ऋष्यश्रृंग हिन्दू मान्यताओं और पौराणिक ग्रंथानुसार एक काश्यप ऋषि थे, जो विभांडक ऋषि के पुत्र थे। एक बार गंगास्नान के समय उर्वशी अप्सरा को देखकर विभांडक कामातुर हो गए और उनका रेत पानी में गिर पड़ा। शाप से हिरनी बनी एक देवकन्या वहाँ आई और पानी पीते समय वह रेत उसके पेट में चला गया। जिससे हिरनी को गर्भ रह गया और इसी गर्भ से ऋष्यश्रृंग का जन्म हुआ। विभांडक ने इन्हें पाला पोसा और वेदवेदांगों की शिक्षा दी। मृग योनि से उत्पन्न होने के कारण ये डरपोक थे और आश्रम के बाहर कभी भी न जाते थे। अत: इन्हें दुनियां का ज्ञान अत्यल्प था। इसी बीच अंग देश में अवर्षण हुआ। राजा लोमपाद की कन्या शान्ता इनको ब्याही गई थी।[1] ऋषि ऋष्यश्रृंग ने ही राजा दशरथ का 'पुत्रेष्टि यज्ञ' सम्पन्न कराया था, जिसके प्रभाव से दशरथ को चार पुत्र प्राप्त हुए थे।[2]
- तपस्वियों ने अंगेश्वर राजा लोमपाद अथवा रोमपाद को बताया कि ऋष्यश्रृंग के राज्य में पधारने पर वर्षा होगी।
- राजा ने कुछ वारांगनाओं को ऋष्यश्रृंग को ले आने की आज्ञा दी। वारांगनाएँ इन्हें बहकाकर जलमार्ग से अंग राज्य में ले आईं तो जोर से वर्षा हुई।
- राजा ने अपनी दत्तक पुत्री शांता से इनका विवाह कर दिया।
- विज्ञानेश्वर, हेमाद्रि, हलायुध आदि ने इनके द्वारा रचित ऋष्यश्रृंग स्मृति का उल्लेख किया है।
- ऋष्यश्रृंग संहिता नामक ग्रंथ के रचयिता भी ये ही बताए जाते हैं।
- आचार, अशौच, श्राद्ध तथा प्रायश्चित्त आदि के बारे में इनके विचार मिताक्षरा, अपरार्क, स्मृतिचंद्रिका आदि ग्रंथों में मिल जाते हैं।[3]
- मृगी के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण बालक के सींग भी थे। इसी कारण उसका नाम 'ऋष्यश्रृंग' रखा गया।[4]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
पौराणिक कोश |लेखक: राणाप्रसाद शर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 72 |
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