अजीत मर्चेंट
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पूरा नाम | अजीत मर्चेंट |
जन्म | 1922 |
जन्म भूमि | मुंबई (महाराष्ट्र) |
कर्म भूमि | मुंबई और गुजरात |
कर्म-क्षेत्र | संगीत निर्देशन तथा फ़िल्म निर्माण |
मुख्य फ़िल्में | बिरादरी, दवा डांडी, बहूरूपी, रिफ्यूजी, राजकुमारी, इंद्रलीला, चंडी पूजा, सपेरा, चैलेंज, लेडी किलर आदि। |
शिक्षा | स्नातक |
विद्यालय | 'सेंट जेवियर्स कॉलेज', मुंबई |
पुरस्कार-उपाधि | 'श्रेष्ठ संगीत पुरस्कार' (गुजरात) |
विशेष योगदान | जगजीत सिंह को फ़िल्मों में गाने का पहला मौका अजीत मर्चेंट ने ही दिया था। |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | अजीत जी ने फ़िल्म निर्माण में भी हाथ आजमाया था। उन्होंने मछुआरों के जीवन पर आधारित गुजराती फ़िल्म 'दवा डांडी' बनाई थी। |
अजीत मर्चेंट (अंग्रेज़ी: Ajit Marchant; जन्म- 1922, मुंबई) हिन्दी फ़िल्म जगत् में एक ऐसे संगीतकार के रूप में जाने जाते हैं, जिनका नाम तो अधिक प्रसिद्ध नहीं हुआ, किंतु उनके संगीत निर्देशन में तैयार गीतों ने भारतीय जनता का भरपूर मनोरंजन किया। उन्होंने हिन्दी की कई फ़िल्मों में यादगार संगीत दिया और कई जानी-मानी हस्तियों से गाने गवाए। किंतु हिन्दी फ़िल्मों की अपेक्षा गुजराती फ़िल्मों में उन्हें ज़्यादा मान-सम्मान मिला। बहुत कम बोलने वाले इस संगीतकार ने बेहद खामोशी से इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। अजीत मर्चेंट के संगीतबद्ध गीतों की यदि चर्चा की जाए तो शायद नई पीढ़ी उनका नाम तक नहीं जानती। अजीत मर्चेंट इस मामले में दुर्भाग्यशाली रहे कि उन्हें कुछ गिनी-चुनी हिन्दी फ़िल्मों में ही अपनी प्रतिभा को दिखाने का मौका मिला। लेकिन इन गिनती की फ़िल्मों में ही अजित मर्चेंट ने मन्ना डे, श्मशाद बेगम, आशा भोंसले और गीतकार प्रदीप जैसे उच्च कोटि के गायकों से बेमिसाल गीत गवाए।
जन्म तथा शिक्षा
अजीत मर्चेंट का जन्म 1922 ई. में मुंबई में हुआ था। उनके पिता फौजदारी के वकील थे। पिता की संगीत में गहरी दिलचस्पी थी। उस्ताद संगीतकारों की महफिलों में वे अपने साथ बालक अजीत को भी ले जाते थे। उन्हीं महफिलों से अजित मर्चेंट के अंदर संगीत के संस्कारों ने जन्म लिया। आगे चल कर उन्होंने अमान अली ख़ाँ, शिवकुमार शुक्ल और एमी मार्करस से संगीत की विधिवत शिक्षा ली। उन्होंने मुंबई के 'सेंट जेवियर्स कॉलेज' से स्नातक की उपाधि भी ली थी।[1]
व्यवसाय
पिता के निधन के बाद उन्होंने कपड़े का व्यवसाय किया, लेकिन जितना कमाया उतना सब खो भी दिया। बाद में उन्होंने संगीत को अपना कैरियर बनाने के मकसद से गंभीर प्रयास शुरू कर दिए। उन दिनों 'सागर मूवी टोन' अमृतलाल नागर की देखरेख में फ़िल्म 'गुंजन' की योजना बना रहा था। इसमें संगीत देने की ज़िम्मेदारी अशोक घोष को दी गई थी। अजीत मर्चेंट तब तक उनके सहायक बन चुके थे। घोष ने उनसे कहा कि गाने की धुन तुम तैयार करोगे और आर्केस्ट्राइजेशन मैं करूँगा। अशोक घोष ने अजीत को फ़िल्म संगीत की बारीकियों के बारे में समझाया और इसके लिए अजीत जीवन भर उनका नाम आदर के साथ लेते रहे।
संगीतकार तथा फ़िल्म निर्माण
एक संगीतकार के रूप में और स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशन के लिए अजीत मर्चेंट को पहली फ़िल्म 'अमर पिक्चर्स' की गुजराती फ़िल्म 'करियावर' मिली थी। इसके बाद हास्य अभिनेता गोप ने अपनी फ़िल्म 'बिरादरी' में अजीत मर्चेंट को संगीत निर्देशन का भार सौंपा। लेकिन शायद इस समय उनका भाग्य खराब था, और यह फ़िल्म पूरी नहीं हो सकी। गुजराती फ़िल्मों के निर्माता हरीशराव कदम के यहाँ स्थायी संगीतकार के रूप में उन्होंने दस गुजराती फ़िल्मों में संगीत दिया। इसके बाद अजीत ने फ़िल्म निर्माण में भी हाथ आजमाया। मछुआरों के जीवन पर आधारित गुजराती फ़िल्म 'दवा डांडी' बनाई। पूरी फ़िल्म आउटडोर फ़िल्माई गई थी। सारी यूनिट को हवाई जहाज़ से यात्रा कराई गई। लेकिन इस फ़िल्म पर इतना खर्च हो चुका था कि फ़िल्म ठीक-ठाक चलने के बावजूद अजीत मर्चेंट सड़क पर आ गए। फिर भी इसी फ़िल्म ने उन्हें संकट से उबारा। इसका एक गीत 'तारी आँख नू अफीम' इतना लोकप्रिय हुआ कि उसकी रॉयल्टी के सहारे उन्होंने पाँच साल व्यतीत किए।[1]
नई प्रतिभाओं को अवसर
अजीत मर्चेंट की संगीत में इतनी दिलचस्पी के बावजूद भी अभिनय की दुनिया उन्हें बेहद प्रभावित करती थी। इसलिए वे नाटकों में भी हिस्सा लेते थे। उन्हें एक दिन अचानक रेडियो के लिए एक गीत की धुन बनाने का मौका मिला, जो बहुत पसंद की गई और अजीत नियमित रूप से आकाशवाणी मुंबई से जुड़ गए। रेडियो में काम करते हुए उन्होंने नई आवाजों को मौका दिया। गायिका बेगम के पिता जब उन्हें लेकर मुंबई आकाशवाणी पहुँचे तो अजित ने आवाज सुनते ही उनसे रेडियो के लिए दो गजलें गंवाईं। इन्हें सुनकर ही फ़िल्मकार रफ़ीक ग़ज़नवी ने मुबारक बेगम को फ़िल्मों में गाने का निमंत्रण दिया। आकाशवाणी जालंधर पर गजल सम्राट जगजीत सिंह का गाया एक 'सबद' सुनकर अजीत मर्चेंट ने उन्हें मुंबई आने का निमंत्रण दिया और उनसे मुंबई आकाशवाणी के लिए दो गीत गवाए। अजित मर्चेंट ने 1957 से 1967 तक आकाशवाणी मुंबई में काम किया। वहाँ की लालफीताशाही ने उन्हें इतना परेशान कर दिया कि अच्छी ख़ासी नौकरी को उन्होंने त्याग दिया। जगजीत सिंह को फ़िल्मों में गाने का पहला मौका भी अजीत मर्चेंट ने ही दिया। गुजराती फ़िल्म 'बहूरूपी' में जगजीत ने एक भजन गाया 'लागी राम भजन नी लगनी।' बाद में फ़िल्मों में संगीत देने के दौरान अजीत मर्चेंट ने आशा भोंसले को भी गुजराती में गीत गाने का पहला अवसर प्रदान किया।
स्वतंत्र संगीत निर्देशन
सन 1948 की फ़िल्म 'रिफ्यूजी' एक स्वतंत्र संगीत निर्देशक के रूप में अजीत मर्चेंट की पहली हिन्दी फ़िल्म थी। इसमें हमीद मजनू के स्वर में गाया गया गीत 'सारे जहाँ से टकराना पर अपने घर को ना मिटाना' खूब पसंद किया गया। आज़ादी के बाद फ़िल्मी दुनिया की व्यावसायिकता के कटु सत्य से अजीत मर्चेंट पहली फ़िल्म के बाद से ही परिचित हो गए थे। पहली फ़िल्म के बाद काफ़ी समय तक उन्हें सिनेमा में कोई काम नहीं मिला। 1955 में एक बार फिर अजीत को अपने हुनर के प्रदर्शन का मौका 'राजकुमारी' में मिला। इसमें आशा भोंसले और मुकेश का गाया एक गीत 'सुंदर मौसम समय सुहाना ओ मन मेरे पिया कहाँ' रेडियो सीलोन से पुराने गीत कार्यक्रम में सत्तर के दशक तक सुनाई देता था। 1956 में एक और फ़िल्म 'इंद्रलीला' में अजीत मर्चेंट ने संगीत दिया। लेकिन अगले साल 1957 में आई फ़िल्म 'चंडी पूजा' संगीत के लिहाज से उल्लेखनीय साबित हुई। श्मशाद बेगम की आवाज़ में गाई गई एक लोरी 'एक धरती का राजकुमार, देखो जो हवा पे होके सवार' शायद भारतीय सिनेमा के इतिहास में सर्वश्रेष्ठ लोरियों में से एक था। इस फ़िल्म में गीत लिखे थे कवि प्रदीप ने। लेकिन यह भी आश्चर्यजनक था कि अजीत मर्चेंट ने इसके लिए प्रदीप की आवाज़ का भी इस्तेमाल किया और नतीजे में संगीत प्रेमियों को दो शानदार गाने सुनने को मिले।[1]
नाटक तथा अभिनय
कवि प्रदीप के गाए गीत 'कोई लाख करे चतुराई' और 'सुनो सुनाऊँ तुम्हें एक कहानी' लोगों के बीच बहुत बेहद लोकप्रिय हुए। अजीत मर्चेंट, प्रदीप की आवाज़ की विशेषताओं को और उजागर करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने 1958 में आई फ़िल्म 'रामभक्त विभीषण' में प्रदीप से 'ये कथा भक्त भगवान की' गवाया। बरसों तक यह गीत जनमानस में पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ सुना जाता रहा। अजीत मर्चेंट को हर साल मात्र एक फ़िल्म में ही संगीत देने का मौका मिल रहा था। बड़े या अधिक अवसरों के लिए जी हुज़ूरी करना अजीत मर्चेंट के स्वभाव में नहीं था। अजीत मर्चेंट को फ़िल्म से अधिक नाटकों की दुनिया आकर्षित करती थी। यही वजह थी कि उन्होंने हिन्दी, गुजराती और मराठी के क़रीब ढाई सौ नाटकों में संगीत दिया। कई नाटकों में अभिनय भी किया, और एक नाटक के लिए, जिसमें वे हीरो बने थे। 'मुंबई ड्रामा फेस्टिवल' में उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार भी मिला था।
पसंदीदी गायिका
'सुमन कल्याणपुर' अजीत मर्चेंट की पसंदीदा गायिका थीं, जिनकी आवाज़ में उन्हें अजीब-सी पवित्रता का आभास होता था। 1961 में फ़िल्म 'सपेरा' में उन्होंने सुमन और मन्ना डे की आवाज़ का बेहतरीन प्रयोग किया। इस फ़िल्म का गीत 'रात ने गेसू बिखराए' अपने समय का बेहद लोकप्रिय गीत था। 'सपेरा' के निर्देशक थे, बीजे पटेल। वे फ़िल्म के संगीत से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अजीत मर्चेंट को अपनी अगली फ़िल्मों 'चैलेंज' (1964) और 'लेडी किलर'(1968) में भी मौका दिया।[1]
मुख्य फ़िल्में
अजीत मर्चेंट की कुछ मुख्य फ़िल्में इस प्रकार हैं-
- बिरादरी
- दवा डांडी
- बहूरूपी
- रिफ्यूजी - 1948
- राजकुमारी - 1955
- इंद्रलीला - 1956
- चंडी पूजा - 1957
- सपेरा - 1961
- चैलेंज - 1964
- लेडी किलर - 1968
पुरस्कार
हिन्दी फ़िल्म की दुनिया ने अजीत मर्चेंट को भले ज़्यादा अहमियत न दी हो, लेकिन गुजराती सिनेमा ने उन्हें हमेशा इज्जत दी। गुजराती फ़िल्म 'धरती ना छोरू' के लिए उन्हें 1970-1971 का गुजरात सरकार का 'श्रेष्ठ संगीत का पुरस्कार' भी मिला था। उन्होंने गुजराती फ़िल्मों के लिए आशा भोंसले के अलावा मुकेश से भी गीत गवाए थे।
पाश्चात्य संगीत का प्रयोग
'लेडी किलर' अजीत मर्चेंट की अंतिम हिन्दी फ़िल्म थी। इस फ़िल्म के संगीत की ख़ास बात यह थी, इसमें पाश्चात्य संगीत का असरदार प्रयोग किया गया था। अजीत मर्चेंट ने पाश्चात्य संगीत की भी शिक्षा ली थी, लेकिन हिन्दी फ़िल्मों में उसके इस्तेमाल का अवसर नहीं मिल पाया, और जब मौका मिला तो उन्होंने मुकेश से 'कातिल है तेरी अदाएँ, कच्चा पापड़ पक्का पापड़', मन्ना डे और कृष्णा से 'चाचा ने चाची को चाँदी के चम्मच से चटनी चटाई' जैसे गाने गवाए। इस कामयाबी के बाद भी अजीत मर्चेंट को फिर किसी हिन्दी फ़िल्म में मौका नहीं मिल पाया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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