अलीकुली खानजमाँ
अलीकुली खानजमाँ मुगल दरबार का एक प्रमुख व्यक्ति था। यह हैदर सुलतान उजबेक शैरानी का पुत्र था। उसने अपने पिता के साथ हुमायूँ की सहायता करके कंधार की विजय में खूब वीरता दिखाई। भारत को जीतने में भी इसने अच्छा काम किया; फलस्वरूप इसे अमीर पद प्राप्त हुआ। इसने कंबर दीवाना को, जिसने संभल और दोआबे में विद्रोह मचा रखा था, बड़ी बहादुरी से परास्त किया। जिस समय अकबर ने शासन सँभाला, हेमू ने दिल्ली पर आक्रमण किया। उस समय मुगल सेना को लेकर इसने उसका सम्मान किया। युद्ध में हेमू आहत हुआ और उसकी सेना भाग गई। इस कार्य से प्रसन्न होकर अकबर ने इसे खानजहाँ की उपाधि, कुछ जागीरें और मंसब प्रदान किए। किंतु उसके आचरणों और अफगानों से मित्रता के प्रसंग में घटी एक घटना के कारण अकबर के हृदय में उसके प्रति मालिन्य उत्पन्न हो गया और उसने उसकी सारी जागीर छीनकर अन्य व्यक्तियों को दे दी जिसके प्रतिक्रियास्वरूप वह हठी हो गया। अकबर के शासन के चौथे वर्ष जो कुछ उसके पास जागीर शेष थीं, इससे छीनकर जलायर सरदारों को दे दी गई। इसे अफगानों का षडयंत्र दबाने के लिए जौनपुर में नियुक्त किया गया।
खानजमाँ ने अपने सेवक बुर्जअली को दरबार इस आशय से भेजा कि वह अकबर से फिर अच्छे संबंध स्थापित कर सके, किंतु पीरमुहम्मद खाँ ने, जो फीरोजाबाद दुर्ग में नियत था, और खानजमाँ से ईर्ष्या करता था, बुर्जअली को मरवा डाला। इधर खानजमाँ ने केंन्द्रीय शासन के विरूद्ध अफगानों से मेल जोल बढ़ाया तथा शाहमबेग को इतना बढ़ावा दिया कि वह सरदारों की पत्नियों से दुर्व्यवहार तक करने लगा। फलत: उसे कत्ल कर दिया गया। यहीं से खानजमाँ की प्रकृति विद्रोही हो गई। बैरम खाँ के पदच्युत होने पर उस प्रांत के अफगानों ने पुन: सर उठाया, जिनका खानजमाँ ने बड़ी वीरता से दमन तो किया किंतु उससे फिर चूक हुई और इसने विजय में प्राप्त सामान बादशाह अकबर को भेंट नहीं किया। जुलाई, 1562 ई. में जब अकबर पूर्व की ओर गया तब वह अपने भाई बहादुर खाँ के साथ कड़ा में बादशाह की सेवा में उपस्थित हुआ और विजय की सारी सामग्री भेंट की।
समय बदला, इसकी प्रकृति में परिवर्तन हुआ और इसने अकबरी शासन के 10 वें वर्ष कुछ उजबेग सरदारों को साथ लेकर विद्रोह कर दिया। अकबर उसके विद्रोह को दबाने के लिए जौनपुर आया। खानजमाँ ने क्षमायाचना की, किंतु पुन: धूर्ततापूर्वक व्यवहार किया, और बादशाह अकबर की अवज्ञा करके अपनी जागीर पर अधिकार करने चला गया। अकबर पुन: इसके दमन हेतु चल पड़ा। इसने पुन: क्षमायाचना दुहराई।
अकबर के लाहौर गमन के अवसर पर इससे फिर सर उठाया और अवध, कड़ा तथा मानिकपुर पर अधिकार कर लिया। इस बार बादशाह ने पूरे निश्चय के साथ 9 जून, 1567 ई0 को खानजमाँ पर आक्रमण किया। यह युद्ध सँकरावल गाँव के मैदान में (वर्तमान फतेहपुर) हुआ जिसमें खानजमाँ अलीकुली बहादुर खाँ के साथ मारा गया।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 3 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 314 |