शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति

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शूद्र शब्द का व्युत्पत्यर्थ निकालने के जो प्रयास हुए हैं, वे अनिश्चित से लगते हैं और उनसे वर्ण की समस्या सुलझाने में शायद ही कोई सहायता मिलती है। सबसे पहले वेदान्त सूत्र में बादरायण ने इस दिशा में प्रयास किया था। इसमें शूद्र शब्द को दो भागों में विभक्त कर दिया गया है- ‘शुक्’ (शोक) और ‘द्र’, जो ‘द्रु’ धातु से बना है और जिसका अर्थ है, दौड़ना।[1] इसकी टीका करते हुए शंकर ने इस बात की तीन वैकल्पिक व्याख्याएँ की हैं कि जानश्रुति[2] शूद्र क्यों कहलाया -

  1. ‘वह शोक के अन्दर दौड़ गया’, - ‘वह शोक निमग्न हो गया’ (शुचम् अभिदुद्राव)
  2. ‘उस पर शोक दौड़ आया’, - ‘उस पर संताप छा गया’ (शुचा वा अभिद्रुवे)
  3. ‘अपने शोक के मारे वह रैक्व दौड़ गया’ (शुचा वा रैक्वम् अभिदुद्राव)। [3] शंकर का निष्कर्ष है कि शूद्र शब्द के विभिन्न अंगों की व्याख्या करने पर ही उसे समझा जा सकता है, अन्यथा नहीं।[4] बादरायण द्वारा शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति और शंकर द्वारा उसकी व्याख्या दोनों ही वस्तुत: असंतोषजनक हैं।[5] कहा जाता है कि शंकर ने जिस जानश्रुति का उल्लेख किया है, वह अथर्ववेद में वर्णित उत्तर-पश्चिम भारत के निवासी महावृषों पर राज्य करता था। यह अनिश्चित है कि वह शूद्र वर्ण का था। वह या तो शूद्र जनजाति का था या उत्तर-पश्चिम की किसी जाति का था, जिसे ब्राह्मण लेखकों ने शूद्र के रूप में चित्रित किया है।

पाणिनि के व्याकरण में उणादिसूत्र के लेखक ने इस शब्द की ऐसी ही व्यत्पत्ति की है, जिसमें शूद्र शब्द के दो भाग किए गए हैं, अर्थात् धातु शुच् या शुक्+र।[6] प्रत्यय ‘र’ की व्याख्या करना कठिन है और यह व्युत्पत्ति भी काल्पनिक और अस्वाभाविक लगती है।[7]

पुराणों में जो परम्पराएँ हैं, उनसे भी शूद्र शब्द शुच् धातु से सम्बद्ध जान पड़ता है, जिसका अर्थ होता है, संतप्त होना। कहा जाता है कि ‘जो खिन्न हुए और भागे, शारीरिक श्रम करने के अभ्यस्त थे तथा दीन-हीन थे, उन्हें शूद्र बना दिया गया’।[8] किन्तु शूद्र शब्द की ऐसी व्याख्या उसके व्युत्पत्यर्थ बताने की अपेक्षा परवर्ती काल में शूद्रों की स्थिति पर ही प्रकाश डालती है। बौद्धों द्वारा प्रस्तुत व्याख्या भी ब्राह्मणों की व्याख्या की ही तरह काल्पनिक मालूम होती है। बुद्ध के अनुसार जिन व्यक्तियों का आचरण आतंकपूर्ण और हीन कोटि का था (लुदआचारा खुद्दाचाराति), वे सुद्द (संस्कृत-शूद्र) कहलाने लगे और इस तरह सुद्द (संस्कृत-शूद्र) शब्द बना।[9] यदि मध्यकाल के बौद्ध शब्दकोश में शूद्र शब्द क्षुद्र का पर्याय बन गया, [10] और इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि शूद्र शब्द क्षुद्र से बना है।[11] दोनों ही व्युत्पत्तियाँ भाषाविज्ञान की दृष्टि से असंतोषजनक हैं, किन्तु फिर भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि उनसे प्राचीन काल में शूद्र वर्ण के प्रति प्रचलित धारणा का आभास मिलता है। ब्राह्मणों द्वारा प्रस्तुत व्युत्पत्ति में शूद्रों की दयनीय अवस्था का चित्रण किया गया है, किन्तु बौद्ध व्युत्पत्ति में समाज में उनकी हीनता और न्यूनता का परिचय मिलता है। इन व्युत्पत्तियों से केवल इतना पता चलता है कि भाषा और व्युत्पत्ति सम्बन्धी व्याख्याएँ भी सामाजिक स्थितियों से प्रभावित होती हैं। हाल में एक लेखक ने शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति इस रूप में की है- धातु ‘श्वी’ (मोटा होना)+धातु ‘द्रु’ (दौड़ना)। उसकी राय है कि इस शब्द का अर्थ है कि, ‘ऐसा व्यक्ति जो स्थूल जीवन की ओर दौड़े।’ अतएव उसकी दृष्टि में शूद्र ‘ऐसा गंवार है जो शारीरिक श्रम करने के लिए ही बना है।’ [12] यह बहुत ही अदभुत बात है कि यहाँ दो धातुओं के मेल से ‘शूद्र’ शब्द की उत्पत्ति की गई है और तब जब उसका कोई पुराना व्युत्पत्यात्मक आधार नहीं है। इस शब्द को लेखक जो अर्थ देना चाहता है, वह शूद्रों के प्रति केवल परम्परावादी मनोवृत्ति को चित्रित कर पाता है। उससे शूद्रों की उत्पत्ति पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता।

शूद्र वर्ण दयनीय और उपेक्षित

उत्पत्ति के समय शूद्र वर्ण की स्थिति दयनीय और उपेक्षित थी, यह बात ऋग्वेद और अथर्ववेद में वर्णित समाज के चित्रण से शायद ही सिद्ध होती है। इन संहिताओं में कहीं पर भी न तो दास और आर्य के बीच और न शूद्र और उच्च वर्गों के बीच भोजन और वैवाहिक प्रतिबंध का प्रमाण मिलता है।[13] वर्णों के बीच सामाजिक भेदभाव बताने वाला एकमात्र पूर्वकालीन सन्दर्भ अथर्ववेद में पाया जाता है, जिसमें यह दावा किया गया है कि ब्राह्मण को, राजन्य और वैश्य की तुलना में, किसी नारी का पहला पति बनने का अधिकार प्राप्त है।[14] और भी कहीं-कहीं ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों की चर्चा की गई है, यथा कहा गया है कि उनकी गाय अथवा स्त्री को कोई हाथ नहीं लगा सकता। पर इस सम्बन्ध में कहीं शूद्र की चर्चा नहीं मिलती, क्योंकि प्राय: उस समय यह वर्ण विद्यमान नहीं था। इसका कोई आधार नहीं कि दास और शूद्र अपवित्र समझे जाते थे और न ही इसका कोई प्रमाण मिलता है कि उनके छू जाने से उच्च वर्णों के लोगों का शरीर और भोजन दूषित हो जाता था।[15] अपवित्रता का सारा ढकोसला बाद में खड़ा किया गया, जब समाज कृषिप्रधान होने के बाद वर्णों में बँट गया और ऊपर के वर्ण अपने लिए तरह-तरह की सुविधाएँ और विशेषाधिकार माँगने लगे।[16]

शूद्र वर्ण के उदभव के विषय में सारांश यह है कि आंतरिक और बाहरी संघर्षों के कारण आर्य या आर्य-पूर्व लोगों की स्थिति ऐसी हो गई है।[17] चूँकि संघर्ष मुख्यतया मवेशी के स्वामित्व को लेकर और बाद में भूमि को लेकर होता था, अत: जिनसे ये वस्तुएँ छीन ली जाती थीं, और जो अशक्त हो जाते थे, वे नए समाज में चतुर्थ वर्ण कहलाने लगते थे। फिर जिन परिवारों के पास इतने अधिक मवेशी हो गए और इतनी अधिक ज़मीन हो गई कि वे स्वयं सम्भाल नहीं पाते थे, तो उन्हें मजदूरों की आवश्यकता हुई और वैदिककाल के अन्त में ये शूद्र कहलाने लगे।

यह मंतव्य है कि शूद्र वर्ण का निर्माण काल आर्य-पूर्व लोगों से हुआ था, उतना ही एकांगी और अतिरंजित मालूम पड़ता है, जितना यह समझना कि उस वर्ण में मुख्यत: आर्य ही थे।[18] वास्तविकता यह है कि आर्थिक तथा सामाजिक विषमताओं के कारण आर्य और आर्येतर, दोनों के अन्दर श्रमिक समुदाय का उदय हुआ और ये श्रमिक आगे जाकर शूद्र कहलाए। साधारणतया मान्य समाजशास्त्रीय सिद्धान्त है कि वर्गविभाजन बराबर सजातीय असमानताओं से मूलतया सम्बद्ध होता है, [19] किन्तु इस सिद्धान्त से शूद्रों और दासों की उत्पत्ति पर आंशिक प्रकाश ही पड़ता है। बहुत सम्भव है कि दासों और शूद्रों का नाम क्रमश: इन्हीं नामों की जनजातियों के आधार पर रखा गया हो, जो भारतीय आर्यों के निकट सम्पर्क में रही हों। लेकिन कालक्रम से आर्य-पूर्व आबादी के लोग और विपन्न आर्य भी इन वर्गों में शामिल हो गए होंगे। यह बहुत स्पष्ट है कि वैदिक काल के आरम्भिक लोगों में शूद्रों और दासों की जनसंख्या बहुत सीमित थी और उत्तरवर्ती वैदिक काल के अन्त से लेकर आगे तक शूद्र जिन अशक्तताओं के शिकार रहे हैं, वे आदिवैदिक काल में विद्यमान नहीं थीं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वेदान्त सूत्र, 1.3.34, ‘शुगस्य तदनादर श्रवणात् तदाद्रवणत्: सूच्यते’।
  2. छांदोग्य उपनिषद्, IV. 2.3 में राजा के रूप में वर्णित।
  3. शंकर्स कमेंट्री टू वेदान्त सूत्र, 1.3.34.
  4. शंकर्स कमेंट्री टू वेदान्त सूत्र, 1.3.34., शूद्र अवयवार्थ-सम्भावात् रूढ़ार्थस्य चासम्भवात्।
  5. (इण्डियन एण्टीक्वेरी बंबई, 1, i. 137-8).
  6. शुचेर दश्च, II. 19.
  7. इण्डियन एंटीक्वेरी बंबई, 1i. 137-8).
  8. वायु पुराण, I. VIII. 158. ‘शोचन्तंश्च परिचर्यासु ये रता: निस्तेजसो अल्पवीर्याश्च शूद्रांस्तानव्रवीन्तु स:’। भविष्य पुराण, I. 44.23 एवं आगे में कहा गया है कि शूद्रों को इसलिए शूद्र कहा जाता है कि उन्हें वैदिक ज्ञान का महज उच्छिष्ट प्राप्त होता था : ‘ये ते श्रुतेद्रुर्ति प्राप्ता: शूद्रास्तेनेह कीर्तिता:’।
  9. दीघ निकाय, III, 95. ‘सुद्धा त्वेव अक्खरं उपनिब्बतम्’।
  10. देखें शूद्र शब्द, ‘महाव्युत्पत्ति’।
  11. इण्डियन एंटीक्वेरी, बंबई, 1i. 138-9).
  12. सूर्यकान्त : कीकट, फलिगा और पणि, (एस.के. बेल्वल्कर कमेमोरेशन वाल्यूम, पृष्ठ 44).
  13. इण्डियन कल्चर, कलकत्ता, XII, 179, एन.एन. घोष ने ग़लत कहा है कि आर्य और दास के बीच ऐसा प्रतिबंध ऋग्वेद द्वारा प्रमाणित है।
  14. अथर्ववेद, V. 17.8-9.
  15. दत्त : ओरिज़न एण्ड ग्रोथ ऑफ़ कास्ट सिस्टम, पृष्ठ 20 और 62.
  16. आजकल कई यूरोपीय समाजशास्त्री, जैसे लुई दूगो, अपवित्रता ही के कारण वर्ण या जातिप्रथा का उदय मानते हैं, पर किस आर्थिक और सामाजिक परिस्थिति में अपवित्रता की भावना बढ़ी, इस पर विचार करने का कष्ट नहीं करते।
  17. जी.जे.हेल्ड : ‘एथनालॉजी ऑफ़ महाभारत’, पृष्ठ 89-95; बी.एन. दत्त; ‘स्टडीज़ इन इण्डियन सोशल पालिटी’, पृष्ठ 28-30; अम्बेडकर : ‘हू वेयर द शूद्राज़’, पृष्ठ 239.
  18. वैदिक इंडेक्स, II. 265.
  19. लैंटमैन : ‘द ओरिजिन्स ऑफ़ सोशल इनइक्वेलिटीज़ ऑफ़ दी सोशल क्लासेज’, पृष्ठ 38.

बाहरी कड़ियाँ

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