"समाज का ऑपरेटिंग सिस्टम -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर
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"देखो मेरे सर पर चार करोड़ का इनाम है। मेरी बात पार्टनरशिप में पक्की हो गई है, आधा इनाम मेरा और आधा उसका..." | "देखो मेरे सर पर चार करोड़ का इनाम है। मेरी बात पार्टनरशिप में पक्की हो गई है, आधा इनाम मेरा और आधा उसका..." | ||
"किसका?" | "किसका?" | ||
"अरे जो मुझे पकड़वाएगा आधा उसका... मैं कोई छोटा-मोटा आतंकवादी नहीं हूँ... बहुत नाम है मेरा। अब तो मेरी उमर भी इतनी हो गई है कि जब तक अदालत मुझे | "अरे जो मुझे पकड़वाएगा आधा उसका... मैं कोई छोटा-मोटा आतंकवादी नहीं हूँ... बहुत नाम है मेरा। अब तो मेरी उमर भी इतनी हो गई है कि जब तक अदालत मुझे फाँसी देगी तब तक मैं वैसे ही मर लूँगा... और इलाज तो बेटाऽऽऽ! मेरा होना ही होना है। सीधे अस्पताल जाऊँगा फिर जिस डॉक्टर को भी मैं धमकी दूँगा, वो मेरे मन माफ़िक ही इलाज करेगा।... इससे बढ़िया स्कीम कौन सी होगी? जब तक इस देश में भ्रष्टाचार है तब तक हमारा राज है और अपना बेड़ा पार है" | ||
अपने 'प्लान' के | अपने 'प्लान' के मुताबिक़़ बंडा पकड़ा गया। आधा इनाम उसके घरवालों को पहुँच गया। उसकी किडनी बदलवाई गई। दिल की बीमारी की वजह से पेसमेकर लगवाया गया। केस चल रहा है। लाखों इलाज में गए और करोड़ों उसे पालने में जा रहे हैं...फाँसी की सज़ा भी होगी लेकिन बंडा बुड्ढा है, फाँसी से पहले ही मर जाएगा, ये सब जानते हैं लेकिन कोई कुछ कहता नहीं, कोई कुछ करता नहीं...।</poem> | ||
{{बाँयाबक्सा|पाठ=जब भ्रष्टाचार होना ही है और रोका नहीं जा सकता तो फिर सरकार को इससे निपटने के लिए विचित्र उपाय ही करने चाहिए।|विचारक=}} | {{बाँयाबक्सा|पाठ=जब भ्रष्टाचार होना ही है और रोका नहीं जा सकता तो फिर सरकार को इससे निपटने के लिए विचित्र उपाय ही करने चाहिए।|विचारक=}} | ||
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एक ऐसे देश में, जहाँ की कार्यपालिका और न्यायपालिका में भ्रष्टाचार एक अपरिहार्य तत्त्व बन चुका हो, मृत्युदण्ड पाने योग्य अपराध करने वाला अपराधी भी अन्य साधारण स्तर के अपराध करने वाले अपराधियों की तरह ही स्वयं को समझ सकता है... यदि वह बहुत अधिक पैसे वाला है तो। | एक ऐसे देश में, जहाँ की कार्यपालिका और न्यायपालिका में भ्रष्टाचार एक अपरिहार्य तत्त्व बन चुका हो, मृत्युदण्ड पाने योग्य अपराध करने वाला अपराधी भी अन्य साधारण स्तर के अपराध करने वाले अपराधियों की तरह ही स्वयं को समझ सकता है... यदि वह बहुत अधिक पैसे वाला है तो। | ||
कभी हिसाब-किताब लगाएँ और फाँसी लगने वालों के आँकड़े देखें तो पता चलेगा कि इस सूची में कोई भी अरबपति नहीं है। ये कैसा संयोग है कि कोई भी अमीर व्यक्ति अपराध नहीं करता? यदि यह माना भी जाय कि सीधे-सीधे अपराध में शामिल होने की संभावना किसी बड़े पूँजीपति की नहीं बनती तो भी षड़यंत्रकारी की सज़ा भी तो वही है जो अपराध कारित करने वाले की है। | कभी हिसाब-किताब लगाएँ और फाँसी लगने वालों के आँकड़े देखें तो पता चलेगा कि इस सूची में कोई भी अरबपति नहीं है। ये कैसा संयोग है कि कोई भी अमीर व्यक्ति अपराध नहीं करता? यदि यह माना भी जाय कि सीधे-सीधे अपराध में शामिल होने की संभावना किसी बड़े पूँजीपति की नहीं बनती तो भी षड़यंत्रकारी की सज़ा भी तो वही है जो अपराध कारित करने वाले की है। | ||
वैसे भी फाँसी तो ग़रीब का जन्मसिद्ध अधिकार है। संभवत: यही एक क्षेत्र ऐसा है जहाँ जाति के आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर आरक्षण है। फाँसी का तख़्ता बनाने के साथ ही उसे जल्लाद के साथ ये शपथ दिला दी जाती है कि हम भगवान को हाज़िर नाज़िर जानकर ये शपथ लेते हैं कि अमीर आदमी को कभी भी | वैसे भी फाँसी तो ग़रीब का जन्मसिद्ध अधिकार है। संभवत: यही एक क्षेत्र ऐसा है जहाँ जाति के आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर आरक्षण है। फाँसी का तख़्ता बनाने के साथ ही उसे जल्लाद के साथ ये शपथ दिला दी जाती है कि हम भगवान को हाज़िर नाज़िर जानकर ये शपथ लेते हैं कि अमीर आदमी को कभी भी फाँसी नहीं देंगे। | ||
पिछले दिनों एक फ़िल्म आयी 'जॉली एल.एल.बी.'। इस फ़िल्म में जज (सौरभ शुक्ला) के एक संवाद पर बहुत तालियां बजती हैं। जो कुछ इस तरह है- "क़ानून अंधा होता है... जज अंधा नहीं होता।" इसके बाद जज बहुत मजबूरी के साथ बताता है कि ये जानते हुए भी सच क्या है, गवाह-सबूत के अभाव में वही फ़ैसला सुनाना पड़ता है, जिससे कि जज स्वयं संतुष्ट नहीं होता। इसका अर्थ तो ये है कि जज के पास भी गवाह-सबूत इकट्ठा करवाने के लिए कोई स्वतंत्र तंत्र होना चाहिए। जजों की मजबूरियों को मद्दे नज़र रखते हुए प्रत्येक अदालत में तीन जजों की बैंच होनी चाहिए (चाहे वह सत्र न्यायालय ही क्यों न हो)। एक बात और है जिसे पुनरीक्षण की आवश्यकता है- सत्र न्यायालय के फ़ैसले उच्च न्यायालय में और उच्च न्यायालय के फै़सले उच्चतम न्यायालय में बदलने के बहुत से उदाहरण भी सामने आते हैं।</poem> | पिछले दिनों एक फ़िल्म आयी 'जॉली एल.एल.बी.'। इस फ़िल्म में जज (सौरभ शुक्ला) के एक संवाद पर बहुत तालियां बजती हैं। जो कुछ इस तरह है- "क़ानून अंधा होता है... जज अंधा नहीं होता।" इसके बाद जज बहुत मजबूरी के साथ बताता है कि ये जानते हुए भी सच क्या है, गवाह-सबूत के अभाव में वही फ़ैसला सुनाना पड़ता है, जिससे कि जज स्वयं संतुष्ट नहीं होता। इसका अर्थ तो ये है कि जज के पास भी गवाह-सबूत इकट्ठा करवाने के लिए कोई स्वतंत्र तंत्र होना चाहिए। जजों की मजबूरियों को मद्दे नज़र रखते हुए प्रत्येक अदालत में तीन जजों की बैंच होनी चाहिए (चाहे वह सत्र न्यायालय ही क्यों न हो)। एक बात और है जिसे पुनरीक्षण की आवश्यकता है- सत्र न्यायालय के फ़ैसले उच्च न्यायालय में और उच्च न्यायालय के फै़सले उच्चतम न्यायालय में बदलने के बहुत से उदाहरण भी सामने आते हैं।</poem> | ||
{{दाँयाबक्सा|पाठ=कभी हिसाब-किताब लगाएँ और फाँसी लगने वालों के आँकड़े देखें तो पता चलेगा कि इस सूची में कोई भी अरबपति नहीं है। ये कैसा संयोग है कि कोई भी अमीर व्यक्ति अपराध नहीं करता? यदि यह माना भी जाय कि सीधे-सीधे अपराध में शामिल होने की संभावना किसी बड़े पूँजीपति की नहीं बनती तो भी षड़यंत्रकारी की सज़ा भी तो वही है जो अपराध कारित करने वाले की है।|विचारक=}} | {{दाँयाबक्सा|पाठ=कभी हिसाब-किताब लगाएँ और फाँसी लगने वालों के आँकड़े देखें तो पता चलेगा कि इस सूची में कोई भी अरबपति नहीं है। ये कैसा संयोग है कि कोई भी अमीर व्यक्ति अपराध नहीं करता? यदि यह माना भी जाय कि सीधे-सीधे अपराध में शामिल होने की संभावना किसी बड़े पूँजीपति की नहीं बनती तो भी षड़यंत्रकारी की सज़ा भी तो वही है जो अपराध कारित करने वाले की है।|विचारक=}} | ||
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ज़रा सोचिए किसी मृत्यु कारित करने वाले संगेय अपराध के अपराधी को दिया जाने वाला दण्ड बार-बार बीसियों वर्षों तक परिभाषित किया जाता रहता है। कभी उसे | ज़रा सोचिए किसी मृत्यु कारित करने वाले संगेय अपराध के अपराधी को दिया जाने वाला दण्ड बार-बार बीसियों वर्षों तक परिभाषित किया जाता रहता है। कभी उसे फाँसी सुनाई जाती है तो कभी आजीवन कारावास। कभी वह ज़मानत पर जेल से बाहर रहता है तो कभी जेल के अंदर...। किसी भी निचली अदालत के फ़ैसले का पुनर्मूल्यांकन ऊँची अदालतों द्वारा बिना अपील किए ही हो तो बार-बार फ़ैसला बदले जाने की संभावना नहीं होगी। | ||
अदालतों में लाखों केस लंबित हैं। क्या कारण है? एक कारण तो मुख्य है ही कि न्यायपालिका के पास अदालत, जज, अधिकारी और कर्मचारियों की कमी है। यह कमी जायदाद की ख़रीद-बिक्री के पंजीयन कार्यालय में नहीं है। ना ही रजिस्ट्री ऑफ़िस में लोगों को अधिक इंतज़ार करना पड़ता है। देर रात तक ये कार्यालय खुले रहते हैं, क्योंकि वहाँ से सरकार को अरबों का राजस्व मिलता है, जो कि अदालतों से मिलना संभव नहीं है। दीवानी अदालत में तो ऐसी व्यवस्था है लेकिन फ़ौजदारी में सरकार को मिलने वाला राजस्व नगण्य ही है। | अदालतों में लाखों केस लंबित हैं। क्या कारण है? एक कारण तो मुख्य है ही कि न्यायपालिका के पास अदालत, जज, अधिकारी और कर्मचारियों की कमी है। यह कमी जायदाद की ख़रीद-बिक्री के पंजीयन कार्यालय में नहीं है। ना ही रजिस्ट्री ऑफ़िस में लोगों को अधिक इंतज़ार करना पड़ता है। देर रात तक ये कार्यालय खुले रहते हैं, क्योंकि वहाँ से सरकार को अरबों का राजस्व मिलता है, जो कि अदालतों से मिलना संभव नहीं है। दीवानी अदालत में तो ऐसी व्यवस्था है लेकिन फ़ौजदारी में सरकार को मिलने वाला राजस्व नगण्य ही है। | ||
एक और अहम् कारण है- वकीलों की फ़ीस की प्रक्रिया। जिस तरह गब्बर सिंह कहता है कि बसंती! जब तक तेरे पैर चलेंगे वीरू की सांस चलेगी, उसी तरह जब तक केस की तारीख़ पड़ती रहेंगी, वकील साहब को प्रत्येक तारीख़ पर जाने का मेहनताना मिलता रहेगा। अब बताइये...क्या कोई वकील चाहेगा कि केस जल्दी ख़त्म हो? केस तो बस चलता रहे... चलता रहे। जिस तरह टॅलीविज़न-धारावाहिक के कलाकार, निर्माता, निर्देशक आदि यह चाहते हैं कि धारावाहिक चलता रहे... चलता रहे...। | एक और अहम् कारण है- वकीलों की फ़ीस की प्रक्रिया। जिस तरह गब्बर सिंह कहता है कि बसंती! जब तक तेरे पैर चलेंगे वीरू की सांस चलेगी, उसी तरह जब तक केस की तारीख़ पड़ती रहेंगी, वकील साहब को प्रत्येक तारीख़ पर जाने का मेहनताना मिलता रहेगा। अब बताइये...क्या कोई वकील चाहेगा कि केस जल्दी ख़त्म हो? केस तो बस चलता रहे... चलता रहे। जिस तरह टॅलीविज़न-धारावाहिक के कलाकार, निर्माता, निर्देशक आदि यह चाहते हैं कि धारावाहिक चलता रहे... चलता रहे...। |
10:05, 11 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
समाज का ऑपरेटिंग सिस्टम -आदित्य चौधरी "यार! ये बंडा काका का तो लास्ट शो चल रहा है... ये तो टेंऽऽऽ बोलने वाला है... पक्का मरेगा अब तो पक्का... सीधी सी बात है कि इलाज का पैसा तो है नईं..."
आइए भारतकोश पर वापस चलें- ज़रा सोचिए किसी मृत्यु कारित करने वाले संगेय अपराध के अपराधी को दिया जाने वाला दण्ड बार-बार बीसियों वर्षों तक परिभाषित किया जाता रहता है। कभी उसे फाँसी सुनाई जाती है तो कभी आजीवन कारावास। कभी वह ज़मानत पर जेल से बाहर रहता है तो कभी जेल के अंदर...। किसी भी निचली अदालत के फ़ैसले का पुनर्मूल्यांकन ऊँची अदालतों द्वारा बिना अपील किए ही हो तो बार-बार फ़ैसला बदले जाने की संभावना नहीं होगी। जेलों में विचाराधीन क़ैदियों की स्थिति में अक्सर होता है कि अमीरों, नेताओं और सॅलिब्रिटी ग़ुंडों को जेलों में फ़ाइव स्टार जैसी सुविधाएँ मुहैया कराई जाती हैं। क्या समस्या है यदि जेलों में कुछ हिस्सा इस तरह की सुविधाओं से भरपूर हो इसका किराया इन हाइ-फ़ाइ अपराधियों से वसूला जाय। साथ ही शारीरिक परिश्रम में कोई ढील न बरती जाय। ऐसी फ़ाइव स्टार जेलों में रहने पर सज़ा की अवधि भी साधारण जेल से कम से कम दो गुनी या तीन गुनी हो। |
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