"नारद": अवतरणों में अंतर
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'''नारद मुनि'''< | |चित्र=Narada-Muni.jpg | ||
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"अहो! ये देवर्षि नारद हैं, जो वीणा बजाते हैं, हरिगुण गाते, मस्त दशा में तीनों लोकों में घूम कर दु:खी संसार को आनंदित करते हैं।" <ref> | |अन्य नाम=देवर्षि नारद | ||
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|रचनाएँ=[[नारद पांचरात्र]], [[नारद भक्ति सूत्र]], [[नारद पुराण]], [[नारद स्मृति]] | |||
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|संदर्भ ग्रंथ=[[वैदिक साहित्य]], [[रामायण]], [[महाभारत]], [[पुराण]], [[स्मृतियाँ]], [[अथर्ववेद]], [[ऐतरेय ब्राह्मण]] | |||
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|मृत्यु= | |||
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|संबंधित लेख= | |||
|शीर्षक 1=जयंती | |||
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|शीर्षक 2=व्यक्तित्व | |||
|पाठ 2=नारद आत्मज्ञानी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, त्रिकाल ज्ञानी, [[वीणा]] द्वारा निरंतर प्रभु भक्ति के प्रचारक, दक्ष, मेधावी, निर्भय, विनयशील, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, स्थितप्रज्ञ, तपस्वी, चारों पुरुषार्थ के ज्ञाता, परमयोगी, [[सूर्य]] के समान, त्रिलोकी पर्यटक, [[वायु]] के समान सभी [[युग|युगों]], समाजों और लोकों में विचरण करने वाले, वश में किये हुए मन वाले नीतिज्ञ, अप्रमादी, आनंदरत, [[कवि]], प्राणियों पर नि:स्वार्थ प्रीति रखने वाले, [[देवता|देव]], मनुष्य, [[राक्षस]] सभी लोकों में सम्मान पाने वाले देवता तथापि ऋषित्व प्राप्त देवर्षि थे। | |||
|अन्य जानकारी= भक्ति तथा संकीर्तन के ये आद्य-आचार्य हैं। इनकी वीणा भगवन जप 'महती' के नाम से विख्यात है। श्रीमुख से 'नारायण-नारायण' की ध्वनि निकलती रहती है। | |||
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|अद्यतन= | |||
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'''नारद मुनि''' [[हिन्दू]] शास्त्रों के अनुसार, [[ब्रह्मा]] के सात मानस पुत्रों में से एक माने गये हैं। ये [[विष्णु|भगवान विष्णु]] के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते है। ये स्वयं [[वैष्णव]] हैं और वैष्णवों के परमाचार्य तथा मार्गदर्शक हैं। ये प्रत्येक [[युग]] में भगवान की [[भक्ति]] और उनकी महिमा का विस्तार करते हुए लोक-कल्याण के लिए सर्वदा सर्वत्र विचरण किया करते हैं। भक्ति तथा संकीर्तन के ये आद्य-आचार्य हैं। इनकी [[वीणा]] भगवन जप 'महती' के नाम से विख्यात है। उससे 'नारायण-नारायण' की ध्वनि निकलती रहती है। इनकी गति अव्याहत है। ये ब्रह्म-मुहूर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं और अजर-अमर हैं। भगवद-भक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए ही इनका आविर्भाव हुआ है। उन्होंने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। देवर्षि नारद [[धर्म]] के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। इसी कारण सभी [[युग|युगों]] में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारद जी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र [[देवता|देवताओं]] ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है। | |||
<blockquote>"अहो! ये देवर्षि नारद हैं, जो वीणा बजाते हैं, हरिगुण गाते, मस्त दशा में तीनों लोकों में घूम कर दु:खी संसार को आनंदित करते हैं।" <ref>भागवत 1/6/39</ref></blockquote> | |||
==पौराणिक उल्लेख== | |||
खड़ी शिखा, हाथ में [[वीणा]], मुख से '[[नारायण]]' शब्द का जाप, पवन पादुका पर मनचाहे वहाँ विचरण करने वाले नारद से सभी परिचित हैं। [[श्रीकृष्ण]] देवर्षियों में नारद को अपनी विभूति बताते हैं <ref>गीता 10/26</ref>। [[वैदिक साहित्य]], [[रामायण]], [[महाभारत]], [[पुराण]], [[स्मृतियाँ]], सभी शास्त्रों में कहीं ना कहीं नारद का निर्देश निश्चित रूप से होता ही है। [[ऋग्वेद]] मंडल में 8-9 के कई सूक्तों के द्रष्टानारद हैं। [[अथर्ववेद]], [[ऐतरेय ब्राह्मण]], मैत्रायणी संहिता आदि में नारद का उल्लेख है। | |||
====जन्म कथा==== | |||
पूर्व [[कल्प]] में नारद 'उपबर्हण' नाम के [[गंधर्व]] थे। उन्हें अपने रूप पर अभिमान था। एक बार जब [[ब्रह्मा]] की सेवा में अप्सराएँ और गंधर्व गीत और नृत्य से जगत्स्रष्टा की आराधना कर रहे थे, उपबर्हण स्त्रियों के साथ श्रृंगार भाव से वहाँ आया। उपबर्हण का यह अशिष्ट आचरण देख कर ब्रह्मा कुपित हो गये और उन्होंने उसे 'शूद्र योनि' में जन्म लेने का [[शाप]] दे दिया। शाप के फलस्वरूप वह 'शूद्रा दासी' का पुत्र हुआ। माता पुत्र साधु संतों की निष्ठा के साथ सेवा करते थे। पाँच वर्ष का बालक संतों के पात्र में बचा हुआ झूठा अन्न खाता था, जिससे उसके हृदय के सभी पाप धुल गये। बालक की सेवा से प्रसन्न हो कर साधुओं ने उसे नाम जाप और ध्यान का उपदेश दिया। शूद्रा दासी की सर्पदंश से मृत्यु हो गयी। अब नारद जी इस संसार में अकेले रह गये। उस समय इनकी अवस्था मात्र पाँच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिये चल पड़े। एक दिन वह बालक एक [[पीपल]] के वृक्ष के नीचे ध्यान लगा कर बैठा था कि उसके हृदय में भगवान की एक झलक विद्युत रेखा की भाँति दिखायी दी और तत्काल अदृश्य हो गयी। उसके मन में भगवान के दर्शन की व्याकुलता बढ़ गई, जिसे देख कर आकाशवाणी हुई - हे दासीपुत्र! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।' समय बीतने पर बालक का शरीर छूट गया और कल्प के अंत में वह ब्रह्म में लीन हो गया। समय आने पर नारद जी का पांचभौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अन्त में ये ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए। | |||
==कार्य== | ==कार्य== | ||
नारद के अगणित कार्य हैं। | |||
नारद के अगणित कार्य हैं। [[भृगु]] कन्या [[लक्ष्मी]] का विवाह [[विष्णु]] के साथ | * [[भृगु]] कन्या [[लक्ष्मी]] का विवाह [[विष्णु]] के साथ करवाया। | ||
* [[इन्द्र]] को समझा बुझाकर [[उर्वशी]] का [[पुरुरवा]] के साथ परिणय सूत्र कराया। | |||
* [[महादेव]] द्वारा जलंधर का विनाश करवाया। | |||
* [[कंस]] को आकाशवाणी का अर्थ समझाया । | |||
* [[बाल्मीकि]] को [[रामायण]] की रचना करने की प्रेरणा दी। | |||
* [[व्यास]] जी से [[भागवत]] की रचना करवायी। | |||
* [[प्रह्लाद]] और [[ध्रुव]] को उपदेश देकर महान् भक्त बनाया। | |||
* [[बृहस्पति ऋषि|बृहस्पति]] और [[शुकदेव]] जैसों को उपदेश दिया और उनकी शंकाओं का समाधान किया। | |||
* [[इन्द्र]], [[चन्द्र देवता|चन्द्र]], [[विष्णु]], [[शंकर]], [[युधिष्ठिर]], [[राम]], [[कृष्ण]] आदि को उपदेश देकर कर्तव्याभिमुख किया। | |||
* भक्ति का प्रसार करते हुए वे अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों का सहयोग करते रहते हैं। | |||
* ये भगवान के विशेष कृपापात्र और लीला-सहचर हैं। जब-जब भगवान का आविर्भाव होता है, ये उनकी लीला के लिए भूमिका तैयार करते हैं। लीलापयोगी उपकरणों का संग्रह करते हैं और अन्य प्रकार की सहायता करते हैं इनका जीवन मंगल के लिए ही है। | |||
==देवर्षि नारद== | ==देवर्षि नारद== | ||
देवर्षि नारद | देवर्षि नारद [[व्यास]], [[वाल्मीकि|बाल्मीकि]] तथा महाज्ञानी [[शुकदेव]] आदि के गुरु हैं। [[श्रीमद्भागवत]], जो भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य का परमोपदेशक ग्रंथ-रत्न है तथा [[रामायण]], जो मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान [[श्रीराम]] के पावन, आदर्श चरित्र से परिपूर्ण है, देवर्षि नारदजी की कृपा से ही हमें प्राप्त हो सकें हैं। इन्होंने ही [[प्रह्लाद]], [[ध्रुव]], राजा [[अम्बरीष]] आदि महान् भक्तों को भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। ये [[भागवत धर्म]] के परम-गूढ़ रहस्य को जानने वाले- [[ब्रह्मा]], [[शंकर]], सनत्कुमार, [[कपिल मुनि|महर्षि कपिल]], [[स्वयंभुव मनु]] आदि बारह आचार्यों में अन्यतम हैं। देवर्षि नारद द्वारा विरचित '''भक्तिसूत्र''' बहुत महत्त्वपूर्ण है। नारदजी को अपनी विभूति बताते हुए योगेश्वर [[श्रीकृष्ण]] श्रीमद् भागवत [[गीता]] के [[गीता 10:1|दशम अध्याय]] में कहते हैं- '''अश्वत्थ: सर्ववूक्षाणां देवर्षीणां च नारद:।''' | ||
{{ | {{दाँयाबक्सा|पाठ='''महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:''' | ||
[[कृष्ण]]:- | |||
कृष्ण:- | हे देवर्षि ! जैसे पुरुष [[अग्नि]] की इच्छा से [[अरणी]] काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचन से मेरा [[हृदय]] सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥ | ||
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष [[अग्नि]] की इच्छा से अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचन से मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥ | |||
हे नारद ! बड़े भाई [[बलराम]] सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥ | हे नारद ! बड़े भाई [[बलराम]] सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥ | ||
'''आगे पढ़ें''':- [[कृष्ण नारद संवाद]] | '''आगे पढ़ें''':- [[कृष्ण नारद संवाद]]|विचारक=}} | ||
==व्यक्तित्व== | ==व्यक्तित्व== | ||
नारद श्रुति - स्मृति, इतिहास, पुराण, व्याकरण, वेदांग, संगीत, खगोल-भूगोल, ज्योतिष, योग आदि अनेक शास्त्रों में पारंगत थे। नारद आत्मज्ञानी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, त्रिकाल ज्ञानी, वीणा द्वारा निरंतर प्रभु भक्ति के प्रचारक, दक्ष, मेधावी, निर्भय, विनयशील, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, स्थितप्रज्ञ, तपस्वी, चारों पुरुषार्थ के ज्ञाता, परमयोगी, सूर्य के समान, त्रिलोकी पर्यटक, वायु के समान सभी युगों, समाजों और लोकों में विचरण करने वाले, वश में किये हुए मन वाले नीतिज्ञ, अप्रमादी, आनंदरत, कवि, प्राणियों पर नि:स्वार्थ प्रीति रखने वाले, देव, मनुष्य, राक्षस सभी लोकों में सम्मान पाने वाले देवता तथापि ऋषित्व प्राप्त देवर्षि थे। <br /> | |||
नारद श्रुति - स्मृति, इतिहास, पुराण, व्याकरण, वेदांग, संगीत, खगोल-भूगोल, ज्योतिष, योग आदि अनेक शास्त्रों में पारंगत थे। नारद आत्मज्ञानी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, त्रिकाल ज्ञानी, वीणा द्वारा निरंतर प्रभु भक्ति के प्रचारक, दक्ष, मेधावी, निर्भय, विनयशील, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, स्थितप्रज्ञ, तपस्वी, चारों पुरुषार्थ के ज्ञाता, परमयोगी, सूर्य के समान, त्रिलोकी पर्यटक, वायु के समान सभी युगों, समाजों और लोकों में विचरण करने वाले, वश में किये हुए मन वाले | एक बार नारद को [[कामदेव]] पर विजय प्राप्त करने का गर्व हुआ। उनके इस गर्व का खण्डन करने के लिए भगवान ने उनका मुँह [[बन्दर]] जैसा बना दिया। नारद का स्वभाव 'कलहप्रिय' कहा गया है। व्यवहार में खटपटी व्यक्ति को, एक दूसरे के बीच झगड़ा लगाने वाले व्यक्ति को हम नारद कहते हैं। परंतु नारद कलहप्रिय नहीं वरन् वृतांतों का वहन करने वाले एक विचारक थे। | ||
एक बार नारद को [[कामदेव]] पर विजय प्राप्त करने का गर्व हुआ। उनके इस गर्व का खण्डन करने के लिए भगवान ने उनका मुँह बन्दर जैसा बना दिया। नारद का स्वभाव 'कलहप्रिय' कहा गया है। व्यवहार में खटपटी व्यक्ति को, एक दूसरे के बीच झगड़ा लगाने वाले व्यक्ति को हम नारद कहते हैं। परंतु नारद कलहप्रिय नहीं | |||
==नारद के ग्रंथ== | ==नारद के ग्रंथ== | ||
*[[नारद पांचरात्र]] | *[[नारद पांचरात्र]] | ||
*[[नारद भक्ति सूत्र|नारद के भक्तिसूत्र]] | *[[नारद भक्ति सूत्र|नारद के भक्तिसूत्र]] | ||
*[[नारद पुराण|नारद महापुराण]] | *[[नारद पुराण|नारद महापुराण]] | ||
*[[नारद स्मृति|बृहन्नारदीय उपपुराण-संहिता-(स्मृतिग्रंथ)]] | *[[नारद स्मृति|बृहन्नारदीय उपपुराण-संहिता-(स्मृतिग्रंथ)]] | ||
*नारद-परिव्राज कोपनिषद | *नारद-परिव्राज कोपनिषद | ||
*नारदीय-शिक्षा के साथ ही अनेक स्तोत्र भी उपलब्ध होते हैं। देविर्षि नारद के सभी उपदेशों का निचोड़ है - | *नारदीय-शिक्षा के साथ ही अनेक स्तोत्र भी उपलब्ध होते हैं। | ||
देविर्षि नारद के सभी उपदेशों का निचोड़ है - | |||
'''सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितै: भगवानेव भजनीय:। अर्थात् सर्वदा सर्वभाव से निश्चित होकर केवल भगवान का ही ध्यान करना चाहिए।''' | |||
==विष्णु के अनन्य भक्त== | |||
देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। ये भगवान की भक्ति और माहात्म्य के विस्तार के लिये अपनी [[वीणा]] की मधुर तान पर भगवद्गुणों का गान करते हुए निरन्तर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत भक्तिसूत्र में भक्ति की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या है। अब भी ये अप्रत्यक्षरूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। भक्त प्रह्लाद, भक्त अम्बरीष, ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही [[भक्तिमार्ग]] में प्रवृत्त किया। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिये ही है। ये ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भण्डार, आनन्द के सागर तथा सब भूतों के अकारण प्रेमी और विश्व के सहज हितकारी हैं। हिन्दू संस्कृति के दो अमूल्य ग्रंथ [[रामायण]] और [[भागवत]] के प्रेरक नारद का जन्म लोगों को सन्मार्ग पर मोड़ कर भक्ति के मार्ग पर खींचकर, विश्वकल्याण के लिए हुआ था। | |||
==नारद जयंती== | |||
[[पुराण|पुराणों]] के अनुसार हर साल [[ज्येष्ठ]] के महीने की [[कृष्ण पक्ष]] [[द्वितीया]] को नारद जयंती मनाई जाती है। नारद को [[ब्रह्मा|ब्रह्मदेव]] का मानस पुत्र माना जाता है। इनका जन्म ब्रह्मा जी की गोद से हुआ था। ब्रह्मा जी ने नारद को सृष्टि कार्य का आदेश दिया था, लेकिन नारद ने ब्रह्मा जी का ये आदेश मानने से इनंकार कार दिया। नारद, देवताओं के [[ऋषि]] हैं, इसी कारण उनको देवर्षि नाम से भी पुकारा जाता है। कहा जाता है कि कठिन तपस्या के बाद नारद को ब्रह्मर्षि पद प्राप्त हुआ था। नारद बहुत ज्ञानी थे, इसी कारण दैत्य हो या [[हिन्दू देवी-देवता|देवी-देवता]] सभी वर्गों में उनको बेहद आदर और सत्कार किया जाता था। कहते हैं नारद मुनि के श्राप के कारण ही [[राम]] को [[सीता|देवी सीता]] से वियोग सहना पड़ा था। पुराणों में ऐसा भी लिखा गया है कि [[दक्ष|राजा प्रजापति दक्ष]] ने नारद को श्राप दिया था कि वह दो मिनट से ज्यादा कहीं रुक नहीं पाएंगे। यही कारण है कि नारद अक्सर यात्रा करते रहते थे। कभी इस देवी-देवता तो कभी दूसरे देवी-देवता के पास। | |||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
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05:00, 4 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
नारद
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अन्य नाम | देवर्षि नारद |
वंश-गोत्र | हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक |
धर्म-संप्रदाय | ये स्वयं वैष्णव हैं और वैष्णवों के परमाचार्य तथा मार्गदर्शक हैं। |
रचनाएँ | नारद पांचरात्र, नारद भक्ति सूत्र, नारद पुराण, नारद स्मृति |
वाद्य | वीणा |
संदर्भ ग्रंथ | वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियाँ, अथर्ववेद, ऐतरेय ब्राह्मण |
जयंती | ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की द्वितीया |
व्यक्तित्व | नारद आत्मज्ञानी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, त्रिकाल ज्ञानी, वीणा द्वारा निरंतर प्रभु भक्ति के प्रचारक, दक्ष, मेधावी, निर्भय, विनयशील, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, स्थितप्रज्ञ, तपस्वी, चारों पुरुषार्थ के ज्ञाता, परमयोगी, सूर्य के समान, त्रिलोकी पर्यटक, वायु के समान सभी युगों, समाजों और लोकों में विचरण करने वाले, वश में किये हुए मन वाले नीतिज्ञ, अप्रमादी, आनंदरत, कवि, प्राणियों पर नि:स्वार्थ प्रीति रखने वाले, देव, मनुष्य, राक्षस सभी लोकों में सम्मान पाने वाले देवता तथापि ऋषित्व प्राप्त देवर्षि थे। |
अन्य जानकारी | भक्ति तथा संकीर्तन के ये आद्य-आचार्य हैं। इनकी वीणा भगवन जप 'महती' के नाम से विख्यात है। श्रीमुख से 'नारायण-नारायण' की ध्वनि निकलती रहती है। |
नारद मुनि हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक माने गये हैं। ये भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते है। ये स्वयं वैष्णव हैं और वैष्णवों के परमाचार्य तथा मार्गदर्शक हैं। ये प्रत्येक युग में भगवान की भक्ति और उनकी महिमा का विस्तार करते हुए लोक-कल्याण के लिए सर्वदा सर्वत्र विचरण किया करते हैं। भक्ति तथा संकीर्तन के ये आद्य-आचार्य हैं। इनकी वीणा भगवन जप 'महती' के नाम से विख्यात है। उससे 'नारायण-नारायण' की ध्वनि निकलती रहती है। इनकी गति अव्याहत है। ये ब्रह्म-मुहूर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं और अजर-अमर हैं। भगवद-भक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए ही इनका आविर्भाव हुआ है। उन्होंने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारद जी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है।
"अहो! ये देवर्षि नारद हैं, जो वीणा बजाते हैं, हरिगुण गाते, मस्त दशा में तीनों लोकों में घूम कर दु:खी संसार को आनंदित करते हैं।" [1]
पौराणिक उल्लेख
खड़ी शिखा, हाथ में वीणा, मुख से 'नारायण' शब्द का जाप, पवन पादुका पर मनचाहे वहाँ विचरण करने वाले नारद से सभी परिचित हैं। श्रीकृष्ण देवर्षियों में नारद को अपनी विभूति बताते हैं [2]। वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियाँ, सभी शास्त्रों में कहीं ना कहीं नारद का निर्देश निश्चित रूप से होता ही है। ऋग्वेद मंडल में 8-9 के कई सूक्तों के द्रष्टानारद हैं। अथर्ववेद, ऐतरेय ब्राह्मण, मैत्रायणी संहिता आदि में नारद का उल्लेख है।
जन्म कथा
पूर्व कल्प में नारद 'उपबर्हण' नाम के गंधर्व थे। उन्हें अपने रूप पर अभिमान था। एक बार जब ब्रह्मा की सेवा में अप्सराएँ और गंधर्व गीत और नृत्य से जगत्स्रष्टा की आराधना कर रहे थे, उपबर्हण स्त्रियों के साथ श्रृंगार भाव से वहाँ आया। उपबर्हण का यह अशिष्ट आचरण देख कर ब्रह्मा कुपित हो गये और उन्होंने उसे 'शूद्र योनि' में जन्म लेने का शाप दे दिया। शाप के फलस्वरूप वह 'शूद्रा दासी' का पुत्र हुआ। माता पुत्र साधु संतों की निष्ठा के साथ सेवा करते थे। पाँच वर्ष का बालक संतों के पात्र में बचा हुआ झूठा अन्न खाता था, जिससे उसके हृदय के सभी पाप धुल गये। बालक की सेवा से प्रसन्न हो कर साधुओं ने उसे नाम जाप और ध्यान का उपदेश दिया। शूद्रा दासी की सर्पदंश से मृत्यु हो गयी। अब नारद जी इस संसार में अकेले रह गये। उस समय इनकी अवस्था मात्र पाँच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिये चल पड़े। एक दिन वह बालक एक पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान लगा कर बैठा था कि उसके हृदय में भगवान की एक झलक विद्युत रेखा की भाँति दिखायी दी और तत्काल अदृश्य हो गयी। उसके मन में भगवान के दर्शन की व्याकुलता बढ़ गई, जिसे देख कर आकाशवाणी हुई - हे दासीपुत्र! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।' समय बीतने पर बालक का शरीर छूट गया और कल्प के अंत में वह ब्रह्म में लीन हो गया। समय आने पर नारद जी का पांचभौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अन्त में ये ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए।
कार्य
नारद के अगणित कार्य हैं।
- भृगु कन्या लक्ष्मी का विवाह विष्णु के साथ करवाया।
- इन्द्र को समझा बुझाकर उर्वशी का पुरुरवा के साथ परिणय सूत्र कराया।
- महादेव द्वारा जलंधर का विनाश करवाया।
- कंस को आकाशवाणी का अर्थ समझाया ।
- बाल्मीकि को रामायण की रचना करने की प्रेरणा दी।
- व्यास जी से भागवत की रचना करवायी।
- प्रह्लाद और ध्रुव को उपदेश देकर महान् भक्त बनाया।
- बृहस्पति और शुकदेव जैसों को उपदेश दिया और उनकी शंकाओं का समाधान किया।
- इन्द्र, चन्द्र, विष्णु, शंकर, युधिष्ठिर, राम, कृष्ण आदि को उपदेश देकर कर्तव्याभिमुख किया।
- भक्ति का प्रसार करते हुए वे अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों का सहयोग करते रहते हैं।
- ये भगवान के विशेष कृपापात्र और लीला-सहचर हैं। जब-जब भगवान का आविर्भाव होता है, ये उनकी लीला के लिए भूमिका तैयार करते हैं। लीलापयोगी उपकरणों का संग्रह करते हैं और अन्य प्रकार की सहायता करते हैं इनका जीवन मंगल के लिए ही है।
देवर्षि नारद
देवर्षि नारद व्यास, बाल्मीकि तथा महाज्ञानी शुकदेव आदि के गुरु हैं। श्रीमद्भागवत, जो भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य का परमोपदेशक ग्रंथ-रत्न है तथा रामायण, जो मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पावन, आदर्श चरित्र से परिपूर्ण है, देवर्षि नारदजी की कृपा से ही हमें प्राप्त हो सकें हैं। इन्होंने ही प्रह्लाद, ध्रुव, राजा अम्बरीष आदि महान् भक्तों को भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। ये भागवत धर्म के परम-गूढ़ रहस्य को जानने वाले- ब्रह्मा, शंकर, सनत्कुमार, महर्षि कपिल, स्वयंभुव मनु आदि बारह आचार्यों में अन्यतम हैं। देवर्षि नारद द्वारा विरचित भक्तिसूत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है। नारदजी को अपनी विभूति बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण श्रीमद् भागवत गीता के दशम अध्याय में कहते हैं- अश्वत्थ: सर्ववूक्षाणां देवर्षीणां च नारद:।
महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:
कृष्ण:-
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्नि की इच्छा से अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचन से मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥
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व्यक्तित्व
नारद श्रुति - स्मृति, इतिहास, पुराण, व्याकरण, वेदांग, संगीत, खगोल-भूगोल, ज्योतिष, योग आदि अनेक शास्त्रों में पारंगत थे। नारद आत्मज्ञानी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, त्रिकाल ज्ञानी, वीणा द्वारा निरंतर प्रभु भक्ति के प्रचारक, दक्ष, मेधावी, निर्भय, विनयशील, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, स्थितप्रज्ञ, तपस्वी, चारों पुरुषार्थ के ज्ञाता, परमयोगी, सूर्य के समान, त्रिलोकी पर्यटक, वायु के समान सभी युगों, समाजों और लोकों में विचरण करने वाले, वश में किये हुए मन वाले नीतिज्ञ, अप्रमादी, आनंदरत, कवि, प्राणियों पर नि:स्वार्थ प्रीति रखने वाले, देव, मनुष्य, राक्षस सभी लोकों में सम्मान पाने वाले देवता तथापि ऋषित्व प्राप्त देवर्षि थे।
एक बार नारद को कामदेव पर विजय प्राप्त करने का गर्व हुआ। उनके इस गर्व का खण्डन करने के लिए भगवान ने उनका मुँह बन्दर जैसा बना दिया। नारद का स्वभाव 'कलहप्रिय' कहा गया है। व्यवहार में खटपटी व्यक्ति को, एक दूसरे के बीच झगड़ा लगाने वाले व्यक्ति को हम नारद कहते हैं। परंतु नारद कलहप्रिय नहीं वरन् वृतांतों का वहन करने वाले एक विचारक थे।
नारद के ग्रंथ
- नारद पांचरात्र
- नारद के भक्तिसूत्र
- नारद महापुराण
- बृहन्नारदीय उपपुराण-संहिता-(स्मृतिग्रंथ)
- नारद-परिव्राज कोपनिषद
- नारदीय-शिक्षा के साथ ही अनेक स्तोत्र भी उपलब्ध होते हैं।
देविर्षि नारद के सभी उपदेशों का निचोड़ है - सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितै: भगवानेव भजनीय:। अर्थात् सर्वदा सर्वभाव से निश्चित होकर केवल भगवान का ही ध्यान करना चाहिए।
विष्णु के अनन्य भक्त
देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। ये भगवान की भक्ति और माहात्म्य के विस्तार के लिये अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद्गुणों का गान करते हुए निरन्तर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत भक्तिसूत्र में भक्ति की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या है। अब भी ये अप्रत्यक्षरूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। भक्त प्रह्लाद, भक्त अम्बरीष, ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिये ही है। ये ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भण्डार, आनन्द के सागर तथा सब भूतों के अकारण प्रेमी और विश्व के सहज हितकारी हैं। हिन्दू संस्कृति के दो अमूल्य ग्रंथ रामायण और भागवत के प्रेरक नारद का जन्म लोगों को सन्मार्ग पर मोड़ कर भक्ति के मार्ग पर खींचकर, विश्वकल्याण के लिए हुआ था।
नारद जयंती
पुराणों के अनुसार हर साल ज्येष्ठ के महीने की कृष्ण पक्ष द्वितीया को नारद जयंती मनाई जाती है। नारद को ब्रह्मदेव का मानस पुत्र माना जाता है। इनका जन्म ब्रह्मा जी की गोद से हुआ था। ब्रह्मा जी ने नारद को सृष्टि कार्य का आदेश दिया था, लेकिन नारद ने ब्रह्मा जी का ये आदेश मानने से इनंकार कार दिया। नारद, देवताओं के ऋषि हैं, इसी कारण उनको देवर्षि नाम से भी पुकारा जाता है। कहा जाता है कि कठिन तपस्या के बाद नारद को ब्रह्मर्षि पद प्राप्त हुआ था। नारद बहुत ज्ञानी थे, इसी कारण दैत्य हो या देवी-देवता सभी वर्गों में उनको बेहद आदर और सत्कार किया जाता था। कहते हैं नारद मुनि के श्राप के कारण ही राम को देवी सीता से वियोग सहना पड़ा था। पुराणों में ऐसा भी लिखा गया है कि राजा प्रजापति दक्ष ने नारद को श्राप दिया था कि वह दो मिनट से ज्यादा कहीं रुक नहीं पाएंगे। यही कारण है कि नारद अक्सर यात्रा करते रहते थे। कभी इस देवी-देवता तो कभी दूसरे देवी-देवता के पास।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
भारतीय संस्कृति के सर्जक, पेज न. (21)
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