राजेन्द्र सिंह (ब्रिगेडियर)
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पूरा नाम | ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह |
जन्म | 14 जनवरी, 1899 |
जन्म भूमि | बगूना, सांबा, जम्मू संभाग |
बलिदान | 27 अक्टूबर, 1947 |
स्थान | सेरी, उडी सेक्टर, जम्मू-कश्मीर |
अभिभावक | पिता- सूबेदार लखा सिंह |
संतान | पुत्री-05, पुत्र- 01 |
बटालियन | जम्मू-कश्मीर सशस्त्र बल |
रैंक | ब्रिगेडियर |
सेवा काल | 1921–1947 |
युद्ध | भारत-पाकिस्तान युद्ध (1947) |
सम्मान | महावीर चक्र |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने अपने 70 साथियों के साथ अंतिम सांस तक दुश्मन से युद्ध जारी रखा। 27 अक्टूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर के विलय के दिन इन सिपाहियों में से 30 सैनिक ही जिंदा बचे थे। |
अद्यतन | 12:42, 22 अक्टूबर 2022 (IST)
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ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह (अंग्रेज़ी: Brigadier Rajinder Singh, जन्म- 14 जनवरी, 1899; बलिदान- 27 अक्टूबर, 1947) भारतीय सेना में एक अधिकारी थे। वह स्वतंत्र भारत में 'महावीर चक्र' पाने वाले वीर जांबाजों में से एक थे। उन्हें तत्कालीन सेना प्रमुख फील्ड मार्शल के. एम. करिअप्पा द्वारा मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था। देश की आजादी के बाद पाकिस्तान सेना ने कबायलियों के साथ मिलकर 'आपरेशन गुलमर्ग' के तहत कश्मीर पर कब्जा करने की तैयारी कर ली थी। पांच हजार सैनिकों के इस मंसूबे को ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने अपने सत्तर साथियों के साथ अंतिम सांस तक लड़कर नाकाम कर दिया। इस असाधारण वीरता की गवाही देने के लिए 27 अक्टूबर, 1947 को देश से जम्मू-कश्मीर की विलय के दिन महाराजा की फौज के इन सिपाहियों में से 30 सैनिक ही जिंदा बचे थे।
परिचय
ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह का जन्म 14 जनवरी, 1889 को जम्मू शहर के बगूना गांव में हुआ था। इनके पिता सूबेदार लखा सिंह, जो जम्मू-कश्मीर की सेना में नौकरी करते थे। राजेन्द्र सिंह के दादा जी ने भी सेना में अपनी सेवाएँ दी थीं। यहीं से वीरता और बलिदान राजेन्द्र सिंह के खून में आये। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अपने परिवार की सेना में भर्ती होने की परंपरा को आगे बढ़ाने का फैसला किया। उन्हें 14 जून 1921 को जम्मू-कश्मीर सशस्त्र बल में कमीशन मिला। मई 1942 में वह ब्रिगेडियर के पद तक पहुंच गए और 25 सितंबर 1947 को जम्मू-कश्मीर बलों के चीफ ऑफ स्टाफ बन गए।
भारत अंग्रेजों से आजाद तो हुआ, लेकिन देश के बटवारे ने दंगा-फसाद और बढ़ा दिया था। सांप्रदायिकता की आग ने जम्मू-कश्मीर को भी अपनी लपटों में ले लिया। धर्म के आधार पर भारी संख्या में लोग पाकिस्तान की ओर पलायन कर रहे थे और पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी प्रांत से सिक्ख और हिन्दू भारी संख्या में जम्मू में दाखिल हो रहे थे। राज्य के हालात बिगड़ रहे थे। बटवारे के बाद जम्मू-कश्मीर ने अपना कोई फैसला नहीं लिया था कि उसे किस देश में जाना है, वह स्वतंत्र रहना चाहता था; लेकिन पाकिस्तानियों की नजर कश्मीर पर टिकी थी। वह कैसे भी करके अपने साथ उसे जोड़ने का प्लान बना रहा था। पाकिस्तानियों को लगता था कि जम्मू-कश्मीर में अधिकतर मुस्लिम धर्म के लोग हैं। इसलिए वह पाकिस्तान के साथ आ जाएगा, लेकिन उसकी ये सोच गलत थी।[1]
वास्तव में वहां की जनता राजा हरीसिंह के साथ थी। पाकिस्तान को आभास हुआ कि जम्मू-कश्मीर को जोड़ना मुश्किल है। इसी वजह से उसने जम्मू-कश्मीर को आर्थिक रूप से कमजोर करने का प्लान बनाया, क्योंकि राज्य की रोजमर्रा की जिंदगी बहुत हद तक पाकिस्तान के भूभाग पर निर्भर थी। पाकिस्तान ने रेल यातायात और कारोबार पर प्रतिबंध लगा दिया, जिस वजह से राज्य आर्थिक रूप से कमजोर हो गया।
शौर्य गाथा
22 अक्टूबर सन 1947 को महाराज हरिसिंह ने जब मुजफ्फराबाद पर पाक सेना के कब्जे की खबर सुनी, तो उन्होंने खुद दुश्मन से मोर्चा लेने का फैसला करते हुए सैन्य वर्दी पहनकर ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को बुलाया। राजेन्द्र सिंह ने महाराजा को मोर्चे से दूर रहने के लिए मनाते हुए खुद दुश्मन का आगे जाकर मुकाबला करने का निर्णय लिया। राजेन्द्र सिंह महाराजा के साथ बैठक के बाद जब बादामी बाग पहुंचे तो वहां 100 के करीब सिपाही मिले। उन्होंने सैन्य मुख्यालय को संपर्क कर अपने लिए अतिरिक्त सैनिक मांगे। मुख्यालय में मौजूद ब्रिगेडियर फकीर सिंह ने उन्हें 70 जवान और भेजने का यकीन दिलाया। इसी दौरान महाराजा ने खुद मुख्यालय में कमान संभालते हुए कैप्टन ज्वाला सिंह को एक लिखित आदेश के संग उड़ी भेजा। इसमें कहा गया था कि[2]–
"ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को आदेश दिया जाता है कि वह हर हाल में दुश्मन को आखिरी सांस और आखिरी जवान तक उड़ी के पास ही रोके रखें।"
कैप्टन सिंह 24 अक्टूबर की सुबह एक छोटी सैन्य टुकड़ी के संग उड़ी पहुंचे। उन्होंने सैन्य टुकड़ी ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को सौंपते हुए महाराजा का आदेश सुनाते हुए खत थमाया। हालात को पूरी तरह से विपरीत और दुश्मन को मजबूत समझते हुए ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने कैप्टन नसीब सिंह को उड़ी नाले पर बने एक पुल को उड़ाने का हुक्म सुनाया, ताकि दुश्मन को रोका जा सके। इससे दुश्मन कुछ देर के लिए रुक गया, लेकिन जल्द ही वहां गोलियों की बौछार शुरू हो गई। करीब दो घंटे बाद दुश्मन ने फिर हमला बोल दिया। दुश्मन की इस चाल को भांपते हुए ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के आदेश पर कैप्टन ज्वाला सिंह ने सभी पुलों को उड़ा दिया। यह काम शाम साढ़े चार बजे तक समाप्त हो चुका था, लेकिन कई कबाइली पहले ही इस तरफ आ चुके थे।
इसके बाद ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने रामपुर में दुश्मन को रोकने का फैसला किया और रात को ही वहां पहुंचकर उन्होंने अपने लिए खंदकें खोदीं। रात भर खंदकें खोदने वाले जवानों को सुबह तड़के ही दुश्मन की गोलीबारी झेलनी पड़ी। मोर्चा बंदी इतनी मजबूत थी कि पूरा दिन दुश्मन गोलाबारी करने के बावजूद एक इंच नहीं बढ़ पाया। दुश्मन की एक टुकड़ी ने पीछे से आकर सड़क पर अवरोधक तैयार कर दिए, ताकि महाराज के सिपाहियों को वहां से निकलने का मौका नहीं मिले, ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को दुश्मन की योजना का पता चल गया और उन्होंने 27 अक्टूबर की सुबह एक बजे अपने सिपाहियों को पीछे हटने और सेरी पुल पर डट जाने को कहा। पहला अवरोधक तो उन्होंने आसानी से हटा लिया, लेकिन बोनियार मंदिर के पास दुश्मन की फायरिंग की चपेट में आकर सिपाहियों के वाहनों का काफिला थम गया। पहले वाहन का चालक दुश्मन की फायरिंग में शहीद हो गया। इस पर कैप्टन ज्वाला सिंह ने अपनी गाड़ी से नीचे आकर जब देखा तो पहले तीनों वाहनों के चालक मारे जा चुके थे। उन्हें ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह नजर नहीं आए। वह अपने वाहन चालक के शहीद होने पर खुद ही वाहन लेकर आगे निकल गए थे।[2]
सेरी पुल के पास दुश्मन की गोलियों का जवाब देते हुए वह बुरी तरह जख्मी हो गए। उनकी दाई टांग पूरी तरह जख्मी थी। उन्होंने उसी समय अपने जवानों को आदेश दिया कि वह पीछे हटें और दुश्मन को रोकें। उन्हें जब सिपाहियों ने उठाने का प्रयास किया तो वह नहीं माने और उन्होंने कहा कि वह उन्हें पुलिया के नीचे आड़ में लिटाएं और वह वहीं से दुश्मन को राकेंगे। 27 अक्टूबर सन 1947 की दोपहर को सेरी पुल के पास ही उन्होंने दुश्मन से लड़ते हुए वीरगति पाई। अलबत्ता, 26 अक्टूबर सन 1947 की शाम को जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय को लेकर समझौता हो चुका था और 27 अक्टूबर को जब राजेन्द्र सिंह मातृभूमि की रक्षार्थ बलिदान हुए तो उस समय कर्नल रंजीत राय भारतीय फौज का नेतृत्व करते हुए श्रीनगर एयरपोर्ट पर पहुंच चुके थे।
युद्ध विशेषज्ञों का दावा है कि अगर राजेन्द्र सिंह पीछे नहीं हटते तो कबाइली 23 अक्टूबर की रात को ही श्रीनगर में होते। ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने जो फैसला लिया था, वह कोई चालाक और युद्ध रणनीति में माहिर व्यक्ति ही ले सकता था। उनके इसी फैसले और शहादत के कारण कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बनने से बच सका।
महावीर चक्र से सम्मानित
ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को मरणोपरांत देश के 'महावीर चक्र' से सम्मानित किया गया। फील्ड मार्शल के. एम. करिअप्पा ने 30 दिसंबर सन 1949 को जम्मू संभाग में बगूना सांबा के इस सपूत की वीर पत्नी रामदेई को सम्मानित किया था।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मेजर जनरल राजेन्द्र सिंह की अनसुनी शौर्य गाथा (हिंदी) hindi.news18.com। अभिगमन तिथि: 22 अक्टूबर, 2022।
- ↑ 2.0 2.1 2.2 जम्मू-कश्मीर अधिमिलन के नायक (हिंदी) vskgujarat.com। अभिगमन तिथि: 22 अक्टूबर, 2022।
बाहरी कड़ियाँ
- जम्मू के सपूत ने बचाया था कश्मीर को
- विलय दिवस पर गूंजेंगे ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह की वीरता के किस्से
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