दाऊजी मन्दिर मथुरा

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दाऊजी मन्दिर मथुरा
दाऊजी का मन्दिर, बलदेव
विवरण भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम का यह प्रसिद्ध मन्दिर मथुरा में स्थित है, जिसकी पौराणिक मान्यता है। मन्दिर में 'दाऊजी', 'मदनमोहन' तथा अष्टभुज 'गोपाल' के श्रीविग्रह विराजमान हैं।
स्थान बलदेव, मथुरा
राज्य उत्तर प्रदेश
निर्माणकर्ता गोस्वामी गोकुलनाथ
विशेष मान्यता है कि कल्याण देव नामक ब्राह्मण को बलरामजी ने दर्शन देकर भूमि से मूर्ति निकालने का आदेश दिया था।
संबंधित लेख बलराम, श्रीकृष्ण, कंस, जरासन्ध
अन्य जानकारी मन्दिर के चार मुख्य दरवाजे हैं, जो क्रमश: 'सिंहचौर', 'जनानी ड्योढी', 'गोशाला द्वार' या 'बड़वाले दरवाज़े' के नाम से जाने जाते हैं। मन्दिर के पीछे की ओर ही एक विशाल कुण्ड भी है, जिसका 'बलभद्र कुण्ड' के नाम से पुराण आदि में वर्णन है।

दाऊजी मन्दिर भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम से सम्बन्धित है। मथुरा में यह 'वल्लभ-सम्प्रदाय' का सबसे प्राचीन मन्दिर माना जाता है। यमुना नदी के तट पर स्थित इस मन्दिर को 'गोपाल लालजी का मन्दिर' भी कहते हैं। मन्दिर में दाऊजी, मदन मोहन जी तथा अष्टभुज गोपाल के श्री विग्रह विराजमान हैं। दाऊजी या बलराम का मुख्य 'बलदेव मन्दिर' मथुरा के ही बलदेव में है। मन्दिर के चारों ओर सर्प की कुण्डली की भाँति परिक्रमा मार्ग में एक पूर्ण पल्लवित बाज़ार है। मन्दिर के पीछे एक विशाल कुण्ड भी है, जो 'बलभद्र कुण्ड' के नाम से पुराण वर्णित है। आज कल इसे 'क्षीरसागर' के नाम से पुकारा जाता है।

स्थिति

यह प्रसिद्ध मन्दिर मथुरा जनपद में ब्रजमंडल के पूर्वी छोर पर स्थित है। मथुरा से 21 किलोमीटर की दूरी पर एटा-मथुरा मार्ग के मध्य में यह स्थित है। मार्ग के बीच में गोकुल एवं महावन, जो कि पुराणों में वर्णित 'वृहद्वन' के नाम से विख्यात है, पड़ते हैं। यह स्थान पुराणोक्त 'विद्रुमवन' के नाम से निर्दिष्ट है। इसी विद्रुभवन में बलराम की अत्यन्त मनोहारी विशाल प्रतिमा तथा उनकी सहधर्मिणी राजा ककु की पुत्री ज्योतिष्मती रेवती का विग्रह है। यह एक विशालकाय देवालय है, जो कि एक दुर्ग की भाँति सुदृढ प्राचीरों से आवेष्ठित है। मन्दिर के चारों ओर सर्प की कुण्डली की भाँति परिक्रमा मार्ग में एक पूर्ण पल्लवित बाज़ार स्थापित है। मन्दिर के चार मुख्य दरवाजे हैं, जो क्रमश: 'सिंहचौर', 'जनानी ड्योढी', 'गोशाला द्वार' या 'बड़वाले दरवाज़े' के नाम से जाने जाते हैं। मन्दिर के पीछे की ओर ही एक विशाल कुण्ड भी है, जिस्का 'बलभद्र कुण्ड' के नाम से पुराण आदि में वर्णन है।[1]

दाऊजी की मूर्ति

मन्दिर में मूर्ति पूर्वाभिमुख दो फुट ऊँचे संगमरमर के सिंहासन पर स्थापित है। पौराणिक आख्यान के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र वज्रनाभ ने अपने पूर्वजों की पुण्य स्मृति में तथा उनके उपासना क्रम को संस्थापित करने हेतु चार देव विग्रह तथा चार देवियों की मूर्तियाँ निर्माण करवा कर स्थापित की थीं। जिनमें से बलदेवजी का यही विग्रह है, जो कि 'द्वापर युग' के बाद कालक्षेप से भूमिस्थ हो गया था। पुरातत्ववेत्ताओं का मत है यह मूर्ति पूर्व कुषाण कालीन है, जिसका निर्माणकाल दो सहस्र या इससे अधिक होना चाहिये। ब्रजमण्डल के प्राचीन देव स्थानों में यदि बलदेवजी विग्रह को प्राचीनतम कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ब्रज के अतिरिक्त शायद कहीं इतना विशाल वैष्णव श्रीविग्रह दर्शन को मिले। यह मूर्ति क़रीब 8 फुट ऊँची एवं साढे तीन फुट चौडी श्याम वर्ण की है। पीछे शेषनाग सात फनों से युक्त मुख्य मूर्ति की छाया करते हैं। मूर्ति नृत्य मुद्रा में स्थापित है, दाहिना हाथ सिर से ऊपर वरद मुद्रा में है एवं बाँये हाथ में चषक है। विशाल नेत्र, भुजाएँ-भुजाओं में आभूषण, कलाई में कंडूला उत्कीर्णित हैं। मुकट में बारीक नक़्क़ाशी का आभास होता है। पैरों में भी आभूषण प्रतीत होते हैं तथा कटि प्रदेश में धोती पहने हुए है।
मूर्ति के कान में एक कुण्डल है तथा कण्ठ में वैजयंती माला उत्कीर्णित हैं। मूर्ति के सिर के ऊपर से लेकर चरणों तक शेषनाग स्थित है। शेष के तीन वलय हैं, जो कि मूर्ति में स्पष्ट दिखाई देते हैं और योगशास्त्र की कुण्डलिनी शक्ति के प्रतीक रूप हैं, क्योंकि पौराणिक मान्यता के अनुसार बलदेव शाक्ति के प्रतीक योग एवं शिलाखण्ड में स्पष्ट दिखाई देती हैं, जो कि सुबल, तोष एवं श्रीदामा सखाओं की हैं। बलदेवजी के सामने दक्षिण भाग में दो फुट ऊँचे सिंहासन पर रेवती की मूर्ति स्थापित हैं, जो कि बलदेव के चरणोन्मुख है और रेवती के पूर्ण सेवा-भाव की प्रतीक है। यह मूर्ति क़रीब पाँच फुट ऊँची है। दाहिना हाथ वरद मुद्रा में तथा वाम हस्त कटि प्रदेश के पास स्थित है। इस मूर्ति में ही सर्पवलय का अंकन स्पष्ट है। दोनों भुजाओं में, कण्ठ में, चरणों में आभूषणों का उत्कीर्णन है।[1] वैदिक धर्म के प्रचार एवं अर्चना का आरम्भ चर्तुव्यूह उपासना से होता है, जिसमें संकर्षण प्रधान हैं। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखा जाय तो ब्रजमण्डल के प्राचीनतम देवता बलदेव ही हैं। सम्भवत: ब्रजमण्डल में बलदेवजी से प्राचीन कोई देव विग्रह नहीं है। ऐतिहासिक प्रमाणों में चित्तौड़ के शिलालेखों में जो कि ईसा से पाँचवी शताब्दी पूर्व के हैं, बलदेवोपासना एवं उनके मन्दिर को इंगित किया गया है। अर्पटक, भोरगाँव नानाघटिका के शिलालेख, जो कि ईसा के प्रथम द्वितीय शाताब्दी के हैं, जुनसुठी की बलदेव मूर्ति शुंग कालीन है तथा यूनान के शासक अगाथोक्लीज की चाँदी की मुद्रा पर हलधारी बलराम की मूर्ति का अंकन सभी बलदेव की पूजा उपासना एवं जनमान्यओं के प्रतीक हैं।[1]

मूर्ति प्राकट्य

दाऊजी मन्दिर में बलदेव मूर्ति के प्राकट्य का भी रोचक इतिहास है। मध्य काल का समय था। मुग़ल साम्राज्य का प्रतिष्ठा सूर्य मध्यान्ह में था। बादशाह अकबर अपने भारी श्रम, बुद्धिचातुर्य एवं युद्ध कौशल से एक ऐसी सल्तनत की प्राचीर के निर्माण में लीन था, जो कि उसके कल्पना लोक की मान्यता के अनुसार कभी भी न ढहे और पीढी-दर-पीढी मुग़लिया ख़ानदान हिन्दुस्तान की सरज़मीं पर निष्कंटक अपनी सल्तनत को क़ायम रखकर गद्दी एवं ताज का उपभोग करते रहें। एक ओर यह मुग़लों की स्थापना का समय था, दूसरी ओर मध्ययुगीन धर्माचार्य एवं सन्तों के अवतरण तथा अभ्युदय का स्वर्ण युग। ब्रजमण्डल में तत्कालीन धर्माचार्यों में महाप्रभु बल्लभाचार्य, निम्बकाचार्य एवं चैतन्य सम्प्रदाय की मान्यताएँ अत्यन्त लोकप्रिय थीं। किसी समय गोवर्धन की तलहटी में एक बहुत प्राचीन तीर्थस्थल 'सूर्यकुण्ड' एवं उसका तटवर्ती ग्राम 'भरना-खुर्द'[2] था। इसी सूर्यकुण्ड के घाट पर परम सात्विक ब्राह्मण वंशावतंश गोस्वामी कल्याण देवाचार्य तपस्या करते थे। उनका जन्म भी इसी ग्राम में इभयराम के घर में हुआ था।

कल्याण देव का स्वप्न

एक दिन कल्याण देवजी को ऐसी अनुभूति हुई कि उनका अन्तर्मन तीर्थाटन का आदेश दे रहा है। अत: कल्याण-देवजी ने जगदीश यात्रा का निश्चय कर घर से प्रस्थान कर दिया। गिर्राज परिक्रमा कर मानसी गंगा में स्नान किया और फिर मथुरा पहुँचे। यमुना नदी में स्नान, दर्शनकर आगे बढ़े और विद्रुमवन आये, जहाँ आज का वर्तमान बलदेव नगर है। यहाँ रात्रि को विश्राम किया। सघन वट वृक्षों की छाया तथा सरोवर का किनारा, ये दोनों स्थितियाँ उनको भा गईं। फलत: उन्होंने कुछ दिन यहीं तप करने का निश्चय किया। एक दिन अपने आन्हिक कर्म से निवृत हुये ही थे कि दिव्य हल-मूसलधारी भगवान बलराम उनके सम्मुख प्रकट हुये तथा बोले कि- "मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, वर माँगो।" कल्याण देवजी ने करबद्ध प्रणाम कर निवेदन किया कि- "प्रभु आपके नित्य दर्शन के अतिरिक्त मुझे कुछ भी अभीष्ट नहीं हैं। अत: आप नित्य मेरे घर विराजें।" बलदेवजी ने तथास्तु कहकर स्वीकृति दी और अन्तर्धान हो गये। साथ ही यह भी आदेश किया कि- "जिस प्रयोजन हेतु जगदीश यात्रा कर रहे हो, वे सभी फल तुम्हें यहीं मिलेंगे, इस हेतु इसी वट-वृक्ष के नीचे मेरी एवं रेवती की प्रतिमाएँ भूमिस्थ हैं, उनका प्राकट्य करो'। अब कल्याण देवजी की व्यग्रता बढ गई और वे भूमि खोदने के कार्य में लग गये, जिस स्थान का आदेश बलराम ने किया था।[1]

मूर्ति स्थापना

इधर एक और विचित्र आख्यान उपस्थित हुआ कि जिस दिन कल्याण देवजी को साक्षात्कार हुआ, उसी पूर्व रात्रि को गोकुल में बल्लभाचार्य महाप्रभु के पौत्र गोस्वामी गोकुलनाथ को स्वप्न हुआ कि 'जो श्यामा गौ के बारे में आप चिन्तित हैं, वह नित्य दूध मेरी प्रतिमा के ऊपर स्त्रवित कर देती है। ग्वाला निर्दोष है। मेरी प्रतिमाएँ विद्रुमवन में वट वृक्ष के नीचे भूमिस्थ है। उसे प्राकट्य कराओ।' यह श्यामा गौ सद्य: प्रसूता होने के बावजूद दूध नहीं देती थी। महाराज को दूध के बारे ग्वाला के ऊपर सन्देह होता था। प्रभु की आज्ञा से गोस्वामी ने उपर्युक्त स्थल पर जाने का निर्णय किया। वहाँ जाकर देखा कि कल्याण देवजी मूर्तियुगल को भूमि से खोदकर निकाल चुके हैं। वहाँ पहुँच नमस्कार अभिवादन के उपरान्त दोनों ने अपने-अपने वृतान्त सुनाये। अत्यन्त हर्ष विह्वल धर्माचार्य हृदय को विग्रहों के स्थापन के निर्णय की चिन्ता हुई और निश्चय किया कि इस घोर जंगल से मूर्तिद्वय को हटाकर क्यों न गोकुल में प्रतिष्ठित किया जाय। एतदर्थ अनेक गाढ़ा मँगाये, किन्तु मूर्ति अपने स्थान से टस से मस न हुई और इतना श्रम व्यर्थ गया। हार मानकर यही निश्चय किया गया कि दोनों मूर्तियों को अपने प्राकट्य के स्थान पर ही प्रतिष्ठित कर दिया जाय। अत: जहाँ कल्याण देव तपस्या करते थे, उसी पर्णकुटी में सर्वप्रथम स्थापना हुई, जिसके द्वारा कल्याण देव को नित्य घर में निवास करने का दिया गया वरदान सफल हुआ।

खीर का भोग

एक दिन संयोगत: मार्गशीर्ष मास की पूर्णमासी थी। षोडसोपचार क्रम से वेदाचार के अनुरूप दोनों मूर्तियों की अर्चना को गई तथा सर्वप्रथम ठाकुरजी को खीर का भोग रखा गया, अत: उस दिन से लेकर आज तक प्रतिदिन खीर भोग में अवश्य आती है। गोस्वामी गोकुलनाथ ने एक नवीन मंदिर के निर्माण का भार वहन करने का संकल्प लिया तथा पूजा अर्चना का भार कल्याण देव ने लिया। उस दिन से अद्यावधि कल्याण वंशज ही ठाकुर की पूजा अर्चना करते आ रहे हैं। बाद के समय में मार्गशीर्ष पूर्णिमा सम्वत 1638 विक्रम था। एक वर्ष के भीतर पुन: दोनों मूर्तियों को पर्णकुटी से हटाकर गोस्वामी महाराज के नव-निर्मित देवालय में, जो कि सम्पूर्ण सुविधाओं से युक्त था, मार्गशीर्ष पूर्णिमा संवत 1639 को प्रतिष्ठित कर दिया गया। कहते हैं कि भगवान बलराम की जन्म-स्थली एवं नित्य क्रीड़ा स्थली यह स्थान है। पौराणिक आख्यान के अनुसार यह स्थान नन्द बाबा के अधिकार क्षेत्र में था। यहाँ बाबा की गाय के निवास के लिये बड़े-बड़े खिरक निर्मित थे। मगधराज जरासंध के राज्य की पश्चिमी सीमा यहाँ लगती थीं, अत: यह क्षेत्र कंस के आतंक से प्राय: सुरक्षित था। इसी निमित्त नन्द बाबा ने बलदेव की माता रोहिणी को बलदेव के प्रसव के निमित इसी विद्रुमवन में रखा था और यहीं बलदेव का जन्म हुआ था, जिसके प्रतीक रूप रीढ़ा[3] दोनों ग्राम आज तक मौजूद हैं।[1]

बलदेव होली के विभिन्न दृश्य


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टीका टिप्पणी और सन्दर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 श्रीदाऊजी का मन्दिर, बलदेव (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 05 मई, 2013।
  2. छोटा भरना
  3. (रोहिणेयक ग्राम का अपभ्रंश तथा अबैरनी, बैर रहित क्षेत्र)

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