ग्रन्थ लिपि

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तमिलनाडु के ऑर्काट, सेलम, तिरुचिरापल्ली, मदुरै, तिरुनेल्वेलि तथा पुराने तिरुवितांकुर (ट्रावंकोर) राज्य में 7वीं शताब्दी से इस लिपि का व्यवहार होता था। दक्षिण के पाण्ड्य, पल्लव तथा चोल राजाओं ने अपने अभिलेखों में इस लिपि का प्रयोग किया है। दक्षिण भारत की स्थानीय लिपियों की अपूर्णता के कारण संस्कृत भाषा के ग्रन्थ एवं अभिलेख उनमें नहीं लिखे जा सकते थे। संस्कृत के ग्रन्थ तथा अभिलेख लिखने के लिए जिस लिपि का दक्षिण भारत में उपयोग होता था, उसी को आगे चलकर ‘ग्रन्थ लिपि’ का नाम दिया गया।

सबसे पहले दक्षिण के पल्लव राजाओं के लेखों में हमें ग्रन्थ लिपि का आरम्भिक रूप देखने को मिलता है। पल्लव लिपि का प्रभाव एवं प्रचार हम सुदूर दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में भी देखते हैं। सातवीं शताब्दी से दक्षिण भारत में पल्लव लिपि के दो रूप दिखाई देते हैं-

  1. कलात्मक
  2. साधारण।

मामल्लपुरम (महाबलीपुरम) के धर्मराजरथ पर कुछ विरुद उत्कीर्ण हैं। इनकी लिपि को ‘पल्लव लिपि’ का नाम दिया गया है। इस रथ पर अंकित चार पंक्तियाँ हैं। इन चार पंक्तियों में ही चार प्रकार के ‘अ’, दो प्रकार के ‘म’ और ‘य’ तथा तीन प्रकार के ‘न’ का प्रयोग हुआ है।

  • लिप्यंतरः
  • अमेयमायः
  • अप्रतिहतशासन
  • अत्यन्तकाम।
  • अवनभाजनः

अभिलेख और दानपत्र

पल्लववंशी राजाओं के अभिलेख ग्रन्थ लिपि और संस्कृत भाषा में मिलते हैं। इनमें प्रमुख हैं- राजा नरसिंह वर्मन के समय के मामल्लपुरम के कुछ लघुलेख, राजा राजसिंह (नरसिंह वर्मन द्वितीय) के समय के कांचीपुरम के कैलासनाथ मन्दिर के शिलालेख और राजा परमेश्वर वर्मन का कूरम से प्राप्त दानपत्र। राजसिंह का कैलासनाथ मन्दिर का शिलालेख सातवीं शताब्दी की पल्लव ग्रन्थ लिपि का बढ़िया नमूना है। इस लेख के लिखने वाले ने अपनी कलात्मक रुचि का खूब परिचय दिया है। परमेश्वरवर्मन के कूरम-दानपत्र की लिपि कुछ जल्दी से लिखी गई है। इसमें हमें ग्रन्थ लिपि के साथ-साथ तमिल लिपि के विकास के भी दर्शन होते हैं, क्योंकि यह दानपत्र अंशतः संस्कृत और तमिल में हैं। इसमें हमें तेलुगु एवं कन्नड़ लिपि के कुछ आरम्भिक अक्षर भी नज़र आते हैं। 8वीं शताब्दी में इस लिपि में कुछ विशेष अन्तर नहीं दिखाई देता, जैसा कि नंदि वर्मन के कसाकुडि से मिले हुए दानपत्र की लिपि को देखने से पता चलता है।

लिप्यंतर

नरसिंहवम्मर्णः स्वयमिव भगवतो नृपतिरूपावती-
र्ण्णास्य नरसिंहस्य मुहुरवजित चोळ(ल) केरण(ल) कळ(ल) भ्रपाण्द्य-
स्य सहस्रबाहोरिव समरशतनिर्व्विष्टसहस्रबाहु-
कम्मर्णः परियळ मणि मंगळ शूर मार प्रभृतिरणाविदश्शि(शिर्श)

लिपि

नौवीं और दसवीं शताब्दी में चोल राजाओं के अभिलेखों में जो लिपि मिलती है, उसे ब्यूह्लर ने ‘संधिकालीन ग्रन्थ लिपि’ का नाम दिया था। वर्तमान समय तक दक्षिणी भारत में संस्कृत के ग्रन्थ लिखने के लिए जिस ग्रन्थ लिपि का व्यवहार होता रहा, उसका आरम्भ 13वीं-14वीं शताब्दी के अभिलेखों में देखने में आता है। ग्रन्थ लिपि में लिखी हुई जो सबसे प्राचीन हस्तलिपि मिलती है, वह 16वीं शताब्दी की है। वर्तमान समय तक दक्षिण में संस्कृत के ग्रन्थ लिखने के लिए जिस ग्रन्थ लिपि का व्यवहार होता रहा, उसकी दो शैलियाँ हैं- तंजावूर के ब्राह्मण ‘वर्गाकार’ ग्रन्थ लिपि का प्रयोग करते रहे हैं और ऑर्काट तथा मद्रास (चेनै) के जैन ‘गोलाकार’ ग्रन्थ लिपि का। तुलु और मलयालम लिपियों का विकास ग्रन्थ लिपि से हुआ है।  


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