फ़रमाइए...
क्या यही है
मेरी शिकस्त ?
न कोई
रहम का
बंदोबस्त
कि झेल पाऊँ
इन बातों को
जो दिल को
झकझोरती हैं
ज़बर्दस्त, ज़बर्दस्त
न कसूर मेरा
न गिला कोई मुझको
फिर भी
हर मोड़ पर
हर वक़्त
मुझे जलालत का
अहसास कराते
कि मुझे हो
अहसास-ए-बदबख़्त
आमादा हैं
मुझे बनाने को
इंसां से फ़रिश्ता
हर वक़्त
और ख़ुद लूटते मज़े
आदम ज़ात होने के
करके तिलिस्मी
बंदोबस्त
और करते हैं
उम्मीद मुझसे
कि मैं जीऊं
किसी फ़क़ीर की तरहा
कहीं किसी
दश्त में
मदमस्त
क्या यही है
मेरी शिकस्त
क्या यही है
मेरी शिकस्त