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'''युद्ध काण्ड / लंका काण्ड'''<br />
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'''युद्ध काण्ड / लंका काण्ड''' [[वाल्मीकि]] द्वारा रचित प्रसिद्ध [[हिन्दू]] ग्रंथ '[[रामायण]]' और [[तुलसीदास|गोस्वामी तुलसीदास]] कृत '[[रामचरितमानस|श्रीरामचरितमानस]]' का एक भाग (काण्ड या सोपान) है।
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==सर्ग तथा श्लोक==
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युद्धकाण्ड में वानर सेना का पराक्रम, रावण-कुम्भकर्णादि राक्षसों का अपना पराक्रम-वर्णन, विभीषण-तिरस्कार, विभीषण का राम के पास गमन, विभीषण-शरणागति, समुद्र के प्रति क्रोध, नलादि की सहायता से सेतुबन्धन, शुक-सारण-प्रसंग, सरमावृत्तान्त, रावण-अंगद-संवाद, मेघनाद-पराजय, कुम्भकर्ण आदि राक्षसों का राम के साथ युद्ध-वर्णन, कुम्भकर्णादि राक्षसों का वध, मेघनाद वध, राम-रावण युद्ध, रावण वध, मंदोदरी विलाप, विभीषण का शोक, राम के द्वारा विभीषण का राज्याभिषेक, लंका से सीता का आनयन, सीता की शुद्धि हेतु अग्नि-प्रवेश, [[हनुमान]], [[सुग्रीव]], [[अंगद]] आदि के साथ [[राम]], [[लक्ष्मण]] तथा [[सीता]] का [[अयोध्या]] प्रत्यावर्तन, राम का राज्याभिषेक तथा [[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]] का युवराज पद पर आसीन होना, सुग्रीवादि वानरों का [[किष्किन्धा]] तथा [[विभीषण]] का [[लंका]] को लौटना, रामराज्य वर्णन और [[रामायण]] पाठ श्रवणफल कथन आदि का निरूपण किया गया है।
  
युद्धकाण्ड में वानरसेना का पराक्रम, रावणकुम्भकर्णादि राक्षसों का अपना पराक्रम-वर्णन, [[विभीषण]]-तिरस्कार, विभीषण का [[राम]] के पास गमन, विभीषण-शरणागति, समुद्र के प्रति क्रोध, नलादि की सहायता से सेतुबन्धन, शुक-सारण-प्रसंग, सरमावृत्तान्त, [[रावण]]-[[अंगद]]-संवाद, [[मेघनाद]]-पराजय, [[कुम्भकर्ण]] आदि राक्षसों का राम के साथ युद्ध-वर्णन, कुम्भकर्णादि राक्षसों का वध, मेघनाद वध, राम-रावण युद्ध, रावण वध, [[मंदोदरी]] विलाप, विभीषण का शोक, राम के द्वारा विभीषण का राज्याभिषेक, [[लंका]] से सीता का आनयन, सीता की शुद्धि हेतु [[अग्निदेव|अग्नि]]-प्रवेश, [[हनुमान]], [[सुग्रीव]], अंगद आदि के साथ राम, [[लक्ष्मण]] तथा सीता का [[अयोध्या]] प्रत्यावर्तन, राम का राज्याभिषेक तथा [[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]] का युवराज पद पर आसीन होना, सुग्रीवादि वानरों का किष्किन्धा तथा विभीषण का लंका को लौटना, रामराज्य वर्णन और [[रामायण]] पाठ श्रवणफल कथन आदि का निरूपण किया गया है। इस काण्ड में 128 सर्ग तथा सबसे अधिक 5,692 श्लोक प्राप्त होते हैं। शत्रु के जय, उत्साह और लोकापवाद के दोष से मुक्त होने के लिए युद्ध काण्ड का पाठ करना चाहिए। इसे बृहद्धर्मपुराण में लंका काण्ड भी कहा गया है।<ref>शत्रोर्जये समुत्साहे जनवादे विगर्हिते।<br />
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इस काण्ड में 128 सर्ग तथा सबसे अधिक 5,692 [[श्लोक]] प्राप्त होते हैं। शत्रु के जय, उत्साह और लोकापवाद के दोष से मुक्त होने के लिए युद्ध काण्ड का पाठ करना चाहिए। इसे बृहद्धर्मपुराण में लंका काण्ड भी कहा गया है।
लंकाकाण्डं पठेत् किं वा श्रृणुयात् स सुखी भवेत्॥(बृहद्धर्मपुराण 26…13</ref>
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<blockquote><poem>शत्रोर्जये समुत्साहे जनवादे विगर्हिते।
{{संदर्भ ग्रंथ}}
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लंकाकाण्डं पठेत् किं वा श्रृणुयात् स सुखी भवेत्॥<ref>बृहद्धर्मपुराण 26…13</ref></poem></blockquote>
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==संक्षिप्त कथा==
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[[नारद|नारद जी]] कहते हैं- तदनन्तर [[राम|श्रीरामचन्द्र जी]] के आदेश से [[अंगद]] [[रावण]] के पास गये और बोले- "रावण! तुम जनक कुमारी [[सीता]] को ले जाकर शीघ्र ही श्रीरामचन्द्र जी को सौंप दो। अन्यथा मारे जाओगे।" यह सुनकर रावण उन्हें मारने को तैयार हो गया। अंगद राक्षसों को मार-पीटकर लौट आये और श्रीरामचन्द्र जी से बोले- "भगवन! रावण केवल युद्ध करना चाहता है।" अंगद की बात सुनकर श्रीराम ने वानरों की सेना साथ ले युद्ध के लिये [[लंका]] में प्रवेश किया। [[हनुमान]], मैन्द, द्विविद, [[जामवन्त|जाम्बवान]], [[नल]], [[नील]], तार, [[अंगद]], धूम्र, [[सुषेण वैद्य|सुषेण]], [[केसरी वानर राज|केसरी]], गज, पनस, विनत, रम्भ, [[शरभ]], महाबली कम्पन, गवाक्ष, दधिमुख, गवय और गन्धमादन- ये सब तो वहाँ आये ही, अन्य भी बहुत-से वानर आ पहुँचे। इन असंख्य वानरों सहित (कपिराज) [[सुग्रीव]] भी युद्ध के लिये उपस्थित थे। फिर तो राक्षसों और वानरों में घमासान युद्ध छिड़ गया। राक्षस वानरों को बाण, शक्ति और [[गदा]] आदि के द्वारा मारने लगे और वानर रख, दाँत, एवं शिला आदि के द्वारा राक्षसों का संहार करने लगे। राक्षसों की [[हाथी]], घोड़े, रथ और पैदलों से युक्त [[चतुरंगिणी सेना]] नष्ट-भ्रष्ट हो गयी। [[हनुमान]] ने पर्वत शिखर से अपने वैरी धूम्राक्ष का वध कर डाला। नील ने भी युद्ध के लिये सामने आये हुए अकम्पन और [[प्रहस्त]] को मौत के घाट उतार दिया।
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[[राम|श्रीराम]] और [[लक्ष्मण]] यद्यपि [[इन्द्रजित]] के नागास्त्र से बंध गये थे, तथापि [[गरुड़]] की दृष्टि पड़ते ही उससे मुक्त हो गये। तत्पश्चात उन दोनों भाइयों ने बाणों से राक्षसी सेना का संहार आरम्भ किया। श्रीराम ने रावण को युद्ध में अपने बाणों की मार से जर्जरित कर डाला। इससे दु:खित होकर रावण ने [[कुम्भकर्ण]] को सोते से जगाया। जागने पर कुम्भकर्ण ने हज़ार घड़े मदिरा पीकर कितने ही [[भैंस]] आदि पशुओं का भक्षण किया। फिर रावण से कुम्भकर्ण बोला- "[[सीता]] का हरण करके तुमने पाप किया है। तुम मेरे बड़े भाई हो, इसलिये तुम्हारे कहने से युद्ध करने जाता हूँ। मैं वानरों सहित राम को मार डालूँगा।"
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ऐसा कहकर [[कुम्भकर्ण]] ने समस्त वानरों को कुचलना आरम्भ किया। एक बार उसने सुग्रीव को पकड़ लिया, तब सुग्रीव ने उसकी नाक और कान काट लिये। नाक और कान से रहित होकर वह वानरों का भक्षण करने लगा। यह देख श्रीरामचन्द्र जी ने अपने बाणों से कुम्भकर्ण की दोनों भुजाएँ काट डालीं। इसके बाद उसके दोनों पैर तथा मस्तक काट कर उसे पृथ्वी पर गिरा दिया। तदनन्तर कुम्भ, निकुम्भ, राक्षस मकराक्ष, महोदर, महापार्श्व, देवान्तक, नरान्तक, त्रिशिरा और अतिकाय युद्ध में कूद पड़े। तब इनको तथा और भी बहुत-से युद्ध परायण राक्षसों को श्रीराम, लक्ष्मण, विभीषण एवं वानरों ने पृथ्वी पर सुला दिया। तत्पश्चात इन्द्रजीत (मेघनाद)-ने माया से युद्ध करते हुए वरदान में प्राप्त हुए नागपाश द्वारा श्रीराम और लक्ष्मण को बाँध लिया। उस समय हनुमान जी के द्वारा लाये हुए पर्वत पर उगी हुई 'विशल्या' नाम की ओषधि से श्रीराम और लक्ष्मण के घाव अच्छे हुए। उनके शरीर से बाण निकाल दिये गये। हनुमान जी पर्वत को जहाँ से लाये थे, वहीं उसे पुन: रख आये। इधर [[मेघनाद]] निकुम्भिलादेवी के मन्दिर में होम आदि करने लगा। उस समय लक्ष्मण ने अपने बाणों से [[इन्द्र]] को भी परास्त कर देने वाले उस वीर को युद्ध में मार गिराया। पुत्र की मृत्यु का समाचार पाकर रावण शोक से संतप्त हो उठा और सीता को मार डालने के लिये उद्यत हो उठा; किंतु अविन्ध्य के मना करने से वह मान गया और रथ पर बैठकर सेना सहित युद्ध भूमि में गया। तब इन्द्र के आदेश से मातलि ने आकर श्रीरघुनाथ जी को भी देवराज इन्द्र के रथ पर बिठाया।
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'''श्रीराम और रावण का युद्ध''' श्रीराम और रावण के युद्ध के ही समान था- उसकी कहीं भी दूसरी कोई उपमा नहीं थी। रावण वानरों पर प्रहार करता था और हनुमान आदि वानर रावण को चोट पहुँचाते थे। जैसे मेघ पानी बरसाता है, उसी प्रकार श्रीरघुनाथ जी ने रावण के ऊपर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा आरम्भ कर दी। उन्होंने रावण के रथ, ध्वज, अश्व, सारथि, धनुष, बाहु और मस्तक काट डाले। काटे हुए मस्तकों के स्थान पर दूसरे नये मस्तक उत्पन्न हो जाते थे। यह देखकर श्रीरामचन्द्र जी ने ब्रह्मास्त्र के द्वारा रावण का वक्ष; स्थल विदीर्ण करके उसे रणभूमि में गिरा दिया। उस समय (मरने से बचे हुए सब) राक्षसों के साथ रावण की अनाथा स्त्रियाँ विलाप करने लगीं। तब श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा से विभीषण ने उन सबको सान्त्वना दे, रावण के शव का दाह-संस्कार किया। तदनन्तर श्रीरामचन्द्र जी ने हनुमान जी के द्वारा सीता जी को बुलवाया। यद्यपि वे स्वरूप से ही नित्य शुद्ध थीं, तो भी उन्होंने अग्नि में प्रवेश करके अपनी विशुद्धता का परिचय दिया। तत्पश्चात रघुनाथ जी ने उन्हें स्वीकार किया। इसके बाद इन्द्रादि देवताओं ने उनका स्तवन किया। फिर ब्रह्मा जी तथा स्वर्गवासी महाराज दशरथ ने आकर स्तुति करते हुए कहा- 'श्रीराम! तुम राक्षसों का संहार करने वाले साक्षात श्रीविष्णु हो।' फिर श्रीराम के अनुरोध से इन्द्र ने अमृत बरसाकर मरे हुए वानरों को जीवित कर दिया। समस्त देवता युद्ध देखकर, श्रीरामचन्द्र जी के द्वारा पूजित हो, स्वर्गलोक में चले गये। श्रीरामचन्द्र जी ने लंका का राज्य विभीषण को दे दिया और वानरों का विशेष सम्मान किया।
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फिर सबको साथ ले, सीता सहित पुष्पक विमान पर बैठकर श्रीराम जिस मार्ग से आये थे, उसी से लौट चले। मार्ग में वे सीता को प्रसन्नचित्त होकर वनों और दुर्गम स्थानों को दिखाते जा रहे थे। प्रयाग में महर्षि भारद्वाज को प्रणाम करके वे अयोध्या के पास नन्दिग्राम में आये। वहाँ भरत ने उनके चरणों में प्रणाम किया। फिर वे अयोध्या में आकर वहीं रहने लगे। सबसे पहले उन्होंने महर्षि वसिष्ठ आदि को नमस्कार करके क्रमश: कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा के चरणों में मस्तक झुकाया। फिर राज्य-ग्रहण करके ब्राह्मणों आदि का पूजन किया। [[अश्वमेध यज्ञ]] करके उन्होंने अपने आत्म स्वरूप श्रीवासुदेव का यजन किया, सब प्रकार के दान दिये और प्रजाजनों का पुत्रवत पालन करने लगे। उन्होंने धर्म और कामादिका भी सेवन किया तथा वे दुष्टों को सदा दण्ड देते रहे। उनके राज्य में सब लोग धर्मपरायण थे तथा पृथ्वी पर सब प्रकार की खेती फली-फूली रहती थी। श्रीरघुनाथजी के शासनकाल में किसी की अकाल मृत्यु भी नहीं होती थी।
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13:27, 21 फ़रवरी 2017 का अवतरण

युद्ध काण्ड / लंका काण्ड वाल्मीकि द्वारा रचित प्रसिद्ध हिन्दू ग्रंथ 'रामायण' और गोस्वामी तुलसीदास कृत 'श्रीरामचरितमानस' का एक भाग (काण्ड या सोपान) है।

सर्ग तथा श्लोक

युद्धकाण्ड में वानर सेना का पराक्रम, रावण-कुम्भकर्णादि राक्षसों का अपना पराक्रम-वर्णन, विभीषण-तिरस्कार, विभीषण का राम के पास गमन, विभीषण-शरणागति, समुद्र के प्रति क्रोध, नलादि की सहायता से सेतुबन्धन, शुक-सारण-प्रसंग, सरमावृत्तान्त, रावण-अंगद-संवाद, मेघनाद-पराजय, कुम्भकर्ण आदि राक्षसों का राम के साथ युद्ध-वर्णन, कुम्भकर्णादि राक्षसों का वध, मेघनाद वध, राम-रावण युद्ध, रावण वध, मंदोदरी विलाप, विभीषण का शोक, राम के द्वारा विभीषण का राज्याभिषेक, लंका से सीता का आनयन, सीता की शुद्धि हेतु अग्नि-प्रवेश, हनुमान, सुग्रीव, अंगद आदि के साथ राम, लक्ष्मण तथा सीता का अयोध्या प्रत्यावर्तन, राम का राज्याभिषेक तथा भरत का युवराज पद पर आसीन होना, सुग्रीवादि वानरों का किष्किन्धा तथा विभीषण का लंका को लौटना, रामराज्य वर्णन और रामायण पाठ श्रवणफल कथन आदि का निरूपण किया गया है।

इस काण्ड में 128 सर्ग तथा सबसे अधिक 5,692 श्लोक प्राप्त होते हैं। शत्रु के जय, उत्साह और लोकापवाद के दोष से मुक्त होने के लिए युद्ध काण्ड का पाठ करना चाहिए। इसे बृहद्धर्मपुराण में लंका काण्ड भी कहा गया है।

शत्रोर्जये समुत्साहे जनवादे विगर्हिते।
लंकाकाण्डं पठेत् किं वा श्रृणुयात् स सुखी भवेत्॥[1]

संक्षिप्त कथा

नारद जी कहते हैं- तदनन्तर श्रीरामचन्द्र जी के आदेश से अंगद रावण के पास गये और बोले- "रावण! तुम जनक कुमारी सीता को ले जाकर शीघ्र ही श्रीरामचन्द्र जी को सौंप दो। अन्यथा मारे जाओगे।" यह सुनकर रावण उन्हें मारने को तैयार हो गया। अंगद राक्षसों को मार-पीटकर लौट आये और श्रीरामचन्द्र जी से बोले- "भगवन! रावण केवल युद्ध करना चाहता है।" अंगद की बात सुनकर श्रीराम ने वानरों की सेना साथ ले युद्ध के लिये लंका में प्रवेश किया। हनुमान, मैन्द, द्विविद, जाम्बवान, नल, नील, तार, अंगद, धूम्र, सुषेण, केसरी, गज, पनस, विनत, रम्भ, शरभ, महाबली कम्पन, गवाक्ष, दधिमुख, गवय और गन्धमादन- ये सब तो वहाँ आये ही, अन्य भी बहुत-से वानर आ पहुँचे। इन असंख्य वानरों सहित (कपिराज) सुग्रीव भी युद्ध के लिये उपस्थित थे। फिर तो राक्षसों और वानरों में घमासान युद्ध छिड़ गया। राक्षस वानरों को बाण, शक्ति और गदा आदि के द्वारा मारने लगे और वानर रख, दाँत, एवं शिला आदि के द्वारा राक्षसों का संहार करने लगे। राक्षसों की हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों से युक्त चतुरंगिणी सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गयी। हनुमान ने पर्वत शिखर से अपने वैरी धूम्राक्ष का वध कर डाला। नील ने भी युद्ध के लिये सामने आये हुए अकम्पन और प्रहस्त को मौत के घाट उतार दिया।

श्रीराम और लक्ष्मण यद्यपि इन्द्रजित के नागास्त्र से बंध गये थे, तथापि गरुड़ की दृष्टि पड़ते ही उससे मुक्त हो गये। तत्पश्चात उन दोनों भाइयों ने बाणों से राक्षसी सेना का संहार आरम्भ किया। श्रीराम ने रावण को युद्ध में अपने बाणों की मार से जर्जरित कर डाला। इससे दु:खित होकर रावण ने कुम्भकर्ण को सोते से जगाया। जागने पर कुम्भकर्ण ने हज़ार घड़े मदिरा पीकर कितने ही भैंस आदि पशुओं का भक्षण किया। फिर रावण से कुम्भकर्ण बोला- "सीता का हरण करके तुमने पाप किया है। तुम मेरे बड़े भाई हो, इसलिये तुम्हारे कहने से युद्ध करने जाता हूँ। मैं वानरों सहित राम को मार डालूँगा।"

ऐसा कहकर कुम्भकर्ण ने समस्त वानरों को कुचलना आरम्भ किया। एक बार उसने सुग्रीव को पकड़ लिया, तब सुग्रीव ने उसकी नाक और कान काट लिये। नाक और कान से रहित होकर वह वानरों का भक्षण करने लगा। यह देख श्रीरामचन्द्र जी ने अपने बाणों से कुम्भकर्ण की दोनों भुजाएँ काट डालीं। इसके बाद उसके दोनों पैर तथा मस्तक काट कर उसे पृथ्वी पर गिरा दिया। तदनन्तर कुम्भ, निकुम्भ, राक्षस मकराक्ष, महोदर, महापार्श्व, देवान्तक, नरान्तक, त्रिशिरा और अतिकाय युद्ध में कूद पड़े। तब इनको तथा और भी बहुत-से युद्ध परायण राक्षसों को श्रीराम, लक्ष्मण, विभीषण एवं वानरों ने पृथ्वी पर सुला दिया। तत्पश्चात इन्द्रजीत (मेघनाद)-ने माया से युद्ध करते हुए वरदान में प्राप्त हुए नागपाश द्वारा श्रीराम और लक्ष्मण को बाँध लिया। उस समय हनुमान जी के द्वारा लाये हुए पर्वत पर उगी हुई 'विशल्या' नाम की ओषधि से श्रीराम और लक्ष्मण के घाव अच्छे हुए। उनके शरीर से बाण निकाल दिये गये। हनुमान जी पर्वत को जहाँ से लाये थे, वहीं उसे पुन: रख आये। इधर मेघनाद निकुम्भिलादेवी के मन्दिर में होम आदि करने लगा। उस समय लक्ष्मण ने अपने बाणों से इन्द्र को भी परास्त कर देने वाले उस वीर को युद्ध में मार गिराया। पुत्र की मृत्यु का समाचार पाकर रावण शोक से संतप्त हो उठा और सीता को मार डालने के लिये उद्यत हो उठा; किंतु अविन्ध्य के मना करने से वह मान गया और रथ पर बैठकर सेना सहित युद्ध भूमि में गया। तब इन्द्र के आदेश से मातलि ने आकर श्रीरघुनाथ जी को भी देवराज इन्द्र के रथ पर बिठाया।

श्रीराम और रावण का युद्ध श्रीराम और रावण के युद्ध के ही समान था- उसकी कहीं भी दूसरी कोई उपमा नहीं थी। रावण वानरों पर प्रहार करता था और हनुमान आदि वानर रावण को चोट पहुँचाते थे। जैसे मेघ पानी बरसाता है, उसी प्रकार श्रीरघुनाथ जी ने रावण के ऊपर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा आरम्भ कर दी। उन्होंने रावण के रथ, ध्वज, अश्व, सारथि, धनुष, बाहु और मस्तक काट डाले। काटे हुए मस्तकों के स्थान पर दूसरे नये मस्तक उत्पन्न हो जाते थे। यह देखकर श्रीरामचन्द्र जी ने ब्रह्मास्त्र के द्वारा रावण का वक्ष; स्थल विदीर्ण करके उसे रणभूमि में गिरा दिया। उस समय (मरने से बचे हुए सब) राक्षसों के साथ रावण की अनाथा स्त्रियाँ विलाप करने लगीं। तब श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा से विभीषण ने उन सबको सान्त्वना दे, रावण के शव का दाह-संस्कार किया। तदनन्तर श्रीरामचन्द्र जी ने हनुमान जी के द्वारा सीता जी को बुलवाया। यद्यपि वे स्वरूप से ही नित्य शुद्ध थीं, तो भी उन्होंने अग्नि में प्रवेश करके अपनी विशुद्धता का परिचय दिया। तत्पश्चात रघुनाथ जी ने उन्हें स्वीकार किया। इसके बाद इन्द्रादि देवताओं ने उनका स्तवन किया। फिर ब्रह्मा जी तथा स्वर्गवासी महाराज दशरथ ने आकर स्तुति करते हुए कहा- 'श्रीराम! तुम राक्षसों का संहार करने वाले साक्षात श्रीविष्णु हो।' फिर श्रीराम के अनुरोध से इन्द्र ने अमृत बरसाकर मरे हुए वानरों को जीवित कर दिया। समस्त देवता युद्ध देखकर, श्रीरामचन्द्र जी के द्वारा पूजित हो, स्वर्गलोक में चले गये। श्रीरामचन्द्र जी ने लंका का राज्य विभीषण को दे दिया और वानरों का विशेष सम्मान किया।

फिर सबको साथ ले, सीता सहित पुष्पक विमान पर बैठकर श्रीराम जिस मार्ग से आये थे, उसी से लौट चले। मार्ग में वे सीता को प्रसन्नचित्त होकर वनों और दुर्गम स्थानों को दिखाते जा रहे थे। प्रयाग में महर्षि भारद्वाज को प्रणाम करके वे अयोध्या के पास नन्दिग्राम में आये। वहाँ भरत ने उनके चरणों में प्रणाम किया। फिर वे अयोध्या में आकर वहीं रहने लगे। सबसे पहले उन्होंने महर्षि वसिष्ठ आदि को नमस्कार करके क्रमश: कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा के चरणों में मस्तक झुकाया। फिर राज्य-ग्रहण करके ब्राह्मणों आदि का पूजन किया। अश्वमेध यज्ञ करके उन्होंने अपने आत्म स्वरूप श्रीवासुदेव का यजन किया, सब प्रकार के दान दिये और प्रजाजनों का पुत्रवत पालन करने लगे। उन्होंने धर्म और कामादिका भी सेवन किया तथा वे दुष्टों को सदा दण्ड देते रहे। उनके राज्य में सब लोग धर्मपरायण थे तथा पृथ्वी पर सब प्रकार की खेती फली-फूली रहती थी। श्रीरघुनाथजी के शासनकाल में किसी की अकाल मृत्यु भी नहीं होती थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बृहद्धर्मपुराण 26…13

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