हिमालय संस्कृत के 'हिम' तथा 'आलय' शब्दों से मिलकर बना है, जिसका शब्दार्थ 'बर्फ़ का घर' होता है। हिमालय भारत की धरोहर है। हिमालय पर्वत की एक चोटी का नाम 'बन्दरपुच्छ' है। यह चोटी उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल ज़िले में स्थित है। इसकी ऊँचाई 20,731 फुट है। इसे सुमेरु भी कहते हैं। हिमालय एक पूरी पर्वत श्रृंखला है, जो भारतीय उपमहाद्वीप और तिब्बत को अलग करता है। यह भारतवर्ष का सबसे ऊँचा पर्वत है, जो उत्तर में देश की लगभग 2500 किलोमीटर लंबी सीमा बनाता है और देश को उत्तर एशिया से पृथक् करता है। कश्मीर से लेकर असम तक इसका विस्तार है।
भौगोलिक तथ्य
हिमालय पर्वतमाला की गणना वैज्ञानिक विश्व की नवीन पर्वत मालाओं से करते हैं। इसका निर्माण सागर तल के उठने से आज से पाँच-छह करोड़ वर्ष पहले हुआ था। हिमालय को अपनी पूरी ऊँचाई प्राप्त करने में 60 से 70 लाख वर्ष लगे। यह अपनी ऊँची चोटियों के लिये प्रसिद्ध है। विश्व का सर्वोच्च शिखर माउंट एवरेस्ट हिमालय की है। विश्व के 100 सर्वोच्च शिखरों में कई हिमालय की चोटियाँ हैं। अन्य पर्वतों की अपेक्षा यह काफ़ी नया है। हिमालय से सम्बद्ध पहली पर्वत श्रृंखला पीर पंजाल पर्वतश्रेणी है। हिमालय के एक भाग का नाम 'कलिंद' है। यहीं से यमुना निकलती है। इसी से यमुना का नाम 'कलिंदजा' और 'कालिंदी' भी है। दोनों का मतलब 'कलिंद की बेटी' होता है। यह जगह बहुत सुन्दर है, पर यहाँ पहुँचना बहुत कठिन है। अपने उद्गम से आगे कई मील तक विशाल हिमगारों और हिंम मंडित कंदराओं में अप्रकट रूप से बहती हुई तथा पहाड़ी ढलानों पर से अत्यन्त तीव्रता पूर्वक उतरती हुई इसकी धारा यमुनोत्तरी पर्वत 20,731 फीट ऊँचाई से प्रकट होती है। हिमालय पर्वतश्रेणी के अतिरिक्त अनाई शिखर भारत की सबसे ऊँची चोटी है।
पौराणिक संदर्भ
पौराणिक वर्णनों में हिमालय का उल्लेख 'हिमवान' नाम से मिलता है। वास्तव में वैदिक काल से ही हिमवान भारतीय संस्कृति का प्रेरणा स्रोत रहा है। ऋग्वेद में 'हिमवान' शब्द का बहुबचन में (हिमवन्तः) प्रयोग किया गया है, जिससे हिमालय की बृहत पर्वत श्रंखला का बोध होता है। हिमालय के मजबूत शिखर का भी ऋग्वेद में उल्लेख है।[1]
- अथर्ववेद में दो अन्य शिखरों का वर्णन है- 'त्रिककुद' और 'नावप्रभ्रंशन'।[2]
- वाल्मीकि रामायण में गंगा को हिमवान की ज्येष्ठ दुहिता कहा गया है-
'गंगा हिमवतो ज्सेष्ठा दुहिता पुरुषर्षभ।'[3]
'तदा हैमवती ज्सेष्ठा सर्वलोक नमस्कृता तदा सातिमहद्रू पं कृत्वावेगं च दःसहम्।'[4]
- वाल्मीकि को हिमवान पर्वत के अंचल में निवास करने वाली विविध जातियों का भी ज्ञान था-
'काम्बोजयवनांश्चैव शकानांपत्तनानिच, अन्वीक्ष्य वरदांश्चैव हिमवन्तं विचिन्वथ।'[5]
- महाभारत, वनपर्व में पाण्डवों की हिमालय यात्रा का बड़ा मनोरम वर्णन है। इसके कैलास, मैनाक, गंधमादन नामक शिखरों की कठोर यात्रा पाण्डवों ने की थी-
'अवेक्षमाणः कैलासं मैनाकं चैव पर्वतम्, गंधमादनपादांश्च श्वेतं चपि शिलोच्चयम्। उपर्युपरि शैलस्य बह्वीश्च सरितः शिवाः पृष्ठं हिमवतः पुण्यं ययौ सप्तदशेऽहनि।'[6]
- 'विष्णुपुराण' में सतलुज, चिनाव आदि नदियाँ हिमालय से सम्भूत कही गई हैं-
'शतद्रूचन्द्रभागाद्या हिमवत्पादनिर्गताः।[7]
- पुराणों के अनुसार हिमालय मैना का पति और पार्वती का पिता है। गंगा इसकी सबसे बड़ी पुत्री है। भगवान शंकर का निवास कैलाश यहीं है।
- महाभारत के अनुसार पांडव स्वर्गारोहण के लिए यहीं आए थे। युधिष्ठर देवरथ में बैठकर जब सशरीर स्वर्ग जाने लगे तो उनकी इन्द्र से भेंट यहीं हुई थी।[1]
- अन्य पुराणों में भी हिमालय के विषय में असंख्य उल्लेख है। 'हिमवान' नाम वैदिक है तथा सर्वप्राचीन प्रतीत होता है। हिमालय नाम परवर्ती काल में प्रचलित था। कालिदास ने इसका प्रयोग किया है।
पांडव अंतिम समय में हिमालय पर गलने के लिये चले गये थे तथा उनका जन्म भी 'शतश्रृंग' नामक हिमालय के शिखर पर ही हुआ था। हिमालय पर्वत में बसे अनेक तीर्थों का वर्णन महाभारत में है। वास्तव में इस महाकाव्य के अध्ययन से महाभारतकार की हिमालय के प्रति अगाध आस्था का बोध होता है। कालिदास को भी हिमालय से अद्भुत प्रेम था। 'कुमारसम्भव' के प्रथम सर्ग में नगाधिराज हिमालय का सुन्दर काव्यमय वर्णन है। इसमें हिमालय को पृथ्वी का मानदंड कहा गया है-
'अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः पूर्वापरौ तोयनिधीवगाह्म, स्थित: पृथिव्या इव मानदंडः।'[8]
कालीदास का वर्णन
इस सर्ग में कालिदास ने हिमालय की अनंत रत्नप्रभवता, अप्सराओं के अलंकरण प्रसाधन में शामिल रंगीन बादल, पर्वत के क्रोड़ में संचरणशील मेघों की छाया, हिमाचलवासी किरातों द्वारा गजमुक्ताओं के सहारे सिंहमार्ग का अंवेषण, विद्याधर सुंदरियों का प्रणयपत्र लेखन, कीचरंध्रों में वायु का वेणुवादन, देवदारु वृक्षों के क्षीर से सुगंधित शिखर, मणिप्रदीप्त गिरि गुहाएं, किनरियों की मंथरगति, पर्वत गुहा में छिपा हुआ अंधकार, चंद्रकिरणों के समान धवलपुच्छ वाली चमरियां और मृगान्वेषी किरात-इन सभी दृश्यों और घटनाओं के बड़े ही मनोरम और यथार्थ चित्र खींचे हैं।[1] 'मेघदूत' में कालिदास ने हिमालय को 'प्रालेयाद्रि'[9] तथा गंगा का 'प्रभव' तथा 'तुषारगौर' पर्वत माना है-
'आसीनानां सुरभितशिलं नाभिगंधैमृगाणां तस्या एब प्रभवमचलं प्राप्य गौरं तुषारैः।'[10]
जैन ग्रंथ का उल्लेख
जैन ग्रंथ 'जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति' में हिमवान की जंबुद्वीप के छह वर्ष पर्वतों में गणना की गई है और इस पर्वतमाला के 'महाहिमवंत' और 'चुल्लहिमवंत' नाम के दो भाग बताये गए हैं। महाहिमवंत पूर्वसमुद्र (बंगाल की खाड़ी) तक फैला हुआ है और चुल्लहिमवंत पश्चिम और दक्षिण की ओर वर्षधर पर्वत के नीचे वाले सागर (अरब सागर) तक विस्तृत है। इस ग्रंथ में गंगा और सिंधु नदियों का उद्गम चुल्लहिमालय में स्थित सरोवरों से माना गया है। महाहिमवंत के 8 और चुल्ल के 11 शिखरों का उल्लेख इस जैन ग्रंथ में है।
गहन प्रभाव
हज़ारों वर्षों तक हिमालय ने दक्षिण एशिया के लोगों पर वैयक्तिक और गहन प्रभाव डाला है, जो उनके साहित्य, राजनीति, अर्थव्यवस्था और पौराणिक कथाओं में भी प्रतिबिंबित होता है। इसकी विस्तृत बर्फ़ीली चोटियाँ लंबे समय से प्राचीन भारत के पर्वतारोही तीर्थयात्रियों को आकर्षित करती रही हैं, जिन्होंने इस विशाल पर्वत श्रृंखला का संस्कृत में नामकरण किया। आधुनिक काल में हिमालय विश्व भर के पर्वतारोहियों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण और महानतम चुनौती है। भारतीय उपमहाद्वीप की उत्तरी सीमा का निर्धारण करने और उत्तर की भूमि के लिए लगभग अगम्य अवरोध बनाने वाली यह पर्वतश्रेणी एक विशाल पर्वत पट्टिका का हिस्सा है जो उत्तरी अफ़्रीका से दक्षिण-पूर्व एशिया के प्रशांत तट तक लगभग आधी दुनिया में फैली हुई है। हिमालय पर्वतश्रेणी लगभग 2,500 किलोमीटर तक पश्चिम से पूर्व दिशा में जम्मू-कश्मीर क्षेत्र के नंगा पर्वत (8,126 मीटर) से तिब्बत में नामचा बरवा (7,756 मीटर) तक निर्बाध रूप से फैली हुई है। पूर्व और पश्चिम के इन दो सुदूर छोरों के बीच दो हिमालयी देश, नेपाल और भूटान, स्थित हैं। हिमालय के पश्चिमोत्तर में हिंदुकुश और कराकोरम पर्वतश्रेणियाँ और उत्तर में तिब्बत का पठार है। दक्षिण से उत्तर तक हिमालय की चौड़ाई 201 से 402 किलोमीटर के बीच परिवर्तित होती रहती है। इसका कुल क्षेत्रफल लगभग 5,94,400 वर्ग किलोमीटर है।
भौगोलिक विशेषताएँ
हिमालय की प्रमुख लाक्षणिक विशिष्टता इसकी बुलंद ऊँचाइयाँ, खड़े किनारों वाले नुकीले शिखर, घाटियाँ, पर्वतीय हिमनदियाँ, जो अक्सर विशाल होती हैं, अपरदन द्वारा गहरी कटी हुई स्थलाकृति, अथाह प्रतीत होती नदी घाटियाँ, जटिल भौगर्भिक संरचना और ऊँची पट्टियों (या क्षेत्रों) की श्रृंखला है, जिनमें विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ, जंतुजीवन और जलवायु हैं। दक्षिण की ओर से देखने पर हिमालय विशालकाय अर्द्ध चंद्र प्रतीत होता है, जिसका मूल अक्ष हिमरेखा से ऊपर स्थित है, जहाँ हिमक्षेत्र, पर्वतीय हिमनदियाँ और हिमस्खलन निचली घाटियों की उन हिमनदियों का हिस्सा बनते हैं, जो हिमालय से निकलने वाली अधिकांश नदियों के स्रोत हैं। लेकिन हिमालय का बड़ा हिस्सा हिमरेखा के नीचे स्थित है। इस श्रेणी का निर्माण करने वाली पर्वत-निर्माण प्रक्रिया अब भी क्रियाशील है, जिसमें धाराओं के भारी अपरदन और विशाल भूस्खलन जैसी गतिविधियाँ भी शामिल हैं। हिमालय पर्वतश्रेणी को चार समानांतर, लंबवत, भिन्न चौड़ाई वाली पर्वत-पट्टिकाओं में विभक्त किया जा सकता है, जिनमें से प्रत्येक की अपनी भौगोलिक विशिष्टता तथा अपना अलग भूगर्भशास्त्रीय इतिहास है। इन्हें दक्षिण से उत्तर की ओर इस प्रकार बाँटा गया है- बाहरी या उप-हिमालय; लघु या निम्न हिमालय; उच्च या वृहत हिमालय; और टेथिस या तिब्बती हिमालय, इससे आगे उत्तर में तिब्बत में परा-हिमालय है, जो कुछ सुदूर उत्तरी हिमालयी श्रेणियों का पूर्व दिशा में विस्तार है। पश्चिम से पूर्व की ओर हिमालय को मोटे तौर पर तीन पर्वतीय क्षेत्रों में बाँटा गया है-
- पश्चिमी
- मध्यवर्ती
- पूर्वी
भौगर्भिक इतिहास
हिमालय पर्वतश्रेणी आल्प्स से दक्षिण-पूर्व एशिया के पहाड़ों तक फैले यूरेशियाई पर्वतश्रेणी के विस्तार का हिस्सा है, जिसका निर्माण पिछले 6.5 करोड़ वर्षों में सार्वभौमिक प्लेट-विवर्तनिक शाक्तियों के कारण पृथ्वी की ऊपरी सतह पर विशालकाय उभारों के बनने से हुआ है।
लगभग 18 करोड़ वर्ष पहले, ज्यूरैसिक काल में, जब टेथिस सागर नामक एक गहरी भू- अभिनति यूरेशिया के समूचे दक्षिणी किनारे को घेरे हुए थी, पुराने विशाल महाद्वीप गोंडवाना (गोंडवानालैंड) के विखंडन की प्रक्रिया शुरू हुई। अगले 13 करोड़ वर्षों में इसका एक खंड, भारतीय उपमहाद्वीप का निर्माण करने वाली स्थलमंडलीय प्लेट के रूप में, उत्तर दिशा की ओर यूरेशियाई प्लेट से टकराने के मार्ग की ओर बढ़ा, इस भारतीय-ऑस्ट्रेलियाई प्लेट ने धीरे-धीरे अपने और यूरेशियाई प्लेट के बीच स्थित टेथिस खाई को विशालकाय चिमटे की भाँति जकड़ लिया। जैसे-जैसे टेथिस खाई संकरी होती गई, बढ़ते हुए दबाव की शाक्तियों ने इसके समुद्री तलछट में कई विवर्तनिक उभारों, गढ्डों और अंतर्ग्रथित भ्रंशों को जन्म दिया और ग्रेनाइट तथा बैसाल्ट के भंडार इसके गहराइयों से कमज़ोर हो चुके तलछट की ऊपरी सतह पर उभर आए। तृतीय महाकल्प (लगभग पाँच करोड़ वर्ष पहले) के आरंभ में भारत, अंततः यूरेशिया से टकरा गया। भारत, नीचे की ओर टेथिस खाई के नीचे लगातार बढ़ने वाली अक्षनति के साथ अपरूपित हो गया।
अगले तीन करोड़ वर्षों में टेथिस सागर में भारतीय-ऑस्ट्रेलियाई प्लेट के डूबने के कारण इसका समुद्र तल ऊपर की ओर उठ गया तथा इसके कम गहरे हिस्से पानी से ऊपर निकल आए। इससे तिब्बत के पठार की रचना हुई। पठार के दक्षिणी किनारे पर सीमांत पर्वत, आज की पराहिमालय पर्वतश्रेणी, इस क्षेत्र का पहला बड़ा जलविभाजक बना और इतनी ऊँचाई तक उपर उठा कि जलवायवीय अवरोध बन सके। दक्षिणी तीखी ढलानों पर भारी वर्षा होने के साथ उत्तर दिशा में पुरानी अनुप्रस्थ खाइयों में बढ़ती हुई शाक्ति के साथ प्रमुख दक्षिणवर्ती नदियों का शीर्ष जल की ओर अपरदन बढ़ता गया और ये पठार पर बहने वाली धाराओं में शामिल हो गईं। इस प्रकार, आज की जल अपवाह प्रणाली की रूपरेखा तैयार हुई। दक्षिण की ओर अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी के पुराने मुहाने प्राचीन सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा बहाकर लाई गई सामग्री से तेज़ी से भर गए। विस्तृत अपरदन और निक्षेपण की प्रक्रिया आज भी जारी है और ये नदियाँ प्रतिदिन भारी मात्रा में सामग्री बहाकर ले जाती हैं।
'नापे' की रचना
अंततः लगभग तीन करोड़ वर्ष पहले मध्यनूतन युग (माइओसीन एपॉक) में दोनों प्लेटों के बीच टूटते हुए जुड़ने की प्रक्रिया में तेज़ी से वृद्धि हुई और इसके फलस्वरूप हिमालय पर्वत की निर्माण प्रक्रिया का वास्तविक आरंभ हुआ। भारतीय उपमहाद्वीपीय प्लेट का टेथिस खाई में डूबना जारी रहा और प्राचीन गोंडवाना रूपांतरित चट्टानें दक्षिण में लम्बी क्षैतिज दूरी तक छिलके की तरह निकलकर अपने ही ढेर पर एकत्र होती रहीं और इसा प्रकार 'नापे' की रचना हुई। भारतीय भूमि क्षेत्र पर दक्षिण दिशा में 97 किलोमीटर की दूरी तक नापे की तह बिछती गई। प्रत्येक नए नापे में पहले के नापे के मुक़ाबले ज़्यादा पुरानी गोंडवाना चट्टानें थीं। कालक्रम में ये नापे वलयाकार हो गए और इससे भूतपूर्व खाई, पहले के मुक़ाबले लगभग 402 क्षैतिज किलोमीटर (कुछ विद्वान इसे 805 किलोमीटर बताते हैं) तक सिकुड़ गए। इस बीच, नीचे की ओर बहने वाली नदियाँ भी उत्थान की दर सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों में इकठ्टा हो रहा था। इस अवसाद के वज़न से वहाँ गढ्डे बन गए, जिससे और अधिक अवसाद एकत्र होता गया। गंगा के मैदान के नीचे कुछ स्थानों पर जलोढक 7,620 मीटर से भी अधिक है।
पिछले मात्र 6 लाख वर्षों के दौरान, अत्यंत नूतन युग (प्लाइस्टोसीन एपॉक, 16 लाख से 10 हज़ार वर्ष पहले तक) में ही हिमालय पृथ्वी की सबसे ऊँची पर्वत श्रृंखला बनी। यदि मध्य नूतन युग और अतिनूतन युग की विशेषता शक्तिशाली क्षैतिज बल थी, तो अत्यंत नूतन युग की ख़ासियत ज़बरदस्त उत्थान शक्ति थी। सुदूर उत्तरी नापे के मध्यवर्ती हिस्से में और इसके ठीक बाद नवीन पट्टिताश्म तथा ग्रेनाइट युक्त रवेदार चट्टानें उभरीं, जिनसे आज दिखाई देने वाले ऊँचे शिखरों का निर्माण हुआ। माउंट एवरेस्ट जैसी कुछ चोटियों पर रवेदार चट्टानों ने प्राचीन जीवाश्मों से युक्त उत्तर दिशा के टेथिस अवसाद को शिखर पर जमा कर दिया।
जलवायवीय अवरोध
एक बार विशाल हिमालय जलवायवीय अवरोध बन गया, तो उत्तर में स्थित सीमांत पर्वत वर्षा से वंचित हो गए तथा तिब्बत के पठार की तरह सूख गए। इसके विपरित नम दक्षिणी कगारों पर नदियाँ इतनी अपरदनकारी शक्तियों के साथ प्रकट हुईं कि उन्होंने शीर्ष रेखा को धीरे-धीरे उत्तर दिशा में ढकेल दिया। साथ ही हिमालय से फूटने वाली विशाल अनुप्रस्थ नदियों ने इन विशाल नदियों के अलावा अन्य सभी को उनकी निचली धाराओं में परिवर्तन के लिए बाध्य किया, क्योंकि जैसे-जैसे उत्तरी शिखर ऊपर उठ रहा था, वैसे ही विशाल नापे का दक्षिणी सिरा भी उठ रहा था। इन शक्तियों तथा वलयों से शिवालिक श्रेणी का निर्माण हुआ तथा निम्न हिमालय क्षेत्र में संवलित होकर मध्यवर्ती क्षेत्र की उत्पत्ति हुई। इस दौरान दक्षिण की ओर बहाव में अवरोध आ जाने से अधिकांश छोटी नदियाँ पूर्व या पश्चिम में मध्यवर्ती क्षेत्र के संरचनात्मक तौर पर कमज़ोर हिस्सों के ज़रिये नए दक्षिणी अवरोध को तोड़ने या किसी बड़ी धारा में मिलने तक बहती रहीं।
कश्मीर घाटी और नेपाल की काठमांडू घाटी जैसी कुछ घाटियों में अस्थाई रूप से झीलों का निर्माण हुआ, जिनमें अत्यंत नूतन युग (प्लाइस्टोसीन) का निक्षेप एकत्र हो गया। लगभग 2 लाख साल पहले सूखने के बाद काठमांडू घाटी कम से कम 198 मीटर तक ऊपर उठी है, जो लघु हिमालय क्षेत्र में स्थानीय उत्थान का सूचक है।
भू-आकृति विज्ञान
बाह्य हिमालय में समतल भूमि वाली संरचनात्मक घाटियाँ और हिमालय पर्वतश्रेणी की दक्षिणी सीमा पर स्थित शिवालिक भारत पर स्थित शिवालिक पहाड़ियाँ हैं। पूर्व के कुछ छोटे दर्रों को छोड़कर शिवालिक भारत के हिमाचल प्रदेश में अधिकतर 110 किलोमीटर की चौड़ाई के साथ हिमालय की पूरी लंबाई तक फैला हुआ है। आमतौर पर 274 मीटर की समोच्च रेखा इसकी दक्षिणी सीमा निर्धारित करती है। उत्तर भारत में इसकी ऊँचाई 762 मीटर तक है। मुख्य शिवालिक श्रेणी का दक्षिणी हिस्सा भारतीय मैदानों की ओर तीखी ढलान वाला है और उत्तर की ओर समतल भूमि वाले बेसिन, जिन्हें दून कहा जाता है की ढाल कम तीखी है। इनमें से सबसे विख्यात उत्तरांचल का पर्वतीय क्षेत्र देहरादून है।
लघु हिमालय
- लघु हिमालय को आंतरिक हिमालय, निम्न हिमालय या मध्य हिमालय भी कहलाता है।
- हिमालय पर्वत श्रृंखला का मध्यवर्ती भाग, दक्षिण-पूर्वी दिशा में उत्तरी पाकिस्तान, उत्तर भारत, नेपाल, सिक्किम (भारत) और भूटान तक विस्तृत है।
- यह श्रृंखला वृहद (उत्तर) और शिवालिक या बाह (दक्षिण) हिमालय श्रृंखलाओं के बीच स्थित है।
- इसकी औरत ऊँचाई 3,700 से 4,500 मीटर तक है। इसमें पंजाब, कुमाऊँ, नेपाल और असम के हिमालय क्षेत्र शामिल हैं।
- नाग टिब्बा
इन तीन श्रेणियों में सबसे पूर्व में नाग टिब्बा का पूर्वी सिरा नेपाल में लगभग 8,169 मीटर ऊँचा है और यह गंगा व यमुना नदियों के बीच उत्तराखंड में जलविभाजक क्षेत्र का निर्माण करता है।
संरचनात्मक बेसिन
पश्चिम में कश्मीर की ख़ूबसूरत घाटी है, जो एक संरचनात्मक बेसिन है (एक वलयाकार बेसिन, जिसमें चट्टानी परत केंद्रीय बिंदु की ओर झुकी हुई है) और लघु हिमालय के एक महत्त्वपूर्ण खंड का निर्माण करती है। यह दक्षिण-पूर्व से पूर्वोत्तर की ओर लगभग 160 किलोमीटर तक फैली हुई है और इसकी चौड़ाई 80 किलोमीटर तक है। इसकी औसत ऊँचाई 1,554 मीटर है। इस बेसिन से होकर तिर्यक रूप से सर्पाकार झेलम नदी बहती है जो जम्मू-कश्मीर की विशाल मीठे पानी की वुलर झील से होकर बहती है।
उच्च हिमालय श्रेणी
समूचे पर्वतीय क्षेत्र की रीढ़ उच्च हिमालय श्रेणी है, जो सतत हिमरेखा से ऊपर तक उठी हुई हैं। यह पर्वतश्रेणी नेपाल में अपनी अधिकतम ऊँचाई तक पहुँचती है, जहाँ विश्व की 14 सबसे ऊँची चोटियों में से 9 स्थित हैं। इनमें से प्रत्येक की ऊँचाई 7,925 मीटर से अधिक है। पश्चिम से पूर्व की ओर इनके नाम हैं। धौलागिरि-1, अन्नपूर्णा-1, मनासलू-1, चो यू, ग्याचुंग कांग-1, माउंट एवरेस्ट, ल्होत्से, मकालू-1 और कंचनजंगा-1। आगे पूर्व में भारत का हिस्सा बन चुके प्राचीर हिमालयी राज्य सिक्किम में प्रवेश करते समय यह श्रेणी दक्षिण-पूर्वी दिशा से पूर्व दिशा अपना लेती है। इसके बाद यह अगले 418.34 किलोमीटर तक भूटान और अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी हिस्से में कांग्टो शिखर (7,090 मीटर) तक यह पूर्व दिशा में बढ़ती है और अंतत: पूर्वोत्तर में मुड़कर नामचा बरवा में समाप्त हो जाती है।
उच्च हिमालय और इसके उत्तर की श्रेणियों, पठारों तथा बेसिनों के बीच कोई स्पष्ट सीमारेखा नहीं है और इन्हें आमतौर पर टेथिस हिमालय तथा सुदूर उत्तर में तिब्बत के रूप में समूहबद्ध किया जाता है। कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में टेथिस सबसे चौड़े हैं, जिनसे स्पीति बेसिन और ज़ास्कर पर्वतों का निर्माण होता है। इसके सबसे ऊँचे शिखर दक्षिण-पूर्व दिशा में सतलुज नदी के उत्तर में शिपकी दर्रे के सामने स्थित लियो पार्गियाल 6,791 मीटर और शिल्ला 7,026 मीटर हैं।
अपवाह
हिमालय के अपवाह में 19 प्रमुख नदियाँ हैं। जिनमें ब्रह्मापुत्र व सिंधु सबसे बड़ी है, दोनों में से प्रत्येक का पर्वतों में 2,59,000 वर्ग किलोमीटर विस्तृत जलसंग्राहक बेसिन है। अन्य नदियों में से पाँच, झेलम, चेनाब, रावी, व्यास, और सतलुज सिंधु तंत्र की नदियाँ हैं। जिनका कुल जलग्रहण क्षेत्र लगभग 1,32,090 वर्ग किलोमीटर है। नौ नदियाँ, गंगा, यमुना, रामगंगा , काली, करनाली, राप्ती, गंडक, बागमती व कोसी, गंगा तंत्र की हैं, जिनका जलग्रहण क्षेत्र 2,17,560 वर्ग किलोमीटर है और तीन, तिस्ता, रैदक व मनास, ब्रह्मपुत्र तंत्र की हैं जो 1,83,890 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को अपवाहित करती हैं।
प्रमुख हिमालयी नदियाँ पर्वतश्रेणी के उत्तर से निकलती हैं और गहरे महाखड्डों से होती हुई बहती हैं, जो आमतौर पर कुछ भौगोर्भिक संरचनात्मक नियंत्रण को स्पष्ट करता है। सिंधु तंत्र की नदियों का बहाव एक नियम की तरह पश्चिमोत्तर है, जबकि गंगा-ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र की नदियाँ पर्वतीय क्षेत्र से बहते हुए पूर्वी मार्ग अपनाती हैं।
भारत के उत्तर में कराकोरम श्रेणी, जिसके पश्चिम में हिंदुकुश व पूर्व में लद्दाख़ श्रेणी है, एक विशाल जलविभाग बनाती है जो सिंधु तंत्र को मध्य एशिया की नदियों से अलग करता है। इस विभाजन के पूर्व में कैलाश श्रेणी और पूर्व की ओर आगे निआनकिंग तंग्गुला पर्वत हैं, जो ब्रह्मपुत्र, उच्च हिमालय श्रेणी के महाखड्ड को पार करने से पहले पूर्व की ओर लगभग 1,488 किलोमीटर बहती है। इसकी बहुत सी तिब्बती सहायक नदियाँ विपरीत दिशा में बहती हैं और संभवतः कभी ब्रह्मपुत्र की भी यही दिशा रही होगी।
जल-विभाजन
उच्च हिमालय, जो सामान्यः अपनी समूची लंबाई में प्रमुख जल-विभाजन है, कुछ सीमित क्षेत्रों में ही जल-विभाजन का काम करता है। इसका कारण यह है कि प्रमुख हिमालयी नदियाँ, जैसे सिंधु, ब्रह्मपुत्र सतलुज और गंगा की दो प्रमुख धाराएँ, अलकनंदा व भागीरथी उन पर्वतों से भी पुरानी हैं, जिन्हें वे काटती हैं। ऐसा विश्वास है कि हिमालय इतनी धीमी गति से उठा कि पुरानी नदियों को धाराओं में बहते रहने में कोई परेशानी नहीं हुई और हिमालय के उठने से उनके बहाव ने गति पकड़ ली, जिससे वे घाटियों का कटाव तेज़ी से कर पाईं। इस प्रकार हिमालय का उन्नयन और घाटियों का गहरा होना साथ-साथ जारी रहा, परिणामस्वरूप, पर्वतश्रेणियों के साथ पूर्णतः विकसित नदी तंत्र का उद्भव हुआ, जो गहरे अनुप्रस्थ महाखण्डों में कटा था। इनकी गहराई 1,524 से 4,877 मीटर व चौड़ाई 10 से 48 किलोमीटर है। अपवाह तंत्र का आरंभिक मूल इस अनोखे तथ्य को स्पष्ट करता है कि प्रमुख नदियाँ न केवल उच्च हिमालय की दक्षिणी ढालों को, बल्कि एक विशाल सीमा तक इसकी उत्तरी ढालों को भी अपवाहित करती हैं, क्योंकि जल-विभाजक क्षेत्र शीर्ष रेखा के उत्तर में स्थित है।
हिमनद
एक जल-विभाजक के रूप में उच्च हिमालय श्रेणी की भूमिका को सतलुज व सिंधु घाटी के बीच के 579 किलोमीटर के क्षेत्र में देखा जा सकता है। उत्तरी ढालों में उत्तर की ओर बहने वाली ज़ॉस्कर व द्रास नदियाँ हैं, जो सिंधु नदी में अपवाहित होती हैं। ग्लेशियर (हिमनद) भी ऊँचे क्षेत्रों को अपवाहित करने व हिमालयी नदियों के पोषण (पानी देने) में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उत्तराखंड में अनेक हिमनद हैं, जिनमें से सबसे बड़ा गंगोत्री हिमनद 32 किलोमीटर लंबा है और गंगा के स्रोतों में से एक है। खुंबु हिमनद नेपाल के एवरेस्ट क्षेत्र को अपवाहित करता है और इस पर्वत की चढ़ाई का सबसे लोकप्रिय मार्ग है। हिमालय क्षेत्र के हिमनदों की गति की दर उल्लेखनीय रूप से भिन्न है। कराकोरम श्रेणी में बाल्टोरो हिमनद प्रतिदिन दो मीटर खिसकता है, जबकि खुंबु जैसे अन्य हिमनद प्रतिदिन केवल लगभग 30 सेंटीमीटर तक ही खिसक पाते हैं। हिमालय के अधिकांश हिमनद सिकुड़ रहे हैं।
मिट्टी
हिमालय की मिट्टी के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। उत्तरमुखी ढलानों पर मिट्टी की अच्छी-ख़ासी मोटी परत है, जो कम ऊँचाइयों पर घने जंगलों तथा अधिक ऊँचाई पर घास का पोषण करती है। जंगल की मिट्टी गहरे भूरे रंग की है तथा इसकी बनावट चिकनी दोमट है। यह फलों के वृक्ष उगाने के लिए आदर्श मिट्टी है। पर्वतीय घास स्थली की मिट्टी भलीभाँति विकसित है, लेकिन इसकी मोटाई तथा रासायनिक गुण अलग-अलग हैं।
जलवायु
हवा और जल संचरण की विशाल प्रणालियों को प्रभावित करने वाले विशाल जलवायवीय विभाजक के रूप में हिमालय दक्षिण में भारतीय उपमहाद्वीप और उत्तर में मध्य एशियाई उच्चभूमि की मौसमी स्थितियों को प्रभावित करने में प्रमुख भूमिका निभाता है। अपनी स्थिति और विशाल ऊँचाई के कारण हिमालय पर्वतश्रेणी सर्दियों में उत्तर की ओर से आने वाली ठंडी यूरोपीय वायु को भारत में प्रवेश करने से रोकती है और दक्षिण-पश्चिम मॉनसूनी हवाओं को पर्वतश्रेणी को पार करके उत्तर में जाने से पहले अधिक वर्षा के लिए भी बाध्य करती है। इस प्रकार, भारतीय क्षेत्र में भारी मात्रा में वर्षा (बारिश और हिमपात) होती है, लेकिन वहीं तिब्बत में मरुस्थलीय स्थितियां हैं। दक्षिणी ढलानों पर शिमला और पश्चिमी हिमालय के मसूरी में औसत सालाना वर्षा 1,530 मिमी तथा पूर्वी हिमालय के दार्जिलिंग में 3,048 मिमी होती है। उच्च हिमालय के उत्तर में सिन्धु घाटी के कश्मीर क्षेत्र में स्थित स्कार्दू गिलगित और लेह में सिर्फ़ 76 से 152 मिमी वर्षा होती है।
वनस्पति जीवन
हिमालय में पाई जाने वाली वनस्पति को ऊँचाई और बारिश के आधार पर मुख्यतः चार क्षेत्रों में बाँटा जा सकता है- उष्ण, उपोष्ण, शीतोष्ण और आम्लीय। ऊँचाई तथा जलवायु में स्थानीय भिन्नता तथा सूर्य के प्रकाश और हवा के कारण प्रत्येक क्षेत्र के वानस्पतिक जीवन में काफ़ी भिन्नता पाई जाती है। उष्णकटिबंधीय वर्षा प्रचुर वन, पूर्वी और मध्य हिमालय की नम तराइयों तक सीमित है। सदाबहार डिप्टेरोकार्प्स, इमारती लकड़ी और राल उत्पाद करने वाले वृक्ष आम हैं। इनकी विभिन्न प्रजातियाँ, विभिन्न मिट्टियों तथा भिन्न ढालों वाली पर्वतीय ढलानों पर उगती हैं। आयरनवुड (मेसुआ फ़ेरिया) 183 और 732 मीटर की ऊँचाइयों के बीच छिद्रदार मिट्टी के क्षेत्र में पाया जाता है।
तीखी ढलानों पर बांस उगते हैं, ओक और चेस्टनट 1,097 से 1,737 मीटर की ऊँचाइयों पर पश्चिम में हिमाचल प्रदेश से मध्य नेपाल तक बलुई पत्थरों को ढकने वाली अश्ममृदा में उगते हैं। तीखी ढलानों पर जलधाराओं के किनारे एल्डर के वृक्ष पाए जाते हैं। अधिक ऊँचाई पर इनका स्थान पर्वतीय से वन ले लेते हैं, जिनमें सामान्य सदाबहार प्रजाति पेंडानस फ़रकेटस है, जो एक प्रकार का स्क्रू पाइन (केतकी) है। पूर्वी हिमालय में अनुमानतः इन वृक्षों के अलावा लगभग 4,000 प्रजातियों के फूलदार पौधे पाए जाते हैं, जिनमें से 20 खजूर जाति के हैं। पश्चिम की ओर घटती हुई वर्षा और बढ़ती हुई ऊँचाई के साथ-साथ वर्षा वनों का स्थान उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन ले लेते हैं, जहाँ बहुमूल्य इमारती वृक्ष साल (शोरिया रोबस्टा) प्रमुख प्रजाति है, साल 914 मीटर (नम साल) से 1,372 मीटर (शुष्क साल) की ऊँचाइयों तक के ऊँचे पठारों में फलता-फूलता है। इसके और आगे पश्चिम में क्रमशः स्तेपी वन (विस्तृत मैदानों में स्थित वन) उपोष्ण कटिबंधीय काँटेदार स्तेपी और उपोष्ण कटिबंधीय उपमरुस्थलीय वनस्पति पाई जाती है। शीतोष्ण वन लगभग 1,372 से 3,353 मीटर की ऊँचाइयों के बीच फैले हुए हैं और इनमें शंकुधारी तथा चौड़ी पत्तियों वाले शीतोष्ण कटिबंधीय वृक्ष पाए जाते हैं। ओक तथा शंकुधारी वृक्षों के सदाबहार जंगलों की सुदूर पश्चिमी पर्वतीय सीमा पाकिस्तान में रावलपिंडी के लगभग 48 किलोमीटर पश्चिमोत्तर में मढ़ी के ऊपर के पहाड़ों पर स्थित है। ये वन निम्न हिमालय की विशिष्टता हैं, जो भारत में कश्मीर के पीर पंजाल की बाहरी ढलानों पर स्पष्ट दिखते हैं।
- चीड़ पाइन
823 से 1,646 मीटर की ऊँचाई तक चीड़ पाइन (पाइनस रॉक्सबर्घी) प्रमुख प्रजाति है। अंदरूनी घाटियों में यह प्रजाति 1,920 मीटर की ऊँचाई तक भी पाई जा सकती है।
- देवदार
देवदार, जो काफ़ी महत्त्वपूर्ण स्थानीय प्रजाति है, मुख्यतः पर्वतश्रेणी के पश्चिमी हिस्से में पाई जाती है। यह प्रजाति 1,920 से 2,743 मीटर की ऊँचाई के बीच उगती है तथा सतलुज व गंगा नदियों की ऊपरी घाटियों में और अधिक ऊँचाई पर भी उग सकती है। अन्य शंकुधारी वृक्षों में ब्लू पाइन व स्प्रूस के वृक्ष लगभग 2,225 और 3,048 मीटर के बीच पाए जाते हैं।
आल्पीय क्षेत्र 3,200 और 3,566 मीटर की ऊँचाइयों के बीच वृक्ष रेखा से ऊपर का क्षेत्र है और पश्चिमी हिमालय में लगभग 4,176 मीटर तथा पूर्वी हिमालय में 4,450 मीटर की ऊँचाई तक फैला है। इस क्षेत्र में सभी प्रकार की नम आल्पीय वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। जूनिपर कई क्षेत्रों में होता है, विशेषकर धूपदार, तीखी और चट्टानी ढलानों तथा शुष्क क्षेत्रों में इसका आधिक्य है। नंगा पर्वत पर यह 3,886 मीटर की ऊँचाई पर भी पाया जाता है। रोडोडेंड्रोन हर जगह होता है, लेकिन पूर्वी हिमालय के नम हिस्सों में इसकी बहुतायत है, जहाँ यह वृक्षों से लेकर छोटी झाड़ियों तक हर आकार में उगता है। निचले क्षेत्रों में जहाँ नमी की अधिकता है, वहाँ काई और शैवाक (लाइकेन) उगते हैं, अधिक ऊँचाई, विशेषकर नंगा पर्वत और माउंट एवरेस्ट पर फूलदार पौधे भी पाए जाते हैं।
प्राणी जीवन
पूर्वी हिमालय में पशु जीवन का उद्भव मुख्यतः दक्षिणी चीन और भारतीय-चीनी क्षेत्र से हुआ है। इसमें प्राथमिक रूप से उष्णकटिबंधीय वनों में पाया जाने वाला पशु जीवन है और अनुपूरक रूप से ऊँचे क्षेत्रों में व्याप्त उपोष्ण, पर्वतीय और शीतोष्ण परिस्थितियों तथा शुष्क पश्चिमी क्षेत्रों के लिए अनुकूलित हुए जंतु हैं। लेकिन पश्चिमी हिमालय में पशु जीवन भूमध्य सागरीय, इथियोपियाई और तुर्कमेनियाई क्षेत्रों से ज़्यादा निकटता प्रदर्शित करता है। अतीत में इस क्षेत्र में जिराफ़ और दरियाई घोड़े जैसे अफ़्रीकी जानवरों की मौजूदगी का पता बाह्य हिमालय के शिवालिक निक्षेप में पाए जाने वाले जीवाश्मों से लगाया जा सकता है। वृक्ष रेखा से ऊपर की ऊँचाई पर पाया जाने वाला पशु जीवन लगभग पूर्णतः स्थानीय प्रजाति का है, जो ठंड के अनुकूलित हो चुके हैं और इनका विकास हिमालय की ऊँचाई बढ़ने के बाद स्तेपी के वन्य जीवन से हुआ है।
लोग
भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाने वाले चार प्रमुख जातीय समूहों, भारतीय-यूरोपीय, तिब्बती-बर्मी, ऑस्ट्रो-एशियाई और द्रविड़ में से पहले दो समूह हिमालय क्षेत्र में काफ़ी संख्या में पाए जाते हैं, हालांकि विभिन्न क्षेत्रों में ये अलग-अलग अनुपात में घुले-मिले हुए हैं। इनका वितरण पश्चिम से यूरोपीय समूहों, दक्षिण से भारतीय लोगों और पूर्व व उत्तर से एशियाई जनजातियों की घुसपैठ के लंबे इतिहास का परिणाम है। हिमालय के मध्यवर्ती तिहाई हिस्से नेपाल में ये समूह अंतमिश्रित हैं। लघु हिमालय में घुसपैठ से दक्षिण एशिया के नदी मैदानों के रास्तों में और उनसे होते हुए प्रवास का मार्ग प्रशस्त हुआ। आमतौर पर यह कहा जा सकता है कि उच्च हिमालय तथा टेथिस हिमालय में तिब्बती व अन्य तिब्बती-बर्मी लोगों का निवास है तथा निम्न हिमालय में लंबे, गोरे भारोपीय लोगों का वास है।
अर्थव्यवस्था
- संसाधन
हिमालय की आर्थिक परिस्थितियाँ इस विभिन्न परिस्थिति वाले विस्तृत और विषम क्षेत्र के सीमित संसाधनों के अनुरूप हैं। यहाँ की मुख्य गतिविधि पशुपालन है, लेकिन वनोपज का दोहन और व्यापार भी महत्त्वपूर्ण है। हिमालय में प्रचुर आर्थिक संसाधन हैं। इनमें उपजाऊ कृषि योग्य भूमि, विस्तृत घास के मैदान व वन, खनन योग्य खनिज भंडार और आसानी से दोहन योग्य जलविद्युत शक्ति शामिल हैं। पश्चिमी हिमालय में सबसे उत्पादक कृषि योग्य भूमि कश्मीर घाटी, कांगड़ा सतलुज नदी के बेसिन और उत्तराखंड में गंगा व यमुना नदियों के कगारी क्षेत्र के सीढ़ीदार खेतों में है। इन क्षेत्रों में चावल, मक्का, गेहूँ, ज्वार-बाजरा का उत्पादन होता है। मध्य हिमालय में नेपाल में दो-तिहाई कृषि योग्य भूमि तराई और इससे लगे मैदानी क्षेत्र में है। इस भूमि में देश के कुल चावल उत्पादन का अधिकांश हिस्सा पैदा होता है। इस क्षेत्र में बड़ी मात्रा में मक्का, गेहूँ, आलू और गन्ने की भी खेती की जाती है।
यातायात
हिमालय क्षेत्र में सड़क यातायात सुस्थापित है, जिससे उत्तर तथा दक्षिण, दोनों दिशाओं से हिमालय में पहुँचना सुगम है। नेपाल के तराई क्षेत्र में पूर्व-पश्चिम दिशा में एक राजमार्ग स्थित है। यह देश के कई जलग्रहण बेसिनों तक जाने वाले मार्गों को जोड़ता है। राजधानी काठमांडू लघु हिमालय राजमार्ग के ज़रिये पोखरा से जुड़ी हुई है, जबकि कोडारी दर्जे से गुज़रने वाला एक निचला हिमालयी राजमार्ग नेपाल को तिब्बत के ल्हासा से जोड़ता है। पश्चिमोत्तर में पाकिस्तान एक राजमार्ग से चीन से जुड़ा हुआ है। हिमाचल प्रदेश से गुज़रने वाले हिंदुस्तान-तिब्बत मार्ग में उल्लेखनीय सुधार हुआ है।
अध्ययन तथा पर्यवेक्षण
हिमालय की आरंभिक यात्राएँ व्यापारियों, चरवाहों और तीर्थयात्रियों द्वारा की गई थीं। तीर्थयात्रियों को विश्वास था कि यात्रा जितनी कष्टकर होगी, वे मोक्ष या निर्वाण के उतने ही क़रीब पहुँच पाएंगे, जबकि व्यापारियों और चरवाहों ने 5,486 से 5,791 मीटर तक की ऊँचाई पर स्थित दर्रों को सामान्य जीवन मार्ग मानकर पार किया, लेकिन अन्य सभी लोगों के लिए हिमालय एक दुर्गम और भयंकर अवरोध था।
- मानचित्र
हिमालय का कुछ हद तक सटीक मानचित्र मुग़ल बादशाह अकबर के दरबार के स्पेनी दूत एंतोनियों मौनसेरेट ने 1590 में तैयार किया था। फ़्रांसीसी भू-वैज्ञानिक ज्यां बैपतिस्त बॉरगुईग्नोन डी ऑरविले ने व्यवस्थित पर्यवेक्षण के आधार पर तिब्बत और हिमालय पर्वतश्रेणी का पहला मानचित्र तैयार किया। 19वीं सदी के मध्य में सर्वे ऑफ़ इंडिया ने हिमालय की चोटियों की ऊँचाई के सही आकलन के लिए व्यवस्थित कार्यक्रम का आयोजन किया। 1849 से 1855 के बीच नेपाल और उत्तराखंड की चोटियों का सर्वेक्षण कर उनका मानचित्र बनाया गया। नंगा पर्वत और उत्तर में कराकोरम श्रेणी की चोटियों को 1855 से 1859 के बीच सर्वेक्षण किया गया। सर्वेक्षकों ने इन खोई गई असंख्य चोटियों को अलग-अलग नाम नहीं दिया, बल्कि अंकों और रोमन संख्याओं से उनकी पहचान की। इस प्रकार, माउंट एवरेस्ट को सर्वप्रथम सिर्फ़ एच नाम दिया गया। 1849 स 1850 में इसे शिखर x.v कर दिया गया। 1865 में शिखर x.v. का नाम भारत के महासर्वेक्षक रहे सर जार्ज एवरेस्ट (1830 से 1843 तक) के नाम पर रखा गया। 1852 में गणना का इस हद तक विकास नहीं हुआ था कि शिखर x.v. दुनिया के अन्य किसी भी शिखर से ऊँचा है, इसकी जानकारी हो सके। 1862 तक, 5,486 मीटर से अधिक ऊँचाई वाले 40 शिखरों पर सर्वेक्षण कार्य के लिए आरोहण हो चुका था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |पृष्ठ संख्या: 1021 |
- ↑ अर्थवेद 19,39,8
- ↑ वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड 41, 18
- ↑ बालकाण्ड 43,4
- ↑ किष्किन्धा काण्ड 43,12
- ↑ वनपर्व 158, 18
- ↑ विष्णुपुराण 2, 3, 10
- ↑ कुमारसंभव 1,1
- ↑ 'प्रालेयाद्रेरुपतटमतिक्रम्य तास्तान् विशेषान्' पूर्वमेघ 59
- ↑ पूर्वमेघ, 54
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