अबू हनीफ़ा
अबू हनीफा अननुमान (699-776 ई.) अबू हनीफा अननुमान (साबित के बेटे) सुन्नी न्यायशास्त्र (फिक़) की प्रारंभिक चार पद्धतियों--हनफी, मालिकी, शाफ़ई और हंबली में से हनफी के प्रवर्तक इमामे-आजम के नाम से प्रसिद्ध थे। हनफी न्यायपद्धति लगभग सभी अरबेतर सुन्नी मुसलमानों में प्रचलित है।
इमाम के पितामह दास के रूप में ईरान से कूफ़ा लाए गए और वे वहाँ स्वंतत्र कर दिए गए। इमाम के पिता कपड़े के प्रसिद्ध व्यापारी थे और इमाम ने अपने जीवन को पठन-पाठन में व्यतीत करते हुए पिता के पेशे को ही अपनाया। वे हम्माद के शिष्य थे। 738 ई. में हम्माद की मृत्यु के बाद उनके पद पर आसीन हुए और शीघ्र ही मुसलमानी न्यायशास्त्र के सबसे महान् पंडित के रूप में विख्यात हुए। उनके शिष्य दूर--दूर तक मुस्लिम जगत् में फैले और न्याय के चोटी के पदों पर नियुक्त हुए। इमाम की मृत्यु पर 50,000 से भी अधिक शिष्य आखिरी नमाज में सम्मिलित हुए।[1]
अबू हनीफा की महत्ता उन सिद्धांतो और प्रणालियों में परिलक्षित होती है जिनको स्वीकार करके उन्होंने एक ऐसी न्यायपद्धति की व्यवस्था की जिसमें धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष दोनों ही प्रकार के सार्वभौम मुसलमानी नियमों का समावेश था। उनकी पद्धति मक्का तथा मदोनार की रूढ़िवादी पद्धति (रवायात) से भिन्न थी। जहाँ कुरान या पैगंबर का मत (हदीस) स्पष्ट था, इमाम ने उसे स्वीकार किया, और जहाँ वह स्पष्ट नहीं था, वे साम्य (क़यास) स्थापित करते थे। किंतु यदि हदीस अप्रामणिक, अशक्त या अविश्वसनीय हो तो युक्ति पर भरोसा करने की उन्होंने सलाह दी। इमाम ने धार्मिक तथा धर्मनिरपेक्ष मामलों को पृथक-पृथक कर दिया। धर्मनिरपेक्ष मामलों में पैगंबर के मत को न माना। पैगंबर ने कहा था कि यदि मैं धार्मिक मामलों में आज्ञा दूँ तो मानो, किंतु यदि मैं और मामलों में आज्ञा दूँ तो मैं भी तुम्हारी ही तरह मात्र मनुष्य हूँ। अबू हनीफा ने कोई किताब नहीं लिखी, किंतु लगभग 30 वर्षो तक अनुयायियों के साथ किए न्याय के आधार पर उनके 12,90,00 कानूनी नियमों का संकलन उपलब्ध है। मूल ग्रंथ लुप्त हो चुका है, किंतु उसके आधार पर इमाम के शिष्यों द्वारा लिखी गई पुस्तकें हनीफा न्यायपद्धति के आधार हैं। खेद की बात है कि इमाम के अनुयायियों ने उनके इस प्रमुख सिद्धांत की अवज्ञा की और कानून को देश तथा काल के अनुकूल ढालने का उनका कलाम न माना । अबू हनीफा को दो बार काजी का पद अस्वीकार करने के अपराध में कारावास का दंड दिया गया। पहली बार कूफा के शासक यज़ीद द्वारा और दूसरी बार खलीफा मंसूर द्वारा। आध्यात्मिक स्वतंत्रता की रक्षा अविचल रहकर कारावास में भी उन्होंने अपने प्राणत्याग तक की।[2]