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*[[तुलसीदास]] तथा [[केशव]] आदि कवियों ने क्रमशः 'चोर चतुर वटपारनट, प्रभुप्रिय भंडुआ भंड' और 'कहूँ भाँड भाँडयों करैं मान पावै' पंक्तियां लिख कर 17वीं शती में इनकी स्थिति की सूचना दी है। कालान्तर में यह मनोविनोद के पर्याय बन गए। रईसों, सामंतो की महफिलों में इनको उचित स्थान मिला। रियासतों के पतन के साथ इनका भी ह्रास होता चला गया।
*[[तुलसीदास]] तथा [[केशव]] आदि कवियों ने क्रमशः 'चोर चतुर वटपारनट, प्रभुप्रिय भंडुआ भंड' और 'कहूँ भाँड भाँडयों करैं मान पावै' पंक्तियां लिख कर 17वीं शती में इनकी स्थिति की सूचना दी है। कालान्तर में यह मनोविनोद के पर्याय बन गए। रईसों, सामंतो की महफिलों में इनको उचित स्थान मिला। रियासतों के पतन के साथ इनका भी ह्रास होता चला गया।
*भंड़ैती का मंच खुला [[मैदान]], चबूतरा या सतही स्थान होता है। इसके लिए किसी राज्य की आवश्यकता नहीं होती।
*भंड़ैती का मंच खुला [[मैदान]], चबूतरा या सतही स्थान होता है। इसके लिए किसी राज्य की आवश्यकता नहीं होती।
*इस विद्या के पात्र कोई शृंगार नहीं करते, किन्तु अपनी विशिष्टता, वाक्पटुता, हाजिर जवाबी और चुटीले हास्य के लिए प्रसिद्धि रखते हैं। यह अपनी एक-एक गतिविधि से हास्य उपस्थित करते हैं। इनकी लयकारी, [[नृत्य]], अभिनय आदि में कुछ न कुछ ऐसा विशेष दीखता है, जो हास्य की अनुभूति करा देता है। आंगिक और कायिक अभिनय में इनकी समानता मुश्किल है।
*इस विद्या के पात्र कोई श्रृंगार नहीं करते, किन्तु अपनी विशिष्टता, वाक्पटुता, हाजिर जवाबी और चुटीले हास्य के लिए प्रसिद्धि रखते हैं। यह अपनी एक-एक गतिविधि से हास्य उपस्थित करते हैं। इनकी लयकारी, [[नृत्य]], अभिनय आदि में कुछ न कुछ ऐसा विशेष दीखता है, जो हास्य की अनुभूति करा देता है। आंगिक और कायिक अभिनय में इनकी समानता मुश्किल है।
*भंडैती नाट्यों का विषय किसी विषमता, विसंगति, भेदभाव के ख़िलाफ़ सूक्ष्म, किन्तु तीखे व्यंग्य होते हैं।
*भंडैती नाट्यों का विषय किसी विषमता, विसंगति, भेदभाव के ख़िलाफ़ सूक्ष्म, किन्तु तीखे व्यंग्य होते हैं।
*वर्तमान समय में इनका प्रचलन काफ़ी कम हो गया है।
*वर्तमान समय में इनका प्रचलन काफ़ी कम हो गया है।

08:51, 17 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

भंडैती उत्तर प्रदेश की एक लोक प्रचलित नाट्य विधा है। यह लोकधर्मी नाट्य परम्परा 'नाट्यशास्त्र' में वर्णित 'भाण' उपरूपक के रूप में उल्लखित है। यह बुन्देलखण्ड तथा अवध अंचल के साथ-साथ कन्नौज आदि अंचलों में भी प्रचलित है।[1]

  • 'भाण' परम्परा के स्पष्ट संकेत सन 1060 ई. से ही मिल जाते हैं।
  • बुन्देला नरेश कीर्तिवर्मन (1060-1100 ई.) तथा पर्मिददेव (1165-1203 ई.) तथा दिल्ली सल्तनत के संरक्षण में भाणों का महत्त्व काफ़ी बढ़ गया था।
  • तुलसीदास तथा केशव आदि कवियों ने क्रमशः 'चोर चतुर वटपारनट, प्रभुप्रिय भंडुआ भंड' और 'कहूँ भाँड भाँडयों करैं मान पावै' पंक्तियां लिख कर 17वीं शती में इनकी स्थिति की सूचना दी है। कालान्तर में यह मनोविनोद के पर्याय बन गए। रईसों, सामंतो की महफिलों में इनको उचित स्थान मिला। रियासतों के पतन के साथ इनका भी ह्रास होता चला गया।
  • भंड़ैती का मंच खुला मैदान, चबूतरा या सतही स्थान होता है। इसके लिए किसी राज्य की आवश्यकता नहीं होती।
  • इस विद्या के पात्र कोई श्रृंगार नहीं करते, किन्तु अपनी विशिष्टता, वाक्पटुता, हाजिर जवाबी और चुटीले हास्य के लिए प्रसिद्धि रखते हैं। यह अपनी एक-एक गतिविधि से हास्य उपस्थित करते हैं। इनकी लयकारी, नृत्य, अभिनय आदि में कुछ न कुछ ऐसा विशेष दीखता है, जो हास्य की अनुभूति करा देता है। आंगिक और कायिक अभिनय में इनकी समानता मुश्किल है।
  • भंडैती नाट्यों का विषय किसी विषमता, विसंगति, भेदभाव के ख़िलाफ़ सूक्ष्म, किन्तु तीखे व्यंग्य होते हैं।
  • वर्तमान समय में इनका प्रचलन काफ़ी कम हो गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लोकनाट्य (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 03 मई, 2014।

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