समाज का ऑपरेटिंग सिस्टम -आदित्य चौधरी

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समाज का ऑपरेटिंग सिस्टम -आदित्य चौधरी


          "यार! ये बंडा काका का तो लास्ट शो चल रहा है... ये तो टेंऽऽऽ बोलने वाला है... पक्का मरेगा अब तो पक्का... सीधी सी बात है कि इलाज का पैसा तो है नईं..."
"ऐसे क्यों बोलता है बे! हमारा गुरु है... उस्ताद है उस्ताद... तू ठहर मैं पूछ के आता हूँ..."
बुज़ुर्ग और मासूम सा दिखने वाला बंडा शहर से लौटा है और बहुत उदास और अनमने मन से एक पेड़ के नीचे बैठा है।
"क्या हुआ बंडा काका ? बड़े उदास हो ? बहुत दिनों से ख़िज़ाब भी नहीं लगाया... दाढ़ी और बाल सब लाल हो रहे हैं... ख़िज़ाब का रंग उड़ गया है नया लगा लो ना... अच्छा छोड़ो... ये बताओ कि तुम तो शहर गये थे ना... क्या बताया डॉक्टरों ने?"
"बताना क्या था... वही बताया है... लाखों का ख़र्चा... चार लाख का पेसमेकर लगेगा... गुर्दे भी दोनों ख़राब हैं... वो ख़र्चा भी बीस लाख से ऊपर का है... और तुझको ख़िज़ाब की पड़ रही है।"
"तो फिर क्या सोचा है?"
"सोचना क्या है बेटा बहुत ख़र्चा है... बहोऽऽऽत ख़र्चा..."
इसके बाद वो नौजवान जो बंडा का हाल-चाल पूछ रहा था, वापस अपने और साथियों के पास जाकर बैठ गया और बतियाने लगा।
"सचमुच यार! ... बंडा काका तो गया काम से... बेचारे ने हमको कितना कुछ सिखाया... कि ए.के. फ़ॉट्टी सेवन में और ए.के. फ़िफ़्टी सिक्स में क्या फ़र्क है... नहीं तो हमको कौन बताता...एकदम सॉलिड कोच है बॉस..."
"अबे! तुझे तो ये भी पता नहीं था कि हॅन्ड ग्रेनेड का पिन खींचने के बाद सात तक गिनती गिननी होती है या बारह तक... और बंडे ने तुझे रॉकेट लॉन्चर चलाना भी सिखा दिया... सच में यार बंडा सचमुच ग्रेट है।"
"उस दिन की याद है तुझे? जब हमने तीन बॉर्डर सिक्योरिटी वाले तीन बंदे मारे थे... उनकी लाशों को ज़मीन में दबाने से पहले बंडा काका ने ही तो बताया था कि उनका पेट फाड़ कर ज़मीन में दबाओ, नहीं तो लाश फूलकर ज़मीन को भी फुला देगी और पता चल जाएगा कि कुछ नीचे दबाया गया है... ग्रेट मॅन यार... कितना तजुर्बा है बंडा को...।
"लेकिन अब होगा क्या... अब ये पहाड़ों और जंगलों में घूमना बंडे के बस का तो है नहीं... किसी दिन अपनी ही बिछाई हुई लैन्ड माइन से ही फट जाए तो अच्छा है... इतना मंहगा इलाज होगा कैसे... हमारा बीमा भी तो नहीं करता कोई..."ये बातें चल ही रही थीं कि वहाँ बंडा आ गया।
"चिन्ता क्यों करते हो, मैंने सब कुछ सोच लिया है... मेरे इलाज का इन्तज़ाम हो गया..." अचानक बंडा वहाँ आ के बोला-
"देखो मेरे सर पर चार करोड़ का इनाम है। मेरी बात पार्टनरशिप में पक्की हो गई है, आधा इनाम मेरा और आधा उसका..."
"किसका?"
"अरे जो मुझे पकड़वाएगा आधा उसका... मैं कोई छोटा-मोटा आतंकवादी नहीं हूँ... बहुत नाम है मेरा। अब तो मेरी उमर भी इतनी हो गई है कि जब तक अदालत मुझे फाँसी देगी तब तक मैं वैसे ही मर लूँगा... और इलाज तो बेटाऽऽऽ! मेरा होना ही होना है। सीधे अस्पताल जाऊँगा फिर जिस डॉक्टर को भी मैं धमकी दूँगा, वो मेरे मन माफ़िक ही इलाज करेगा।... इससे बढ़िया स्कीम कौन सी होगी? जब तक इस देश में भ्रष्टाचार है तब तक हमारा राज है और अपना बेड़ा पार है"
          अपने 'प्लान' के मुताबिक़़ बंडा पकड़ा गया। आधा इनाम उसके घरवालों को पहुँच गया। उसकी किडनी बदलवाई गई। दिल की बीमारी की वजह से पेसमेकर लगवाया गया। केस चल रहा है। लाखों इलाज में गए और करोड़ों उसे पालने में जा रहे हैं...फाँसी की सज़ा भी होगी लेकिन बंडा बुड्ढा है, फाँसी से पहले ही मर जाएगा, ये सब जानते हैं लेकिन कोई कुछ कहता नहीं, कोई कुछ करता नहीं...।

जब भ्रष्टाचार होना ही है और रोका नहीं जा सकता तो फिर सरकार को इससे निपटने के लिए विचित्र उपाय ही करने चाहिए।

आइए भारतकोश पर वापस चलें-
          एक ऐसे देश में, जहाँ की कार्यपालिका और न्यायपालिका में भ्रष्टाचार एक अपरिहार्य तत्त्व बन चुका हो, मृत्युदण्ड पाने योग्य अपराध करने वाला अपराधी भी अन्य साधारण स्तर के अपराध करने वाले अपराधियों की तरह ही स्वयं को समझ सकता है... यदि वह बहुत अधिक पैसे वाला है तो।
          कभी हिसाब-किताब लगाएँ और फाँसी लगने वालों के आँकड़े देखें तो पता चलेगा कि इस सूची में कोई भी अरबपति नहीं है। ये कैसा संयोग है कि कोई भी अमीर व्यक्ति अपराध नहीं करता? यदि यह माना भी जाय कि सीधे-सीधे अपराध में शामिल होने की संभावना किसी बड़े पूँजीपति की नहीं बनती तो भी षड़यंत्रकारी की सज़ा भी तो वही है जो अपराध कारित करने वाले की है।
          वैसे भी फाँसी तो ग़रीब का जन्मसिद्ध अधिकार है। संभवत: यही एक क्षेत्र ऐसा है जहाँ जाति के आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर आरक्षण है। फाँसी का तख़्ता बनाने के साथ ही उसे जल्लाद के साथ ये शपथ दिला दी जाती है कि हम भगवान को हाज़िर नाज़िर जानकर ये शपथ लेते हैं कि अमीर आदमी को कभी भी फाँसी नहीं देंगे।
          पिछले दिनों एक फ़िल्म आयी 'जॉली एल.एल.बी.'। इस फ़िल्म में जज (सौरभ शुक्ला) के एक संवाद पर बहुत तालियां बजती हैं। जो कुछ इस तरह है- "क़ानून अंधा होता है... जज अंधा नहीं होता।" इसके बाद जज बहुत मजबूरी के साथ बताता है कि ये जानते हुए भी सच क्या है, गवाह-सबूत के अभाव में वही फ़ैसला सुनाना पड़ता है, जिससे कि जज स्वयं संतुष्ट नहीं होता। इसका अर्थ तो ये है कि जज के पास भी गवाह-सबूत इकट्ठा करवाने के लिए कोई स्वतंत्र तंत्र होना चाहिए। जजों की मजबूरियों को मद्दे नज़र रखते हुए प्रत्येक अदालत में तीन जजों की बैंच होनी चाहिए (चाहे वह सत्र न्यायालय ही क्यों न हो)। एक बात और है जिसे पुनरीक्षण की आवश्यकता है- सत्र न्यायालय के फ़ैसले उच्च न्यायालय में और उच्च न्यायालय के फै़सले उच्चतम न्यायालय में बदलने के बहुत से उदाहरण भी सामने आते हैं।

कभी हिसाब-किताब लगाएँ और फाँसी लगने वालों के आँकड़े देखें तो पता चलेगा कि इस सूची में कोई भी अरबपति नहीं है। ये कैसा संयोग है कि कोई भी अमीर व्यक्ति अपराध नहीं करता? यदि यह माना भी जाय कि सीधे-सीधे अपराध में शामिल होने की संभावना किसी बड़े पूँजीपति की नहीं बनती तो भी षड़यंत्रकारी की सज़ा भी तो वही है जो अपराध कारित करने वाले की है।

          ज़रा सोचिए किसी मृत्यु कारित करने वाले संगेय अपराध के अपराधी को दिया जाने वाला दण्ड बार-बार बीसियों वर्षों तक परिभाषित किया जाता रहता है। कभी उसे फाँसी सुनाई जाती है तो कभी आजीवन कारावास। कभी वह ज़मानत पर जेल से बाहर रहता है तो कभी जेल के अंदर...। किसी भी निचली अदालत के फ़ैसले का पुनर्मूल्यांकन ऊँची अदालतों द्वारा बिना अपील किए ही हो तो बार-बार फ़ैसला बदले जाने की संभावना नहीं होगी।
          अदालतों में लाखों केस लंबित हैं। क्या कारण है? एक कारण तो मुख्य है ही कि न्यायपालिका के पास अदालत, जज, अधिकारी और कर्मचारियों की कमी है। यह कमी जायदाद की ख़रीद-बिक्री के पंजीयन कार्यालय में नहीं है। ना ही रजिस्ट्री ऑफ़िस में लोगों को अधिक इंतज़ार करना पड़ता है। देर रात तक ये कार्यालय खुले रहते हैं, क्योंकि वहाँ से सरकार को अरबों का राजस्व मिलता है, जो कि अदालतों से मिलना संभव नहीं है। दीवानी अदालत में तो ऐसी व्यवस्था है लेकिन फ़ौजदारी में सरकार को मिलने वाला राजस्व नगण्य ही है।
          एक और अहम् कारण है- वकीलों की फ़ीस की प्रक्रिया। जिस तरह गब्बर सिंह कहता है कि बसंती! जब तक तेरे पैर चलेंगे वीरू की सांस चलेगी, उसी तरह जब तक केस की तारीख़ पड़ती रहेंगी, वकील साहब को प्रत्येक तारीख़ पर जाने का मेहनताना मिलता रहेगा। अब बताइये...क्या कोई वकील चाहेगा कि केस जल्दी ख़त्म हो? केस तो बस चलता रहे... चलता रहे। जिस तरह टॅलीविज़न-धारावाहिक के कलाकार, निर्माता, निर्देशक आदि यह चाहते हैं कि धारावाहिक चलता रहे... चलता रहे...।
          हाँ! कुछ केस ऐसे होते हैं जो ठेके पर लड़े जाते हैं जैसे कि सड़क दुर्घटना के मुआवज़े के केस। सामान्यत: इन मुक़दमों में वकील से एक निश्चित धनराशि निर्धारित हो जाती है जो कि मुक़दमा जीतने पर एक मुश्त दी जाती है। इन मुक़दमों के फ़ैसले अपेक्षाकृत कम समय में ही हो जाते हैं। ज़मानत के मामलों में भी ज़्यादातर यही ठेका प्रक्रिया चलती है।
          पुराने समय के निर्धारित जुर्माने और सज़ा भी एक मुख्य कारण है। इसके लिए भी हमें बिलगेट्स के माइक्रोसॉफ़्ट से सीख लेनी चाहिए। ऑपरेटिंग सिस्टम के नये से नये रूपांतरण (वर्ज़न) लाना और लगातार सॉफ़्टवेयर अपडेट का आना ही माइक्रोसॉफ़्ट की सफलता का राज़ है। ज़माना अपडेट्स का है। न्यायपालिका और कार्यपालिका भी समाज के ऑपरेटिंग सिस्टम हैं। जिनको समय-समय पर नये रूपान्तरण (वर्ज़न) और अद्यतन (अपडेट) की आवश्यकता होती है। किसी भी शिक्षा, तंत्र, तकनीक की तरह ही न्याय व्यवस्था को भी अद्यतन रहने की आवश्यकता है। यदि न्याय व्यवस्था को समय-समय पर अद्यतन न किया गया तो न्याय-व्यवस्था की भूमिका समाज के प्रगति और विकास के रास्ते में नकारात्मक ही रहेगी जो कि आज है भी। बहुत सारे जुर्माने और सज़ा पुराने समय से चले आ रहे हैं। जिन्हें पुनरीक्षण की अनिवार्य आवश्यकता है।
          ट्रॅफ़िक के क़ानून को ही उदाहरण के लिए लें तो जुर्मानों की रक़म सुनकर हँसी आती है। 100-500 या हज़ार दो हज़ार... जबकि ट्रॅफ़िक का नियम तोड़ने से मनुष्य की जान भी जा सकती है। ज़रा सोचिए कि शराब पीकर वाहन चलाने का जुर्माना यदि एक लाख रुपया कर दिया जाय और एक सप्ताह की सज़ा अनिवार्य हो, साथ ही जुर्माना न दे पाने की स्थिति में एक वर्ष की क़ैद बा-मशक़्क़त हो... तो क्या होगा... शराब तो दूर की बात है कोई ख़ाँसी की दवाई पीकर भी वाहन नहीं चलाएगा... यहाँ एक शाश्वत समस्या तो है कि पुलिस वालों की रिश्वत भी बड़ी हाइ-फ़ाइ हो जाएगी लेकिन फिर भी समस्या बहुत हद तक कम होगी और सरकार को राजस्व भी मिलेगा।
          न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की स्थापना का अर्थ है देश का संपूर्ण पतन... इसलिए यदि भ्रष्टाचार पर नियंत्रण नहीं हो सकता तो इसको वैधानिक मान्यता देकर इसका "राष्ट्रीयकरण" ही कर देना चाहिए...
क्या अर्थ है इसका, आख़िर मैं कहना क्या चाहता हूँ...?
          ज़रा सोचिए कि लगभग प्रत्येक कार्य या प्रवेश के लिए यदि दो दो पंक्तियां (एक नि:शुल्क, एक शुल्क सहित) हों तो ? जैसे कि जेल की मिलाई, अदालत की तारीख़, मंत्रालय से लेकर सचिवालय में टिकिट से प्रवेश (सामान्यजन के लिए मुफ़्त) आदि। यह पासपोर्ट के लिए किया गया है कि तुरंत पासपोर्ट चाहिए तो ज़्यादा शुल्क देकर लिया जा सकता है।
          हर किसी को जल्दी है, तो फिर इस 'जल्दी' का लाभ सरकार को मिले तो समस्या क्या है? मान लीजिए रेलवे स्टेशन पर प्लॅटफ़ार्म टिकिट लेना है तो इसमें भी दो पंक्तियां की जा सकती हैं। टिकिट की क़ीमत तो एक ही है लेकिन टिकिट खिड़कियाँ दो हैं। एक खिड़की पर दोगुने दाम पर यदि टिकिट मिले तो जिन्हें जल्दी है वे अधिक दाम चुका कर ख़रीद लें...
शायद सभी यह न जानते हों कि जेलें भी श्रेणी गत होती हैं। अपराधी के सामाजिक स्तर को देखकर ए-क्लास, बी-क्लास और सी-क्लास श्रेणी बनाई गयीं हैं।
          दस-पंद्रह साल पहले मैं एक तत्कालीन सत्ता दल के विधायक से मिलने जेल गया था। विधायक जी बढ़िया पलंग के गुदगुदे गद्दे पर लेटकर कूलर की हवा और टेलिविज़न का आनंद ले रहे थे। उस समय मोबाइल फ़ोन ज़्यादा चलन में नहीं थे लेकिन उनके पास दो-दो मोबाइल थे। वे कोई राजनैतिक अपराधी नहीं थे बल्कि एक ऐसे अपराध में बंद थे जिसका पता चलने पर मुझे बाद में अपने आप से भी वितृष्णा हुई और मैंने अपने साथी (जिसके कहने और साथ में मेरा वहाँ जाना हुआ) को बहुत उल्टी-सीधी सुनाईं।

ऑपरेटिंग सिस्टम के नये से नये रूपांतरण (वर्ज़न) लाना और लगातार सॉफ़्टवेयर अपडेट का आना ही माइक्रोसॉफ़्ट की सफलता का राज़ है। ज़माना अपडेट्स का है। न्यायपालिका और कार्यपालिका भी समाज के ऑपरेटिंग सिस्टम हैं। जिनको समय-समय पर नये रूपान्तरण (वर्ज़न) और अद्यतन (अपडेट) की आवश्यकता होती है।

          जेलों में विचाराधीन क़ैदियों की स्थिति में अक्सर होता है कि अमीरों, नेताओं और सॅलिब्रिटी ग़ुंडों को जेलों में फ़ाइव स्टार जैसी सुविधाएँ मुहैया कराई जाती हैं। क्या समस्या है यदि जेलों में कुछ हिस्सा इस तरह की सुविधाओं से भरपूर हो इसका किराया इन हाइ-फ़ाइ अपराधियों से वसूला जाय। साथ ही शारीरिक परिश्रम में कोई ढील न बरती जाय। ऐसी फ़ाइव स्टार जेलों में रहने पर सज़ा की अवधि भी साधारण जेल से कम से कम दो गुनी या तीन गुनी हो।
          लाखों लोग दलालों (परिष्कृत भाषा में लाइज़न) की मदद से ही अपना काम करवाते हैं। दलाली, रिश्वत, कमीशन, सुविधाशुल्क आदि न जाने कितने नाम दिए गए हैं दलाली को। दलाली को भी यदि सरकारी मान्यता प्राप्त व्यवसाय का दर्जा दिया जाय तो काफ़ी हद तक बात बन सकती है। यह ठीक वैसे ही होगा जैसे कोई मुवक्किल एक वकील चुनता है जो अदालत में उसका मुक़दमा लड़ सके। जब भ्रष्टाचार होना ही है और रोका नहीं जा सकता तो फिर सरकार को इससे निपटने के लिए विचित्र उपाय ही करने चाहिए। एक विचित्र उपाय का उदाहरण देखिए-
          प्रताप सिंह कैरों पचास के दशक में पंजाब के मुख्यमंत्री रहे। उनके शासन का उदाहरण आज भी दिया जाता है और महान् नेता सरदार वल्लभ भाई पटेल से उनकी तुलना की जाती है। उस दौर में भी अनाज की कालाबाज़ारी ज़ोरों पर थी। देश नया-नया आज़ाद हुआ था। राज्य सरकारों के पास संसाधन कम थे। जमाख़ोरों और दलालों ने अनाज गोदामों में बंद किया हुआ था, मंहगाई आसमान को छूने लगी थी, जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। किसी के समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाना चाहिए। कैरों ने एक गंभीर जनहितकारी चाल चली... केन्द्र सरकार और रेल मंत्रालय की सहायता से कई मालगाड़ियाँ रेलवे स्टेशनों पर जा पहुँची जिनके डब्बे सील बंद थे और उनपर विभिन्न अनाजों के नाम लिखे हुए थे। शहरों में आग की तरह से ये ख़बर फैल गयी कि सरकार ने 'बाहर' से अनाज मंगवा लिया है। इतना सुनना था कि जमाख़ोरो ने अपना अनाज बाज़ार में आनन-फानन में बेचना शुरू कर दिया। मंहगाई तुरंत क़ाबू में आ गई। एक सप्ताह बाद मालगाड़ियाँ ज्यों की त्यों वापस लौट गईं क्योंकि वे ख़ाली थीं।... यदि सरकार ठान ले तो देश की तरक्की के लिए हज़ार-लाख तरीक़े निकाल सकती है लेकिन... जब भी कोई नई योजना या परिवर्तन की बात आती है तो कहा जाता है कि हमारे देश की आबादी बहुत अधिक है और इतनी बड़ी आबादी को संभालना कोई आसान काम नही है।
          बहुत वर्षों पहले मैंने यह कहा था कि भारत की बढ़ती आबादी की समस्या को ही यदि हम अभिशाप के स्थान पर वरदान के रूप में लेते तो व्यावसायिक रूप से देश बहुत आगे जा सकता है। हमको अपनी विशाल आबादी को अपनी कमज़ोरी की बजाय ताक़त समझ उसे उत्पादन में झोंक देना चाहिए। लेकिन यह हुआ नहीं हमारी आबादी उत्पादक न होकर विश्व का सबसे बड़ा उपभोक्ता बन गयी... जो हमारी समझ में नहीं आया वह चीन ने समझ लिया। चीन ने अपनी आबादी को ही अपना हथियार बनाया और उसे उत्पादन में लगा दिया। इसलिए बाज़ार में भारत एक ख़रीददार बन गया और चीन विक्रेता।

इस बार इतना ही... अगली बार कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक


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