मक़बूल फ़िदा हुसैन
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पूरा नाम | मक़बूल फ़िदा हुसैन |
प्रसिद्ध नाम | एम.एफ़. हुसैन |
जन्म | 17 सितंबर, 1915 |
जन्म भूमि | मुम्बई |
मृत्यु | 9 जून 2011 |
मृत्यु स्थान | लंदन (इंग्लैंड) |
कर्म भूमि | मुम्बई |
कर्म-क्षेत्र | चित्रकार, फ़िल्मकार |
मुख्य फ़िल्में | 'थ्रू द आइज़ ऑफ़ अ पेंटर', 'मीनाक्षी', 'गजगामिनी' आदि। |
पुरस्कार-उपाधि | 'पद्मश्री' (1966), 'पद्मभूषण' (1973), 'पद्म विभूषण' (1991)। |
प्रसिद्धि | चित्रकार |
विशेष योगदान | उन्होंने रामायण, गीता, महाभारत आदि ग्रंथों में उल्लिखित सूक्ष्म पहलुओं को अपने चित्रों के माध्यम से जीवंत बनाया है। |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | उनकी फ़िल्म 'थ्रू द आइज़ ऑफ़ अ पेंटर' 1966 में फ्रांस के फ़िल्म समारोह में पुरस्कृत हो चुकी है। |
बाहरी कड़ियाँ | मक़बूल फ़िदा हुसैन |
मक़बूल फ़िदा हुसैन (अंग्रेज़ी: Maqbool Fida Husain, जन्म: 17 सितंबर 1915; मृत्यु: 9 जून 2011) महाराष्ट्र के प्रसिद्ध चित्रकार जिनका पूरा जीवन चित्रकला को समर्पित था और जिन्हें प्रगतिशाली चित्रकार माना जाता है। मक़बूल फ़िदा हुसैन को कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1991 में भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
जीवन परिचय
मक़बूल फ़िदा हुसैन का जन्म 17 सितम्बर, 1915 को हुआ था। माँ के देहांत के बाद मक़बूल फ़िदा हुसैन का परिवार इंदौर चला गया। मक़बूल फ़िदा हुसैन ने आरंम्भिक शिक्षा इंदौर से ही की थी। 20 साल की उम्र में वे मुंबई पहुंचे, जहाँ जे. जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में उन्होंने पेंटिंग की शिक्षा ली। लंबे समय तक उन्होंने फ़िल्मों के पोस्टर बना कर अपना जीवन गुजारा।
आरम्भिक जीवन
मक़बूल फ़िदा हुसैन को पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर पहचान 1940 के दशक के आख़िर में मिली। वर्ष 1947 में वे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप में शामिल हुए। युवा पेंटर के रूप में मक़बूल फ़िदा हुसैन बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट्स की राष्ट्रवादी परंपरा को तोड़कर कुछ नया करना चाहते थे। 1952 में ज्युरिख में उनकी पहली एकल प्रदर्शनी लगी। उनकी फ़िल्म 'थ्रू द आइज़ ऑफ़ अ पेंटर' 1966 में फ्रांस के फ़िल्म समारोह में पुरस्कृत हो चुकी है। उन्होंने रामायण, गीता, महाभारत आदि ग्रंथों में उल्लिखित सूक्ष्म पहलुओं को अपने चित्रों के माध्यम से जीवंत बनाया है। 1998 में उन्होंने हैदराबाद में 'सिनेमाघर' नामक संग्रहालय की स्थापना की।
भारत के सबसे महंगे चित्रकार
क्रिस्टीज़ ऑक्शन में उनकी एक पेंटिंग 20 लाख अमरीकी डॉलर में बिकी. इसके साथ ही वे भारत के सबसे महंगे चित्रकार बन गए। उनकी एक कलाकृति क्रिस्टीज की नीलामी में 20 लाख डॉलर में और 'बैटल ऑफ गंगा एंड यमुना- महाभारत 12' वर्ष 2008 में एक नीलामी में 16 लाख डॉलर में बिकी। यह साउथ एशियन मॉडर्न एंड कंटेम्परेरी आर्ट की बिक्री में एक नया रिकॉर्ड था। हालाँकि एमएफ़ हुसैन अपनी चित्रकारी के लिए जाने जाते रहे किन्तु चित्रकार होने के साथ-साथ वे फ़िल्मकार भी रहे। मीनाक्षी, गजगामिनी जैसी फ़िल्में बनाईं। उनका माधुरी दीक्षित प्रेम भी ख़ासा चर्चा में रहा। शोहरत के साथ साथ विवादों ने भी उनका साथ कभी नहीं छोड़ा।[1]
विवादों से नाता
जहाँ फ़ोर्ब्स पत्रिका ने उन्हें "भारत का पिकासो" घोषित किया, वहीं वर्ष 1996 में हिंदू देवी-देवताओं की उनकी चित्रकारी को लेकर काफ़ी विवाद हुआ, फलस्वरूप कई कट्टरपंथी संगठनों ने तोड़.फोड़ कर अपनी नाराजगी ज़ाहिर की। जब किसी ने उनसे पूछा कि आपकी चित्रकारी को लेकर हमेशा विवाद होता रहा है, ऐसा क्यों ? उनका जवाब था 'ये मॉर्डन आर्ट है। इसे सबको समझने में देर लगती है। फिर लोकतंत्र है। सबको हक़ है। ये तो कहीं भी होता है। हर ज़माने के अंदर हुआ है। जब भी नई चीज़ होती है। उसे समझने वाले कम होते हैं।' हुसैन साहब का ये अंदाज़े-बयां जताता है कि आलोचनाओं से वे कभी नहीं डरे। अपनी बात भी धड़ल्ले से कही। बहुत कम लोगों को पता है कि जब मुग़ल-ए-आज़म बन रही थी तो निर्देशक के. आसिफ़ साहब ने युद्ध के दृश्य फ़िल्माने से पहले युद्ध और उसके कोस्ट्यूम वगैरह के स्केच हुसैन साहब से ही बनाये थे। जब आसिफ साहब ने 'लव एंड गॉड' बनाई तो आसिफ़ साहब ने 'स्वर्ग' के स्केच भी उन्हीं से बनवाए। एक और विवाद तब उठ खड़ा हुआ जब जनवरी 2010 में उन्हें क़तर ने नागरिकता देने की पेशकश की, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया था। हैरानी की बात यह है कि हुसैन साहब ने कला का कहीं से भी विधिवत प्रशिक्षण नहीं लिया था। अपने कला जीवन की शुरूआत उन्होंने मुंबई में फ़िल्मों के होर्डिंग पेंट करके की जिसमे उन्हें प्रति वर्ग फुट के चार या छह आना मिलते थे। फ़रवरी 2006 में हुसैन पर हिंदू देवी-देवताओं की नग्न तस्वीरों को लेकर लोगों की भावनाएं भड़काने का आरोप भी लगा और हुसैन के ख़िलाफ़ इस संबंध में कई मामले चले। इस फक्कड़ी चित्रकार ने इसकी परवाह न करते हुए अपने काम से काम रखा। उन्हें जान से मारने की धमकियाँ भी मिलीं। मशहूर अभिनेत्री माधुरी दीक्षित के बड़े प्रशंसक एमएफ़ हुसैन ने उन्हें लेकर 'गज गामिनी' नाम की फ़िल्म भी बनाई। इसके अलावा उन्होंने तब्बू के साथ एक फ़िल्म 'मीनाक्षी- अ टेल ऑफ़ थ्री सिटीज़ बनाई। हुसैन ने अभिनेत्री अमृता राव की भी कई तस्वीरें बनाईं। विवाद हमेशा हुसैन के साथ रहे। कुछ समय पहले जब केरल सरकार की ओर से प्रतिष्ठित राजा रवि वर्मा पुरस्कार उन्हें दिया गया तो मामला कोर्ट कचहरी तक जा पहुंचा।[1]
भारत के पिकासो
गायन की विशेषता, उल्लास या अवसाद को चित्र में व्यक्त नहीं किया जा सकता, लेकिन हुसैन ने यह भी कर दिखाया। एक कार्यक्रम में पंडित भीमसेन जोशी जब अपने गायन का हुनर दिखा रहे थे तो सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में हुसैन ने उनके गायन के साथ कैनवस पर रंगों और रेखाओं से जुगलबंदी करके सबको हैरत में डाल दिया। मुंबई में अपनी कार पर चित्र बनाकर उसका प्रदर्शन करना, शादी के कार्ड, विज़िटिंग कार्ड और बुक कवर डिज़ाइन कर देना, फ़र्नीचर और खिलौने डिज़ाइन करना, अपनी पेंटिंग को साड़ियों पर चित्रित कर देना, सिगरेट की डिब्बी पर तत्काल चित्र बनाकर किसी परिचित को भेंट कर देना, होटल, रेस्टोरेंट या पान के खोखे पर पेंटिंग बना देना, भव्य बिल्डिंगों पर म्यूरल बना देना और युवा कलाकारों की पेंटिंग ख़रीद लेना, ये वे सारे काम थे, जो हुसैन करते रहते थे और उनकी ओर प्रशंसा के फूलों के साथ-साथ आलोचना के पत्थर भी उछलते रहते थे। हुसैन कला सिर्फ कला के लिए वाली अवधारणा को नहीं मानते थे। उनका कहना था, ज़रूरी नहीं कि कलाकार किसी मुद्दे पर आंदोलन करने के लिए सड़कों पर उतरे, लेकिन समाज के प्रति उसकी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही तो होती ही है। साथ ही वह कला के लिए ख़ास माहौल जैसी चीज़ अवधारणा को भी नहीं स्वीकर करते थे। उनके मुताबिक़़, अगर किसी भी तरह की सुविधा नहीं है तो कोयले से दीवार या ज़मीन पर भी चित्र बनाया जा सकता है। बीसवीं शताब्दी में दुनिया में पिकासो के बाद सबसे चर्चित कलाकार हुसैन ही रहे।
बहुआयामी कलाकार
अपने छह बच्चों में से उन्होंने किसी को भी कलाकार बनने के लिए प्रेरित नहीं किया। उनके बड़े बेटे शमशाद ने जब कला में रुचि दिखाई तो उन्होंने कहा कि पूरे देश में घूमों और हर माध्यम से चित्र बनाने का अभ्यास करो। अगर काम में दम हुआ तो लोगों में तुम्हारी पहचान ज़रूर बनेगी इसी तरह छोटे बेटे उवैस के चित्रकार बनने पर न तो उन्होंने आपत्ति की और न अपनी ओर से उवैस को कला जगत् में स्थापित करने की कोशिश की। चित्रकारी ने हुसैन की पहचान बनाई, लेकिन हुसैन को चित्रकारी से भी ज़्यादा दिलचस्पी फ़िल्मों में रही। 1967 में उनकी बनाई एक प्रयोगात्मक फ़िल्म 'थ्रू द आइज़ ऑफ़ अ पेंटर' ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय शोहरत दिलवाई। इसके बाद हुसैन ने कुछ डाक्यूमेंट्री फ़िल्में भी बनाईं। फिर हुसैन ने माधुरी दीक्षित को लेकर गजगामिनी बनाई। तब्बू और कुणाल कपूर स्टारर मीनाक्षी उनकी अंतिम फ़िल्म थी। चित्रकारी और सिनेमा के अलावा हुसैन की दिलचस्पी कविता में भी थी। उन्होंने अंग्रेज़ी और उर्दू में कविताएं तो लिखी हीं, उर्दू शायरों के हज़ारों शेर हुसैन को याद थे। ग़ालिब, जोश मलीहाबादी और मोहम्मद इक़बाल के कई शेर हुसैन की पेंटिंग का हिस्सा भी बने।[2]
ख़ुशमिजाज़ व्यक्तित्त्व
मशहूर भारतीय चित्रकार अपर्णा कौर कहती हैं कि वो देश के बाहर रहने के लिए मजबूर होते हुए भी हमेशा मुस्कराते रहते। अपर्णा कौर के अनुसार, देश के बाहर रहने के बावजूद वो हमेशा प्रसन्नचित रहते हैं। मैं जानती हूं कि वो इस देश से, इसकी संस्कृति से बेहद प्यार करते हैं और इसलिए इस देश और संस्कृति से दूर रहना उन्हें दुखी कर रहा होगा लेकिन वो ये दु:ख कभी अपने चेहरे पर नहीं आने देते। अपर्णा कौर का कहना था कि हुसैन ज़िंदगी को आख़िर तक जोश के साथ जीना चाहते थे। वो कहतीं हैं कि उनके साथ कुछ सांप्रदायिक सोच वाले लोगों का व्यवहार वाकई ग़ैरज़रुरी है। अपर्णा ने बचपन से ही हुसैन और एक अन्य प्रसिद्ध भारतीय चित्रकार अमृता शेरगिल के काम से प्रेरणा ली है। के. बिक्रमजीत सिंह प्रसिद्ध भारतीय डॉक्यूमैंट्री फ़िल्मकार और आलोचक हैं जिन्होंने एमएफ़ हुसैन पर एक पुस्तक भी लिखी है। अपनी किताब मक़बूल फ़िदा हुसैन के बारे में बिक्रमजीत सिंह का कहना है, "ये किताब 1947 से 2007 तक हुसैन साहब के काम पर नज़र डालती है। इसमें विस्तार से उनका कला के प्रति नज़रिया है, जैसे उनकी रामायण में रुचि वगैरह। लेकिन मेरी रुचि उनके व्यक्तित्व के बजाय उनकी कला और उसके विकास में ज़्यादा है।" भारतीय चित्रकार वीर मुंशी कहते हैं कि उन्हें पेंट करते देखना अपने आप में एक अनुभव है। वीर मुंशी कहते हैं कि हुसैन एक किवदंती हैं और उनकी कला का आयाम और विविधता बेजोड़ है। वीर मुंशी के अनुसार, "हुसैन की कला यात्रा काफ़ी लंबी रही है और उसमें सभी कुछ है जिसकी आप कल्पना कर सकते हैं। 94 साल की उम्र में उनमें जो ऊर्जा थी वो देखते ही बनती है।"[3]
सम्मान और पुरस्कार
मक़बूल फ़िदा हुसैन को सन 1966 में भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया। 1973 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया और वर्ष 1986 में उन्हें राज्यसभा में मनोनीत किया गया। भारत सरकार ने वर्ष 1991 में पद्म विभूषण से सम्मानित गया। हुसैन को अम्मान स्थित रॉयल इस्लामिक स्ट्रैटेजिक स्टडीज सेंटर ने दुनिया के सबसे प्रभावशाली 500 मुस्लिमों की सूची में भी शामिल किया। उन्हें बर्लिन फ़िल्म समारोह में उनकी फ़िल्म 'थ्रू दि आईज ऑफ ए पेंटर' के लिए गोल्डन बीयर पुरस्कार से भी सम्मानित किया गय। वह 1971 में साओ पाओलो आर्ट बाईनियल में पिकासो के साथ विशेष आमंत्रित अतिथि थे।[1]
निधन
मक़बूल फ़िदा हुसैन का निधन 9 जून 2011 को लंदन (इंग्लैंड) में हुआ था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 हुसैन को याद करते हुए (हिंदी) नज़रिया। अभिगमन तिथि: 10 सितम्बर, 2013।
- ↑ मक़बूल फ़िदा हुसैन: ख़त्म क़िस्सा हो गया (हिंदी) चौथी दुनिया। अभिगमन तिथि: 10 सितम्बर, 2013।
- ↑ हुसैन पर फ़िदा (हिंदी) बीबीसी हिंदी। अभिगमन तिथि: 10 सितम्बर, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
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