भर्तृहरि (वैयाकरण)
भर्तृहरि | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- भर्तृहरि |
भर्तृहरि संस्कृत के व्याकरणशास्त्र के एक महान् गंभीर मनीषी के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनका विद्वत्संमत काल है ईसवी पांचवीं सदी। व्याकरणशास्त्र का उद्देश्य केवल शब्द है और चतुर्थ अर्थात् अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष तो दूर रहा, धर्म, अर्थ और काम नामक तीन लौकिक पुरुषार्थों से भी उनका कोई संबंध नहीं हो सकता, ऐसी भ्रांत कल्पना भर्तृहरि के काल में विद्वानों में भी ज़ोर पकड़ने लगी थी। इससे भर्तृहरि को बहुत दु:ख हुआ, जिसे उन्होंने 'वाक्यपदीय' के द्वितीय कांड के अंत में कतिपय श्लोकों में व्यक्त किया है। उस भ्रांत कल्पना को हटाकर भर्तृहरि ने व्याकरणशास्त्र की परम्परा और प्रतिष्ठा को बढ़ाया। इनको वाक्यपदीयकार से अभिन्न मानने में कोई अनुपपत्ति नहीं प्रतीत होती, परन्तु इनका कोई अन्य ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। वाक्यपदीय व्याकरण विषयक ग्रन्थ होने पर भी प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रन्थ है। अद्वैत सिद्धान्त ही इसका उपजीव्य है, इसमें संदेह नहीं है। किसी-किसी आचार्य का मत है कि भर्तृहरि के 'शब्दब्रह्मवाद' का ही अवलम्बन करके आचार्य मण्डनमिश्र ने ब्रह्मासिद्धि नामक ग्रन्थ का निर्माण किया था। इस पर वाचस्पतिमिश्र की 'ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा' नामक टीका है।
परिचय
अंतरंग और बहिरंग प्रमाणों से आधुनिक विद्वान् इतना ही निर्णय कर सके हैं कि भर्तृहरि ईसवी पांचवीं सदी में हुए। उनका जन्म, माता, पिता, गुरु, अध्ययन, निवास आदि विषय में कुछ भी प्रमाण अभी तक नहीं मिला है। एक दन्त कथा के अनुसार भर्तृहरि को अपनी विद्वता के बारे में बड़ा घमंड था। एक समय विद्वानों की सभा में किसी पंडित ने पतंजलि के महाभाष्य जैसा दूसरा श्रेष्ठ ग्रंथ है ही नहीं, ऐसा कहा। यह सुनकर भर्तृहरि क्रुद्ध होते हुए बोले- 'भामदृष्टवा गत: स्वर्गमकृतार्थ: पतंजलि' (मुझ जैसे व्याकरण के विद्वान् को न देखने से पतंजलि अपना निष्फल जीवन छोड़कर ही स्वर्ग पधारा)।[1]
ग्रंथ तथा किंवदंतियाँ
भर्तृहरि ने अनेक बार बौद्ध धर्म को स्वीकार किया और बार-बार फिर से वह ब्राह्मण हो गये, इस प्रकार की आख्यायिका भी परम्परा में प्रसिद्ध है। इसी कारण भर्तृहरि के लिए कभी-कभी 'प्रच्छन्न बौद्ध' अथवा 'बाह्य' विशेषण लगाया जाता है। लेकिन इस विषय में निर्णायक प्रमाण अभी तक उपलब्ध नहीं है। वाक्यपदीय ग्रंथ के तीन कांड और महाभाष्य टीका 'दीपिका' में दो ग्रंथ भर्तृहरि के नाम से प्रसिद्ध है। उसके वाक्यपदीय पर उपलब्ध विस्तृत विवरण रूप स्वोपज्ञ टीका भी उसी की मानी जाती है। स्वोपज्ञ टीका का कुछ अंश ही आज उपलब्ध है। पाणिनी सूत्र विवरण रूप भागवृत्ति, पाणिनीय व्याकरण सूत्रों में उदाहरण प्रस्तुत करने वाला रामचरित काव्य (अर्थात् भट्टिकाव्य) तथा शतकत्रय (नीतिशतक, श्रृंगारशतक और वैराग्य शतक)- इन ग्रंथों के कर्ता भी यही भर्तृहरि हैं, ऐसा परम्परा में माना जाता है। लेकिन आधुनिक विद्वानों की मान्यता यह नहीं है।
महोपाध्याय उपाधि
प्राचीन वाङमय में 'महोपाध्याय' इस अत्यादरदर्शक उपाधि के साथ उनका उल्लेख बहुत स्थानों पर मिलता है। संभवत: यह उपाधि उनको किसी राजा ने या पंडित समाज ने दी होगी। बारहवीं सदी के जैन व्याकरण पंडित वर्धमान ने गणराजमहोदधि में भर्तृहरि को वाक्यपदीय और प्रकीर्णक इन दो ग्रंथों का कर्ता तथा महाभाष्यत्रिपादी का व्याख्याता बताया है। इस उल्लेख से भर्तृहरि ने महाभाष्य के तीन पादों पर टीका लिखी होगी। 'प्रकीर्णक' नामक स्वतंत्र ग्रंथ लिखा होगा, ऐसा समझा जा सकता है। संभवत: आज उपलब्ध दीपिका टीका ही वह महाभाष्य टीका होगी और वाक्यपदीय का तृतीय कांड ही 'प्रकीर्णक' नाम से निर्दिष्ट होगा, क्योंकि इस तीसरे कांड में जाति, द्रव्य, संख्या इत्यादि अनेकानेक विषयों का अनेक प्रकरणों में विवेचन किया गया है। संभवत: वर्धमान ने पहले दोनों कांडों को ही वाक्यपदीय नाम से निर्दिष्ट किया होगा। इस प्रकार वाक्यपदीय के तीन कांड और महाभाष्य टीका 'दीपिका', उसका अंशमात्र- सात आह्निक ही वर्तमान में उपलब्ध और प्रकाशित हैं, इन दोनों ग्रंथों के लेखक वैयाकरण भर्तृहरि हैं तथा वाक्यपदीय की स्वोपज्ञ टीका का कर्ता भी वही भर्तृहरि है, ऐसी विद्वानों की मान्यता है।[1]
मत-मतान्तर
सम्पूर्ण महाभाष्य की प्रदीप नामक टीका का लेखक कैयट, ग्यारहवीं सदी में हुआ। उसने टीका के प्रारम्भ में 'भर्तृहरि के द्वारा बांधे हुए सेतु से मेरे जैसा पंगु भी महाभाष्य रूपी प्रचंड सागर में समर्थ हो सका', ऐसा कहते हुए भर्तृहरि के प्रति अत्यन्त आदर प्रकट किया है। यह प्रमाण भी महाभाष्य दीपिका का कर्ता प्रसिद्ध वैयाकरण भर्तृहरि ही हुआ होगा, इस मत का समर्थन करता है। लेकिन महाभाष्य दीपिका और वाक्यपदीय की स्वोपज्ञ टीका का कर्ता प्रसिद्ध वैयाकरण भर्तृहरि ही था, इस मत में संदेह किया जा सकता है। इन दो ग्रंथों में से दीपिका टीका पहले सात आह्निकों पर ही उपलब्ध है। इस दीपिका का बहुत स्थानों पर त्रुटित, अशुद्ध, आदि-अंत रहित एक ही हस्तलिखित रूप आज उपलब्ध है। महाभाष्य का गूढ़ आशय बहुत स्थानों पर उसमें स्पष्ट किया गया है। व्याकरण के शब्दसिद्धि रूप अर्थात् प्रक्रियात्मक और अर्थ विवेचनात्मक विभाग का भी उसमें बहुत विस्तृत विवेचन मिलता है। महाभाष्य की एकमेव प्राचीन तथा विस्तृत टीका होने से दीपिका अवश्य ही महत्त्व रखती है। लेकिन जबकि वाक्यपदीय कारिकाओं की शैली प्रसादगुणयुक्त है, दीपिका टीका अत्यन्त क्लिष्ट और अनेक स्थानों पर अतीव अप्रस्तुत विषय का विस्तृत विवरण देने वाली लगती है।
शैली
दीपिका और स्वोपज्ञ टीका इन दोनों के विषय भिन्न होते हुए भी उनकी विषय विवेचन की शैली एक जैसी है। यद्यपि दीपिका का पाणिनीय तन्त्र और सूत्रों से विशेष सम्बन्ध है और स्वोपज्ञ टीका का विशेष सम्बन्ध अर्थ प्रक्रिया से और तर्क, मीमांसा, वेदान्त इत्यादि अन्य दर्शनों से है, तथापि कई स्थानों पर जब विवेचन की धारा में समान विषय आते हैं, तब दोनों की समानता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। ऐसा भी हो सकता है कि महाभाष्य दीपिका और वाक्यपदीय की स्वोपज्ञ टीका, दोनों टीकाएं भर्तृहरि के किसी शिष्य-प्रशिष्य ने लिखकर उसके नाम पर प्रसिद्ध की हों। प्राचीन काल के कई लेखकों की ऐसी प्रवृत्ति दिखाई देती है कि वे गुरु या अन्य किसी व्यक्ति के प्रति विशेष आदर के कारण या ग्रंथ को प्रतिष्ठा दिलाने के हेतु से ही, स्वयं लिखित ग्रंथ को आदरणीय व विख्यात विद्वानों के नाम पर प्रसिद्ध करते थे। यद्यपि महाभाष्य की दीपिका टीका तथा वाक्यपदीय की सोवोपज्ञ टीका का कर्ता भर्तृहरि ही था या नहीं, इसके बारे में संदेह हो सकता है, तथापि वाक्यपदीय के तीनों कांड भर्तृहरि ने ही रचे हैं, इसके बारे में कोई संदेह नहीं प्रतीत होता।[1]
विचारधारा
वाक्यपदीय में प्रकट हुई भर्तृहरि की विचारधारा संकुचित या विशिष्ट साम्प्रदायिक नहीं लगती। उसने जैसे वैदिक परम्परा का, वैसे ही बौद्ध, जैन आदि सम्प्रदायों का भी गहरा अध्ययन किया था। इन सम्प्रदायों के विशेष विचारों का आदरपूर्वक उल्लेख अपने ग्रंथों में बहुत स्थानों पर किया है। भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के अध्ययन से ही बुद्धि का विवेक-सामर्थ्य बढ़ता है, 'प्रज्ञा विवेक लुभते भिन्नैरागमदर्शनै:' ऐसा विश्वास उसने स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। उसकी सर्वमत-संग्राहक वृत्ति की। लेकिन कभी-कभी भर्तृहरि द्वारा बौद्ध मत का संग्रह और समर्थन होने के कारण, भर्तृहरि ने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया, ऐसा लोकभ्रम फैलाया गया होगा। लेकिन मुख्यत: भर्तृहरि के ग्रंथ में वेदों और स्मृतियों के प्रति दृढ़ निष्ठा व्यक्त की गई है तथा मीमांसादि वैदिक शास्त्रों के सिद्धांतों का आग्रहपूर्वक समर्थन किया गया है। अनेक उल्लेखों और दृष्टान्तों से यह संकेत मिलता है कि भर्तृहरि वैदिक अद्वैत मत का ही पूरस्कर्ता था, बौद्ध मत का अनुयायी बिल्कुल नहीं था।
कारिकाएँ
भर्तृहरि के वाक्यपदीय की कारिकाओं का उल्लेख वैदिक और अवैदिक, बौद्ध, जैन आदि सम्प्रदायों के विद्वानों-ग्रन्थकारों ने अपने-अपने मतों के समर्थन के लिए और कई स्थानों पर उसके मतों के खंडन के लिए भी किया है। वैदिक, बौद्ध, जैन इत्यादि न केवल भिन्न अपितु अत्यन्त विरुद्ध मत वाले विद्वान् लेखकों ने, जिसका उल्लेख अनेक बार किया है, ऐसा व्याकरणशास्त्रज्ञ ग्रन्थकार भर्तृहरि से अन्य नहीं होगा। बादरायण का ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भागवदगीता, दोनों का जो संबंध प्रतीत होता है, वहीं संबंध पाणिनीसूत्र और वाक्यपदीय का है। ब्रह्मसूत्र में प्रतिपादित केवल शुद्ध तत्व ज्ञान का सामान्य मनुष्य के दैनन्दिन भाषिक व्यवहार के साथ संबंध जोड़ने का यशस्वी प्रयत्न श्रीमद्भागवदगीता में किया गया है। वैसे ही पाणिनीय सूत्रों के विधानों का व्यावहारिक भाषा के साथ संबंध जोड़ने का काम वाक्यपदीय ग्रंथ ने प्रभावी ढंग से किया है। इसी कारण भाषाशास्त्रियों को, वाक्यपदीय में प्रतिपादित अनेक सिद्धांत, पाणिनीसूत्रों की अपेक्षा सुबोध और दैनन्दिन भाषिक व्यवहार के लिए उपयुक्त मालूम होते हैं। फलत: वाक्यपदीय की कारिकाओं का उल्लेख सब प्रकार के वाङ्मय में मुख्य रूप से किया गया है।
वाक्यपदीय ग्रंथ
वाक्यपदीय व्याकरणशास्त्र का ग्रंथ है, फिर भी उसमें शब्दसिद्धि का प्रक्रियात्मक अत्यल्प रूप से मिलता है। पाणिनीय व्याकरण की तात्विक भूमिका को उजागर करना अनेक सिद्धांतों का व्यावहारिक तथा शास्त्रीय दृष्टांतों से समर्थन करना इस ग्रंथ का मुख्य उद्देश्य है। यह साक्षात् आकरग्रंथ नहीं है। अथवा आकरग्रंथ का टीकाग्रंथ भी नहीं है, फिर भी व्याकरणशास्त्र का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रकरण ग्रंथ है।
वाक्यपदीय के तीन कांड अर्थात् विभाग हैं। पहले कांड में 155 कारिकाएँ हैं। इस कांड का 'आगमसमुच्चय' नाम स्वोपज्ञ टीका में दिया गया है। परम्परा में यह कांड ब्रह्मकांड नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि ये दोनों नाम इस कांड में प्रतिपादित विषय के अनुरूप मालूम होते हैं, तथापि 'आगमसमुच्चय' नाम अधिक उचित है, क्योंकि उसमें वयाकरणागम् से संबंधित अनेक सिद्धांतों की चर्चा की गई है। प्रारम्भ में अद्वैत वेदांत का सिद्धांत जो ब्रह्म है, उसका वर्णन, वेदों का महत्त्व, उन वेदों के मुख्य अंग, व्याकरण की महिमा, व्याकरणशास्त्र की सामान्य रचना पद्धति, अर्थ बोधक शब्द का नित्यत्व, नित्य शब्द और ध्वनिरूप शब्द का व्यंग्य व्यंजक भाव-ये विषय अनेक लौकिक दृष्टांतों की सहायता से सिद्ध किये गए हैं।
कार्य के प्रकार
महाभाष्यकार पतंजलि ने शब्द नित्य और कार्य दो प्रकार का कहा है। परन्तु इन दो प्रकार के शब्दों का स्वरूप और परस्पर संबंध स्पष्ट रूप से बताया नहीं। शब्द के दो प्रकार मानने पर अनेक आक्षेपों की भी संभावना है। वाक्यपदीय के इस प्रथम कांड में इसका विवेचन और आक्षेपों का निराकरण किया गया है। इसलिए यह कांड पाणिनीय व्याकरण शास्त्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समझा गया है। पहली कई कारिकाओं में भर्तृहरि ने शब्द निवर्तवाद प्रस्तुत किया है। इसी को अगले टीकाकारों ने 'शब्दाद्वैतवाद' नाम दिया है। कई कारिकाओं में शब्दतत्व से ही सब अर्थ रूप जगत् भासमान होता है, ऐसा सिद्धांत बताया है, तो अगली एक कारिका में 'यह सब विश्व का विस्तार शब्द का ही परिणाम है', ऐसा वेदाभ्यासियों का मत रहा है। 'विवर्त' और 'परिणाम' दोनों शब्दों को भर्तृहरि ने समान अर्थ में लिया है, परन्तु परिष्कृत शास्त्रीय दृष्टि से इन दोनों शब्दों का अर्थ भिन्न है। 'विवर्त' का अर्थ श्रम, आभास है, तो 'पाणिनी' शब्द का अर्थ है विकार, परिवर्तन। शुक्ति का रजरजत रूप में दीखना भ्रम, आभास है, लेकिन दूध से दही, सोने से आभूषण इत्यादि परिणाम अर्थात् विकार होते हैं। ऐसा उनके अर्थ में फ़र्क़ है। भर्तृहरि अद्वैत मत समर्थक तथा विवर्तवाद का मानने वाला था। जिस शब्द में यह सारा जगत् उत्पन्न हुआ है, ऐसा आभास होता है, उस शब्द को वह शब्दतत्व अथवा शब्दब्रह्म कहता है। सारा विश्व शब्दतत्व का ही विवर्त है। इस सिद्धांत का समर्थन उसने वाक्यपदीय के प्रथम कांड में 118 से 131 तक की चौदह कारिकाओं में किया है।[1]
शब्दप्रमाण
यह समूचा विश्व शब्दतत्व पर केवल भासमान अर्थात् विवर्त ही है, ऐसा भर्तृहरि का कथन है। फिर भी केवल कथन से कोई भी सिद्धांत सिद्ध और स्वीकार्य नहीं हो सकता। किस प्रभाव के आधार पर वह कथन भर्तृहरि ने किया है। अपौरुषेय वेद ही इस कथन का आधार है, ऐसा उसका कहना है।
प्रमाण संघर्ष
प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द, ये तीन प्रमाण अर्थात् सत्य ज्ञान के साधन हैं। प्राय: सभी प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने ये तीनों प्रमाण माने हैं। जिस विषय में तीनों प्रमाणों का संवाद है, उस विषय में निर्णय लेना सरल बात है, जैसे की 'अग्नि ठडंक को नष्ट करती है', 'सूर्य चराचर सृष्टि है', 'सत्य में सारा विश्व प्रतिष्ठित स्थिर है', इत्यादि। परन्तु जिस विषय के बारे में प्रमाणों में विरोध उत्पन्न हाता है, उसके बारे में कौन-सा प्रमाण सबल और कौन-सा दुर्बल है, यह समस्या बड़ी ही कठिन है। ऐसे विषय में भर्तृहरि का कथन इस प्रकार है- प्रत्यक्ष और अनुमान, ये दो प्रमाण व्यावहारिक व्यक्त विषयों के बारे में कुछ सीमा तक ज़रूर निर्णायक होंगे, अर्थात् स्वीकार्य भी होंगे, परन्तु अत्यन्त सूक्ष्म पारमार्थिक विषयों में इन प्रमाणों को बिल्कुल स्थान नहीं देना चाहिए। उन सूक्ष्म विषयों का निर्णय केवल अपौरुषेय वेद रूप शब्द प्रमाण से ही संभव है।
प्रत्यक्ष प्रमाण
प्रत्यक्ष प्रमाण से केवल स्थूल और वर्तमानकालीन पदार्थ का ही ज्ञान होता है। सूक्ष्म, भूतकालीन, भविष्यकालीन और दूरस्थ वस्तुओं के बारे में वह प्रमाण पूर्णतया निरुपयोगी है। समूचे विश्व का मूल कारण क्या है? विश्व का और उसके कारण का सत्य स्वरूप क्या है। इस विषय में तथा धर्म, अधर्म, पाप, पुण्य, परलोक, साध शब्द और असाधु शब्द, अपभ्रंश आदि परोक्ष विषयों में वह प्रमाण सर्वथा दुर्बल है। यह सारे प्राचीन शास्त्रकारों की निर्विवाद मान्यता है। इसलिए भर्तृहरि ने प्रत्यक्ष का समर्थन या निराकरण कुछ भी नहीं किया है। सिर्फ़ एक दो स्थानों पर उसने उसका उल्लेख किया है। अनुमान प्रमाण भी प्रत्यक्षावलंबी ही है। इस कारण से सर्वथा अप्रत्यक्ष, अत्यन्त सूक्ष्म और जिस विषय का प्रत्यक्ष के साथ दूर से भी संबंध नहीं हो सकता, ऐसे विषय में अनुमान प्रमाण से निर्णय लेना अनर्थकारी होगा। ऐसा सिद्धांत भर्तृहरि ने स्पष्ट रूप से बताया है। अत्यन्त सूक्ष्म विषय के बारे में अनुमान और श्रुति इन दोनों का विरोध हो तो किस प्रमाण से निर्णय लिया जाए। इस विषय वैदिक सिद्धांत और भर्तृहरि का सिद्धांत बिल्कुल एक ही है। ऐसे विषय में अनुमान को स्थान देने में बड़ा धोखा है। यह तो अनुमान का क्षेत्र ही नहीं है। इस विषय में तार्किकों का ही आपस में झगड़ा शुरू हो जायेगा। एक तार्किक एक हेतु के आधार पर एक निर्णय देगा तो दूसरा दूसरे हेतु के आधार पर विपरीत निर्णय देगा। अनुमान के इस बहुमुखी रावणावतार की उसने कड़ी आलोचना की है। इस विषय का प्रतिपादन करने वाली उसकी बहुत प्रसिद्ध कारिकाएं अनेक ग्रन्थों में उद्धृत की गई हैं।[1]
आर्ष प्रत्यक्ष
सामान्य मनुष्य को धर्म, अधर्म, पाप, पुण्य इत्यादि सूक्ष्म (प्रत्यक्षानुमान से अज्ञेय) विषयों का ज्ञान आप्तों के वचन से ही प्राप्त होता है। परन्तु ज्ञानी तपस्वी ऋषियों को वह ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से ही प्राप्त होता है। विशेष धर्मानुष्ठान, तपश्चर्या अथवा विशेष अभ्यास से उनको कोई एक विशेष शक्ति प्राप्त होती है और इस विशेष शक्ति से प्राप्त यह धर्म, अधर्म, पाप, पुण्य आदि का ज्ञान सर्वथा अबाध्य प्रत्यक्ष समझना उचित है। इतना ही नहीं, तपस्वी ज्ञानी ऋषियों पर अडिग श्रद्धा रखने वाले सामान्य जनों को भी उनका वचन प्रत्यक्ष समान होता है। इस कारण अनुमान अथवा तर्क की मंद वायुलहरी से वह स्थिर दृढ़ प्रत्यक्ष स्वल्परूप से भी विचलित नहीं हो सकता। रत्न परीक्षकों का परीक्षा ज्ञान जिस तरह विशेष अभ्यास अथवा पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण प्रत्यक्ष स्वरूप ही, अतएव अबाध्य होता है, उसी तरह ऋषि-मुनियों का आर्य प्रत्यक्ष होता है। इस तरह से अनेक दृष्टांतों द्वारा भर्तृहरि ने आर्षप्रत्यक्ष की सिद्धि की है।
शब्दनित्यत्व
सूत्रकार पाणिनी ने शब्द के स्वरूप के बारे में कोई उल्लेख तक नहीं किया है। वार्तिकाकार कात्यायन ने इस विषय का सिर्फ़ उल्लेख और वह भी अनिश्चायक रूप में किया है। महाभाष्यकार पतंजलि ने शब्द, अर्थ और उन दोनों का संबंध तीनों नित्य है, ऐसा व्याकरणशास्त्र का दृढ़ सिद्धांत अनेक स्थानों पर नि:संदिग्ध रूप से बताया है। परन्तु उस सिद्धांत पर आने वाले आक्षेपों का समाधान और उस सिद्धांत का प्रमाणपूर्वक समर्थन संस्कृत व्याकरणशास्त्र में पहले भर्तृहरि ने ही किया और वह सिद्धांत दृढ़ रूप से स्थापित किया।
भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में 'नित्या: शब्दाथ संबंधा:' ऐसा पूर्व नि:संदिग्ध उल्लेख और उसका समर्थन दृष्टांतों से और तर्क से किया है। ध्वनिरूप शब्द उत्पन्न होता है और उस ध्वनिरूप शब्द से अभिव्यक्त जो अर्थबोधक शब्द है, उसे नित्य ही मानना पड़ेगा, क्योंकि वह वक्ता और श्रोता दोनों की बुद्धि में पहले से ही होता है। वह शब्द उनकी बुद्धि में पहले से न हो तो वक्ता उसके अभिव्यंजक ध्वनिरूप शब्द का उच्चारण नहीं करेगा और श्रोता को अर्थ बोध भी कभी नहीं होगा। भाषा में पहले शब्द होते ही हैं। उनके उच्चारण यानी विशिष्ट ध्वनि से अभिव्यक्ति वक्ता करता है। इस प्रकार वक्ताओं और श्रोताओं के बुद्धिस्थ शब्दों की प्रवाहनित्यता मानना ज़रूरी है। प्रवाह रूप नित्यता से ही ऋग्वेद में प्रयुक्त अग्नि शब्द आज भी हम प्रयुक्त कर सकते हैं। 'वही यह अग्नि शब्द है' ऐसी प्रत्यभिज्ञा शब्द के नित्यत्व के बिना नहीं हो सकती। इस संसार में प्राणी जैसे अनादि काल से है, उस तरह शब्द भी अनादि काल से है। ऐसी शब्दों की व्यवस्था नित्यता अथवा प्रवाहनित्यता भर्तृहरि ने व्याकरणशास्त्र में सर्वप्रथम बतलाई है।
ध्वनि रूप शब्द उत्पन्न होने वाला तथा नष्ट होने वाला है। उसके बारे में 'शब्द' शब्द का प्रयोग औपचारिक, गौण ही समझा जाना चाहिए। अर्थबोधक बुद्धिस्थ शब्द ही व्याकरण शास्त्र का उद्दिष्ट है। उसके बारे में ही 'शब्द' शब्द का व्यवहार मुख्य रूप से होता है। वह अर्थबोधक शब्द अनादि और भावरूप होने से नित्य ही सिद्ध होता है, क्योंकि अनादि भावपदार्थ तर्क के सिद्धांतानुसार नित्य होता है। इस तरह शब्द की अभिव्यंजक और अभिव्यंग्य रूप-द्विविधता, अनादिता और प्रवाहनित्यता का भर्तृहरि ने समर्थन किया है। ध्वनि रूप शब्द से अभिव्यक्त होने वाला अर्थ बोधक, बुद्धिस्थ शब्द संसार में सार्वजनिक है ही। उन दोनों का संबंध अभिव्यंजक और अभिव्यंग्य का है। अभिव्यंग्य अर्थबोध शब्द के लिए व्याकरणशास्त्र में 'स्फोट' शब्द रूढ़ है। हम घट, पट इत्यादि पदार्थ आंखों से देखते हैं। प्रकाश न हो तो वह पदार्थ हम कभी नहीं देख सकेंगे। प्रकाश सिर्फ़ छटपटादि पदार्थों को प्रकाशित यानी अभिव्यक्त ही करता है। उत्पन्न कभी नहीं कर सकता। जिस तरह कमरे में पहले से विद्यमान घटपटादि पदार्थों को प्रकाशित करना मात्र प्रकाश का कार्य है, उसी तरह अभिव्यंजक ध्वनि का इतना ही काम है कि श्रोताओं की बुद्धि में पहले से ही विद्यमान स्फोट रूप शब्द को वह व्यक्त करे, न कि उत्पन्न करे।[1]
शब्द शक्ति
प्रकाश जैसे स्वयं प्रकाशित होकर अन्य पदार्थों को प्रकाशित करता है, वैसे ही शब्द भी स्वयं प्रकाशित होकर अर्थ का ज्ञान करा देता है। इस तरह शब्द की शक्ति दो प्रकार की होती है- स्वयं प्रकाश और अन्य प्रकाश। ब्रह्मद्वैतवादी वेदांत सिद्धांत के अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु में जो 'सत्व' सदंश भासमान होता है, जैसे- घट है, पट है इत्यादि। वह संदेश सारे संसार के अधिष्ठानरूप ब्रह्मकारी है, न कि वस्तु का है, क्योंकि घटपटादि वस्तुएं वास्तव रूप में है ही नहीं। इसी तरह सभी ज्ञान में चाहे वह प्रत्यक्ष हो या अनुमान हो या शब्द हो, शब्द का संबंध अवश्य है। ऐसा कोई ज्ञान नहीं है, जिसमें शब्द का संबंध न हो। ऐसा शब्द और ज्ञान का नित्य संबंध उसने प्रतिपादित किया है। जैसे योगसूत्रकार पतंजलि शब्द, अर्थ और ज्ञान इन तीनों का इतरेतराध्यासरूप तादात्म्य बताते हैं, उसी प्रकार शब्द और ज्ञान परस्पर एकरूप होने से अर्थात् उन दोनों का तादात्म्य होने से ज्ञान रूप शब्द ही ब्रह्मरूप है और उस शब्द ब्रह्म के दृढ़ अभ्यास से कोई भी मानव मोक्ष प्राप्त कर सकता है। व्याकरणशास्त्र ही शब्दब्रह्म के अभ्यास का एक मात्र सरल सुबोध उपाय होने से मोक्ष का सीधा मार्ग है, ऐसा भर्तृहरि का कहना है।
केवल शब्दसिद्धि ही व्याकरणशास्त्र का प्रयोजन है, ऐसा माने जाने से भर्तृहरि से पहले के व्याकरणशासत्र का क्षेत्र अतीव संकुचित सा हो गया था। उन संकोच को हटाकर भर्तृहरि ने व्याकरण का क्षेत्र बहुत विस्तृत किया। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों का, विशेषत: मोक्ष का उत्तम, सरल, साधन व्याकरणदर्शन है। यह सिद्धांत बड़े आग्रह से उसने समर्पित किया है। भर्तृहरि ने स्फोटरूप शब्द का स्वरूप ज्ञानरूप, नित्य, अखंड बताया है। शब्द से प्रतीत होने वाले अर्थ का स्वरूप महाभाष्य के अनुसार उसने जातिरूप और व्यक्तित्व दो प्रकार का माना है। फिर भी प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रतीत अर्थ से वह अर्थ भिन्न है, चाहे वह योगसूत्रकार पतंजलि के कथन के अनुसार विकल्प रूप हो या केवल बुद्ध में भासमान अर्थात् 'बौद्ध' ही हो। व्याकरण महाभाष्यकार पतंजलि के कथन के अनुसार वह अर्थ नित्य ही है। शब्द और नित्य अर्थ इन दोनों का संबंध भी नित्य ही होना चाहिए। इस रीति से 'नित्या: शब्दार्थ संबंध':- यह व्याकरणशास्त्र का सिद्धांत भर्तृहरि ने समर्थित किया है।
साध-असाधु शब्द
पाणिनीय व्याकरण के अनुसार जो शब्द साधु माने गए हैं, वही शब्द शिष्टों के लिए प्रयोगार्ह एवं पुण्य जनक हैं। जो शब्द पाणिनी के व्याकरण के अनुसार साधु नहीं माने गए हैं, वे शिष्ट प्रयोगार्ह एवं पुण्य जनक नहीं हैं। फिर भी अर्थ ज्ञान तो साधु और असाधु ऐसे दोनों प्रकार के शब्दों से समान ही होता है, ऐसा महाभाष्य में वचन है। यह महाभाष्य का मत भर्तृहरि ने भी स्वीकृत और समर्थित किया है। कुछ प्राचीन दार्शनिक मानते थे कि असाधु शब्द से अर्थ बोध साक्षात् नहीं होता है, बल्कि असाधु शब्द सुनने पर तदर्थक साधु शब्द का स्मरण होता है और उस स्मृत साधु शब्दों से अर्थ ज्ञान होता है। यह मत भी भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के पहले कांड के अंत में कतिपय कारिकाओं में उद्धृत किया है। साधु शब्द प्रयोग से पुण्य और असाधु शब्द प्रयोग से पाप होता है। यह कल्पना महाभाष्य में प्रथमत: संक्षेप में प्रस्तुत की गई है। भर्तृहरि ने इसे अपनाते हुए ऐसा अपना मत प्रकट किया है कि पाणिनी आदि ऋषियों ने आर्ष प्रत्यक्ष से कौन सा शब्द पुण्य जनक व कौन सा पाप जनक है, यह ज्ञान पहले प्राप्त किया और यह व्याकरण स्मृति तैयार की। शरीर का रोग रूपी दोष जैसे वैद्यकशास्त्र से और बुद्धि का संभ्रमादि दोष अध्यात्मशास्त्र से दूर होता है। इस शास्त्र के अभ्यास से जिसकी वाणी शुद्ध हो गयी है, वही वेद प्रतिपादित और सभी ज्ञान का उद्गम होने वाला ब्रह्म का साक्षात्कार प्राप्त कर सकता है।
वाक्यपदीय के द्वितीय कांड में विशेष रूप से वाक्य और वाक्यार्थ का विषय प्रस्तुत किया गया है। उसमें भर्तृहरि ने पूर्वमीमांसाशास्त्र के बहुत सिद्धांतों पर विचार विमर्श किया है। उस कांड में कुल कारिकाएं 487 है। अंतिम दस कारिकाओं में व्याकरणशास्त्र परम्परा का उत्कर्ष और अपकर्ष कैसे हुआ, यह संक्षेप में कहा है।
तृतीय खंड की कारिकाएँ
तृतीय खंड में क़रीबन तेरह सौ कारिकाएं हैं। उसमें पद और पदार्थों का विचार बड़े विस्तार से अजाति, द्रव्य, संख्या, गुण, क्रिया, साधन इत्यादि चौदह उपप्रकरणों में किया गया है। उन उपप्रकरणों को ग्रंथकार ने जातिसमुदेश, द्रव्यसमुदेव इत्यादि नाम दिए हैं। इन नामों का मतलब संभवत: यह है कि जाति, द्रव्य आदि विषयों पर जो विकार उसने भिन्न-भिन्न दर्शन प्रणालियों में देखे, उन सब विचारों का संग्रह इन उपप्रकरणों में किया गया है। इन सब विचारों की जो समीक्षा भर्तृहरि ने की है, उसमें भर्तृहरि के निजी मत तो व्यक्त हुए हैं ही, फिर भी महाभाष्य की विचार धारा का विशेष प्रभाव सारे विवरण पर विशेष रूप से दीखता है। वाक्यपदीय के तृतीय कांड में व्याकरणशास्त्रानुसारी शब्द सिद्धि प्रक्रिया का भी विमर्श आता है, तथापि उसमें भी अर्थ प्रक्रियात्मक विवरण ही मुख्य है।
'वाक्यपदीय' शब्द का अर्थ है 'वाक्य और पद इन दोनों विषयों का विचार करने वाला ग्रंथ।' पांचवीं सदी में लिखी गई पाणिनी सूत्रवृत्ति कारिका में यह शब्द सिद्ध किया गया है। इसमें ऐसा तर्क किया जा सकता है कि यह ग्रंथ काशिकावृत्तिकार को विदित था। लेकिन काशिकावृत्तिकार को जो वाक्यपदीय विदित था, उसमें दूसरे और तीसरे कांड ही मुख्य थे। पहला 'ब्रह्मकांड' अथवा 'आगम समुच्चय' कांड वास्तविक के रूप में बाद में जोड़ दिया गया होगा, ऐसा भी तर्क कोई करेगा। यद्यपि प्रथम कांड का शब्द सिद्धि रूप प्रक्रियात्मक व्याकरणशास्त्र के साथ कोई भी साक्षात् संबंध मालूम नहीं होता है, फिर भी व्याकरणशास्त्र की तत्व प्रणाली इस प्रथम कांड में दी गई है। वेद काल से प्रचलित अति प्राचीन शब्दद्वैत अथवा शब्द विवत सम्प्रदाय का उसमें प्रतिपादन और समर्थन होने से उस प्रास्ताविक कांड को ही बाद में बड़ा महत्त्व प्राप्त हुआ। इस वजह से वह कांड ही ज्यादातर अध्ययनाध्यापन प्रणाली में रहा, उसी पर बहुत टीकाएं, भाषांतर लिखे गए और अन्यान्य ग्रंथकारों ने स्थान-स्थान पर उसमें से अनेक कारिकाएं उद्धृत कीं।[1]
व्याकरणशास्त्र का आत्मस्वरूप- वाक्यपदीय ग्रंथ
वाक्यपदीय ग्रंथ व्याकरणशास्त्र का आत्मस्वरूप है, क्योंकि केवल इसी ग्रंथ में व्याकरणशास्त्र को वेदांत शास्त्र के समान प्रतिष्ठा प्राप्त करा दी है। ऋग्वेद मंत्रों के काल से जो शब्द विवर्तवाद और शब्दाद्वैतवाद की परम्परा अत्यन्त बीज रूप में मंत्रादि में उल्लिखित थी, उसका पुनरुद्धार और समर्थन भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में किया है। जैसे रात के समय असंख्य तारागणों की रोशनी होते हुए भी अकेला चंद्रमा ही अंधेरा हटाने में समर्थ होता है, उसी तरह केवल इस ग्रंथ से ही भर्तृहरि की विषेष प्रतिष्ठा न केवल व्याकरणशास्त्र में, बल्कि समूचे प्राचीन भारतीय वाङमय में भी स्थिर हो गयी। इस ग्रंथ में भर्तृहरि ने ज्ञान के प्रमाणों के संबंध में जो विमर्श किया है, स्थान स्थान पर दृष्टांत दिए हैं और जो सिद्धांत प्रस्थापित किए हैं, उनसे यह स्पष्ट होता है कि भर्तृहरि पुनर्जन्म, कर्मविषयक यज्ञादि कर्मकाण्ड, वेदों की और सृष्टि की अनादिता आदि विषयों में वैदिक सिद्धांतों पर भी बड़ी श्रद्धा रखने वाला, उनका समर्थक और मोक्ष के बारे में अद्वैतमत को अन्तिम मानने वाला महावैयाकरणिक था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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