दाऊजी मन्दिर मथुरा

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दाऊजी मन्दिर भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम से सम्बन्धित है। मथुरा में यह 'वल्लभ-सम्प्रदाय' का सबसे प्राचीन मन्दिर माना जाता है। यमुना नदी के तट पर स्थित इस मन्दिर को 'गोपाल लालजी का मन्दिर' भी कहते हैं। मन्दिर में दाऊजी, मदन मोहन जी तथा अष्टभुज गोपाल के श्री विग्रह विराजमान हैं। दाऊजी या बलराम का मुख्य 'बलदेव मन्दिर' मथुरा के ही बलदेव में है। मन्दिर के चारों ओर सर्प की कुण्डली की भाँति परिक्रमा मार्ग में एक पूर्ण पल्लवित बाज़ार है। मन्दिर के पीछे एक विशाल कुण्ड भी है, जो 'बलभद्र कुण्ड' के नाम से पुराण वर्णित है। आज कल इसे 'क्षीरसागर' के नाम से पुकारा जाता है।

स्थिति

यह प्रसिद्ध मन्दिर मथुरा जनपद में ब्रजमंडल के पूर्वी छोर पर स्थित है। मथुरा से 21 किलोमीटर की दूरी पर एटा-मथुरा मार्ग के मध्य में यह स्थित है। मार्ग के बीच में गोकुल एवं महावन, जो कि पुराणों में वर्णित 'वृहद्वन' के नाम से विख्यात है, पड़ते हैं। यह स्थान पुराणोक्त 'विद्रुमवन' के नाम से निर्दिष्ट है। इसी विद्रुभवन में बलराम की अत्यन्त मनोहारी विशाल प्रतिमा तथा उनकी सहधर्मिणी राजा ककु की पुत्री ज्योतिष्मती रेवती का विग्रह है। यह एक विशालकाय देवालय है, जो कि एक दुर्ग की भाँति सुदृढ प्राचीरों से आवेष्ठित है। मन्दिर के चारों ओर सर्प की कुण्डली की भाँति परिक्रमा मार्ग में एक पूर्ण पल्लवित बाज़ार स्थापित है। मन्दिर के चार मुख्य दरवाजे हैं, जो क्रमश: 'सिंहचौर', 'जनानी ड्योढी', 'गोशाला द्वार' या 'बड़वाले दरवाज़े' के नाम से जाने जाते हैं। मन्दिर के पीछे की ओर ही एक विशाल कुण्ड भी है, जिस्का 'बलभद्र कुण्ड' के नाम से पुराण आदि में वर्णन है।[1]

दाऊजी की मूर्ति

मन्दिर में मूर्ति पूर्वाभिमुख दो फुट ऊँचे संगमरमर के सिंहासन पर स्थापित है। पौराणिक आख्यान के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र वज्रनाभ ने अपने पूर्वजों की पुण्य स्मृति में तथा उनके उपासना क्रम को संस्थापित करने हेतु चार देव विग्रह तथा चार देवियों की मूर्तियाँ निर्माण करवा कर स्थापित की थीं। जिनमें से बलदेवजी का यही विग्रह है, जो कि 'द्वापर युग' के बाद कालक्षेप से भूमिस्थ हो गया था। पुरातत्ववेत्ताओं का मत है यह मूर्ति पूर्व कुषाण कालीन है, जिसका निर्माणकाल दो सहस्र या इससे अधिक होना चाहिये। ब्रजमण्डल के प्राचीन देव स्थानों में यदि बलदेवजी विग्रह को प्राचीनतम कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ब्रज के अतिरिक्त शायद कहीं इतना विशाल वैष्णव श्रीविग्रह दर्शन को मिले। यह मूर्ति क़रीब 8 फुट ऊँची एवं साढे तीन फुट चौडी श्याम वर्ण की है। पीछे शेषनाग सात फनों से युक्त मुख्य मूर्ति की छाया करते हैं। मूर्ति नृत्य मुद्रा में स्थापित है, दाहिना हाथ सिर से ऊपर वरद मुद्रा में है एवं बाँये हाथ में चषक है। विशाल नेत्र, भुजाएँ-भुजाओं में आभूषण, कलाई में कंडूला उत्कीर्णित हैं। मुकट में बारीक नक्काशी का आभास होता है। पैरों में भी आभूषण प्रतीत होते हैं तथा कटि प्रदेश में धोती पहने हुए है।

मूर्ति के कान में एक कुण्डल है तथा कण्ठ में वैजयंती माला उत्कीर्णित हैं। मूर्ति के सिर के ऊपर से लेकर चरणों तक शेषनाग स्थित है। शेष के तीन वलय हैं, जो कि मूर्ति में स्पष्ट दिखाई देते हैं और योगशास्त्र की कुण्डलिनी शक्ति के प्रतीक रूप हैं, क्योंकि पौराणिक मान्यता के अनुसार बलदेव शाक्ति के प्रतीक योग एवं शिलाखण्ड में स्पष्ट दिखाई देती हैं, जो कि सुबल, तोष एवं श्रीदामा सखाओं की हैं। बलदेवजी के सामने दक्षिण भाग में दो फुट ऊँचे सिंहासन पर रेवती की मूर्ति स्थापित हैं, जो कि बलदेव के चरणोन्मुख है और रेवती के पूर्ण सेवा-भाव की प्रतीक है। यह मूर्ति क़रीब पाँच फुट ऊँची है। दाहिना हाथ वरद मुद्रा में तथा वाम हस्त कटि प्रदेश के पास स्थित है। इस मूर्ति में ही सर्पवलय का अंकन स्पष्ट है। दोनों भुजाओं में, कण्ठ में, चरणों में आभूषणों का उत्कीर्णन है।[1] वैदिक धर्म के प्रचार एवं अर्चना का आरम्भ चर्तुव्यूह उपासना से होता है, जिसमें संकर्षण प्रधान हैं। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखा जाय तो ब्रजमण्डल के प्राचीनतम देवता बलदेव ही हैं। सम्भवत: ब्रजमण्डल में बलदेवजी से प्राचीन कोई देव विग्रह नहीं है। ऐतिहासिक प्रमाणों में चित्तौड़ के शिलालेखों में जो कि ईसा से पाँचवी शताब्दी पूर्व के हैं, बलदेवोपासना एवं उनके मन्दिर को इंगित किया गया है। अर्पटक, भोरगाँव नानाघटिका के शिलालेख, जो कि ईसा के प्रथम द्वितीय शाताब्दी के हैं, जुनसुठी की बलदेव मूर्ति शुंग कालीन है तथा यूनान के शासक अगाथोक्लीज की चाँदी की मुद्रा पर हलधारी बलराम की मूर्ति का अंकन सभी बलदेव की पूजा उपासना एवं जनमान्यओं के प्रतीक हैं।


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टीका टिप्पणी और सन्दर्भ

  1. 1.0 1.1 श्रीदाऊजी का मन्दिर, बलदेव (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 05 मई, 2013।

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