ओलम्पिक समिति के सदस्य 'मिस्टर लुट्टनवाला' गाना गुनगुना रहे हैं-
मौसम है ओलम्पिकाना
ऐ दिल कहीं से कोई मॅडल 'ना' जीत लाना
"अजी सुनिए तो सही ! ज़रा इधर आइए..." 'सुनिए जी' से 'सुनती हो' ने कहा।
"क्या हो गया ?" लुट्टनवाला बोले।
"ओलम्पिक शुरू होने वाले हैं... आपने कुछ तैयारी भी की है कि पिछली बार की तरह सब सत्यानाश ही करवाएँगे" मिसेज़ लुट्टनवाला ने ताना दिया।
"तुम तो मुझे कुछ समझती ही नहीं हो ना... अरे! पिछली बार की बात और थी, वो चीन का मामला था... इस बार देखना यूरोप में क्या कमाल करता हूँ... लंदन की बात ही कुछ और है" लुट्टनवाला ने गर्व से घोषणा की।
"देखो जी इस बार मैं सिर्फ़ उन्हीं रिश्तेदारों को लंदन ले जाऊँगी जिन्होंने पिंकी की शादी में गोल्ड के गिफ़्ट दिए थे... पिछली बार की तरह नहीं करना है कि जो भी मिला उसी को न्यौता दे दिया कि चल ओलम्पिक में" मिसेज़ लुट्टनवाला बोलीं।
"तुम हर बार अपने ही रिश्तेदारों को ले जाती हो... जितने ज़्यादा तुम रिश्तेदार ले जाओगी, उतने ही ज़्यादा खिलाड़ी भी तो ले जाने पड़ेंगे... हरेक रिश्तेदार के लिए खिलाड़ी भी तो बढ़ाने पड़ते हैं। अब ज़्यादा खिलाड़ी जाएंगे तो मॅडल भी ज़्यादा आएंगे... मॅडल ज़्यादा आएँगे तो सरकार सोचेगी कि ओलम्पिक में खिलाड़ी मॅडल भी जीत सकते हैं... इससे हमारा तो चौपट ही होना है ना... अभी तो सरकार यह सोचती है कि ओलम्पिक में मॅडल-वॅडल तो मिलने नहीं है, इसलिए खिलाड़ी पर क्या बेकार खर्चा करना। इससे अच्छा तो सरकारी अधिकारी, कोच और मंत्रियों को भेजा जाए... कम से कम दूसरे देशों के कल्चर की जानकारी तो हो जाती है... तुम नहीं समझोगी, ये सरकारी बातें हैं।"
"हाँ एक बात तो बताना भूल गई कि पूनम की सास की एक सहेली है... उसका दामाद आजकल कुछ कर नहीं रहा है, बड़ा अपसॅट रहता है आजकल... अगर उसे खिलाड़ी बना कर ओलम्पिक में ले चलें तो..."
"इतना आसान समझ रखा है तुमने ! ऐसे कैसे किसी को भी खिलाड़ी बना कर ले जाऊँ ? तुम्हें मालूम भी है कि ओलम्पिक में जाने के लिए कितनी मेहनत होती है ?" लुट्टनवाला दहाड़े
"अब मुझे क्या पता तुम बताओगे तभी तो पता चलेगा... " मिसेज़ लुट्टनवाला ने फुसलाते हुए पूछा
"देखो एक तो खिलाड़ी वो हैं जो दिन-रात प्रॅक्टिस करते हैं। अपनी ट्रेनिंग ख़र्च ख़ुद ही उठाते हैं और मॅडल भी ले ही आते हैं, दूसरे वो हैं जिन्हें हम तैयार करते हैं। हमारे वाले खिलाड़ी ही असली खिलाड़ी हैं जो बेचारे न जाने कितने इंस्ट्रॅक्टरों, कोचों और मंत्रियों के चमचों को सॅट करके हमारे पास आते हैं, तब कहीं जाकर हम उनको 'शपथ' दिलाते हैं।"
"कैसी शपथ ?"
"अरे यही मॅडल जीतने की शपथ... कि मैं सत्यनिष्ठा से शपथ लेता हूँ कि किसी प्रकार का कोई मॅडल नहीं जीतूँगा, सोने चाँदी की चमक देखकर मेरा मन नहीं डोलेगा। मैं ओलम्पिक में अपने देश भारत के लिए नहीं बल्कि भारत-सरकार के बाबुओं, राजकर्मचारियों, खेल-प्रशिक्षकों और मंत्रियों के विश्व-भ्रमण और जेब-भरण के लिए खेलूंगा।...बस यही तो छोटी सी ही शपथ है कोई ज़्यादा लम्बी चौड़ी शपथ नहीं है।"
"अच्छाऽऽऽ ! तो ये है वो शपथ जो सीधे ओलम्पिक में पहुँचा देती है"
"अरे शपथ तो हम दिला देते हैं लेकिन फिर भी कुछ खिलाड़ी नालायक़ निकल जाते हैं... विदेश में जाकर न जाने क्या हो जाता है इनको, कभी-कभी शपथ को भूलकर सोने-चाँदी के मॅडलों पर ध्यान लगा देते हैं। वैसे तो मैं ख़ूब समझाता हूँ कि कितने भी मॅडल जीत लो, बुढ़ापे में मरना तो तुम्हें भूखा ही है... बाद में इन्हीं मॅडल को बेचकर काम चलाते हैं... एक-आध तो डाकू भी बन गया...अब तुम ही बताओ कि कहाँ तक समझाऊँ इन्हें, ये नई जॅनरेशन के लोग नहीं मानते हैं हमारी बात"
"चलिए छोड़िए, लंदन के लिए सामान की पॅकिंग भी तो करनी है... और शॉपिंग की लिस्ट बनानी है।"
अब आइए ज़रा ओलम्पिक के हालात भी देखें-
आपने अनेक खेल आयोजन ऐसे देखे होंगे जिनमें कुर्सियाँ ख़ाली पड़ी रहती हैं बावजूद इसके कि वह खेल काफ़ी लोकप्रिय होता है। इस बार ओलम्पिक में भी यही हो रहा है। आप जानते हैं इसका कारण क्या है ? इसका कारण है ओलम्पिक समिति द्वारा बाँटे गए मुफ़्त टिकिट। इन टिकिटों को प्राप्त करने वाले लोग बहुत कम ही खेलों को देखने जाते हैं केवल परम्परा के रूप में सम्मानार्थ इन्हें टिकिट दी जाती हैं। यदि आप ऐसे किसी आयोजन का टिकिट ख़रीदना चाहें तो टिकिट खिड़की और इंटरनेट पर टिकिट नहीं मिलेगा बल्कि वहाँ सूचित किया जाएगा कि टिकिट बिक चुके हैं। टी.वी. पर आप देखेंगे कि कुर्सियाँ ख़ाली पड़ी हैं। इस अजीब स्थिति का हल अभी तक आयोजकों को नहीं मिला है। ख़ैर हम ज़रा अपने देश के खेलों और खिलाड़ियों की समस्या पर भी कुछ बात कर लें।
हमारे देश में खेल और खिलाड़ियों की उपेक्षा करने की एक पुरानी परंपरा है। इस परंपरा की जड़ में कहीं न कहीं भारत का मौसम और प्रकृति भी है। आइए इस पर चर्चा करें।-
खेलों के लिए चाहिए मज़बूत शरीर और मज़बूत शरीर जिन चीज़ों से बनता है उनमें मांसपेशियाँ और हड्डियों की मुख्य भूमिका है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि भारतवासियों की हड्डियाँ उतनी चौड़ी, मज़बूत नहीं हैं जितनी कि यूरोप, अमरीका और अफ़्रीका के निवासियों की मानी जाती हैं। मनुष्य का विकास जब सभ्य-मनुष्य के रूप में हो रहा था तो ठंडे देशों में जन-जीवन कठिन था। भोजन के लिए जानवरों का शिकार करना अनिवार्य था। ये जानवर भी कभी-कभी भारी भरकम होते थे और इनका शिकार करना अकेले के वश की बात नहीं थी। इसके लिए 'योजना' और 'दल' बनाने पड़ते थे, तब कहीं जाकर भालू और मॅमथ जैसे जानवर क़ाबू में आते थे। इस भाग-दौड़ से हड्डियाँ और मांसपेशियां मज़बूत होती गईं, साथ ही शारीरिक बल भी बढ़ता गया। जानवर मारा जाता था और पका या अधपका खाया जाता था। इस भोजन को अधिक समय तक संभाल कर रखना संभव नहीं था तो सामूहिक भोज जैसा आयोजन होता था। इन क्रिया-कलापों से 'टीम-भावना' की पद्धति भी विकसित होने लगी। झगड़े तो तब शुरू हुए जब जानवर पालना शुरू हो गया और जानवरों की स्थिति एक संपत्ति के रुप में हो गई।
भारत में शिकार करके ही भोजन प्राप्त करना अनिवार्य नहीं था। अनेक फल, सब्ज़ी और कन्दमूल से भारत की भूमि संपन्न थी। बाद में खेती करना भी यहाँ आसान ही रहा। तरह-तरह की खेती के लिए उपयोगी तीनों मौसम (गर्मी, सर्दी और बरसात) यहाँ उपलब्ध थे। हड़प्पा से प्राप्त, सिंधु सभ्यता के समय के अवशेषों में, जो भाले मिले हैं वे किसी जानवर का शिकार करने के लिए उपयोगी नहीं हैं, जिसका कारण इन भालों का बेहद कमज़ोर होना है। ये भाले मात्र धार्मिक अनुष्ठानों को आयोजित करने में प्रयुक्त होते थे न कि किसी जानवर का शिकार करने में। इन बातों पर ग़ौर करें तो हमें समझ में आता है कि क्यों औसत भारतीयों की क़द-काठी बड़ी नहीं होती। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को यदि शामिल न किया जाय तो भारतीय मनुष्य की औसत ऊँचाई (क़द) एक से दो इंच तक कम हो जाती है। यही स्थिति सीने की नाप की भी है।
भारत की टीमें जब खेलती हैं तो बार-बार टीम भावना की कमी की बात उठती है। 'टीम के लिए नहीं अपने लिए खेलने' के आरोप हमारे खिलाड़ियों पर अक्सर लगते रहते हैं। आख़िर करना क्या चाहिए इसे सुधारने के लिए ? इसका मात्र एक उपाय है- स्कूलों और कॉलेजों में अनिवार्य शारीरिक शिक्षा। इस शारीरिक शिक्षा के अंक मूल परीक्षा के अंकों में जोड़े जाएँ। साथ ही कम से कम तीन वर्ष की सैनिक शिक्षा भी अनिवार्य होनी चाहिए। इसके बाद ही विद्यार्थी अपना जीवन प्रारम्भ करे। आजकल जो स्थिति है उसको देखें तो शिक्षण संस्थानों में जो भी छात्र खेलकूद में भाग लेते हैं उन्हें कोई पदक, कप, शील्ड या प्रमाणपत्र पकड़ा दिया जाता है। कितनी कम्पनी ऐसी हैं जो ये पदक और प्रमाणपत्र देखकर नौकरी देती हैं ? कोई देखता भी नहीं है इनकी तरफ़ बल्कि हम ख़ुद ही देखना भूल जाते हैं। 30-40 साल पहले शिक्षण संस्थानों में एन.सी.सी. और स्काउट का प्रशिक्षण हुआ करता था लेकिन तब भी यह अनिवार्य नहीं था अब तो इतना भी नहीं होता।
ओलम्पिक में अपनी स्थिति को देखें तो खाशाबा दादासाहेब जाधव को पहला व्यक्तिगत पदक (कांस्य) 1952 में मिला। उसके बाद लिएंडर पेस, कर्णम मल्लेश्वरी, राजवर्धन सिंह राठौर और अभिनव बिन्द्रा का नाम आता है। बिन्द्रा ने स्वर्ण जीता और बाक़ी सबने कांस्य जीते। इनके अलावा भारतीय हॉकी टीम ने स्वर्ण पदक जीते जिसमें मेजर ध्यानचंद जी का महान् योगदान था। 1980 के बाद भारतीय हॉकी ओलम्पिक में दिखाई नहीं दी।
आज भारत एक महाशक्ति बन चुका है। दुनिया का कोई देश ऐसा नहीं है जिससे संबंध बनाए रखने के लिए भारत बाध्य हो। जबकि अमरीका जैसे देश भी अब भारत से संबंध मधुर रखने की अनिवार्यता को स्वीकार चुके हैं। अब ज़रूरत इस बात की है कि भारत, विज्ञान और खेल के क्षेत्र में भी विश्व भर में अपना लोहा मनवाए।
इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक