रमण महर्षि
रमण महर्षि
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पूरा नाम | वेंकटरमण अय्यर |
जन्म | 30 दिसम्बर, 1879 |
जन्म भूमि | तिरुचुली गाँव, तमिलनाडु |
मृत्यु | 14 अप्रैल, 1950 |
मृत्यु स्थान | रमण आश्रम, तमिलनाडु |
अभिभावक | सुन्दरम अय्यर |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | आध्यात्म तथा समाज सेवा। |
भाषा | तमिल |
प्रसिद्धि | महान ऋषि व समाज सेवक। |
विशेष योगदान | महर्षि ने भारत के साथ-साथ पश्चिम के कई देशों में अपना उजाला फैलाकर देश को गौरवान्वित किया तथा मानव जाति की बहुमूल्य सेवा की। |
नागरिकता | भारतीय |
आश्रम | रमण आश्रम, तमिलनाडु |
अन्य जानकारी | रमण महर्षि के संपर्क में आने पर असीम शांति का अनुभव होता था। आज भी लोग शांति कि खोज में तिरुवन्नामलाई स्थित रमण महर्षि के आश्रम 'अरुनाचला पहाड़ी' और 'अरुनाचलेश्वर मंदिर' में जाते हैं। |
रमण महर्षि (अंग्रेज़ी: Ramana Maharshi, जन्म- 30 दिसम्बर, 1879, तिरुचुली गाँव, तमिलनाडु; मृत्यु- 14 अप्रैल, 1950, रमण आश्रम, तमिलनाडु) बीसवीं सदी के महान् संत थे, जिन्होंने तमिलनाडु स्थित पवित्र अरुनाचला पहाड़ी पर गहन साधना की थी। उन्हें केवल भारत में ही अपितु विदेशो में भी शांत ऋषि के रूप में जाना जाता है। उन्होंने आत्म विचार पर बहुत बल दिया था। रमण महर्षि के संपर्क में आने पर असीम शांति का अनुभव होता था। आज भी लोग शांति कि खोज में तिरुवन्नामलाई स्थित रमण महर्षि के आश्रम अरुनाचला पहाड़ी और अरुनाचलेश्वर मंदिर में जाते हैं। महर्षि ने भारत के साथ-साथ पश्चिम के कई देशो में अपना उजाला फैलाकर देश को गौरवान्वित किया तथा मानव जाति की बहुमूल्य सेवा की। भारत के आध्यात्मिक लाडले सपूतों में रमण महर्षि का नाम अग्रगण्य है।
जन्म
रमण महर्षि का जन्म 30 दिसम्बर, सन 1879 में मदुरई, तमिलनाडु के पास 'तिरुचुली' नामक गाँव में हुआ था। इनका जन्म 'अद्र दर्शन', भगवान शिव का प्रसिद्ध पर्व, के दिन हुआ था।[1] जन्म के बाद रमण के माता-पिता ने उनका नाम वेंकटरमण अय्यर रखा था। ये अपने पिता सुन्दरम अय्यर की चार संतानों में से दूसरे थे। बाद के समय में वेंकटरामन अय्यर 'रमण महर्षि' के नाम से विश्व में प्रसिद्ध हुए।
शिक्षा
जीवन के आरम्भिक वर्षों में वेंकटरामन में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था। वे एक सामान्य बालक के रूप में ही विकसित हुए थे। उन्हें तिरुचुली के एक प्राइमरी स्कूल में तथा बाद में दिण्डुक्कल के एक स्कूल में शिक्षा के लिए भेजा गया। जब वे बारह वर्ष के थे, तभी इनके पिता का देहावसान हो गया। ऐसी स्थिति में उन्हें परिवार के साथ अपने चाचा सुब्ब अय्यर के साथ मदुरै में रहने की आवश्यकता पड़ी। मदुरै में उन्हें पहले 'स्काट मीडिल स्कूल' तथा बाद में 'अमेरिकन मिशन हाईस्कूल' में भेजा गया। यद्यपि वह तीव्र बुद्धि एवं तीव्र स्मरण शक्ति से सम्पन्न थे, किन्तु फिर भी अपनी पढ़ाई के प्रति गंभीर नहीं थे।[2]
- बलशाली शरीर
वेंकटरामन स्वस्थ एवं शक्तिशाली शरीर से युक्त थे। इसीलिए उनके साथी उनकी ताकत से डरते थे। वेंकटरामन बहुत गहरी नींद सोते थे। इनकी नींद इतनी गहरी होती थी कि उनके साथियों में से यदि कभी किसी को वेंकटरामन से नाराजगी रहती तो वे उनसे गहरी निद्रावस्था में बदला लेते थे। उन्हें सोया जानकर कहीं दूर जाकर पीटते थे तो भी उनकी नींद नहीं झुलती थी।
आध्यात्मिक अनुभव
बचपन से ही रमण को लगता था कि 'अरुनाचला'[3] में कुछ रहस्यमय है, जिसको समझ पाना ज़रूरी है। जब वह 16 साल के थे तो उनके यहाँ एक बुजुर्ग मिलने के लिए आये। रमण के पूछने पर बुजुर्ग ने बताया कि वो अरुनाचला से आये हैं। यह जानकर वेंकटरमण उनसे बहुत कुछ पूछने के लिए उत्सुक हो गए और अरुनाचला के बारे में बुजुर्ग से कई सवाल पूछे। एक दूसरी घटना ने रमण का ध्यान अरुनाचला की ओर आकर्षित किया और उनकी गहरी आध्यात्मिक भावना को जाग्रत किया। उन्होंने 63 शिव संतो से सम्बंधित एक धार्मिक पुस्तक पढी। यह उनका पहला धार्मिक सहित्य था। इसको पढ़कर वह बहुत रोमांचित हुए। पुस्तक में दिए गए पवित्र संतो के उदाहरण उनके हृदय को छू गये। इसने उनके हृदय में त्याग और परमेश्वर के प्रति प्रेम की भावना को जाग्रत कर दिया। रमण को 17 वर्ष की अवस्था में आध्यात्मिक अनुभव हुआ।
एक दिन रमण एकांत में अपने चाचा के घर की पहली मंजिल पर बैठे थे। हमेशा की तरह वें पूर्णतः स्वस्थ थे। अचानक से उन्हें मृत्यु के भय का अनुभव हुआ। उन्होंने महसूस किया कि वे मरने के लिए जा रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा था, वह नहीं जानते थे। लेकिन आने वाली मृत्यु से वे बौखलाए नहीं। उन्होंने शांतिपूर्वक सोचा कि क्या करना चाहिए। उन्होंने अपने आप से कहा- "अब मृत्यु आ गयी है!" इसका क्या मतलब है? वह क्या है जो मर रहा है? यह शरीर मर जाता है। वह तत्काल लेट गए। अपने हाथ पैरों को सख्त कर लिया और साँस को रोककर होठों को बंद कर लिया। इस समय उनका जैविक शरीर एक शव के समान था। अब क्या होगा? यह शरीर अब मर चुका है। यह अब जला दिया जायेगा और राख में बदल जायेगा। लेकिन शरीर की मृत्यु के साथ क्या मैं भी मर गया हूँ? क्या मैं शरीर हूँ? यह शरीर तो शांत और निष्क्रिय है। लेकिन मैं तो अपनी पूर्ण शक्ति और यहाँ तक कि आवाज को भी महसूस कर पा रहा हूँ। मैं इस शरीर से परे एक आत्मा हूँ। शरीर मर जाता है, पर आत्मा को मृत्यु नहीं छू पाती। मैं अमर आत्मा हूँ। बाद में रमण ने इस अनुभव को अपने भक्तों को सुनाया और बताया कि यह अनुभव तर्क की प्रक्रिया से परे है। उन्होंने सीधे सच को जाना और मृत्यु का डर सदा के लिए गायब हो गया। इस प्रकार युवा वेंकटरमण ने बिना किसी साधना के अपने आप को आध्यात्मिकता के शिखर पर पाया। अहंकार स्वयं जागरूकता की बाढ़ में कहीं खो गया। अचानक एक लड़का जो कि वेंकटरमण के नाम से जाना जाता था, एक साधु और संत में बदल गया। अब वह एक पूर्ण आत्म-ज्ञान के साथ विकसित ज्ञानी भी था।[1]
जीवन परिवर्तन व गृह त्याग
युवा ऋषि का जीवन अचानक बदल गया। जो वस्तुएँ पहले मूल्यवान थीं, उन्होंने अपना मूल्य खो दिया। अध्ययन, मित्र, रिश्तेदार, परिवार आदि का उनके जीवन में कोई महत्व नहीं रह गया। वह पूरी तरह अपने परिवेश के प्रति उदासीन हो गये। विनय, गैर प्रतिरोधकता और अन्य गुण उनके श्रंगार बन गये। अकेले बैठते और स्वंय को ध्यान में लीन रखते। वह रोज 'मीनाक्षी मंदिर' जाते और हर बार भगवान और संतो की मूर्तियों के सामने खड़े होकर एक उमंग का अनुभव करते। उनकी आँखों से लगातार आँसू बहते रहते। एक नई दृष्टि लगातार उनके साथ थी। 17 वर्ष की अल्पायु में ही रमण का व्यवहार एक योगी के समान था। उनके आध्यात्मिक अनुभव के 6 सप्ताह बाद ही एक घटना ने उनको घर-बार छोड़ने के लिए प्रेरित कर दिया। रमण के अंग्रेज़ी के शिक्षक ने उनकी पढाई की ओर उदासीनता को देखते हुए उन्हें एक अध्याय को तीन बार लिखने के लिए सजा के रूप में दिया। उन्होंने दो बार तो लिखा, लेकिन तीसरी बार इसकी निरर्थकता को जानकर लिखना छोड़ दिया। काग़ज़, किताब एक तरफ़ रख दिए और आँख बंद करके गहरे ध्यान में चले गये। इसके बाद उन्होंने घर छोड़ने का फैसला कर लिया। उन्हें पता था की उन्हें कहाँ जाना है। उन्होंने पवित्र अरुनाचला पर्वत की यात्रा प्रारंभ कर दी। उन्होंने घर वालों के लिए एक चिट्ठी लिखी, जिसमें लिखा था- "मैं भगवान की खोज में उनके आदेशानुसार जा रहा हूँ..."।
तिरुवन्नामलाई आगमन
मदुरई से तिरुवन्नामलाई लगभग 400 किलोमीटर दूर है। रमण ने यह यात्रा मुख्यता रेल और बाकी पैदल चलकर पूर्ण की। रास्ते में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कई बार भूखा ही सोना पड़ता। पैदल चलने और भोजन न मिलने से मूर्छित हो जाते थे। उन्हें इस अवस्था में देखकर लोग उनकी सहायता करते और खाना देते। लेकिन ये सब कठिनाइयाँ रमण का मनोबल कम न कर सकीं और अंततः वें तिरुवन्नामलाई पहुँच गए। वहाँ पहुँचकर वें जल्दी से पवित्र अरुनाचलेश्वर मंदिर पहुँचे। इस समय मंदिर बिल्कुल ख़ाली था। वहाँ पर मंदिर के पुजारी भी नहीं थे। रमण सीधे मंदिर के गर्भगृह में चले गये। जैसे ही वें अरुनाचलेश्वर के सामने खड़े हुए, उन्हें अकथनीय आनंद का अनुभव हुआ। वे यात्रा में हुए सभी कटु-अनुभव भूल गए। वह मंदिर से बाहर आये और शहर की गलियों में घूमे। उन्होंने औपचारिक तौर पर सन्न्यास नहीं लिया। जब किसी ने उनसे पूछा कि क्या वह अपना मुंडन कराना चाहते हैं तो उन्होंने अपनी सहमति दे दी। मुंडन करने के बाद वे मंदिर वापस आ गये। पवित्र अरुनाचलेश्वर मंदिर ही तिरुवान्नालाई में उनका पहला घर था।[1]
पाताल लिंगम
कुछ सप्ताह तक वे मंदिर के हजार खम्बों वाले हॉल में रहे। लेकिन वहाँ पर कुछ शैतान लड़के पत्थर फेंककर उनके ध्यान में विघ्न डालते। तब उन्होंने अपने आप को एक भूमिगत स्थान पर स्थान्तरित कर लिया, जिसे आजकल पाताल लिंगम के नाम से जाना जाता है। यहाँ उन्होंने कई दिन समाधि और ध्यान में बिताये। समाधि के समय वे गहरी ध्यान अवस्था में चले जाते, जिससे उनको कीड़े और चीटियाँ के काटने का भी अनुभव न होता। अंत में उनको भक्तों द्वारा 'पाताल लिंगम' से बाहर निकाला गया। इसके बाद उन्होंने कई स्थान बदले। वे कभी किसी से बात नहीं करते थे। ऐसा नहीं था कि उन्होंने मौन का व्रत लिया था, बल्कि उनकी बात करने की इच्छा ही नहीं होती थी। रमण महर्षि की तपस्या और समाधि देखकर उनका यश सब तरफ़ फैलने लगा। कुछ समय उपरांत रमण के परिवार वालों को पता लग गया कि वें अरुनाचला में हैं। उनकी माँ ने रमण को घर ले जाने की बहुत कोशिश की, लेकिन वे शांत रहे और माँ को कोई जवाब नहीं दिया। माँ के कई दिनों तक प्रयास करने के बाद रमण ने एक पृष्ठ पर लिखकर कहा- "सभी मनुष्यों के कार्य उनके प्रारब्ध कर्म से निर्धारित होते हैं। जो नहीं होना है, वह नहीं होगा, भले ही आप उसे करने के लिए अथक परिश्रम कर लें। जो होना है, वह होकर रहेगा, भले ही आप उसे रोकने की कोशिश करते रहें। यह निश्चित है। बुद्धिमत्ता इसी में है कि शांत रहें।" महर्षि का दृढ निश्चय देखकर उनकी माँ निराश और भारी मन से वापस लौट आयी।
शिक्षाएँ
कुछ समय के पश्चात् महर्षि अरुनाचला पर्वत पर 'विरुपाक्ष' नामक गुफ़ा में रहने लगे। यहाँ पर भी भक्तों ने उनसे आध्यत्मिक प्रश्न करना जारी रखा। कुछ प्रश्नों का जवाब वे इशारों से और बाकी का जवाब लिखकर देते थे। यहीं पर 1902 में 'शिव प्रकासम पिल्लै' नामक व्यक्ति रमण के पास 14 प्रश्न स्लेट पर लिखकर लाये। इन्हीं 14 प्रश्नों के उत्तर रमण की पहली शिक्षाएँ है। इनमें आत्म निरीक्षण की विधि है, जो कि तमिल में नान यार और अंग्रेज़ी में हू ऍम आई के नाम से प्रकाशित की गयी। उस समय के प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान् गणपति आचार्य 1907 में रमण से मिलने गए और उनसे अपने आध्यत्मिक संदेह पर बात की। गणपति आचार्य ने बताया कि जो कुछ भी आध्यात्मिकता के बारे में पढ़ा जा सकता है, मैंने पढ़ा है, यहाँ तक कि वेदान्त शास्त्रों की भी मुझे पूर्ण समझ है। जप भी मैं अपने हृदय से करता हूँ। लेकिन फिर भी 'तपस' क्या है, अब तक समझ नहीं पाया हूँ? यही जानने के लिए आपकी शरण मैं आया हूँ। रमण 15 मिनट तक उनकी आँखों में शांत होकर देखते रहे और फिर बोले- "अगर कोई यह देख पाए कि 'मैं' के भाव का उद्भव कहाँ से होता है तो उसका मन उसी स्थान पर अवशोषित हो जायेगा, और यही तपस है। अगर कोई देख पाए कि मंत्र बोलते समय मंत्र की ध्वनि कहाँ से पैदा होती है, तो उसका मन उसी स्थान पर अवशोषित हो जायेगा, और यही तपस है।" यह रहस्योद्घाटन जानकर विद्वान् शास्त्री ने उनके सामने आत्म-समर्पण कर दिया और उन्हें भगवान व महर्षि के नाम से संबोधित किया। शास्त्री ने बाद में रमण-गीता लिखी, जिसमें महर्षि की शिक्षाओं के बारे में बताया गया है। रमण महर्षि के शिष्यों ने उनके लिए एक आश्रम और मंदिर का निर्माण किया, जहाँ पर देश और विदेश से भक्त आकर रहते थे।[1]
माँ की मुक्ति
कुछ समय बाद रमण की माता भी आश्रम में आकर रहने लगीं। यहाँ पर उन्होंने रसोई का कार्यभार संभाला और आध्यात्मिक जीवन का गहन प्रशिक्षण प्राप्त किया। उनकी माँ की तबियत ख़राब रहने लगी। रमण अब अपना समय माँ की सेवा-सुसुश्रा में बिताने लगे। एक दिन सुबह के समय वे अपनी माँ के पास बैठे और अपना दाहिना हाथ माँ की छाती के दाहिने हिस्से पर और बाँया हाथ सिर पर रखा और माँ को मुक्ति दी। माँ की समाधि के शीर्ष पर एक शिवलिंग की स्थापना की गयी। आश्रम में दूर-दूर से लोग आने लगे थे और आश्रम का विस्तार काफ़ी बढ़ गया था। नए विभाग जुड़ने लगे, जैसे- वेदों के अध्ययन के लिए स्कूल, गौशाला, प्रकाशन कार्य इत्यादि। एक माता का मंदिर भी बनाया गया, जहाँ नियमित पूजा होती थी। रमण ज्यादातर हॉल में ही बैठते और देखते रहते कि उनके चारों तरफ़ क्या हो रहा है। वह काफ़ी सक्रिय रहते और पत्तों से प्लेट बनाते, अख़बार पढ़ते और पत्रों के द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर लिखते रहते। महर्षि के पास बाहर जाकर उपदेश देने के लिए बहुत निमंत्रण आये, लकिन वें कभी तिरुवन्नामलाई से बाहर नहीं गये। बाद के वर्षों में वें अधिकतर भक्तों के सामने मौन बैठे रहते थे। कभी किसी ने सवाल पूछा तो जवाब दे दिया। उनके सामने बैठने वाले लोगों को विशेष अनुभव होता था। कुछ ने अनुभव किया कि जैसे समय रुक गया है। कुछ ने एक असीम शांति, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, का अनुभव उनकी मुस्कुराती शांत आँखों में देखते हुए किया।
प्रेरक प्रसंग
- रमण महर्षि बहुत कुशल धनुर्धर भी थे। एक सुबह उन्होंने अपने एक शिष्य को अपनी धनुर्विद्या देखने के लिए बुलाया। शिष्य यह सब पहले ही कई बार देख चुका था, पर वह गुरु की आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सकता था। वे समीप ही जंगल में एक विशाल वृक्ष के पास गए। रमण महर्षि के पास एक फूल था, जिसे उन्होंने पेड़ की एक शाखा पर रख दिया। फिर उन्होंने अपने बस्ते से अपना नायाब धनुष, बाण और एक कढ़ाई किया हुआ सुंदर रूमाल निकाला। वह फूल से सौ कदम दूर आकर खड़े हो गए और उन्होंने शिष्य से कहा कि वह रूमाल से उनकी आँखें ढंककर भली-भांति बंद कर दे। शिष्य ने ऐसा ही किया। रमण महर्षि ने शिष्य से पूछा- "तुमने मुझे धनुर्विद्या की महान् कला का अभ्यास करते कितने बार देखा है?" "मैं तो यह सब रोज़ ही देखता हूँ।" शिष्य ने कहा। फिर शिष्य ने रमण महर्षि से कहा- "आप तो तीन सौ कदम दूर से ही फूल पर निशाना लगा सकते हैं।" रूमाल से अपनी आँखें ढंके हुए महर्षि रमण ने अपने पैरों को धरती पर जमाया। उन्होंने पूरी शक्ति से धनुष की प्रत्यंचा को खींचा और तीर छोड़ दिया। हवा को चीरता हुआ तीर फूल से बहुत दूर, यहाँ तक कि पेड़ से भी नहीं टकराया और लक्ष्य से बहुत दूर जा गिरा। "तीर लक्ष्य पर लग गया न?" अपनी आँखें खोलते हुए महर्षि रमण ने पूछा। शिष्य ने उत्तर दिया- "नहीं, वह तो लक्ष्य के पास भी नहीं लगा। मुझे लगा कि आप इसके द्वारा संकल्प की शक्ति या अपनी पराशक्तियों का प्रदर्शन करने वाले थे।" महर्षि ने कहा- "मैंने तुम्हें संकल्प शक्ति का सबसे महत्वपूर्ण पाठ ही तो पढाया है। तुम जिस भी वस्तु की इच्छा करो, अपना पूरा ध्यान उसी पर लगाओ। कोई भी उस लक्ष्य को नहीं वेध सकता, जो दिखाई ही न देता हो।"[4]
- आश्रम में जानवर और पक्षी भी निर्भय होकर रहते थे। रमण महर्षि इन पक्षियों और जानवरों को मनुष्यों की तरह संबोधित करते थे। महर्षि और ये पशु-पक्षी एक दूसरे से बहुत घुल मिल गए थे। यूरोप के एक लेखक पाल ब्रंटन ने महर्षि की ख्याति के बारे में सुना तो वे उत्सुकतावश महर्षि से मिलने के लिए आश्रम पहुँचे। वहाँ उनके साथ जो घटना घटी, उसने उनकी आँखें खोल दी। वे रात को एक मचान पर सोने की तैयारी कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि मचान पर एक जहरीला साँप चढ़ रहा है। उन्हें लगा कि आज उनकी मृत्यु निश्चित है। तभी रमण महर्षि का एक सेवक वहाँ आया औऱ साँप से आदमी की तरह बोला- "ठहरो बेटा"। साँप एक आज्ञाकारी बालक की तरह जहाँ का तहाँ रुक गया और फिर पहाड़ों की तरफ़ गया और गायब हो गया। यह अद्भुत घटना थी। पाल ब्रंटन के लिए यह चकित करने वाली घटना थी। उन्होंने आश्रम के सेवक से पूछा- "आखिर तुमने यह चमत्कार कैसे किया?" सेवक ने कहा- "यह मैंने नहीं, रमण महर्षि ने चमत्कार किया। उनका कहना है कि जीव- जंतु किसी से भी अगर हम गहरे प्यार से बोलेंगे तो वह ज़रूर सुनेगा।"
स्वास्थ्य परेशानी
रमण महर्षि की 1947 में तबियत ख़राब होने लगी और और कुछ समय उपरांत उनके बाएं हाथ की कोहनी में एक गाँठ हो गयी। आश्रम के चिकित्सकों ने इसे काटकर बाहर निकाला, लेकिन एक महीने में यह फिर से हो गयी। क्योंकि महर्षि अरुणाचलम से बाहर नहीं जाते थे, इसलिए चेन्नई से शल्य चिकित्सकों का एक दल आश्रम आया। जब शल्य क्रिया प्रारंभ करने का समय आया, तब चिकित्सकों ने महर्षि रमण को मूर्च्छावस्था में ले जाना चाहा, जिसे करने से उन्होंने मना कर दिया। शल्य चिकित्सक शल्य क्रिया करने में जुट गए, किन्तु उनके सामने एक समस्या खड़ी हो गई। जब गाँठ में स्थित मृत कोशिकाओं को काटते हैं तो दर्द नहीं होता, लेकिन जब जीवित कोशिकाओं को काटते हैं तो दर्द होता है। दर्द होने पर मूर्च्छावस्था में शरीर में हलचल होती है, जिससे चिकित्सकों को ज्ञात हो जाता है कि वहाँ जीवित कोशिका है। किन्तु महर्षि रमण के मुँह से सिसकारी भी नहीं निकल रही थी। अत: डाक्टरों की परेशानी यह थी कि पता कैसे लगे कि कौन-सी कोशिकाएँ मृत हैं और कौन सी जीवित? चिकित्सकों ने अपनी परेशानी महर्षि रमण के सामने रखी तो उन्होंने कहा- "जिस शरीर पर तुम शल्य क्रिया कर रहे हो, वह मैं नहीं हूँ। मैंने अपने आपको शरीर से अलग कर रखा है और वेदना तो शरीर को होती है।" शल्य क्रिया के बाद भी वह गाँठ ठीक नहीं हो पायी।
देहावसान
इसके बाद शल्य चिकित्सकों ने महर्षि का हाथ अलग करने का सुझाव दिया, जिसे उन्होंने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है, शरीर नश्वर है और इसका एक प्राकर्तिक अंत है। इसे पंगु बना देना सही नहीं। महर्षि की आँखों में हमेशा की तरह चमक थी और वह अपने दर्द के प्रति उदासीन थे। उन्होंने अपने भक्तों से मिलना जारी रखा। जो भक्त उनके दुःख से दु:खी थे, उनसे उन्होंने कहा कि- "मैं यह शरीर नहीं हूँ"। 14 अप्रैल, 1950 की शाम के समय महर्षि ने सभी भक्तों को दर्शन दिए। आश्रम में सभी जानते थे कि अंत समय निकट है। सबने अरुनाचला शिव भजन गाया। महर्षि ने अपने सेवक से कहा कि- "उन्हें बैठा दे"। उन्होंने थोड़े समय के लिए अपनी चमकदार और अनुग्रहित आँखे खोली। उनके चेहरे पर मुस्कान थी और उनकी आँखों के बाहरी कोनो से आनंद के आंसू निकले। एक गहरी साँस के साथ वे शांत हो गये। उसी क्षण एक धूमकेतु आकाश में दिखाई दिया, जो कि धीरे-धीरे पवित्र पर्वत अरुनाचला के शिखर पर पहुँच कर उसके पीछे गायब हो गया।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 रमण महर्षि (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 13 अक्टूबर, 2013।
- ↑ श्री रमण महर्षि (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 13 अक्टूबर, 2013।
- ↑ तमिलनाडु के तिरुवन्नामलाई शहर में स्थित एक पवित्र पर्वत और शिव मंदिर।
- ↑ संकल्प की शक्ति (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 13 अक्टूबर, 2013।