद की सभी विशेषताएँ ठुमरी में पायी जाती हैं। यह एक प्रकार से सभी शैलियों का सार है। ठुमरी गाने के लिए कल्पनाशील होना आवश्यक है, इसके साथ ही भावपूर्ण हृदय, मधुर और लोचक आवाज़ भी आवश्यक है। यह गुण स्त्रियों में अधिक पाए जाते हैं। इसलिए इसे 'स्त्री प्रधान गायन शैली' भी कहा जाता है। किन्तु इसे स्त्री-पुरुष दोनों ही गाते हैं।[1]
शैली
वर्तमान समय में ठुमरी की मुख्य रूप से दो शैलियाँ मानी जाती हैं-
- पूरब अंग
- पंजाबी अंग
इनके अतिरिक्त मुंबई और पूना में गायी जाने वाली ख़याल अंग की ठुमरी भी है। बड़े ग़ुलाम अली ख़ान पंजाबी अंग की ठुमरी के अच्छे गायक रहे हैं। इस अंग की ठुमरी में टेड़ी और उलझी तानों का प्रयोग होता है। पूरब अंग की ठुमरी में बोल-बनाव और तानें सरल होती हैं। ठुमरी अत्यंत भावानुकूल गायन शैली है। इसी कारण यह सहज रूप से दूसरों पर प्रभाव जमा लेती है।
प्रसिद्ध ठुमरी गायक और गायिका
प्रसिद्ध ठुमरी गायकों में सोहनी महाराज, अब्दुल करीम ख़ाँ और फ़ैयाज़ ख़ाँ आदि के नाम प्रमुख हैं। स्त्रियों में गौहर जान, इंदु बाला, मलिका जान आदि थीं। आधुनिक काल में गिरिजा देवी, सविता देवी और शोभा गुर्टू आदि इसकी मुख्य गायिका हैं।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 ठुमरी गायन शैली (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 11 अक्टूबर, 2012।