महाभारत में शूद्र

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महाभारत में शूद्र
चर्मकार का अभिकल्पित चित्र
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विवरण शूद्र भारतीय समाज व्यवस्था में चतुर्थ वर्ण या जाति है।
उत्पत्ति शूद्र शब्द मूलत: विदेशी है और संभवत: एक पराजित अनार्य जाति का मूल नाम था।
पौराणिक संदर्भ वायु पुराण का कथन है कि शोक करके द्रवित होने वाले परिचर्यारत व्यक्ति शूद्र हैं। भविष्यपुराण में श्रुति की द्रुति (अवशिष्टांश) प्राप्त करने वाले शूद्र कहलाए।[1]
वैदिक परंपरा अथर्ववेद में कल्याणी वाक (वेद) का श्रवण शूद्रों को विहित था।[2] परंपरा है कि ऐतरेय ब्राह्मण का रचयिता महीदास इतरा (शूद्र) का पुत्र था। किंतु बाद में वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों से ले लिया गया।
ऐतिहासिक संदर्भ शूद्र जनजाति का उल्लेख डायोडोरस, टॉल्मी और ह्वेन त्सांग भी करते हैं।
आर्थिक स्थिति उत्तर वैदिक काल में शूद्र की स्थिति दास की थी अथवा नहीं[3] इस विषय में निश्चित नहीं कहा जा सकता। वह कर्मकार और परिचर्या करने वाला वर्ग था।
मध्य काल कबीर, रैदास, पीपा इस काल के प्रसिद्ध शूद्र संत हैं। असम के शंकरदेव द्वारा प्रवर्तित मत, पंजाब का सिक्ख संप्रदाय और महाराष्ट्र के बारकरी संप्रदाय ने शूद्र महत्त्व धार्मिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित किया।
आधुनिक काल वेबर, भीमराव आम्बेडकर, ज़िमर और रामशरण शर्मा क्रमश: शूद्रों को मूलत: भारतवर्ष में प्रथमागत आर्यस्कंध, क्षत्रिय, ब्राहुई भाषी और आभीर संबद्ध मानते हैं।
संबंधित लेख वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, चर्मकार, मीणा, कुम्हार, दास, भील, बंजारा
अन्य जानकारी पद से उत्पन्न होने के कारण पदपरिचर्या शूद्रों का विशिष्ट व्यवसाय है। द्विजों के साथ आसन, शयन वाक और पथ में समता की इच्छा रखने वाला शूद्र दंड्य है।[4]

महाभारत में आभीरों के साथ शूद्रों की चर्चा बार-बार जनजाति के रूप में हुई है, जिससे ई.पू. दसवीं शताब्दी की परम्पराओं का आभास मिलता है। इस महाकाव्य में शूद्र कुल का उल्लेख क्षत्रिय और वैश्य कुल के साथ हुआ है,[5] और शूद्र जनजाति का वर्णन आभीरों, दरदों, तुखारों, पहलवों आदि के साथ हुआ है,[6] तथा कुल एवं जाति के बीच स्पष्ट भेद दिखाया गया है। नकुल ने अपनी दिग्विजय-यात्रा के क्रम में जिन जातियों को पराजित किया, उनकी सूची में[7] तथा राजसूय यज्ञ के अवसर पर युधिष्ठिर को जिन लोगों ने उपहार प्रस्तुत किए उनकी सूची में[8] भी शूद्र का उल्लेख जनजाति के रूप में हुआ है। इनका कालक्रम निर्धारित करने के लिए सम्भवत: एक ओर भारत युद्ध के समय विद्यमान शूद्रों और आभीरों तथा दूसरी ओर बाद में इस सूची में प्रक्षिप्त शकों, तुखारों, पहलवों, रोमकों, चीनी और हूणों आदि जनों के बीच विभेद करना पड़ेगा।[9] भारतीयेतर स्रोतों से ऐसा कुछ पता नहीं चलता कि ईस्वी सन् के पूर्व या पश्चात् की कुछ आरम्भिक शताब्दियों में शूद्रों और आभीरों का बाहरी देशों से भी कोई सम्बन्ध था। इस बात के समर्थक तथ्य शायद ही उपलब्ध हैं कि आभीर ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में भारत आए। मालूम होता है कि भारत युद्ध के समय वे जनजाति के रूप में रहते थे,[10] पर उस महायुद्ध के पश्चात् जो अस्त-व्यस्तता की अवधि आई उससे वे पंजाब में बिखर गए।[11] आभीरों के साथ शूद्रों का भी बार-बार उल्लेख हुआ है, उससे संकेत मिलता है कि वे पुरानी जनजाति के थे और युद्ध के समय सुखी एवं सम्पन्न थे। अथर्ववेद के आरम्भिक अंश में शूद्र शब्द के जनजाति स्वरूप किए गए अर्थ के वह सर्वथा उपयुक्त है।

शूद्र आर्य थे?

दूसरा प्रश्न यह है कि शूद्र आर्य थे या आर्य-आगमन से पहले की जनजाति थे और यदि वे आर्य थे, तो भारत में किस समय आए। शूद्र जनजाति के मानवजातीय वर्गीकरण (एथनोलॉजिकल क्लासीफ़िकेशन) के विषय में परस्पर विरोधी विचार व्यक्त किये गए हैं। पहले यह माना जाता था कि पहले-पहल जो आर्य आए उनमें से कुछ शूद्र जनजाति के थे,[12] बाद में यह माने जाने लगा कि शूद्र आर्यपूर्व जनों की एक शाखा थे,[13] किन्तु दोनों विचारों में से किसी के भी पक्ष में कोई सबल प्रमाण नहीं है। उपलब्ध तथ्यों के आधार पर सोचा जा सकता है कि शूद्र जनजाति का आर्यों के साथ कुछ सादृश्य था। शूद्रों की चर्चा हमेशा आभीरों के साथ हुई है,[14] जो आर्यों की एक ऐसी बोली ‘आभीरी’ बोलते थे।[15] ब्राह्मणकाल में शूद्र आर्यों की भाषा समझने में समर्थ थे, जिससे परोक्ष रूप में सिद्ध होता है कि वे आर्यों की भाषा जानते थे। इतना ही नहीं, शूद्र को आर्य पूर्व लोगों, यथा द्रविड़, पुलिंद, शबर आदि की सूची में कभी शामिल नहीं किया गया है। उन्हें बराबर उत्तर-पश्चिम का निवासी माना गया है,[16] जहाँ आगे चलकर मुख्यत: आर्य ही निवास करते थे।[17] आभीर और शूद्र सरस्वती नदी के निकट रहते थे।[18] कहा जाता है कि इन लोगों के प्रति बैर-भाव के कारण सरस्वती मरुभूमि में विलीन हो गई।[19] ये सन्दर्भ महत्त्वपूर्ण है क्योंकि दृषद्वती के साथ सरस्वती उस प्रदेश की एक सीमा स्थिर करती थी, जो आर्य देश कहलाता था। ‘दहे’ शब्द भारतीय ‘दास’ शब्द का ईरानी पर्याय है, किन्तु शूद्र के लिए ऐसा तादाम्य स्थापन कठिन है। यह कहा जा सकता है कि ग्रीक ‘कुद्रोस’ शब्द का समानार्थक है,[20] जिसे होमर ने (ई.पू. दसवीं-नवीं शताब्दी) ‘महान’ के अर्थ में प्रयुक्त किया है और इसका प्रयोग सामान्यतया मर्त्यलोक के प्राणियों के लिए नहीं, बल्कि देवलोकवासियों की विशेषता बताने के लिए किया गया है।[21] भारत में, बाद में, शूद्र शब्द अपमानसूचक माना जाने लगा और उन लोगों के लिए व्यवहृत होता था, जिनसे ब्राह्मण अप्रसन्न थे। इसके विपरीत होमरकालीन ग्रीस में ‘शूद्र’ शत्द (कुद्रोस) प्रशंसात्मक था। हम यह कह सकते हैं कि ‘कुद्र’ नामक एक भारोपीय जनजाति थी, जिसकी शाखाएँ ग्रीस और भारत दोनों देशों में गई। ग्रीस में इस शाखा को महत्व का स्थान मिला, लेकिन इस जाति के जो लोग भारतवर्ष में आए, उन्हें अनेक सहआक्रमणकारियों ने हराकर अपने अधीन कर लिया। इस कारण ग्रीस में कुद्रों का ऊँचा स्थान हुआ और भारत में शूद्रों का नीचा। एक ही शब्द के विभिन्न सन्दर्भ में विपरीत अर्थ होते हैं, जैसा कि असुर शब्द के उदाहरण से स्पष्ट है। भारत में असुर अनिष्टकर (शैतान) माना जाता है, किन्तु उसके प्रतिरूप ‘अहुर’ को ईरान में देवता माना जाता है। भारत और ग्रीस में शूद्र शब्द का प्रयोग-भेद भी इसी प्रकार का माना जा सकता है, किन्तु उपरोक्त व्याख्या को तब तक निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता, जब तक कि यह प्रमाणित न हो जाए कि कुद्रोस ग्रीस की एक जनजाति थी। यह सम्भव प्रतीत होता है कि दासों के समान शूद्र भी भारतीय आर्यवंश के लोगों से सम्बन्धित थे।

शूद्रों का आगमन

यदि शूद्र भारतीय आर्यों से सम्बद्ध थे, तो वे भारत में कब आये? कहा गया है कि वे भारत में आने वाले आर्यों के किसी आरम्भ के दल के थे।[22] किन्तु चूँकि ऋग्वेद में उनका उल्लेख नहीं हुआ है, इसीलिए सम्भव है कि शूद्र उन विदेशी जनजातियों में से थे, जो ऋग्वैदिक काल का अन्त होते-होते उत्तर-पश्चिम भारत में आईं। पुरातत्त्व सम्बन्धी साक्ष्य के आधार पर ऐसा सम्भव मालूम होता है कि 2000 ई.पू. के पश्चात् हज़ार वर्षों तक लोगों का भारत में आना जारी रहा।[23] इस परिकल्पना का समर्थन भाषाजन्य प्रमाणों से भी होता है।[24] अतएव अनुमान किया जाता है कि शूद्र ई. पू. दूसरे सहस्राब्द के अन्त में भारत आए, जबकि उन्हें वैदिककालीन आर्यों ने पराजित किया और वैदिक काल के उत्तरवर्ती समाज ने उन्हें चतुर्थ वर्ण के रूप में अपनाया।

यह ज़ोर देकर कहा गया है कि ब्राह्मणों के साथ दीर्घकाल तक संघर्ष करते रहने के फलस्वरूप क्षत्रियों को शूद्र की स्थिति में पहुँचा दिया गया और ब्राह्मणों ने अपने शत्रु क्षत्रियों को अन्तत: उपनयन (यज्ञोपवीत संस्कार) के अधिकार से वंचित कर दिया।[25] महाभारत के शान्तिपर्व में वर्णित एकमात्र अनुश्रुति के आधार पर पैजवन शूद्र राजा था, यह दावा किया जाता है कि शूद्र आरम्भ में क्षत्रिय थे।[26] इस तरह की धारणा का कोई तथ्यगत आधार नहीं है।

  • प्रथमत:, ऋग्वेद काल में क्षत्रियों का ऐसा वर्णन कहीं नहीं मिलता है, जिससे पता चले की उनका एक निश्चित वर्ण था तथा उनके कर्तव्य और अधिकार अलग थे। सम्पूर्ण जनजाति के लोग युद्ध और सार्वजनिक कार्यों के प्रबन्ध को अपना कर्तव्य समझते थे। यह कुछ गिने-चुने योद्धाओं का काम नहीं समझा जाता था। आरम्भ से ही विकसित हो रहे योद्धाओं और पुरोहितों के समुदाय ने आर्यों और आर्येतर लोगों के साथ युद्ध में विश् का मार्गदर्शन किया और उन्हें सहायता दी। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, सरदार और योद्धागण पुरोहितों को उदारतापूर्वक भेंट-उपहार देने लगे और धार्मिक कर्मकांड जटिल होता गया, जिससे कर्मकांड का निष्पादन करने वाले पुरोहितों और उन पुरोहितों को संरक्षण देने वाले योद्धाओं की शक्ति सामान्य जन की शक्ति की अपेक्षा बहुत अधिक बढ़ी।
  • दूसरे, यद्यपि उत्तरवैदिक काल में, परशुराम और विश्वामित्र की कथाओं में पुरोहितों और योद्धाओं का संघर्ष ध्वनित होता है, फिर भी इसका कोई प्रमाण नहीं है कि विवाद का विषय उपनयन था, जिसका निर्णय क्षत्रियों के विपक्ष में हुआ। उत्तरवैदिक काल के अन्त में कृषि के आरम्भ हो जाने से किसानों से अनाज वसूल किया जाने लगा। इस वसूली में किसका कितना हिस्सा होगा, इसे लेकर सरदारों और पुरोहितों में संघर्ष अवश्यंभावी था। संघर्ष सामाजिक आधिपत्य को लेकर हुआ करता था, जिसके आधार पर विशेषाधिकारों का निर्णय होता था। ज्ञान के क्षेत्र में ब्राह्मणों के एकाधिकार के विषय में भी कुछ विवाद उठे और क्षत्रियों ने इसे चुनौती दी और उसमें सफल भी हुए। ऐसा जान पड़ता है कि अश्वपति कैकेय और प्रवाहण जैवलि सम्भवत: ब्राह्मणों के अध्यापक थे।[27] मिथिला के क्षत्रिय शासक जनक ने उपनिषदीय चिंतन को आगे बढ़ाने में योगदान दिया तथा क्षत्रिय राजा विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त किया। उत्तर-पूर्व भारत में क्षत्रियों का विद्रोह गौतम बुद्ध और वर्द्धमान महावीर के उपदेशों के रूप में अपनी चरम सीमा पर आया। उनके अनुसार समाज में प्रमुख स्थान क्षत्रियों का था और ब्राह्मण उसके बाद थे। झगड़ा इस प्रश्न को लेकर आया कि समाज में प्रथम स्थान ब्राह्मणों को मिले या क्षत्रियों को। न तो उत्तर-वैदिक और मौर्य-पूर्व गन्थों में ही कहीं ऐसा संकेत है कि ब्राह्मण चाहते थे कि क्षत्रियों को तृतीय या चतुर्थ वर्ण में रखा जाए, या क्षत्रियों की यह इच्छा थी कि ब्राह्मणों की वह गति हो।
  • तीसरी बात, ऐसा सोचना ग़लत है कि आरम्भ में उपनयन संस्कार का न होना शूद्रता का निश्चित प्रमाण माना जाता था। इस मामले में आज के न्यायालयों का निर्णय[28] उस समय की परिस्थितियों का द्योतक नहीं बन सकता, जब शूद्र वर्ण का उदभव हुआ। शूद्रों को उपनयन-च्युत केवल उत्तर-वैदिक काल में पाया जाता है और तब भी शूद्रों की दासतासूचक एकमात्र अशक्तता केवल यही नहीं थी कि उन्हें यज्ञोपवीत से वंचित रखा गया, इस तरह की अन्य कई आवश्यकताएँ थीं। ऐसा नहीं था कि उपनयन नहीं होने के कारण आर्य शूद्र में परिवर्तित हो गए थे, बल्कि आर्थिक और सामाजिक विषमताओं के चलते वे इस अधोगति में पहुँचे थे।
  • चौथी बात यह है कि शान्तिपर्व की इस अनुश्रुति की प्रामाणिकता को दृढ़तापूर्वक स्वीकार करना कठिन है कि पैजवन शूद्र था। उसे सुदास् से अभिन्न माना गया है, जो भारत जनजाति का प्रधान था, और कहा जाता है कि दस राजाओं के युद्ध का यह सुप्रसिद्ध नायक शूद्र ही था।[29] वैदिक ग्रन्थों में ऐसे तथ्य नहीं हैं, जिनसे इस विचार की पुष्टि होती हो और शान्तिपर्व की अनुश्रुति को किसी अन्य स्रोत से, चाहे वह महाकाव्य हो या पुराण, बल नहीं मिलता है। इस अनुश्रुति के अनुसार शूद्र पैजवन यज्ञ करते थे। यह बात भी ऐसे प्रसंग में आई है, जहाँ पर कहा गया है कि शूद्र पाँच महायज्ञ कर सकते थे और दान दे सकते थे।[30] यह निर्णय करना कठिन है कि यह अनुश्रुति सच है या झूठ। किन्तु इसका उद्देश्य यह सिद्ध करना था कि शूद्र यज्ञ और दान-पुण्य कर सकते थे। ऐसा दृष्टिकोण शान्तिपर्व की उदारवादी भावना के अनुकूल था, और तब पैदा हुआ, जब शूद्र किसानों की संख्या बढ़कर काफ़ी हो गई। यह भी ध्यातव्य है कि परवर्ती काल में ब्राह्मण ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए, जो उनका विरोध करता था, व्यापक रूप से शूद्र या वृषल शब्द का प्रयोग करने लगते थे। हमें मालूम नहीं कि शूद्र पैजवन के साथ भी ऐसी ही बात थी या नहीं। प्राय: ऐसे कथनों का अर्थ यह नहीं कि क्षत्रिय और ब्राह्मण शूद्र की स्थिति में पहुँच गए थे, बल्कि वे मात्र इतना संकेत देते हैं कि इन मान्य व्यक्तियों की उत्पत्ति शूद्रों से हुई थी, ख़ासकर मातृकुल की ओर से।[31]

स्पष्ट है कि आर्य जनजातियों और उनकी संस्थाओं की ही तरह शूद्र जनजाति भी सैनिक कृत्यों का निर्वाह करती थी।[32] महाभारत में शूद्रों की सेना का उल्लेख अंबष्ठों, शिवियों, शूरसेनों आदि के साथ हुआ है।[33] किन्तु, जैसा कि हम जानते हैं, इससे पूरी जनजाति क्षत्रिय वर्ण नहीं बन सकी और न उसके कर्तव्य और विशेषाधिकार सुनिश्चित हो सके। अत: इस सिद्धान्त में शायद ही कोई बल है कि क्षत्रियों को शूद्र की स्थिति में पहुँचा दिया गया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वेदांतसूत्र- 1, 44, 33
  2. अथर्ववेद 19, 32, 8
  3. रामशरण शर्मा पृ. 163-164
  4. गौतम धर्मसूत्र 12, 5
  5. पैप्लाद, II. 29.8-9. पह्लव और बर्बर का भी उल्लेख हुआ है। पैप्लाद, II. 29.15.
  6. महाभारत, VI. 10.65.
  7. महाभारत, VI. 10.66.
  8. महाभारत, VI. 47.7.
  9. महाभारत, II. 47.7 एवं आगे।
  10. पी. बनर्जी : जर्नल ऑफ़ द बिहार रिसर्च सोसायटी, पटना, x1i, 160-1).
  11. बुधप्रकाश: जर्नल ऑफ़ द बिहार रिसर्च सोसायटी, पटना, X1, 255, 260-3).
  12. वेबर : साइटिशृफ्ट डेर मेर्गेलैंडिशेनगेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, iv, 301, वैदिक इंडेक्स, 2, पृष्ठ 265,388; आर. सी. दत्त: ए हिस्ट्री ऑफ़ सिविलिजेशन इन एनशिएंट इण्डिया, 1, पृष्ठ 2; सोनार्ट: कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 83; एन. के. दत्त: ओरोजिन एण्ड ग्रोथ ऑफ़ कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 151-52; धुर्वे: कास्ट एण्ड क्लास, पृष्ठ 152-2, डी. आर. भंडारकर: सम आक्पेक्ट्स ऑफ़ एनशिएंट इण्डियन कल्चर, पृष्ठ 10; रौथ : शब्रह्म एंड डाइ ब्राह्मनेन साइटशिफ्ट डेर डोयूचेन मेर्गेनलेंडिशेन गेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, I, 84.
  13. फिक : ‘द सोशल आर्गेनाइजेशन इन नार्थ ईस्ट इण्डिया’, पृष्ठ 315; कीथ : कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया, I. 86; लैसेन : इण्डिया आल्टरटुम्स्कुंड, II. 174. देखें वेबर, इण्डिया स्टुडियेन, xvii, 85-86 और 255. त्सिम्मर टॉलेमी द्वारा उल्लिखित शूद्रों को ब्राहई से अभिन्न मानते हैं (अल्ट. लेवेन, पृष्ठ 435), किन्तु ऐसे अनुमान का कोई आधार नहीं दिखता है। हॉपकिन्स: रिलिजन्स ऑफ़ इण्डिया, पृष्ठ 548. जे. म्यूर: ‘ओरिजिनल संस्कृत टेक्ट्स,2, पृष्ठ 387: मार्कण्डेय पुराण, अनुवाद पृष्ठ 313-14, पार्जिटर का मत है कि शूद्र और आभीर परस्पर सम्मिलित और समबद्ध आदिम जाति के थे।
  14. महाभारत, VI. 10. 45 और 46; 65 और 66; महाभारत के आलोचनात्मक संस्करण VII. 19.7 में शूराभीर पाठ अशुद्ध मालूम पड़ता है। यह शूद्रभरा : होना चाहिए जैसा कि अन्य हस्तलिपियों में पाया जाता है (VII. 19.7 पर पाद टिप्पणी)। पतंजलि आन पाणिनिज़ ग्रामर, I. 2. 72.6; पतंजलि के महाभाष्य में शूद्रों और आभीरों का एक साथ उल्लेख हुआ है।
  15. पी.डी. गुने : भविसयत्तकहा, पृष्ठ 50-51, आभीरोक्ति के प्राचीनतम उदाहरण भरत के नाट्यशास्त्र में मिलते हैं, जो ई. सन् की दूसरी या तीसरी शताब्दी की रचना है। ये स्पष्टत: संस्कृत के बहुत निकट हैं।
  16. महाभारत की सूची लगभग उसी रूप में पुराणों में भी आई है, जिसमें शूद्रों को आभीरों, कालतोयकों, अपरांतों, पह्लवों (जिन्हें आलोचनात्मक संस्करण VI. 10.66 में ग़लत रूप में पल्ल्व कहा गया है) और अन्य लोगों के साथ एक जाति के रूप में चित्रित किया गया है। मार्कण्डेय पुराण, अध्याय 57.35-36 और मत्स्य पुराण, अध्याय 113.40. मालूम पड़ता है कि गुप्त काल में शूद्र जनजाति का अपना एक नियत राज्यक्षेत्र था, जिसे विष्णु पुराण (IV. 24.18) में सौराष्ट्र, अवंति और अर्बुद राज्यक्षेत्रों के साथ सूचीबद्ध किया गया है। दीक्षितार ने (गुप्त पालिटी, पृष्ठ 3-4 में) सूर के रूप में जो पाठ प्रस्तुत किया है, उसका कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि ग्रन्थ में शूद्र राज्यक्षेत्र का स्पष्ट उल्लेख है।
  17. म्यूर : ‘ओरिजिनल संस्कृत टेक्ट्स, 2, 355-357.
  18. महाभारत, II. 29.9. ‘शूद्राभीरगणाश्चैव ये चाश्रित्य सरस्वतीम्’।
  19. महाभारत (कल), IX. 37.1, ‘शूद्रभीरान् प्रति द्वेषाद यत्र नष्टा सरस्वती’।
  20. वैकरनैगेल, इंड्वायरेनिश्चे : सितजुंगबेरिक्टे डेर कोनिग्लिश प्रेसिस्वेन अकैडेमी डेर विसेनशाफ्टेन, 1918, 410-411.
  21. कुद्रोस : लिडेल ऐंड स्काट, ए ग्रीक-इंगलिश लेक्सिकन, i.
  22. वेबर : साइटशृफ्ट डेर डोय्चेन् मेर्गेनलैंडिशेनगेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, iv. 301, वैदिक इंडेक्स, 2, पृष्ठ 265,388; आर. सी. दत्त: ए हिस्ट्री ऑफ़ सिविलिजेशन इन एनशिएंट इण्डिया, 1, पृष्ठ 2; सोनार्ट: कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 83; एन. के. दत्त: ओरोजिन एण्ड ग्रोथ ऑफ़ कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 151-52; धुर्वे: कास्ट एण्ड क्लास, पृष्ठ 152-2, डी. आर. भंडारकर: सम आक्पेक्ट्स ऑफ़ एनशिएंट इण्डियन कल्चर, पृष्ठ 10; आर. रौथ: शब्रह्म एंड डाइ ब्राह्मनेन साइटशिफ्ट डेर डोयूचेन मेर्गेनलेंडिशेन गेज़ेलशाफ्ट बर्लिन, 1 पृष्ठ 84.
  23. स्टुअर्ट पिगाट : एंटिक्विटी, IV. सं. 96, 218.
  24. टी. बरो : द संस्कृत लैंग्वेज, पृष्ठ 31.
  25. अंबेडकर : हू वेयर द शूद्राज़, पृष्ठ 239.
  26. अंबेडकर : हू वेयर द शूद्राज़, पृष्ठ 139-42. लैसेन ने इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया कि प्राचीन राजा सुदास को महाभारत में शूद्र कहा गया है, इंडिश् आल्टर. I. 169.
  27. कोसंबी : जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ द रायल एशियाटिक सोसायटी, बम्बई, न्यू सीरीज, XXIII, 45.
  28. अंबेडकर : हू वेयर द शूद्राज़, पृष्ठ 185-90.
  29. अंबेडकर : हू वेयर द शूद्राज़, पृष्ठ 139.
  30. महाभारत, XII. 60. 38-40.
  31. ऐसे ऋषियों की चर्चा भविष्य पुराण, I. 42.22-26 में की गई है, जिनकी माँ शूद्र वर्ण के किसी-न-किसी वर्ग की समझी जाती थी। यह सूची कई अन्य पुराणों और महाभारत, पृष्ठ 70 में भी दी गई है।
  32. आर.एस.शर्मा : जर्नल ऑफ़ द बिहार रिसर्च सोसायटी, XXXVIII, 435-7; XXXIX, 416-7).
  33. महाभारत, VII. 6.6; देखें 19.7.

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