अक्षपाद

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उपलब्ध न्याय दर्शन के आदि प्रवर्तक 'महर्षि गोतम' या 'गौतम' हैं। यही अक्षपाद नाम से भी प्रसिद्ध हैं। उन्होंने उपलब्ध न्यायसूत्रों का प्रणयन किया तथा इस आन्वीक्षिकी को क्रमबद्ध कर शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठापित किया।

गौतम और अक्षपाद में अभेद तथा इनका परिचय

इन्हें भी देखें: गौतम

आपातत: सन्देह हो सकता है कि अक्षपाद और गोतम या गौतम एक ही ऋषि के दो नाम हैं या दोनों भिन्न-भिन्न ऋषि हैं? यहाँ स्कन्द पुराण ने इस सन्देह को दूर कर दिया है। इसका कहना है कि अक्षपाद और गौतम एक ही ऋषि के दो नाम हैं-

अक्षपादो महायोगी गौतमस्तपसि स्थित:।
गोदावरीसमानेता अहल्याया:पति: प्रभु:॥ [1]

  • वेद तथा पुराणों में अनेक गोतम या गौतम नामक ऋषियों का परिचय मिलता है।
  • महर्षि उशिज के पुत्र दीर्धतमा गोतम जन्मान्ध थे। इनका परिचय मत्स्य पुराण[2] में दिया गया है।
  • ऋग्वेद में गोतम ऋषि के कूपलाभ की बात कही गयी है।[3] इस सूक्त के ऋषि रहूगण गौतम हैं। रहूगण के पुत्र होने के नाते राहुगण नाम से इनकी प्रसिद्धि हुई।
  • शतपथ ब्राह्मण में विदेह माधव राजा के पुरोहित के रूप में इनका परिचय दिया गया है।[4]
  • इसी क्रम में यह भी उल्लेखनीय है कि वाल्मीकि ने अपनी रामायण में अहल्या के पुत्र शतानन्द को राजा जनक का पुरोहित कहा है। यही राहुगण गोतम अहल्या के पति रहे होंगे, जिन्होंने न्यायसूत्रों का उपदेश किया था- ऐसी मान्यता विद्वानों की रही है।
  • महामहोपाध्याय विन्ध्येश्वरी प्रसाद द्विवेदी तथा महामहोपाध्याय फणिभूषण तर्कवागीश ने यथाक्रम न्यायवार्त्तिक और बंगला न्यायभाष्य की भूमिका में इसका विशद विवेचन किया है।

मुक्तये य: शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम्।
गोतमं तमवेत्येव यथावित्थ तथैव स:॥ [5]

नैषधीयचरित के इस श्लोक को उद्धृत कर दोनों ही महापण्डितों ने अपने मत में युक्ति दिखायी है। यहाँ श्रीहर्ष ने महावृषभ अर्थ में गोतम शब्द का प्रयोग कर न्यायसूत्र के प्रणेता ऋषि गोतम का उपहास किया है। यद्यपि न्यायसूत्रकार के लिए गौतम पद का प्रयोग भी किया गया है। तथापि गोतम ऋषि के अपत्य अर्थ में उक्त पद का प्रयोग संगत ही है।

  • गोत्र-प्रवर्तक ऋषि गोतम के वंशज गौतम भी न्यायसूत्र के प्रणेता के रूप में प्रसिद्ध हो सकते हैं। महाकवि भास ने प्रतिमानाटक में न्याय दर्शन के प्रणेता के रूप में मेधातिथि का उल्लेख किया है।[6]
  • महाभारत में भी अहल्यापति गोतम मेधातिथि नाम से उल्लिखित हैं। इन्होंने चिरकारी नामक पुत्र को कभी अपनी माँ अहल्या की हत्या का आदेश दिया था। किन्तु पुत्र के चिरकारित्वगुण के कारण वह सम्पादित नहीं हो सका तो पश्चात विचारक ऋषि अपने अनुचित आदेश के लिए दु:खी हुए तथा पुत्र के गुण पर प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दिया।[7] संभव है मेधातिथि उनका सांस्कारिक नाम रहा हो और गोतम गोत्रनाम।
  • देवी पुराण में गोतम पद की रोचक व्युत्पत्त की गयी है- वचन से जो दूसरों को दु:खी करे, वही गौतम है अर्थात वादप्रधान न्यायशास्त्र के ज्ञाता युक्तिबल से प्रतिपक्षी को परास्त कर अपना मत प्रतिष्ठित करता है। उस शास्त्र के प्रणेता गोतम हैं और उनके वंशज गौतम। इन्हीं को अक्षपाद भी कहा जाता है-

गौर्वाक् तयैव तमयन् परान् गोतम उच्यते।
गोतमान्वयजन्मेति गौतमोऽपि स चाक्षपात्॥[8]

महर्षि गौतम का आश्रम

प्राचीन परम्परा के अनुसार मिथिला में इस महर्षि गौतम का आश्रम रहा है। दरभंगा नगर से उत्तर की ओर दश कोश की दूरी पर आज भी इनका आश्रम विद्यमान है, जहाँ निकट में ‘अहल्या स्थान’ भी है और वेद प्रसिद्ध वह कूप भी। इस कूप के जल से देवताओं ने कभी इस ऋषि को परितृप्त किया था। यहीं महर्षि गोतम ने तपस्या की थी और तपोबल से गौतमी गंगा को लाये थे। किंवदन्ती के अनुसार यहीं न्यायसूत्र का भी प्रणयन हुआ, संभव है कि अहल्यापति गौतम को मैथिल कहने का तथा मिथिला में आदिकाल से ही न्यायशास्त्र के अधिक प्रचार-प्रसार का यही कारण रहा होगा।

अक्षपाद के सम्बन्ध में देवी पुराण में एक रोचक कथा वर्णित है। एक समय ऐसा आया जब सम्पूर्ण भारत में नास्तिक मतों का बोलवाला रहा, यज्ञ आदि धर्मानुष्ठान लुप्त होने लगा। इससे चिन्तित होकर देवताओं ने भगवान शंकर की आराधना की। शंकर ने महर्षि गौतम के पास उन लोगों को भेजा। महर्षि गौतम नास्तिक मतों के उच्छेद हेतु बद्धपरिकर होकर सम्पूर्ण भारत की यात्रा पर चल पड़े। इनकी परीक्षा के लिए भगवान शिव बालक का रूप धारण कर रास्ते में नास्तिक मतों के अनुकूल तर्क करते हुए इनसे शास्त्र-विचार करने लगे। एक सप्ताह तक यह शास्त्रार्थ चलता रहा किन्तु किसी की पराजय नहीं हो सकी। महर्षि चिन्तित होकर मौन हो गये, बालक रूपधारी भगवान शिव इनका उपहास करने लगे। उन्होंने कहा कि जब आप मुझ बालक को परास्त नहीं कर सके तो वृद्ध एवं लोकसम्मत विद्धान नास्तिक को आप कैसे परास्त कर सकेंगे। इससे तो अच्छा यही होगा कि आप चुपचाप भाग जाओ। किन्तु महर्षि की अन्तर्दृष्टि ने शिव को पहचान लिया और ये उनकी स्तुति करने लगे। स्तुति से प्रसन्न होकर शिव ने इनको दर्शन दिया और वर देते हुए कहा कि तुम तर्क कुशल हो। तुम्हारे अतिरिक्त वाद युद्ध से मुझे कौन प्रसन्न कर सकता है! मैं प्रसन्न हूँ, मैं तुम्हारा नाम धारण करूँगा और तुम भी 'त्रिनेत्र' होओगे। इसी समय शिव जी के वाहन नन्दी ने अपने दाँतो से प्रमाण आदि सोलह पदार्थों को लिखकर ऋषि के समक्ष प्रदर्शित किया। पश्चात ऋषि ने भगवान शंकर के अनुग्रह से लोक में उन पदार्थों का प्रचार किया, जो विद्या आन्वीक्षिकी नाम से प्रसिद्ध हुई। भगवान शिव की आज्ञा से महर्षि गौतम ने नास्तिक मत का नाश करने वाली इस विद्या की शिक्षा दश दिनों तक अपने शिष्यों को दी। आज भी इस पञ्चाध्यायी न्यायशास्त्र के दश आह्निक विद्यमान हैं।

भगवान वेदव्यास ने महर्षि गौतम से विधिवत इस विद्या का अध्ययन किया। पश्चात 'ब्रह्मसूत्र' की रचना कर तर्कशास्त्र की निन्दा भी की। इससे रुष्ट एवं असन्तुष्ट गुरु गौतम ने संकल्प किया कि इन आँखों से पुन: उस शिष्य को नहीं देखूँगा। इधर व्यास जी गुरुदेव के इस संकल्प की सूचना पाकर भयभीत हो गये और उनको प्रसन्न करने के लिए विनम्र होकर कहा कि मैंने तो कुतर्को की निन्दा की है, आपके सत्तकों की नहीं, इतना सुनते ही आशुतोष के भक्त गुरु गौतम ने प्रसन्न होकर उनको देखने के लिए अपने चरण में ही एक आँख का आविर्भाव कर लिया। तब से महर्षि गौतम अक्षपाद कहलाने लगे।[9]

इस कथा के प्रामाण्य में सन्देह रहने पर भी इतना तो अवश्य माना जा सकता है कि महर्षि गौतम ही अक्षपाद हैं और इसका आधार प्राचीन किंवदन्ती या इस पुराण की यह कथा है। यह कोई आधुनिक कल्पना नहीं है। यहीं एक बात और लक्ष्य करने योग्य है कि प्राचीन नैय्यायिक के शिवभक्त होने का बीज यह पुराण-कथा ही है। चूँकि शिव के द्वारा इस शास्त्र का प्रकाशन पुराणों में प्रतिपादित है, अत: वार्त्तिककार उद्योतकर का महापाशुपताचार्य होना आश्चर्यजनक नहीं है। तात्पर्याचार्य द्वारा वृषकेतु (शिव) का प्रणाम निवेदन तथा 'न्यायकुसुमाञ्जलि' के उपसंहार में आचार्य उदयन द्वारा ‘तन्मे प्रमाणं शिव:‘ कहना भी न्यायदर्शन की शैव परम्परा होने का साक्ष्य प्रस्तुत करता है।

यद्यपि प्रकाशित देवी पुराण में यह अंश अनुपलब्ध है तथापि मातृका (पाण्डुलिपि) में उपलब्ध इस अंश को देखकर म.म. फणिभूषण तर्कवागीश ने बंगला न्यायदर्शन की भूमिका में इसका समावेश कृतज्ञता के साथ किया है।

'न्यायमंजरी' के उपसंहार में नैय्यायिक जयन्तभट्ट ने भी कहा है कि महर्षि अक्षपाद ने वादकथा से भगवान शंकर को सन्तुष्ट कर उनसे वर प्राप्त किया था।[10] इससे उपर्युक्त देवी पुराण की बात की पुष्टि होती है।

ब्रह्माण्ड पुराण में कहा गया है कि द्वापर युग में सत्ताइसवें परिवर्त में जातुकर्ण्य व्यास के समय में प्रभासतीर्थ में 'सोम शर्मा' के नाम से शिव का अवतार होगा और उस समय उनके चार पुत्र होगें #अक्षपाद,

  1. कणाद,
  2. उलूक और
  3. वत्स।[11]

पुन: सुरक्षण व्यास के समय कलि के चौदहवें पर्याय में शिव का अवतार होगा। तब अंगिरस गोत्र में श्रेष्ठ गौतम नामक योगी होगें, जिनके नाम से उस वन का भी नाम होगा, जहाँ ये रहेगे।[12]

ठीक यही बात वायु पुराण [13] तथा लिंग पुराण[14] में भी गयी है।

फलितार्थ यह हुआ कि अहल्या के पति 'गौतम' ही 'मेधातिथि' एवं 'अक्षपाद' नाम से परिचित हैं। इन्हीं को भगवान शिव के अनुग्रह से न्यायशास्त्रीय षोडश पदार्थों का दर्शन हुआ और इन्होंने अनुग्रह बुद्धि से इसका लोक में प्रचार किया। अतएव इनका एवं इनके अनुयायिओं का शैव आचार-विचार से प्रभावित होना स्वभाविक है। चूँकि मिथिला शैवधर्म से अपेक्षाकृत अधिक प्रभावित हुई और यहीं सर्वप्रथम न्यायशास्त्र का प्रचार हुआ, जो क्रमश: रूढमूला होकर परम्पराक्रम से आज तक यहाँ वर्तमान एवं वर्धमान है।[15]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्कन्द पुराण माहेश्वर खण्ड, कुमारिका खण्ड 55.5
  2. मत्स्यपुराण अ. 48
  3. जिह्मं ननुदेऽवतं तया दिशाऽसिञ्चन्नुत्सं गोतमाय तृण्णजे। आगच्छन्तमवता चित्रमानव: कामं विप्रस्य तर्पयन्त धामभि:॥ (1.14.85.11) म.अ.सू.म.
  4. विदेहोऽथ माधवोऽग्निवैश्वानरमुखे बभार। तस्य गोतमो राहुगण ऋषि: पुरोहित आस। (अ. 4.ब्रा.।)
  5. नैषधीयचरितम् 17.15
  6. प्रतिमानाटक पञ्चम, अंक भो: काशयपगोत्रोऽस्मि। साङ्गोपाङ्गं वेदमधीये। मानवीयं धर्मशास्त्रं माहेश्वरं योगशास्त्रं बार्हस्पत्यमर्थशास्त्रं मेधातिथेर्न्यायशास्त्रं प्राचेतसं श्राद्धकल्पं च।
  7. महाभारत शान्तिपर्व अ. 266 सम्पूर्ण तथा। मेधातिथिर्महाप्राज्ञो गौतमस्तपसि स्थित:॥ श्लो0 45।
  8. देवी पुराण, शुम्भनिशुम्भमथनपाद अध्याय 30
  9. देवी पुराण शुम्भनिशुम्भमथनपाद
  10. न्यायोद्गारगभीरनिर्मलगिरा गौरीपतिस्तोषितो, वादे येन किरीटिनेव समरे देव: किराताकृति:। प्राप्तोदारवरस्तत: स जयति ज्ञानामृतप्रार्थना, नाम्नानेकमहर्षिमस्तकबलत्पादोऽक्षपादो मुनि:॥
  11. सप्तविंशतिमे प्राप्ते परिवर्ते क्रमागते। चातुकर्ण्यों यदा व्यासो भविष्यति तपोधन:॥ तदाप्यहं भविष्यामि सोमशर्मा द्विजोत्तम:। प्रभासतीर्थमासाद्य योगात्मा लोकविश्रुत:॥ तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति तपोधना:। अक्षपाद: कणादश्च उलूको वत्स एव च। (ब्रह्माण्डपुराण अनुषङ्गपाद) अ. 23
  12. यदा व्यास: सुरक्षण: पर्यायेतु चतुर्दश:। तत्रापि पुनरेवाहं भविष्यामि युगान्तकेञ वने त्वडिगरस: श्रेष्ठो गोतमो नाम योगवित्। तस्माद् भविष्यते पुण्यं गौतमं नाम तद्वनम्॥ (ब्रह्माण्डपुराण, अनुषङ्गपाद) अ. 23)
  13. वायुपुराण पूर्वखण्ड अ. 23
  14. लिङ्गपुराण अ. 24
  15.  भो मुने वेदधर्मज्ञ! किं तूष्णीमास्यते चिरम्।
    मामनिर्जित्य मेधाविन् क्षुद्रनास्तिकबालकम्॥
    कथन्नु विदुषो वृद्धान् नास्तिकान् लोकसम्मतान्।
    विजेष्यसि महायुद्धे तत् पलायस्व मा चिरम्॥
    साधु गौतम भद्रं ते तर्केषु कुशलो ह्यसि।
    त्वामृते वादयुद्धेन की मां तोषयितुं क्षम:॥
    अनेन तव वादेन तोषितोऽहं महामुने।
    तन्नाम धारयिष्यामि त्वं त्रिनेत्रो भविष्यसि॥
    इत्येवं ब्रुवत: शम्भोर्जजृम्भे वाहनो वृष:।
    दर्शयन् दन्तलिखितान् प्रमाणदींश्च षोडश॥
    शम्भो: कृपामनुप्राप्य यदीक्षामकरोन्मुनि:।
    तेन चान्वीक्षिकीं संज्ञां विद्यां प्रावर्तयत् क्षितौ॥
    आदेशेन शिवस्यैव स शिष्यान् दशभिर्दिने:।
    पाठयामास तां विद्यां नास्तिकामतनाशिनीम्॥
    तत: कालेन कियता व्यासो गुरुनिदेशत:।
    समावृत्तो गृहस्थोऽभूत् वेदव्याख्यानकोविद:॥
    स तर्क निन्दयामास ब्रह्मसूत्रोपदेशक:।
    तच्छुत्वा गौतम: क्रुद्धो वेदव्यासं प्रति स्थित:॥
    प्रतिजज्ञे च नैताभ्यां दृम्भ्यां पश्यामि तन्मुखम्॥
    य: शिष्यो द्वेष्टि वै तर्क चिराय गुरुसम्मतम्॥
    व्यासोऽपि भगवांस्तस्य गुरो: कोपं विमृश्य च।
    आययौ त्वरितस्तत्र यत्राभूद् गौतमो मुनि:॥
    असकृद् दण्डवद् भूत्वा पादयो: प्रणिपत्य च।
    प्रसादयामास गुरुं कुतर्को निन्दितो मया॥
    प्रसन्नो गौतमो व्यासे प्रतिज्ञां स्वाञ्च संस्मरन्।
    पादेऽक्षिं स्फोटयामास सोऽक्षपादस्ततोऽभवत्॥ (देवीपुराण, शुम्भनिशुम्भमथनपाद)

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