"ऋग्वेद और दास": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
छो (Text replacement - "पृथक " to "पृथक् ")
 
(3 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 8 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
कहा गया है कि ब्राह्मणवाद आर्यों से पूर्व की संस्था है।<ref>पार्जिटर : ‘एनशिएंट इण्डियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन’, पृष्ठ 306-8.</ref> सारे पुरोहित वर्ग के विषय में यह कहना कठिन है। लैटिन फ्लामेन रोमन राजाओं द्वारा स्थापित एक प्रकार के पुरोहित पद का अभिधान है, जिसका समीकरण ब्राह्मण शब्द से किया गया है।<ref>ड्युमेजिल : ‘फ्लामेन ब्राह्मण’, अध्याय II. और III. एक अन्य निर्देश के लिए देखें, पाल थिमे; (साइटशिफ्ट डेर डोय्वेन मेर्गेनलैंडिशेनगेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, एन. एफ. 27 पृष्ठ 91-129)</ref> इस समानता के अतिरिक्त वेदकालीन भारत के अथर्वन पुरोहित और ईरान के अथर्वन की सुपरिचित समानता है। किन्तु फिर भी एक प्रमुख आपत्ति का उत्तर देना शेष रह जाता है। कीथ का कहना है कि ऋग्वैदिक मान्यता और वैदिक देवताओं की अपेक्षाकृत बहुलता पुरोहितों के कठिन प्रयास और अपरिमित समन्वयवाद का परिणाम रही होगी।<ref>ई. जे. रैप्सन : द कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया, I. 103</ref> इतना ही नहीं वेदों और महाकाव्यों की परम्परा से पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत किये गए हैं, जिनसे पता चलता है कि इन्द्र ब्राह्मणघाती थे और उनका मुख्य दुश्मन ‘वृत्र’ ब्राह्मण था।<ref>डब्ल्यू, रयूबेन : ‘इन्द्राज़ फाइट अगेन्स्ट वृत्र इन द महाभारत’ (एस. के. बेल्वल्कर कमेमोरेशन वॉल्यूम, पृष्ठ 116-8), धर्मानंद कोसंबी, ‘भगवान बुद्ध’, पृष्ठ 24</ref> इससे यह परिकल्पना पुष्ट होती है कि विकसित पुरोहित प्रथा आर्यों के पहले की प्रथा थी, जिससे निष्कर्ष निकल सकता है कि जो लोग पराजित हुए वे सभी दास या शूद्र नहीं बना लिए गए। अतएव, यद्यपि ब्राह्मणवाद भारोपीय संस्था था, फिर भी आर्य विजेताओं के पुरोहित वर्ग में अधिकांश विजित जाति के लोग लिये गए होंगे।<ref>कोसंबी : जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी, बम्बई, न्यू सीरीज, XXII. 35)</ref> उनका अनुपात क्या रहा होगा, यह बताने के लिए कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यपूर्व पुरोहितों को इस नए समाज में स्थान मिला था। यह सोचना ग़लत होगा कि सभी काले लोगों को शूद्र बना लिया गया था, क्योंकि ऐसे प्रसंग आए हैं, जिनमें काले ऋषियों की भी चर्चा है। ऋग्वेद में ‘अश्विनी’ के सम्बन्ध में जो वर्णन किया गया है, उसके अनुसार उन्होंने काले वर्ण के (श्यावाय) कण्व को गौरवर्ण की स्त्रियाँ प्रदान की थीं।<ref>ऋग्वेद I. 117-8. किन्तु सायण ‘श्यावाय’ को ‘कुष्ठरोगेण श्यामवर्णाय’ बताते हैं।</ref> सम्भवत: कण्व को कृष्ण भी कहा गया है<ref>ऋग्वेद, VIII. 85.3-4. ऋग्वेद, VIII. 50.10 में भी कण्व का उल्लेख है।</ref> और वे इन युग्म देवों को सम्बोधित सूक्तों (ऋग्वेद के मंडल आठ, सूक्त पचासी और छियासी) के द्रष्टा हैं। शायद कण्व को ही पुन: ऋग्वेद के प्रथम मंडल में कृष्ण ऋषि के रूप में चित्रित किया गया है।<ref>ऋग्वेद, I. 116-23; ऋग्वेद I. 117.7 । पार्जिटर मानते हैं कि काण्वायन ही वास्तविक ब्राह्मण हैं : डायनेस्टीज़ ऑफ़ द कलि एज, पृष्ठ 35.</ref> इसी प्रकार ऋग्वेद की एक ऋचा में गायक के रूप में वर्णित ‘दीर्घतमस’ काले रंग का रहा होगा, अगर यह नाम उसे काले वर्ण के कारण मिला हो।<ref>ऋग्वेद, I. 158.6. अंबेडकर : हू वेयर दि शूद्राज़?, पृष्ठ 77.</ref> यह महत्त्वपूर्ण है कि ऋग्वेद के कई अनुच्छेदों में वह केवल मातृमूलक नाम ‘मामतेय’ से ही चर्चित है। बाद की एक अनुश्रुति यह भी है कि उसने उशिज से विवाह किया, जो एक दास की लड़की थी और उससे काक्षीवंत् उत्पन्न हुआ।<ref>‘वैदिक इंडेक्स’, I. 366.। शतपथ ब्राह्मण, XIV. 9.4.15 में एक ऐसी माँ का वर्णन आया है, जो काले रंग के बालक की आकांक्षा रखती है, जिसे वेद का ज्ञान हो।</ref> पुन: ऋग्वेद के प्रथम मंडल में ऋषि दिवोदास को, जिनके नाम से ध्वनित होता है कि वे दास वंश के थे, <ref>वैदिक इंडेक्स, I. 363., हिलब्रांट का सुझाव</ref> नई ऋचाओं का रचयिता बताया गया है<ref>ऋग्वेद, I. 130.10.</ref> तथा दसवें मंडल में उसके सूक्त बयालिस-चौवालिस के लेखक अंगिरस को कृष्ण कहा गया है।<ref>कोसंबी : जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ एशियाटिक सोसायटी, बम्बई न्यू सीरीज, XXVI. 44.)</ref> चूँकि ऊपर बताए गए अधिकांश निर्देश ऋग्वेद के परवर्ती भागों में पड़ते हैं, इसीलिए यह स्पष्ट होगा कि ऋग्वैदिक काल के अन्तिम चरण में नवगठित आर्य समुदाय में कुछ काले ऋषियों और दास पुरोहितों का प्रवेश हो रहा था।
{{सूचना बक्सा शूद्र}}
कहा गया है कि ब्राह्मणवाद आर्यों से पूर्व की संस्था है।<ref>पार्जिटर : ‘एनशिएंट इण्डियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन’, पृष्ठ 306-8.</ref> सारे पुरोहित वर्ग के विषय में यह कहना कठिन है। लैटिन फ्लामेन रोमन राजाओं द्वारा स्थापित एक प्रकार के पुरोहित पद का अभिधान है, जिसका समीकरण ब्राह्मण शब्द से किया गया है।<ref>ड्युमेजिल : ‘फ्लामेन ब्राह्मण’, अध्याय II. और III. एक अन्य निर्देश के लिए देखें, पाल थिमे; (साइटशिफ्ट डेर डोय्वेन मेर्गेनलैंडिशेनगेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, एन. एफ. 27 पृष्ठ 91-129)</ref> इस समानता के अतिरिक्त वेदकालीन भारत के [[अथर्वन]] पुरोहित और ईरान के अथर्वन की सुपरिचित समानता है। किन्तु फिर भी एक प्रमुख आपत्ति का उत्तर देना शेष रह जाता है। कीथ का कहना है कि ऋग्वैदिक मान्यता और वैदिक देवताओं की अपेक्षाकृत बहुलता पुरोहितों के कठिन प्रयास और अपरिमित [[समन्वयवाद]] का परिणाम रही होगी।<ref>ई. जे. रैप्सन : द कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया, I. 103</ref> इतना ही नहीं वेदों और महाकाव्यों की परम्परा से पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत किये गए हैं, जिनसे पता चलता है कि इन्द्र ब्राह्मणघाती थे और उनका मुख्य दुश्मन ‘वृत्र’ ब्राह्मण था।<ref>डब्ल्यू, रयूबेन : ‘इन्द्राज़ फाइट अगेन्स्ट वृत्र इन द महाभारत’ (एस. के. बेल्वल्कर कमेमोरेशन वॉल्यूम, पृष्ठ 116-8), धर्मानंद कोसंबी, ‘भगवान बुद्ध’, पृष्ठ 24</ref> इससे यह परिकल्पना पुष्ट होती है कि विकसित पुरोहित प्रथा आर्यों के पहले की प्रथा थी, जिससे निष्कर्ष निकल सकता है कि जो लोग पराजित हुए वे सभी दास या शूद्र नहीं बना लिए गए। अतएव, यद्यपि ब्राह्मणवाद भारोपीय संस्था था, फिर भी आर्य विजेताओं के पुरोहित वर्ग में अधिकांश विजित जाति के लोग लिये गए होंगे।<ref>कोसंबी : जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी, बम्बई, न्यू सीरीज, XXII. 35)</ref> उनका अनुपात क्या रहा होगा, यह बताने के लिए कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यपूर्व पुरोहितों को इस नए समाज में स्थान मिला था। यह सोचना ग़लत होगा कि सभी काले लोगों को शूद्र बना लिया गया था, क्योंकि ऐसे प्रसंग आए हैं, जिनमें काले ऋषियों की भी चर्चा है। ऋग्वेद में ‘अश्विनी’ के सम्बन्ध में जो वर्णन किया गया है, उसके अनुसार उन्होंने काले वर्ण के (श्यावाय) कण्व को गौरवर्ण की स्त्रियाँ प्रदान की थीं।<ref>ऋग्वेद I. 117-8. किन्तु सायण ‘श्यावाय’ को ‘कुष्ठरोगेण श्यामवर्णाय’ बताते हैं।</ref> सम्भवत: कण्व को कृष्ण भी कहा गया है<ref>ऋग्वेद, VIII. 85.3-4. ऋग्वेद, VIII. 50.10 में भी कण्व का उल्लेख है।</ref> और वे इन युग्म देवों को सम्बोधित सूक्तों (ऋग्वेद के मंडल आठ, सूक्त पचासी और छियासी) के द्रष्टा हैं। शायद कण्व को ही पुन: ऋग्वेद के प्रथम मंडल में कृष्ण ऋषि के रूप में चित्रित किया गया है।<ref>ऋग्वेद, I. 116-23; ऋग्वेद I. 117.7 । पार्जिटर मानते हैं कि काण्वायन ही वास्तविक ब्राह्मण हैं : डायनेस्टीज़ ऑफ़ द कलि एज, पृष्ठ 35.</ref> इसी प्रकार ऋग्वेद की एक ऋचा में गायक के रूप में वर्णित ‘दीर्घतमस’ काले रंग का रहा होगा, अगर यह नाम उसे काले वर्ण के कारण मिला हो।<ref>ऋग्वेद, I. 158.6. अंबेडकर : हू वेयर दि शूद्राज़?, पृष्ठ 77.</ref> यह महत्त्वपूर्ण है कि ऋग्वेद के कई अनुच्छेदों में वह केवल मातृमूलक नाम ‘मामतेय’ से ही चर्चित है। बाद की एक अनुश्रुति यह भी है कि उसने उशिज से विवाह किया, जो एक दास की लड़की थी और उससे काक्षीवंत् उत्पन्न हुआ।<ref>‘वैदिक इंडेक्स’, I. 366.। शतपथ ब्राह्मण, XIV. 9.4.15 में एक ऐसी माँ का वर्णन आया है, जो काले रंग के बालक की आकांक्षा रखती है, जिसे वेद का ज्ञान हो।</ref> पुन: ऋग्वेद के प्रथम मंडल में ऋषि दिवोदास को, जिनके नाम से ध्वनित होता है कि वे दास वंश के थे, <ref>वैदिक इंडेक्स, I. 363., हिलब्रांट का सुझाव</ref> नई ऋचाओं का रचयिता बताया गया है<ref>ऋग्वेद, I. 130.10.</ref> तथा दसवें मंडल में उसके सूक्त बयालिस-चौवालिस के लेखक अंगिरस को कृष्ण कहा गया है।<ref>कोसंबी : जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ एशियाटिक सोसायटी, बम्बई न्यू सीरीज, XXVI. 44.)</ref> चूँकि ऊपर बताए गए अधिकांश निर्देश ऋग्वेद के परवर्ती भागों में पड़ते हैं, इसीलिए यह स्पष्ट होगा कि ऋग्वैदिक काल के अन्तिम चरण में नवगठित आर्य समुदाय में कुछ काले ऋषियों और दास पुरोहितों का प्रवेश हो रहा था।


इसी प्रकार मालूम पड़ता है कि कुछ पराजित सरदारों को नए समाज में उच्च स्थान दिया गया था। दास के प्रमुखों - यथा बलबूथ और तरुक्ष से पुरोहितों ने जो उपहार ग्रहण किया, उसके चलते इन लोगों की बड़ी सराहना हुई और नए समाज में उनका दर्जा भी बढ़ा। दास उपहार प्रस्तुत करने की स्थिति में थे और उन्हें दानी समझा जाता था। यह निष्कर्ष 'दश् धातु' के अर्थ से ही निकाला जा सकता है, जिससे दास संज्ञा का निर्माण हुआ है।<ref>मोनियर-विलियम्स : संस्कृत - इंग्लिश डिक्शनरी, देखें दास, दाश।</ref> बाद में भी विलयन की प्रक्रिया चलती रही, क्योंकि बाद के साहित्य में इस अनुश्रुति का उल्लेख है कि प्रतर्दन दैवोदासि इन्द्रलोक गए<ref>कौषतकि उपनिषद III. 1. वैदिक इंडेक्स में उद्धृत, II. 30.</ref>, और ऐतिहासिक दृष्टि से इन्द्र आर्य आक्रमणकारियों के नामधारी शासक थे।
इसी प्रकार मालूम पड़ता है कि कुछ पराजित सरदारों को नए समाज में उच्च स्थान दिया गया था। दास के प्रमुखों - यथा बलबूथ और तरुक्ष से पुरोहितों ने जो उपहार ग्रहण किया, उसके चलते इन लोगों की बड़ी सराहना हुई और नए समाज में उनका दर्जा भी बढ़ा। दास उपहार प्रस्तुत करने की स्थिति में थे और उन्हें दानी समझा जाता था। यह निष्कर्ष 'दश् धातु' के अर्थ से ही निकाला जा सकता है, जिससे दास संज्ञा का निर्माण हुआ है।<ref>मोनियर-विलियम्स : संस्कृत - इंग्लिश डिक्शनरी, देखें दास, दाश।</ref> बाद में भी विलयन की प्रक्रिया चलती रही, क्योंकि बाद के साहित्य में इस अनुश्रुति का उल्लेख है कि प्रतर्दन दैवोदासि इन्द्रलोक गए<ref>कौषतकि उपनिषद III. 1. वैदिक इंडेक्स में उद्धृत, II. 30.</ref>, और ऐतिहासिक दृष्टि से इन्द्र आर्य आक्रमणकारियों के नामधारी शासक थे।
;प्राचीन समाज में आत्मीसात
;प्राचीन समाज में आत्मीसात
प्राचीन ग्रन्थ इस तथ्य पर विशेष प्रकाश नहीं डालते कि सामान्य आर्यजन (विश्) और प्राचीन समाज के अवशिष्ट लोगों का आत्मसातीकरण किस प्रकार हुआ। सम्भवत: अधिकांश लोग आर्यों के समाज के चौथे वर्ण में मिला लिये गए। किन्तु पुरुष सूक्त को छोड़कर ऋग्वेद में शूद्र वर्ण का कोई प्रमाण नहीं है। हाँ, ऋग्वैदिक काल के आरम्भ में दासियों का छोटा सा आज्ञानुवर्ती समुदाय विद्यमान था। अनुमानत: आर्यों के जो शत्रु थे, उनमें पुरुषों के मारे जाने पर उनकी पत्नियाँ दासता की स्थिति में पहुँच गईं। कहा गया है कि पुरुकुत्स के बेटे त्रसदस्यु ने उपहार के रूप में पचास दासियाँ दीं।<ref>ऋग्वेद, VIII. 19.36.</ref> अथर्ववेद के आरम्भिक अंशों में भी दासियों के सम्बन्ध में प्रमाण मिलते हैं। उसमें दासी का जो चित्र उपस्थित किया गया है, उसके अनुसार उसके हाथ भीगे रहते थे, वह ओखल - मूसल कूटती थी<ref>अथर्ववेद, XII. 3.13; पैप्प, XVII. 37.3, ‘यद्वा दास्यार्द्रहस्ता समंत उलूखलं मुसलम् शुम्भताप:’।</ref> तथा गाय के गोबर<ref>अथर्ववेद, XII. 4.9; पैप्प. के एक ऐसे ही परिच्छेद XVII. 16.9 में दासी शब्द के स्थान पर देवी लिया गया है।</ref> पर पानी छिड़कती थी। इससे पता चलता है कि वह घरेलू कार्य करती थी। इस संहिता में काली दासी का प्राचीनतम उल्लेख मिलता है।<ref>अथर्ववेद, V. 13.8.</ref> सन्दर्भों से पता चलता है कि आरम्भिक वैदिक समाज में दासियों से गृहकार्य कराया जाता था। दासी शब्द के प्रयोग से स्पष्ट है कि वे पराजित दासों की स्त्रियाँ थीं।
प्राचीन ग्रन्थ इस तथ्य पर विशेष प्रकाश नहीं डालते कि सामान्य आर्यजन (विश्) और प्राचीन समाज के अवशिष्ट लोगों का आत्मसातीकरण किस प्रकार हुआ। सम्भवत: अधिकांश लोग आर्यों के समाज के चौथे वर्ण में मिला लिये गए। किन्तु पुरुष सूक्त को छोड़कर ऋग्वेद में शूद्र वर्ण का कोई प्रमाण नहीं है। हाँ, ऋग्वैदिक काल के आरम्भ में दासियों का छोटा सा आज्ञानुवर्ती समुदाय विद्यमान था। अनुमानत: आर्यों के जो शत्रु थे, उनमें पुरुषों के मारे जाने पर उनकी पत्नियाँ दासता की स्थिति में पहुँच गईं। कहा गया है कि पुरुकुत्स के बेटे त्रसदस्यु ने उपहार के रूप में पचास दासियाँ दीं।<ref>ऋग्वेद, VIII. 19.36.</ref> अथर्ववेद के आरम्भिक अंशों में भी दासियों के सम्बन्ध में प्रमाण मिलते हैं। उसमें दासी का जो चित्र उपस्थित किया गया है, उसके अनुसार उसके हाथ भीगे रहते थे, वह ओखल - मूसल कूटती थी<ref>अथर्ववेद, XII. 3.13; पैप्प, XVII. 37.3, ‘यद्वा दास्यार्द्रहस्ता समंत उलूखलं मुसलम् शुम्भताप:’।</ref> तथा गाय के गोबर<ref>अथर्ववेद, XII. 4.9; पैप्प. के एक ऐसे ही परिच्छेद XVII. 16.9 में दासी शब्द के स्थान पर देवी लिया गया है।</ref> पर पानी छिड़कती थी। इससे पता चलता है कि वह घरेलू कार्य करती थी। इस संहिता में काली दासी का प्राचीनतम उल्लेख मिलता है।<ref>अथर्ववेद, V. 13.8.</ref> सन्दर्भों से पता चलता है कि आरम्भिक वैदिक समाज में दासियों से गृहकार्य कराया जाता था। दासी शब्द के प्रयोग से स्पष्ट है कि वे पराजित दासों की स्त्रियाँ थीं।
;गुलाम शब्द का प्रयोग
;ग़ुलाम शब्द का प्रयोग
गुलाम के अर्थ में दास शब्द का प्रयोग अधिकांशत: ऋग्वेद के परवर्ती भागों में पाया जाता है। प्रथम मंडल में दो जगह<ref>ऋग्वेद, I. 92.8, 158.5 गेल्डनर के अनुवाद के अनुसार।</ref> दशम मंडल में एक जगह<ref>ऋग्वेद, X. 62.10.</ref> और अष्टम मंडल में जो अतिरिक्त सूक्त (बालखिल्य) जोड़े गए हैं, उनमें से एक जगह<ref>ऋग्वेद, VIII. 56.3.</ref> इसका प्रसंग आया है। इस प्रकार का एकमात्र प्राचीन प्रसंग आठवें मंडल में पाया जाता है।<ref>ऋग्वेद, VII. 86.7.। हिलब्रांट इसे संदिग्ध मानते हैं। उन्होंने ग़लत ढंग से VII. 86.3 में ‘कदाचित’ जोड़ दिया है, जो होना चाहिए VII. 86.7. ‘साइटश्रिफ्ट फ्यूर इंडोलोगिअ उंड ईरोनिस्टिक लाइपत्सिख्’ III. 16.</ref> ऋग्वेद में कोई दूसरा शब्द नहीं मिलता, जिसका अर्थ दास लगाया जा सकता हो। इससे स्पष्ट है कि आरम्भिक ऋग्वेद काल में शायद ही पुरुष दास रहे होंगे।
ग़ुलाम के अर्थ में दास शब्द का प्रयोग अधिकांशत: ऋग्वेद के परवर्ती भागों में पाया जाता है। प्रथम मंडल में दो जगह<ref>ऋग्वेद, I. 92.8, 158.5 गेल्डनर के अनुवाद के अनुसार।</ref> दशम मंडल में एक जगह<ref>ऋग्वेद, X. 62.10.</ref> और अष्टम मंडल में जो अतिरिक्त सूक्त (बालखिल्य) जोड़े गए हैं, उनमें से एक जगह<ref>ऋग्वेद, VIII. 56.3.</ref> इसका प्रसंग आया है। इस प्रकार का एकमात्र प्राचीन प्रसंग आठवें मंडल में पाया जाता है।<ref>ऋग्वेद, VII. 86.7.। हिलब्रांट इसे संदिग्ध मानते हैं। उन्होंने ग़लत ढंग से VII. 86.3 में ‘कदाचित’ जोड़ दिया है, जो होना चाहिए VII. 86.7. ‘साइटश्रिफ्ट फ्यूर इंडोलोगिअ उंड ईरोनिस्टिक लाइपत्सिख्’ III. 16.</ref> ऋग्वेद में कोई दूसरा शब्द नहीं मिलता, जिसका अर्थ दास लगाया जा सकता हो। इससे स्पष्ट है कि आरम्भिक ऋग्वेद काल में शायद ही पुरुष दास रहे होंगे।
;दासों की संख्या और स्वरूप
;दासों की संख्या और स्वरूप
उत्तर-ऋग्वेद काल में दासों की संख्या और स्वरूप के बारे में जो प्रसंग आए हैं, उनसे केवल धुँधला-सा चित्र उभरता है। बालखिल्य में सौ दासों की चर्चा आई है, जिन्हें गदहे और भेड़ की कोटि में रखा गया है।<ref>ऋग्वेद, VIII. 56.3. ‘शतं में गर्दभानां शतमूर्णावतीनां, शत दासा अति स्रज:’ 100 रूढ़ संख्या हो सकती है।</ref> बाद के एक अन्य प्रसंग में आए ‘दासप्रवर्ग’ का अर्थ सम्पत्ति या दासों का समूह किया जा सकता है।<ref>ऋग्वेद, I. 92.8. ‘उषसिआमस्यां यषसंसुवीरं दासप्रवर्ग रयिमश्व बुध्यम्’।</ref> इससे यह स्पष्ट है कि ऋग्वेद काल के अन्त में दासों की संख्या बढ़ रही थी। किन्तु ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिससे यह सिद्ध हो सके कि उन्हें किसी उत्पादन कार्य में लगाया जाता था। सम्भवत: उन्हें घरेलू नौकर की तरह रखा जाता था, जिसका मुख्य कार्य अपने मालिक की सेवा करना था, जो या तो सरदार या फिर पुरोहित होते थे। सामान्यत: ऐसे मालिक दीर्घतमस के पास दास थे।<ref>ऋग्वेद, I. 158.5-6.</ref> इन दासों को मुक्त हाथ से किसी के भी हाथ सौंपा जा सकता था।<ref>ऋग्वेद, X. 62.10. ‘उत् दासा परिविधेऽस्मद् दिष्टि गोपरिणसा: यदुस् तुर्वश् च मामहे’।</ref> ऐसा प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति ऋण नहीं चुका पाता था, तो उसे दास बना लिया जाता था, <ref>ऋग्वेद, X. 34.4.</ref> पर ऋण में पैसे नहीं दिए जाते थे, क्योंकि सिक्के का प्रचलन नहीं था। वास्तव में दास नाम से ही प्रकट होता है कि वैदिक काल में दासता का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत युद्ध था। दास जनजाति के लोग युद्ध में विजित होने पर भी दास के नाम से ही पुकारे जाते थे, पर इससे उनकी ग़ुलामी का बोध होता था।
उत्तर-ऋग्वेद काल में दासों की संख्या और स्वरूप के बारे में जो प्रसंग आए हैं, उनसे केवल धुँधला-सा चित्र उभरता है। बालखिल्य में सौ दासों की चर्चा आई है, जिन्हें गदहे और भेड़ की कोटि में रखा गया है।<ref>ऋग्वेद, VIII. 56.3. ‘शतं में गर्दभानां शतमूर्णावतीनां, शत दासा अति स्रज:’ 100 रूढ़ संख्या हो सकती है।</ref> बाद के एक अन्य प्रसंग में आए ‘दासप्रवर्ग’ का अर्थ सम्पत्ति या दासों का समूह किया जा सकता है।<ref>ऋग्वेद, I. 92.8. ‘उषसिआमस्यां यषसंसुवीरं दासप्रवर्ग रयिमश्व बुध्यम्’।</ref> इससे यह स्पष्ट है कि ऋग्वेद काल के अन्त में दासों की संख्या बढ़ रही थी। किन्तु ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिससे यह सिद्ध हो सके कि उन्हें किसी उत्पादन कार्य में लगाया जाता था। सम्भवत: उन्हें घरेलू नौकर की तरह रखा जाता था, जिसका मुख्य कार्य अपने मालिक की सेवा करना था, जो या तो सरदार या फिर पुरोहित होते थे। सामान्यत: ऐसे मालिक दीर्घतमस के पास दास थे।<ref>ऋग्वेद, I. 158.5-6.</ref> इन दासों को मुक्त हाथ से किसी के भी हाथ सौंपा जा सकता था।<ref>ऋग्वेद, X. 62.10. ‘उत् दासा परिविधेऽस्मद् दिष्टि गोपरिणसा: यदुस् तुर्वश् च मामहे’।</ref> ऐसा प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति ऋण नहीं चुका पाता था, तो उसे दास बना लिया जाता था, <ref>ऋग्वेद, X. 34.4.</ref> पर ऋण में पैसे नहीं दिए जाते थे, क्योंकि सिक्के का प्रचलन नहीं था। वास्तव में दास नाम से ही प्रकट होता है कि वैदिक काल में दासता का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत युद्ध था। दास जनजाति के लोग युद्ध में विजित होने पर भी दास के नाम से ही पुकारे जाते थे, पर इससे उनकी ग़ुलामी का बोध होता था।
;दास
;दास
दास कौन थे? साधारणत: दासों और दस्युओं को एक मान लिया जाता है। किन्तु दस्युहत्या शब्द के प्रयोग तो हैं, पर दासहत्या शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। आर्यों के अंतर्जातीय युद्धों में दासों को सहायक सेना के रूप में दिखाया गया है। अपव्रत, अन्यव्रत आदि के रूप में उनका वर्णन नहीं किया गया है। तीन स्थलों पर ‘दासों विशों’ का उल्लेख किया गया है; <ref>ऋग्वेद, II. 11.4, IV. 28.4 और VI. 25.2; दत्त : ‘स्टडीज़ इन हिन्दू सोशल पालिटी’, पृष्ठ 334, बी.एन. दत्त का विचार है कि ऋग्वेद VI. 25.2 में दासविश् का जो उल्लेख हुआ है, उसका तात्पर्य यह है कि दास को वैश्य कोटि में रखा गया है। किन्तु चूँकि उस समय वैश्य समाज के एक वर्ग के रूप में नहीं थे, इसीलिए यहाँ विश् को एक जनजाति विशेष माना जा सकता है।</ref> और सबसे बढ़कर तो यह कि एक सीथियन जनजाति - ईरानी दहे<ref>ऋग्वेद, VI, I, 357, ऋग्वेद, III. 53.14. 'किं ते कृण्वंति की कटेषु गावो नाशीरं दुर्हे न तपन्ति धर्मम्', जाति और भाषा की दृष्टि से दहे ईरानियों के बहुत निकट रहे होंगे, किन्तु यह बहुत स्पष्ट रूप से प्रमाणित नहीं हो पाया है; वही, त्सिम्मर ने हेरोडोट्स के दआई या दाअई, i. 126 को तूरानियन जनजाति का बताया है।</ref> से उनको अभिन्न दिखाया गया है। इन सब तथ्यों से दासों और दस्युओं का अन्तर स्पष्ट है : दस्युओं और वैदिक आर्यों में समानता की बात बहुत ही कम आती है।<ref>शेफर : ‘एथनोग्राफ़ी इन एनशिएंट इण्डिया’, पृष्ठ 32, कहा गया है कि सामाजिक स्तर पर दास और आर्य का स्थान दस्यु भीलों से ऊपर था।</ref> इसके विपरीत, दास सम्भवत: उन मिश्रित भारतीय आर्यों के अग्रिम दस्ते थे, जो उसी समय भारत आए, जब केसाइट बेबीलोनिया पहुँचे थे (1750 ई. पू.)। पुरातात्विकों का अनुमान है कि उत्तर फ़ारस से भारत की ओर लोगों का प्रस्थान या तो निरन्तर होता रहा अथवा उनका आगमन मुख्यत: दो बार हुआ था, जिनमें पहला आगमन 2000 ई. पू. के तुरन्त बाद हुआ था।<ref>स्टुअर्ट पिगाट : एंटिक्विटी, जिल्द XXIV, सं. 96, 218 लाल : एनशिएंट इण्डिया, दिल्ली, सं. 9, पृष्ठ 90-91. लाल का कथन है कि दूसरी सहस्राब्दी ई. पू. के पूर्वार्द्ध में शाही टुंप (आधनिक बलूचिस्तान) में और दूसरी सहस्राब्दी ई. पू. के उत्तरार्द्ध में फ़ोर्ट मुनरो (अफ़ग़ानिस्तान) में लोग झुंड के झुंड आए।</ref> शायद इसी कारण से आर्यों ने दासों के प्रति मेल-मिलाप की नीति अपनाई और दिवोदास, बलबुथ एवं एवं तरुक्ष जैसे उनके सरदार आर्यों के दल में आसानी से आत्मसात किए जा सके। अंतर्जातीय संघर्षों में अधिकतर आर्यों के सहायक के रूप में दासों के उल्लेख का भी यही कारण है। इससे लगता है कि ग़ुलाम के अर्थ में दास शब्द का प्रयोग भारत के आर्येतर निवासियों के बीच नहीं, बल्कि भारतीय आर्यों से सम्बद्ध लोगों के बीच प्रचलित था। ऋग्वेद के उत्तरवर्ती काल में दास शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में होने लगा था, जिससे न केवल मूल भारोपीय दासों के वंशजों, बल्कि दस्यु और राक्षस जैसे आर्य पूर्व लोगों और आर्य समुदाय के उन सदस्यों का भी बोध होता होगा, जो अपने आन्तरिक संघर्षों के कारण अकिंचनता या ग़ुलामी की स्थिति में पहुँच गए थे।
दास कौन थे? साधारणत: दासों और दस्युओं को एक मान लिया जाता है। किन्तु दस्युहत्या शब्द के प्रयोग तो हैं, पर दासहत्या शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। आर्यों के अंतर्जातीय युद्धों में दासों को सहायक सेना के रूप में दिखाया गया है। अपव्रत, अन्यव्रत आदि के रूप में उनका वर्णन नहीं किया गया है। तीन स्थलों पर ‘दासों विशों’ का उल्लेख किया गया है; <ref>ऋग्वेद, II. 11.4, IV. 28.4 और VI. 25.2; दत्त : ‘स्टडीज़ इन हिन्दू सोशल पालिटी’, पृष्ठ 334, बी.एन. दत्त का विचार है कि ऋग्वेद VI. 25.2 में दासविश् का जो उल्लेख हुआ है, उसका तात्पर्य यह है कि दास को वैश्य कोटि में रखा गया है। किन्तु चूँकि उस समय वैश्य समाज के एक वर्ग के रूप में नहीं थे, इसीलिए यहाँ विश् को एक जनजाति विशेष माना जा सकता है।</ref> और सबसे बढ़कर तो यह कि एक सीथियन जनजाति - ईरानी दहे<ref>ऋग्वेद, VI, I, 357, ऋग्वेद, III. 53.14. 'किं ते कृण्वंति की कटेषु गावो नाशीरं दुर्हे न तपन्ति धर्मम्', जाति और भाषा की दृष्टि से दहे ईरानियों के बहुत निकट रहे होंगे, किन्तु यह बहुत स्पष्ट रूप से प्रमाणित नहीं हो पाया है; वही, त्सिम्मर ने हेरोडोट्स के दआई या दाअई, i. 126 को तूरानियन जनजाति का बताया है।</ref> से उनको अभिन्न दिखाया गया है। इन सब तथ्यों से दासों और दस्युओं का अन्तर स्पष्ट है : दस्युओं और वैदिक आर्यों में समानता की बात बहुत ही कम आती है।<ref>शेफर : ‘एथनोग्राफ़ी इन एनशिएंट इण्डिया’, पृष्ठ 32, कहा गया है कि सामाजिक स्तर पर दास और आर्य का स्थान दस्यु भीलों से ऊपर था।</ref> इसके विपरीत, दास सम्भवत: उन मिश्रित भारतीय आर्यों के अग्रिम दस्ते थे, जो उसी समय भारत आए, जब केसाइट बेबीलोनिया पहुँचे थे (1750 ई. पू.)। पुरातात्विकों का अनुमान है कि उत्तर फ़ारस से भारत की ओर लोगों का प्रस्थान या तो निरन्तर होता रहा अथवा उनका आगमन मुख्यत: दो बार हुआ था, जिनमें पहला आगमन 2000 ई. पू. के तुरन्त बाद हुआ था।<ref>स्टुअर्ट पिगाट : एंटिक्विटी, जिल्द XXIV, सं. 96, 218 लाल : एनशिएंट इण्डिया, दिल्ली, सं. 9, पृष्ठ 90-91. लाल का कथन है कि दूसरी सहस्राब्दी ई. पू. के पूर्वार्द्ध में शाही टुंप (आधनिक बलूचिस्तान) में और दूसरी सहस्राब्दी ई. पू. के उत्तरार्ध में फ़ोर्ट मुनरो (अफ़ग़ानिस्तान) में लोग झुंड के झुंड आए।</ref> शायद इसी कारण से आर्यों ने दासों के प्रति मेल-मिलाप की नीति अपनाई और दिवोदास, बलबुथ एवं एवं तरुक्ष जैसे उनके सरदार आर्यों के दल में आसानी से आत्मसात किए जा सके। अंतर्जातीय संघर्षों में अधिकतर आर्यों के सहायक के रूप में दासों के उल्लेख का भी यही कारण है। इससे लगता है कि ग़ुलाम के अर्थ में दास शब्द का प्रयोग भारत के आर्येतर निवासियों के बीच नहीं, बल्कि भारतीय आर्यों से सम्बद्ध लोगों के बीच प्रचलित था। ऋग्वेद के उत्तरवर्ती काल में दास शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में होने लगा था, जिससे न केवल मूल भारोपीय दासों के वंशजों, बल्कि दस्यु और राक्षस जैसे आर्य पूर्व लोगों और आर्य समुदाय के उन सदस्यों का भी बोध होता होगा, जो अपने आन्तरिक संघर्षों के कारण अकिंचनता या ग़ुलामी की स्थिति में पहुँच गए थे।
;भाषाएँ
;भाषाएँ
यदि आर्यों की संख्या कम होती तो पराजित लोगों पर नए अल्पसंख्यक उच्च वर्गीय शासक के रूप में अपने को स्थापित करते जैसा कि हित्तियों (हिट्टाइट), कसाइटों और मितन्नी ने पश्चिम एशिया में किया था। किन्तु ऋग्वैदिक प्रमाण इस बात के प्रतिकूल हैं।<ref>वैदिक इंडेक्स, ii, पृष्ठ 255, ऋग्वेद, VI. 44.11, देखें, वर्ण शब्द।</ref> न केवल पराजित लोगों की जन-हत्या, बल्कि कितनी ही आर्य जनजातियों की बस्तियों का भी उल्लेख मिलता है।<ref>आर. सी. मजूमदार और ए. डी. पुसलकर : वैदिक एज, ऋग्वैदिक जातियों के लिये देखें, पृष्ठ 245-248 और वैदिक कालीन जातियों के लिए पृष्ठ 252-262.</ref> फिर, भारत के बहुत बड़े हिस्से में आर्य भाषाओं के प्रचलन से भी यह अनुमान किया जा सकता है कि इन भाषाओं के बोलने वाले बड़ी तादाद में आए थे। आगे चलकर बताया गया है कि उत्तर भारत की आबादी में वैश्यों के साथ-साथ शूद्रों की संख्या बहुत अधिक थी, किन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है, कि वे आर्येतर भाषाएँ बोलते थे। दूसरी ओर, शूद्र के लिए यज्ञ में प्रयुक्त सम्बोधन से स्पष्ट है कि उत्तर वैदिक काल में शूद्र आर्यों की भाषा समझते थे।<ref>[[शतपथ ब्राह्मण]], I. 1.4.11-12.</ref> इस सम्बन्ध में महाभारत की एक अनुश्रुति महत्त्वपूर्ण है : ‘ब्रह्मा ने वेद के प्रतीकस्वरूप सरस्वती का निर्माण पहले चारों वर्णों के लिए किया, किन्तु शूद्र धनलिप्सा में पड़कर आज्ञानांधकार में डूब गए और वेद के प्रति उनका अधिकार जाता रहा।’ <ref>महाभारत, शान्ति पर्व, 181.15, ‘वर्णश्चत्वार : एते हि येषां ब्राह्मी सरस्वती, विहिता ब्रह्मणा पूर्वा लोभात्वज्ञानतां गत:’।</ref> वेबर की दृष्टि में इस कंडिका से यह ध्वनित होता है कि प्राचीन युग में शूद्र आर्यों की भाषा बोलते थे।<ref>वेबर, इंडिश स्टुडियेन, II, 94 पाद टिप्पणी</ref> सम्भव है कि कुछ स्वस्थानिक जनजातियों ने अपनी बोली के बदले आर्यों की बोली अपना ली हो, जैसे आधुनिक युग में बिहार की कई जनजातियों ने अपनी भाषा को छोड़कर कुर्माली और सदाना जैसी आर्य बोलियाँ अपना ली हैं। किन्तु उन्होंने जिन लोगों की भाषा अपनाई, उनकी अपेक्षा इन आदिवासियों की संख्या अवश्य ही कम रही होगी। आधुनिक युग में भी, जबकि आर्यभाषा बोलने वालों को अपनी भाषा और संस्कृति का प्रसार करने के लिए अधिक सुविधाएँ प्राप्त हैं, वे आर्येतर भाषाओं को मिटा नहीं पाए हैं। इन आर्येतर भाषाओं में कुछ तो अपनी सशक्त वर्णनशीलता सिद्ध कर चुकी हैं।
यदि आर्यों की संख्या कम होती तो पराजित लोगों पर नए अल्पसंख्यक उच्च वर्गीय शासक के रूप में अपने को स्थापित करते जैसा कि हित्तियों (हिट्टाइट), कसाइटों और मितन्नी ने पश्चिम एशिया में किया था। किन्तु ऋग्वैदिक प्रमाण इस बात के प्रतिकूल हैं।<ref>वैदिक इंडेक्स, ii, पृष्ठ 255, ऋग्वेद, VI. 44.11, देखें, वर्ण शब्द।</ref> न केवल पराजित लोगों की जन-हत्या, बल्कि कितनी ही आर्य जनजातियों की बस्तियों का भी उल्लेख मिलता है।<ref>आर. सी. मजूमदार और ए. डी. पुसलकर : वैदिक एज, ऋग्वैदिक जातियों के लिये देखें, पृष्ठ 245-248 और वैदिक कालीन जातियों के लिए पृष्ठ 252-262.</ref> फिर, भारत के बहुत बड़े हिस्से में आर्य भाषाओं के प्रचलन से भी यह अनुमान किया जा सकता है कि इन भाषाओं के बोलने वाले बड़ी तादाद में आए थे। आगे चलकर बताया गया है कि उत्तर भारत की आबादी में वैश्यों के साथ-साथ शूद्रों की संख्या बहुत अधिक थी, किन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है, कि वे आर्येतर भाषाएँ बोलते थे। दूसरी ओर, शूद्र के लिए यज्ञ में प्रयुक्त सम्बोधन से स्पष्ट है कि उत्तर वैदिक काल में शूद्र आर्यों की भाषा समझते थे।<ref>[[शतपथ ब्राह्मण]], I. 1.4.11-12.</ref> इस सम्बन्ध में महाभारत की एक अनुश्रुति महत्त्वपूर्ण है : ‘ब्रह्मा ने वेद के प्रतीकस्वरूप सरस्वती का निर्माण पहले चारों वर्णों के लिए किया, किन्तु शूद्र धनलिप्सा में पड़कर आज्ञानांधकार में डूब गए और वेद के प्रति उनका अधिकार जाता रहा।’ <ref>महाभारत, शान्ति पर्व, 181.15, ‘वर्णश्चत्वार : एते हि येषां ब्राह्मी सरस्वती, विहिता ब्रह्मणा पूर्वा लोभात्वज्ञानतां गत:’।</ref> वेबर की दृष्टि में इस कंडिका से यह ध्वनित होता है कि प्राचीन युग में शूद्र आर्यों की भाषा बोलते थे।<ref>वेबर, इंडिश स्टुडियेन, II, 94 पाद टिप्पणी</ref> सम्भव है कि कुछ स्वस्थानिक जनजातियों ने अपनी बोली के बदले आर्यों की बोली अपना ली हो, जैसे आधुनिक युग में बिहार की कई जनजातियों ने अपनी भाषा को छोड़कर कुर्माली और सदाना जैसी आर्य बोलियाँ अपना ली हैं। किन्तु उन्होंने जिन लोगों की भाषा अपनाई, उनकी अपेक्षा इन आदिवासियों की संख्या अवश्य ही कम रही होगी। आधुनिक युग में भी, जबकि आर्यभाषा बोलने वालों को अपनी भाषा और संस्कृति का प्रसार करने के लिए अधिक सुविधाएँ प्राप्त हैं, वे आर्येतर भाषाओं को मिटा नहीं पाए हैं। इन आर्येतर भाषाओं में कुछ तो अपनी सशक्त वर्णनशीलता सिद्ध कर चुकी हैं।
;घुमन्तु समाज
;घुमन्तु समाज
ऊपर बताये गए तथ्यों के आधार पर यह कहना दुस्साहस नहीं होगा कि आर्य बड़ी तादाद में भारत आए। बैरी जनजातियों के साथ मिश्रण के बावजूद, आर्य सरदारों और पुरोहितों की संख्या बहुत कम रही होगी। कालक्रम से आर्य जनजातियों के अधिकांश लोग पशुपालक और किसान बन गए और कुछ लोग श्रमिक बन गए। पर ऋग्वेद काल में आर्थिक और सामाजिक विशिष्टीकरण की प्रक्रिया अत्यन्त प्रारम्भिक अवस्था में थी। इस जनजातिप्रधान समाज में सैनिक नेताओं को अतिरिक्त अनाज या मवेशी प्राप्त करने के नियत और नियमित साधन प्राय: नहीं थे, जिससे वे और उनके धार्मिक समर्थक अपना निर्वाह और समुन्नति कर सकते। यह समाज मुख्यत: घुमन्तु और पशुचारी था, और इसमें कृषि अथवा एक जगह बसने की प्रधानता नहीं थी। अतएव अनाज की चर्चा दान के रूप में भी नहीं आई है, और कर देने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। युद्ध में पराजित लोगों से उपहार के रूप में या लूटपाट से जो सम्पत्ति आर्य समुदाय को प्राप्त होती थी, वही उनकी आमदनी थी और प्राय: इस सम्पत्ति में भी उन्हें जनजाति के सदस्यों को हिस्सा देना पड़ता था।<ref>आर.एस. शर्मा : जर्नल ऑफ़ द बिहार रिसर्च सोसायटी, XXXVIII, 434-5; XXXIX, 418-9).</ref> ऋग्वेद में केवल बलि ही एक शब्द है, जो एक प्रकार से कर का द्योतक है। साधारणतया इसका तात्पर्य है, ‘देवता को अर्पित चढ़ावा’,<ref>ऋग्वेद, I. 70.9; V. 1.10; VIII. 100.9.</ref> किन्तु इसका प्रयोग राजा को दिये गए उपहार के रूप में किया जाता है।<ref>ऋग्वेद, VII. 6.5; X. 173.6, बलिहृत (कर देना).</ref> अनुमान है कि बलि का भुगतान करना ऐच्छिक था, <ref>वैदिक इंडेक्स, II. 62. त्सिम्मर के विचार।</ref> क्योंकि लोगों से इसकी वसूली के लिए कोई करवसूली संगठन नहीं था। जनजातीय राजा द्वारा अपने योद्धाओं और पुरोहितों को अनाज या भूमि के दान का दृष्टान्त नहीं मिलता। इसका कारण शायद यह था कि भूमि पूरे जनसमुदाय की सम्पत्ति थी। ऋग्वैदिक समाज एक प्रकार का समतावादी समाज था, यह इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि पुरुष या स्त्री, प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक ही वैरदेय प्राप्त करने का परंपरासिद्ध अधिकार प्राप्त था, <ref>मैक्समूलर : ‘सेक्रेड बुक्स ऑफ़ द ईस्ट’, XXXII. 361. ऋग्वेद का अनुवाद, V. 61.8.</ref> जो एक सौ गायों के बराबर था।<ref>वैदिक इंडेक्स, II. 331.</ref>
ऊपर बताये गए तथ्यों के आधार पर यह कहना दुस्साहस नहीं होगा कि आर्य बड़ी तादाद में भारत आए। बैरी जनजातियों के साथ मिश्रण के बावजूद, आर्य सरदारों और पुरोहितों की संख्या बहुत कम रही होगी। कालक्रम से आर्य जनजातियों के अधिकांश लोग पशुपालक और किसान बन गए और कुछ लोग श्रमिक बन गए। पर ऋग्वेद काल में आर्थिक और सामाजिक विशिष्टीकरण की प्रक्रिया अत्यन्त प्रारम्भिक अवस्था में थी। इस जनजातिप्रधान समाज में सैनिक नेताओं को अतिरिक्त अनाज या मवेशी प्राप्त करने के नियत और नियमित साधन प्राय: नहीं थे, जिससे वे और उनके धार्मिक समर्थक अपना निर्वाह और समुन्नति कर सकते। यह समाज मुख्यत: घुमन्तु और पशुचारी था, और इसमें कृषि अथवा एक जगह बसने की प्रधानता नहीं थी। अतएव अनाज की चर्चा दान के रूप में भी नहीं आई है, और कर देने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। युद्ध में पराजित लोगों से उपहार के रूप में या लूटपाट से जो सम्पत्ति आर्य समुदाय को प्राप्त होती थी, वही उनकी आमदनी थी और प्राय: इस सम्पत्ति में भी उन्हें जनजाति के सदस्यों को हिस्सा देना पड़ता था।<ref>आर.एस. शर्मा : जर्नल ऑफ़ द बिहार रिसर्च सोसायटी, XXXVIII, 434-5; XXXIX, 418-9).</ref> ऋग्वेद में केवल बलि ही एक शब्द है, जो एक प्रकार से कर का द्योतक है। साधारणतया इसका तात्पर्य है, ‘देवता को अर्पित चढ़ावा’,<ref>ऋग्वेद, I. 70.9; V. 1.10; VIII. 100.9.</ref> किन्तु इसका प्रयोग राजा को दिये गए उपहार के रूप में किया जाता है।<ref>ऋग्वेद, VII. 6.5; X. 173.6, बलिहृत (कर देना).</ref> अनुमान है कि बलि का भुगतान करना ऐच्छिक था, <ref>वैदिक इंडेक्स, II. 62. त्सिम्मर के विचार।</ref> क्योंकि लोगों से इसकी वसूली के लिए कोई करवसूली संगठन नहीं था। जनजातीय राजा द्वारा अपने योद्धाओं और पुरोहितों को अनाज या भूमि के दान का दृष्टान्त नहीं मिलता। इसका कारण शायद यह था कि भूमि पूरे जनसमुदाय की सम्पत्ति थी। ऋग्वैदिक समाज एक प्रकार का समतावादी समाज था, यह इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि पुरुष या स्त्री, प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक ही वैरदेय प्राप्त करने का परंपरासिद्ध अधिकार प्राप्त था, <ref>[[मैक्समूलर]] : ‘सेक्रेड बुक्स ऑफ़ द ईस्ट’, XXXII. 361. ऋग्वेद का अनुवाद, V. 61.8.</ref> जो एक सौ गायों के बराबर था।<ref>वैदिक इंडेक्स, II. 331.</ref>
;ऋग्वेद, अथर्ववेद में वर्णित समाज
;ऋग्वेद, अथर्ववेद में वर्णित समाज
सारांश यह कि ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में वर्णित समाज में गहरे वर्गभेद का अभाव था, जैसा सामान्यतया प्रारम्भिक आदिम समाजों में देखने को मिलता है।<ref>लैंटमैन : ‘द ओरिजिन्स ऑफ़ सोशल इनइक्वेलिटीज़ ऑफ़ द सोशल क्लासेज’,, पृष्ठ 5-12 में दिए गए उदाहरण। उन्होंने पूर्व भारत के नागाओं और कूकियों में वर्गभेद के अभाव का भी उल्लेख किया है (पृष्ठ 11)।</ref> प्राय: पुराणों में वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति के विषय में जो अनुमान किये गए हैं, वे उस स्थिति का ही उल्लेख करते हैं। इन अनुमानों के अनुसार त्रेता युग का आरम्भ होने तक न तो कोई वर्णव्यवस्था थी, न कोई व्यक्ति लालची था और न ही लोगों में दूसरे की वस्तु चुरा लेने की प्रवृत्ति थी।<ref>वायु पुराण, I. VIII. 60; देखें, दीघ निकाय, अगञ्ञसुत्त, ‘वर्णाश्रमव्यवस्थाश्च न तदासन्नसंकर: न लिप्सन्ति हि तेऽन्योन्यन्नानुगृहणन्ति चैव हि’।</ref> किन्तु अति प्राचीन काल में भी सैनिकों, नेताओं और पुरोहितों के मंथर उदभव के साथ-साथ खेतिहर किसान और हस्तकलाओं का व्यवसाय करने वाले कारीगर या शिल्पी जैसे वर्गों का भी उदभव हुआ। बुनकर (जुलाहे), चर्मकार, बढ़ई और चित्रकार के लिए एक ही ढंग के शब्दों का प्रयोग उनके भारोपीय उदभव का संकेत देता है।<ref>कार्ल डार्लिंग : ‘ए डिक्शनरी ऑफ़ सिलेक्टेड सिनोनिम्स इन द प्रिंसिपल इंडो-यूरोपियन लैंग्वेज’, चर्म (चर्मन् के लिए देखें पृष्ठ 40, बुनाई के लिए पृष्ठ 408, तक्षन् के लिए पृष्ठ 589-90 और वेणीकार के लिए पृष्ठ 621-22; चाइंल्ड : द एरियंस, पृष्ठ 86.)</ref> रथ के लिए एक भारोपीय शब्द के व्यापक प्रयोग से पता चलता है कि भारोपीय लोग रथ का निर्माण करना जानते रहे होंगे।<ref>चाइल्ड : द एरियंस, पृष्ठ 86 और 92.</ref> किन्तु ऋग्वेद में जहाँ पहले के अनेकानेक परिच्छेदों में बढ़ई के कार्य की चर्चा हुई है, वहीं रथकार शब्द का प्रयोग नहीं दिखाई पड़ता।<ref>ऋग्वेद, IV. 35.6, 36.5; VI. 32.1.</ref> अथर्ववेद से संकेत मिलता है कि रथनिर्माता (रथकार) और धातुकर्म करने वाले (कर्मार) को समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। इसी ग्रन्थ के आरम्भिक भाग में नवनिर्वाचित राजा पर्णमणि (पादपीयताबीज) से प्रार्थना करता है कि वह आसपास रहने वाले कुशल रथ निर्माताओं और धातुकर्म करने वालों के बीच उसकी स्थिति सुदृढ़ करने में सहायक हों। प्रार्थना का उद्देश्य शिल्पियों को राजा का सहायक बनाना है<ref>अथर्ववेद, III 5.6; ‘ये धीवानो रथकारा: कर्मारा ये मनीषिण: उपस्तीन्पर्ण मह्यं त्वम् सर्वानकृण्वभितो जनान्’। यहाँ ब्लूमफ़ील्ड के अनुवाद का अनुसरण किया गया है। व्हिटने ने ब्लूमफ़ील्ड जैसा ही अनुवाद प्रस्तुत किया है, किन्तु उन्होंने सायण के विचारानुसार उपस्तिन् को प्रजा के अर्थ में लिया है। सायण धीवान: और मनीषिण: को अलग-अलग संज्ञा मानते हैं, जिनका अर्थ मछुआ और बुद्धिजीवी किया गया है। पैप्प. ग्रन्थ में थोड़ा सा पाठभेद है, ‘ये तक्षाणो रथकारा: कर्मारा ये मनीषिण:, सर्वांस तान्पर्ण रंघयोपस्तिं कृणु मेदिनम्’। III. 13.7.</ref> और इस दृष्टि से वे राजाओं, राजविधाताओं, सूतों और दलपतियों (ग्रामणी) के समकक्ष मालूम पड़ते हैं, <ref>‘वेदिक इंडेक्स’, I. पृष्ठ 247; सम्भवत: वह असैनिक और सैनिक, दोनों प्रकार के कार्यों के लिए गाँव का प्रधान था।</ref> जो सब राजा के आसपास रहते हैं और जो राजा के सहायक माने जाते हैं।<ref>अथर्ववेद, III. 5.7.</ref>
सारांश यह कि ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में वर्णित समाज में गहरे वर्गभेद का अभाव था, जैसा सामान्यतया प्रारम्भिक आदिम समाजों में देखने को मिलता है।<ref>लैंटमैन : ‘द ओरिजिन्स ऑफ़ सोशल इनइक्वेलिटीज़ ऑफ़ द सोशल क्लासेज’,, पृष्ठ 5-12 में दिए गए उदाहरण। उन्होंने पूर्व भारत के नागाओं और कूकियों में वर्गभेद के अभाव का भी उल्लेख किया है (पृष्ठ 11)।</ref> प्राय: पुराणों में वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति के विषय में जो अनुमान किये गए हैं, वे उस स्थिति का ही उल्लेख करते हैं। इन अनुमानों के अनुसार त्रेता युग का आरम्भ होने तक न तो कोई वर्णव्यवस्था थी, न कोई व्यक्ति लालची था और न ही लोगों में दूसरे की वस्तु चुरा लेने की प्रवृत्ति थी।<ref>वायु पुराण, I. VIII. 60; देखें, दीघ निकाय, अगञ्ञसुत्त, ‘वर्णाश्रमव्यवस्थाश्च न तदासन्नसंकर: न लिप्सन्ति हि तेऽन्योन्यन्नानुगृहणन्ति चैव हि’।</ref> किन्तु अति प्राचीन काल में भी सैनिकों, नेताओं और पुरोहितों के मंथर उदभव के साथ-साथ खेतिहर किसान और हस्तकलाओं का व्यवसाय करने वाले कारीगर या शिल्पी जैसे वर्गों का भी उदभव हुआ। बुनकर (जुलाहे), चर्मकार, बढ़ई और चित्रकार के लिए एक ही ढंग के शब्दों का प्रयोग उनके भारोपीय उदभव का संकेत देता है।<ref>कार्ल डार्लिंग : ‘ए डिक्शनरी ऑफ़ सिलेक्टेड सिनोनिम्स इन द प्रिंसिपल इंडो-यूरोपियन लैंग्वेज’, चर्म (चर्मन् के लिए देखें पृष्ठ 40, बुनाई के लिए पृष्ठ 408, तक्षन् के लिए पृष्ठ 589-90 और वेणीकार के लिए पृष्ठ 621-22; चाइंल्ड : द एरियंस, पृष्ठ 86.)</ref> रथ के लिए एक भारोपीय शब्द के व्यापक प्रयोग से पता चलता है कि भारोपीय लोग रथ का निर्माण करना जानते रहे होंगे।<ref>चाइल्ड : द एरियंस, पृष्ठ 86 और 92.</ref> किन्तु ऋग्वेद में जहाँ पहले के अनेकानेक परिच्छेदों में बढ़ई के कार्य की चर्चा हुई है, वहीं रथकार शब्द का प्रयोग नहीं दिखाई पड़ता।<ref>ऋग्वेद, IV. 35.6, 36.5; VI. 32.1.</ref> अथर्ववेद से संकेत मिलता है कि रथनिर्माता (रथकार) और धातुकर्म करने वाले (कर्मार) को समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। इसी ग्रन्थ के आरम्भिक भाग में नवनिर्वाचित राजा पर्णमणि (पादपीयताबीज) से प्रार्थना करता है कि वह आसपास रहने वाले कुशल रथ निर्माताओं और धातुकर्म करने वालों के बीच उसकी स्थिति सुदृढ़ करने में सहायक हों। प्रार्थना का उद्देश्य शिल्पियों को राजा का सहायक बनाना है<ref>अथर्ववेद, III 5.6; ‘ये धीवानो रथकारा: कर्मारा ये मनीषिण: उपस्तीन्पर्ण मह्यं त्वम् सर्वानकृण्वभितो जनान्’। यहाँ ब्लूमफ़ील्ड के अनुवाद का अनुसरण किया गया है। व्हिटने ने ब्लूमफ़ील्ड जैसा ही अनुवाद प्रस्तुत किया है, किन्तु उन्होंने सायण के विचारानुसार उपस्तिन् को प्रजा के अर्थ में लिया है। सायण धीवान: और मनीषिण: को अलग-अलग संज्ञा मानते हैं, जिनका अर्थ मछुआ और बुद्धिजीवी किया गया है। पैप्प. ग्रन्थ में थोड़ा सा पाठभेद है, ‘ये तक्षाणो रथकारा: कर्मारा ये मनीषिण:, सर्वांस तान्पर्ण रंघयोपस्तिं कृणु मेदिनम्’। III. 13.7.</ref> और इस दृष्टि से वे राजाओं, राजविधाताओं, सूतों और दलपतियों (ग्रामणी) के समकक्ष मालूम पड़ते हैं, <ref>‘वेदिक इंडेक्स’, I. पृष्ठ 247; सम्भवत: वह असैनिक और सैनिक, दोनों प्रकार के कार्यों के लिए गाँव का प्रधान था।</ref> जो सब राजा के आसपास रहते हैं और जो राजा के सहायक माने जाते हैं।<ref>अथर्ववेद, III. 5.7.</ref>


स्पष्ट है कि आर्य समुदाय के सदस्य (विश्) ऊपर बताए गए शिल्पों का व्यवसाय करते थे और उन्हें किसी भी प्रकार से हीन नहीं समझा जाता था। ऋग्वेद की एक परवर्ती ऋचा में बढ़ई का वर्णन इस रूप में किया गया है कि वह सामान्यतया अपना काम तब तक झुककर करता रहता है, जब तक उसकी कमर टूटने न लग जाए।<ref>ऋग्वेद, I. 105.18.</ref> इससे आभास मिलता है कि उसका कार्य कठिन था। पर इससे हमारे मन में उसके प्रति घृणा के भाव नहीं जगते हैं। वैदिक काल के संदर्भ में यह नहीं कहा जा सकता कि बढ़ई नीची जाति के थे या उनका अपना एक पृथक वर्ग था।<ref>वैदिक इंडेक्स, I. पृष्ठ 297.</ref> किन्तु कर्मार, बढ़ई (तक्षन्), चर्मम्<ref>ऋग्वेद, VIII. 5.38.</ref>, जुलाहे और अन्य लोग, जिनका व्यवसाय ऋग्वेद में सम्मानजनक माना गया है और जिनका विश् के सम्मानित सदस्य भी आदर करते थे, पालि ग्रन्थों में शूद्र माने गए हैं।<ref>वैदिक इंडेक्स, II. पृष्ठ 265-6.</ref> सम्भव है कि आर्येतर लोगों ने भी स्वतंत्र रूप से इन शिल्पों को अपनाया हो, <ref>फिक : ‘द सोशल आर्गेनाइजेशन इन नार्थ ईस्ट इण्डिया’, पृष्ठ 326-7.</ref> पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि आर्य शिल्पियों के अनेक वंशज, जो अपने प्राचीन व्यवसाय में ही लगे रहे, शूद्र समझे जाने लगे।
स्पष्ट है कि आर्य समुदाय के सदस्य (विश्) ऊपर बताए गए शिल्पों का व्यवसाय करते थे और उन्हें किसी भी प्रकार से हीन नहीं समझा जाता था। ऋग्वेद की एक परवर्ती ऋचा में बढ़ई का वर्णन इस रूप में किया गया है कि वह सामान्यतया अपना काम तब तक झुककर करता रहता है, जब तक उसकी कमर टूटने न लग जाए।<ref>ऋग्वेद, I. 105.18.</ref> इससे आभास मिलता है कि उसका कार्य कठिन था। पर इससे हमारे मन में उसके प्रति घृणा के भाव नहीं जगते हैं। वैदिक काल के संदर्भ में यह नहीं कहा जा सकता कि बढ़ई नीची जाति के थे या उनका अपना एक पृथक् वर्ग था।<ref>वैदिक इंडेक्स, I. पृष्ठ 297.</ref> किन्तु कर्मार, बढ़ई (तक्षन्), चर्मम्<ref>ऋग्वेद, VIII. 5.38.</ref>, जुलाहे और अन्य लोग, जिनका व्यवसाय ऋग्वेद में सम्मानजनक माना गया है और जिनका विश् के सम्मानित सदस्य भी आदर करते थे, पालि ग्रन्थों में शूद्र माने गए हैं।<ref>वैदिक इंडेक्स, II. पृष्ठ 265-6.</ref> सम्भव है कि आर्येतर लोगों ने भी स्वतंत्र रूप से इन शिल्पों को अपनाया हो, <ref>फिक : ‘द सोशल आर्गेनाइजेशन इन नार्थ ईस्ट इण्डिया’, पृष्ठ 326-7.</ref> पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि आर्य शिल्पियों के अनेक वंशज, जो अपने प्राचीन व्यवसाय में ही लगे रहे, शूद्र समझे जाने लगे।


{{लेख प्रगति|आधार= |प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}  
 
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
==बाहरी कड़ियाँ==
==बाहरी कड़ियाँ==
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{जातियाँ और जन जातियाँ}}
{{शूद्र}}{{जातियाँ और जन जातियाँ}}
 
[[Category:जातियाँ और जन जातियाँ]][[Category:संस्कृति कोश]] [[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:पौराणिक कोश]][[Category:धर्म कोश]]
[[Category:जातियाँ और जन जातियाँ]][[Category:संस्कृति कोश]] [[Category:पौराणिक कोश]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

13:28, 1 अगस्त 2017 के समय का अवतरण

ऋग्वेद और दास
चर्मकार का अभिकल्पित चित्र
चर्मकार का अभिकल्पित चित्र
विवरण शूद्र भारतीय समाज व्यवस्था में चतुर्थ वर्ण या जाति है।
उत्पत्ति शूद्र शब्द मूलत: विदेशी है और संभवत: एक पराजित अनार्य जाति का मूल नाम था।
पौराणिक संदर्भ वायु पुराण का कथन है कि शोक करके द्रवित होने वाले परिचर्यारत व्यक्ति शूद्र हैं। भविष्यपुराण में श्रुति की द्रुति (अवशिष्टांश) प्राप्त करने वाले शूद्र कहलाए।[1]
वैदिक परंपरा अथर्ववेद में कल्याणी वाक (वेद) का श्रवण शूद्रों को विहित था।[2] परंपरा है कि ऐतरेय ब्राह्मण का रचयिता महीदास इतरा (शूद्र) का पुत्र था। किंतु बाद में वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों से ले लिया गया।
ऐतिहासिक संदर्भ शूद्र जनजाति का उल्लेख डायोडोरस, टॉल्मी और ह्वेन त्सांग भी करते हैं।
आर्थिक स्थिति उत्तर वैदिक काल में शूद्र की स्थिति दास की थी अथवा नहीं[3] इस विषय में निश्चित नहीं कहा जा सकता। वह कर्मकार और परिचर्या करने वाला वर्ग था।
मध्य काल कबीर, रैदास, पीपा इस काल के प्रसिद्ध शूद्र संत हैं। असम के शंकरदेव द्वारा प्रवर्तित मत, पंजाब का सिक्ख संप्रदाय और महाराष्ट्र के बारकरी संप्रदाय ने शूद्र महत्त्व धार्मिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित किया।
आधुनिक काल वेबर, भीमराव आम्बेडकर, ज़िमर और रामशरण शर्मा क्रमश: शूद्रों को मूलत: भारतवर्ष में प्रथमागत आर्यस्कंध, क्षत्रिय, ब्राहुई भाषी और आभीर संबद्ध मानते हैं।
संबंधित लेख वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, चर्मकार, मीणा, कुम्हार, दास, भील, बंजारा
अन्य जानकारी पद से उत्पन्न होने के कारण पदपरिचर्या शूद्रों का विशिष्ट व्यवसाय है। द्विजों के साथ आसन, शयन वाक और पथ में समता की इच्छा रखने वाला शूद्र दंड्य है।[4]

कहा गया है कि ब्राह्मणवाद आर्यों से पूर्व की संस्था है।[5] सारे पुरोहित वर्ग के विषय में यह कहना कठिन है। लैटिन फ्लामेन रोमन राजाओं द्वारा स्थापित एक प्रकार के पुरोहित पद का अभिधान है, जिसका समीकरण ब्राह्मण शब्द से किया गया है।[6] इस समानता के अतिरिक्त वेदकालीन भारत के अथर्वन पुरोहित और ईरान के अथर्वन की सुपरिचित समानता है। किन्तु फिर भी एक प्रमुख आपत्ति का उत्तर देना शेष रह जाता है। कीथ का कहना है कि ऋग्वैदिक मान्यता और वैदिक देवताओं की अपेक्षाकृत बहुलता पुरोहितों के कठिन प्रयास और अपरिमित समन्वयवाद का परिणाम रही होगी।[7] इतना ही नहीं वेदों और महाकाव्यों की परम्परा से पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत किये गए हैं, जिनसे पता चलता है कि इन्द्र ब्राह्मणघाती थे और उनका मुख्य दुश्मन ‘वृत्र’ ब्राह्मण था।[8] इससे यह परिकल्पना पुष्ट होती है कि विकसित पुरोहित प्रथा आर्यों के पहले की प्रथा थी, जिससे निष्कर्ष निकल सकता है कि जो लोग पराजित हुए वे सभी दास या शूद्र नहीं बना लिए गए। अतएव, यद्यपि ब्राह्मणवाद भारोपीय संस्था था, फिर भी आर्य विजेताओं के पुरोहित वर्ग में अधिकांश विजित जाति के लोग लिये गए होंगे।[9] उनका अनुपात क्या रहा होगा, यह बताने के लिए कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यपूर्व पुरोहितों को इस नए समाज में स्थान मिला था। यह सोचना ग़लत होगा कि सभी काले लोगों को शूद्र बना लिया गया था, क्योंकि ऐसे प्रसंग आए हैं, जिनमें काले ऋषियों की भी चर्चा है। ऋग्वेद में ‘अश्विनी’ के सम्बन्ध में जो वर्णन किया गया है, उसके अनुसार उन्होंने काले वर्ण के (श्यावाय) कण्व को गौरवर्ण की स्त्रियाँ प्रदान की थीं।[10] सम्भवत: कण्व को कृष्ण भी कहा गया है[11] और वे इन युग्म देवों को सम्बोधित सूक्तों (ऋग्वेद के मंडल आठ, सूक्त पचासी और छियासी) के द्रष्टा हैं। शायद कण्व को ही पुन: ऋग्वेद के प्रथम मंडल में कृष्ण ऋषि के रूप में चित्रित किया गया है।[12] इसी प्रकार ऋग्वेद की एक ऋचा में गायक के रूप में वर्णित ‘दीर्घतमस’ काले रंग का रहा होगा, अगर यह नाम उसे काले वर्ण के कारण मिला हो।[13] यह महत्त्वपूर्ण है कि ऋग्वेद के कई अनुच्छेदों में वह केवल मातृमूलक नाम ‘मामतेय’ से ही चर्चित है। बाद की एक अनुश्रुति यह भी है कि उसने उशिज से विवाह किया, जो एक दास की लड़की थी और उससे काक्षीवंत् उत्पन्न हुआ।[14] पुन: ऋग्वेद के प्रथम मंडल में ऋषि दिवोदास को, जिनके नाम से ध्वनित होता है कि वे दास वंश के थे, [15] नई ऋचाओं का रचयिता बताया गया है[16] तथा दसवें मंडल में उसके सूक्त बयालिस-चौवालिस के लेखक अंगिरस को कृष्ण कहा गया है।[17] चूँकि ऊपर बताए गए अधिकांश निर्देश ऋग्वेद के परवर्ती भागों में पड़ते हैं, इसीलिए यह स्पष्ट होगा कि ऋग्वैदिक काल के अन्तिम चरण में नवगठित आर्य समुदाय में कुछ काले ऋषियों और दास पुरोहितों का प्रवेश हो रहा था।

इसी प्रकार मालूम पड़ता है कि कुछ पराजित सरदारों को नए समाज में उच्च स्थान दिया गया था। दास के प्रमुखों - यथा बलबूथ और तरुक्ष से पुरोहितों ने जो उपहार ग्रहण किया, उसके चलते इन लोगों की बड़ी सराहना हुई और नए समाज में उनका दर्जा भी बढ़ा। दास उपहार प्रस्तुत करने की स्थिति में थे और उन्हें दानी समझा जाता था। यह निष्कर्ष 'दश् धातु' के अर्थ से ही निकाला जा सकता है, जिससे दास संज्ञा का निर्माण हुआ है।[18] बाद में भी विलयन की प्रक्रिया चलती रही, क्योंकि बाद के साहित्य में इस अनुश्रुति का उल्लेख है कि प्रतर्दन दैवोदासि इन्द्रलोक गए[19], और ऐतिहासिक दृष्टि से इन्द्र आर्य आक्रमणकारियों के नामधारी शासक थे।

प्राचीन समाज में आत्मीसात

प्राचीन ग्रन्थ इस तथ्य पर विशेष प्रकाश नहीं डालते कि सामान्य आर्यजन (विश्) और प्राचीन समाज के अवशिष्ट लोगों का आत्मसातीकरण किस प्रकार हुआ। सम्भवत: अधिकांश लोग आर्यों के समाज के चौथे वर्ण में मिला लिये गए। किन्तु पुरुष सूक्त को छोड़कर ऋग्वेद में शूद्र वर्ण का कोई प्रमाण नहीं है। हाँ, ऋग्वैदिक काल के आरम्भ में दासियों का छोटा सा आज्ञानुवर्ती समुदाय विद्यमान था। अनुमानत: आर्यों के जो शत्रु थे, उनमें पुरुषों के मारे जाने पर उनकी पत्नियाँ दासता की स्थिति में पहुँच गईं। कहा गया है कि पुरुकुत्स के बेटे त्रसदस्यु ने उपहार के रूप में पचास दासियाँ दीं।[20] अथर्ववेद के आरम्भिक अंशों में भी दासियों के सम्बन्ध में प्रमाण मिलते हैं। उसमें दासी का जो चित्र उपस्थित किया गया है, उसके अनुसार उसके हाथ भीगे रहते थे, वह ओखल - मूसल कूटती थी[21] तथा गाय के गोबर[22] पर पानी छिड़कती थी। इससे पता चलता है कि वह घरेलू कार्य करती थी। इस संहिता में काली दासी का प्राचीनतम उल्लेख मिलता है।[23] सन्दर्भों से पता चलता है कि आरम्भिक वैदिक समाज में दासियों से गृहकार्य कराया जाता था। दासी शब्द के प्रयोग से स्पष्ट है कि वे पराजित दासों की स्त्रियाँ थीं।

ग़ुलाम शब्द का प्रयोग

ग़ुलाम के अर्थ में दास शब्द का प्रयोग अधिकांशत: ऋग्वेद के परवर्ती भागों में पाया जाता है। प्रथम मंडल में दो जगह[24] दशम मंडल में एक जगह[25] और अष्टम मंडल में जो अतिरिक्त सूक्त (बालखिल्य) जोड़े गए हैं, उनमें से एक जगह[26] इसका प्रसंग आया है। इस प्रकार का एकमात्र प्राचीन प्रसंग आठवें मंडल में पाया जाता है।[27] ऋग्वेद में कोई दूसरा शब्द नहीं मिलता, जिसका अर्थ दास लगाया जा सकता हो। इससे स्पष्ट है कि आरम्भिक ऋग्वेद काल में शायद ही पुरुष दास रहे होंगे।

दासों की संख्या और स्वरूप

उत्तर-ऋग्वेद काल में दासों की संख्या और स्वरूप के बारे में जो प्रसंग आए हैं, उनसे केवल धुँधला-सा चित्र उभरता है। बालखिल्य में सौ दासों की चर्चा आई है, जिन्हें गदहे और भेड़ की कोटि में रखा गया है।[28] बाद के एक अन्य प्रसंग में आए ‘दासप्रवर्ग’ का अर्थ सम्पत्ति या दासों का समूह किया जा सकता है।[29] इससे यह स्पष्ट है कि ऋग्वेद काल के अन्त में दासों की संख्या बढ़ रही थी। किन्तु ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिससे यह सिद्ध हो सके कि उन्हें किसी उत्पादन कार्य में लगाया जाता था। सम्भवत: उन्हें घरेलू नौकर की तरह रखा जाता था, जिसका मुख्य कार्य अपने मालिक की सेवा करना था, जो या तो सरदार या फिर पुरोहित होते थे। सामान्यत: ऐसे मालिक दीर्घतमस के पास दास थे।[30] इन दासों को मुक्त हाथ से किसी के भी हाथ सौंपा जा सकता था।[31] ऐसा प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति ऋण नहीं चुका पाता था, तो उसे दास बना लिया जाता था, [32] पर ऋण में पैसे नहीं दिए जाते थे, क्योंकि सिक्के का प्रचलन नहीं था। वास्तव में दास नाम से ही प्रकट होता है कि वैदिक काल में दासता का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत युद्ध था। दास जनजाति के लोग युद्ध में विजित होने पर भी दास के नाम से ही पुकारे जाते थे, पर इससे उनकी ग़ुलामी का बोध होता था।

दास

दास कौन थे? साधारणत: दासों और दस्युओं को एक मान लिया जाता है। किन्तु दस्युहत्या शब्द के प्रयोग तो हैं, पर दासहत्या शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। आर्यों के अंतर्जातीय युद्धों में दासों को सहायक सेना के रूप में दिखाया गया है। अपव्रत, अन्यव्रत आदि के रूप में उनका वर्णन नहीं किया गया है। तीन स्थलों पर ‘दासों विशों’ का उल्लेख किया गया है; [33] और सबसे बढ़कर तो यह कि एक सीथियन जनजाति - ईरानी दहे[34] से उनको अभिन्न दिखाया गया है। इन सब तथ्यों से दासों और दस्युओं का अन्तर स्पष्ट है : दस्युओं और वैदिक आर्यों में समानता की बात बहुत ही कम आती है।[35] इसके विपरीत, दास सम्भवत: उन मिश्रित भारतीय आर्यों के अग्रिम दस्ते थे, जो उसी समय भारत आए, जब केसाइट बेबीलोनिया पहुँचे थे (1750 ई. पू.)। पुरातात्विकों का अनुमान है कि उत्तर फ़ारस से भारत की ओर लोगों का प्रस्थान या तो निरन्तर होता रहा अथवा उनका आगमन मुख्यत: दो बार हुआ था, जिनमें पहला आगमन 2000 ई. पू. के तुरन्त बाद हुआ था।[36] शायद इसी कारण से आर्यों ने दासों के प्रति मेल-मिलाप की नीति अपनाई और दिवोदास, बलबुथ एवं एवं तरुक्ष जैसे उनके सरदार आर्यों के दल में आसानी से आत्मसात किए जा सके। अंतर्जातीय संघर्षों में अधिकतर आर्यों के सहायक के रूप में दासों के उल्लेख का भी यही कारण है। इससे लगता है कि ग़ुलाम के अर्थ में दास शब्द का प्रयोग भारत के आर्येतर निवासियों के बीच नहीं, बल्कि भारतीय आर्यों से सम्बद्ध लोगों के बीच प्रचलित था। ऋग्वेद के उत्तरवर्ती काल में दास शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में होने लगा था, जिससे न केवल मूल भारोपीय दासों के वंशजों, बल्कि दस्यु और राक्षस जैसे आर्य पूर्व लोगों और आर्य समुदाय के उन सदस्यों का भी बोध होता होगा, जो अपने आन्तरिक संघर्षों के कारण अकिंचनता या ग़ुलामी की स्थिति में पहुँच गए थे।

भाषाएँ

यदि आर्यों की संख्या कम होती तो पराजित लोगों पर नए अल्पसंख्यक उच्च वर्गीय शासक के रूप में अपने को स्थापित करते जैसा कि हित्तियों (हिट्टाइट), कसाइटों और मितन्नी ने पश्चिम एशिया में किया था। किन्तु ऋग्वैदिक प्रमाण इस बात के प्रतिकूल हैं।[37] न केवल पराजित लोगों की जन-हत्या, बल्कि कितनी ही आर्य जनजातियों की बस्तियों का भी उल्लेख मिलता है।[38] फिर, भारत के बहुत बड़े हिस्से में आर्य भाषाओं के प्रचलन से भी यह अनुमान किया जा सकता है कि इन भाषाओं के बोलने वाले बड़ी तादाद में आए थे। आगे चलकर बताया गया है कि उत्तर भारत की आबादी में वैश्यों के साथ-साथ शूद्रों की संख्या बहुत अधिक थी, किन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है, कि वे आर्येतर भाषाएँ बोलते थे। दूसरी ओर, शूद्र के लिए यज्ञ में प्रयुक्त सम्बोधन से स्पष्ट है कि उत्तर वैदिक काल में शूद्र आर्यों की भाषा समझते थे।[39] इस सम्बन्ध में महाभारत की एक अनुश्रुति महत्त्वपूर्ण है : ‘ब्रह्मा ने वेद के प्रतीकस्वरूप सरस्वती का निर्माण पहले चारों वर्णों के लिए किया, किन्तु शूद्र धनलिप्सा में पड़कर आज्ञानांधकार में डूब गए और वेद के प्रति उनका अधिकार जाता रहा।’ [40] वेबर की दृष्टि में इस कंडिका से यह ध्वनित होता है कि प्राचीन युग में शूद्र आर्यों की भाषा बोलते थे।[41] सम्भव है कि कुछ स्वस्थानिक जनजातियों ने अपनी बोली के बदले आर्यों की बोली अपना ली हो, जैसे आधुनिक युग में बिहार की कई जनजातियों ने अपनी भाषा को छोड़कर कुर्माली और सदाना जैसी आर्य बोलियाँ अपना ली हैं। किन्तु उन्होंने जिन लोगों की भाषा अपनाई, उनकी अपेक्षा इन आदिवासियों की संख्या अवश्य ही कम रही होगी। आधुनिक युग में भी, जबकि आर्यभाषा बोलने वालों को अपनी भाषा और संस्कृति का प्रसार करने के लिए अधिक सुविधाएँ प्राप्त हैं, वे आर्येतर भाषाओं को मिटा नहीं पाए हैं। इन आर्येतर भाषाओं में कुछ तो अपनी सशक्त वर्णनशीलता सिद्ध कर चुकी हैं।

घुमन्तु समाज

ऊपर बताये गए तथ्यों के आधार पर यह कहना दुस्साहस नहीं होगा कि आर्य बड़ी तादाद में भारत आए। बैरी जनजातियों के साथ मिश्रण के बावजूद, आर्य सरदारों और पुरोहितों की संख्या बहुत कम रही होगी। कालक्रम से आर्य जनजातियों के अधिकांश लोग पशुपालक और किसान बन गए और कुछ लोग श्रमिक बन गए। पर ऋग्वेद काल में आर्थिक और सामाजिक विशिष्टीकरण की प्रक्रिया अत्यन्त प्रारम्भिक अवस्था में थी। इस जनजातिप्रधान समाज में सैनिक नेताओं को अतिरिक्त अनाज या मवेशी प्राप्त करने के नियत और नियमित साधन प्राय: नहीं थे, जिससे वे और उनके धार्मिक समर्थक अपना निर्वाह और समुन्नति कर सकते। यह समाज मुख्यत: घुमन्तु और पशुचारी था, और इसमें कृषि अथवा एक जगह बसने की प्रधानता नहीं थी। अतएव अनाज की चर्चा दान के रूप में भी नहीं आई है, और कर देने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। युद्ध में पराजित लोगों से उपहार के रूप में या लूटपाट से जो सम्पत्ति आर्य समुदाय को प्राप्त होती थी, वही उनकी आमदनी थी और प्राय: इस सम्पत्ति में भी उन्हें जनजाति के सदस्यों को हिस्सा देना पड़ता था।[42] ऋग्वेद में केवल बलि ही एक शब्द है, जो एक प्रकार से कर का द्योतक है। साधारणतया इसका तात्पर्य है, ‘देवता को अर्पित चढ़ावा’,[43] किन्तु इसका प्रयोग राजा को दिये गए उपहार के रूप में किया जाता है।[44] अनुमान है कि बलि का भुगतान करना ऐच्छिक था, [45] क्योंकि लोगों से इसकी वसूली के लिए कोई करवसूली संगठन नहीं था। जनजातीय राजा द्वारा अपने योद्धाओं और पुरोहितों को अनाज या भूमि के दान का दृष्टान्त नहीं मिलता। इसका कारण शायद यह था कि भूमि पूरे जनसमुदाय की सम्पत्ति थी। ऋग्वैदिक समाज एक प्रकार का समतावादी समाज था, यह इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि पुरुष या स्त्री, प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक ही वैरदेय प्राप्त करने का परंपरासिद्ध अधिकार प्राप्त था, [46] जो एक सौ गायों के बराबर था।[47]

ऋग्वेद, अथर्ववेद में वर्णित समाज

सारांश यह कि ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में वर्णित समाज में गहरे वर्गभेद का अभाव था, जैसा सामान्यतया प्रारम्भिक आदिम समाजों में देखने को मिलता है।[48] प्राय: पुराणों में वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति के विषय में जो अनुमान किये गए हैं, वे उस स्थिति का ही उल्लेख करते हैं। इन अनुमानों के अनुसार त्रेता युग का आरम्भ होने तक न तो कोई वर्णव्यवस्था थी, न कोई व्यक्ति लालची था और न ही लोगों में दूसरे की वस्तु चुरा लेने की प्रवृत्ति थी।[49] किन्तु अति प्राचीन काल में भी सैनिकों, नेताओं और पुरोहितों के मंथर उदभव के साथ-साथ खेतिहर किसान और हस्तकलाओं का व्यवसाय करने वाले कारीगर या शिल्पी जैसे वर्गों का भी उदभव हुआ। बुनकर (जुलाहे), चर्मकार, बढ़ई और चित्रकार के लिए एक ही ढंग के शब्दों का प्रयोग उनके भारोपीय उदभव का संकेत देता है।[50] रथ के लिए एक भारोपीय शब्द के व्यापक प्रयोग से पता चलता है कि भारोपीय लोग रथ का निर्माण करना जानते रहे होंगे।[51] किन्तु ऋग्वेद में जहाँ पहले के अनेकानेक परिच्छेदों में बढ़ई के कार्य की चर्चा हुई है, वहीं रथकार शब्द का प्रयोग नहीं दिखाई पड़ता।[52] अथर्ववेद से संकेत मिलता है कि रथनिर्माता (रथकार) और धातुकर्म करने वाले (कर्मार) को समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। इसी ग्रन्थ के आरम्भिक भाग में नवनिर्वाचित राजा पर्णमणि (पादपीयताबीज) से प्रार्थना करता है कि वह आसपास रहने वाले कुशल रथ निर्माताओं और धातुकर्म करने वालों के बीच उसकी स्थिति सुदृढ़ करने में सहायक हों। प्रार्थना का उद्देश्य शिल्पियों को राजा का सहायक बनाना है[53] और इस दृष्टि से वे राजाओं, राजविधाताओं, सूतों और दलपतियों (ग्रामणी) के समकक्ष मालूम पड़ते हैं, [54] जो सब राजा के आसपास रहते हैं और जो राजा के सहायक माने जाते हैं।[55]

स्पष्ट है कि आर्य समुदाय के सदस्य (विश्) ऊपर बताए गए शिल्पों का व्यवसाय करते थे और उन्हें किसी भी प्रकार से हीन नहीं समझा जाता था। ऋग्वेद की एक परवर्ती ऋचा में बढ़ई का वर्णन इस रूप में किया गया है कि वह सामान्यतया अपना काम तब तक झुककर करता रहता है, जब तक उसकी कमर टूटने न लग जाए।[56] इससे आभास मिलता है कि उसका कार्य कठिन था। पर इससे हमारे मन में उसके प्रति घृणा के भाव नहीं जगते हैं। वैदिक काल के संदर्भ में यह नहीं कहा जा सकता कि बढ़ई नीची जाति के थे या उनका अपना एक पृथक् वर्ग था।[57] किन्तु कर्मार, बढ़ई (तक्षन्), चर्मम्[58], जुलाहे और अन्य लोग, जिनका व्यवसाय ऋग्वेद में सम्मानजनक माना गया है और जिनका विश् के सम्मानित सदस्य भी आदर करते थे, पालि ग्रन्थों में शूद्र माने गए हैं।[59] सम्भव है कि आर्येतर लोगों ने भी स्वतंत्र रूप से इन शिल्पों को अपनाया हो, [60] पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि आर्य शिल्पियों के अनेक वंशज, जो अपने प्राचीन व्यवसाय में ही लगे रहे, शूद्र समझे जाने लगे।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वेदांतसूत्र- 1, 44, 33
  2. अथर्ववेद 19, 32, 8
  3. रामशरण शर्मा पृ. 163-164
  4. गौतम धर्मसूत्र 12, 5
  5. पार्जिटर : ‘एनशिएंट इण्डियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन’, पृष्ठ 306-8.
  6. ड्युमेजिल : ‘फ्लामेन ब्राह्मण’, अध्याय II. और III. एक अन्य निर्देश के लिए देखें, पाल थिमे; (साइटशिफ्ट डेर डोय्वेन मेर्गेनलैंडिशेनगेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, एन. एफ. 27 पृष्ठ 91-129)
  7. ई. जे. रैप्सन : द कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया, I. 103
  8. डब्ल्यू, रयूबेन : ‘इन्द्राज़ फाइट अगेन्स्ट वृत्र इन द महाभारत’ (एस. के. बेल्वल्कर कमेमोरेशन वॉल्यूम, पृष्ठ 116-8), धर्मानंद कोसंबी, ‘भगवान बुद्ध’, पृष्ठ 24
  9. कोसंबी : जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी, बम्बई, न्यू सीरीज, XXII. 35)
  10. ऋग्वेद I. 117-8. किन्तु सायण ‘श्यावाय’ को ‘कुष्ठरोगेण श्यामवर्णाय’ बताते हैं।
  11. ऋग्वेद, VIII. 85.3-4. ऋग्वेद, VIII. 50.10 में भी कण्व का उल्लेख है।
  12. ऋग्वेद, I. 116-23; ऋग्वेद I. 117.7 । पार्जिटर मानते हैं कि काण्वायन ही वास्तविक ब्राह्मण हैं : डायनेस्टीज़ ऑफ़ द कलि एज, पृष्ठ 35.
  13. ऋग्वेद, I. 158.6. अंबेडकर : हू वेयर दि शूद्राज़?, पृष्ठ 77.
  14. ‘वैदिक इंडेक्स’, I. 366.। शतपथ ब्राह्मण, XIV. 9.4.15 में एक ऐसी माँ का वर्णन आया है, जो काले रंग के बालक की आकांक्षा रखती है, जिसे वेद का ज्ञान हो।
  15. वैदिक इंडेक्स, I. 363., हिलब्रांट का सुझाव
  16. ऋग्वेद, I. 130.10.
  17. कोसंबी : जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ एशियाटिक सोसायटी, बम्बई न्यू सीरीज, XXVI. 44.)
  18. मोनियर-विलियम्स : संस्कृत - इंग्लिश डिक्शनरी, देखें दास, दाश।
  19. कौषतकि उपनिषद III. 1. वैदिक इंडेक्स में उद्धृत, II. 30.
  20. ऋग्वेद, VIII. 19.36.
  21. अथर्ववेद, XII. 3.13; पैप्प, XVII. 37.3, ‘यद्वा दास्यार्द्रहस्ता समंत उलूखलं मुसलम् शुम्भताप:’।
  22. अथर्ववेद, XII. 4.9; पैप्प. के एक ऐसे ही परिच्छेद XVII. 16.9 में दासी शब्द के स्थान पर देवी लिया गया है।
  23. अथर्ववेद, V. 13.8.
  24. ऋग्वेद, I. 92.8, 158.5 गेल्डनर के अनुवाद के अनुसार।
  25. ऋग्वेद, X. 62.10.
  26. ऋग्वेद, VIII. 56.3.
  27. ऋग्वेद, VII. 86.7.। हिलब्रांट इसे संदिग्ध मानते हैं। उन्होंने ग़लत ढंग से VII. 86.3 में ‘कदाचित’ जोड़ दिया है, जो होना चाहिए VII. 86.7. ‘साइटश्रिफ्ट फ्यूर इंडोलोगिअ उंड ईरोनिस्टिक लाइपत्सिख्’ III. 16.
  28. ऋग्वेद, VIII. 56.3. ‘शतं में गर्दभानां शतमूर्णावतीनां, शत दासा अति स्रज:’ 100 रूढ़ संख्या हो सकती है।
  29. ऋग्वेद, I. 92.8. ‘उषसिआमस्यां यषसंसुवीरं दासप्रवर्ग रयिमश्व बुध्यम्’।
  30. ऋग्वेद, I. 158.5-6.
  31. ऋग्वेद, X. 62.10. ‘उत् दासा परिविधेऽस्मद् दिष्टि गोपरिणसा: यदुस् तुर्वश् च मामहे’।
  32. ऋग्वेद, X. 34.4.
  33. ऋग्वेद, II. 11.4, IV. 28.4 और VI. 25.2; दत्त : ‘स्टडीज़ इन हिन्दू सोशल पालिटी’, पृष्ठ 334, बी.एन. दत्त का विचार है कि ऋग्वेद VI. 25.2 में दासविश् का जो उल्लेख हुआ है, उसका तात्पर्य यह है कि दास को वैश्य कोटि में रखा गया है। किन्तु चूँकि उस समय वैश्य समाज के एक वर्ग के रूप में नहीं थे, इसीलिए यहाँ विश् को एक जनजाति विशेष माना जा सकता है।
  34. ऋग्वेद, VI, I, 357, ऋग्वेद, III. 53.14. 'किं ते कृण्वंति की कटेषु गावो नाशीरं दुर्हे न तपन्ति धर्मम्', जाति और भाषा की दृष्टि से दहे ईरानियों के बहुत निकट रहे होंगे, किन्तु यह बहुत स्पष्ट रूप से प्रमाणित नहीं हो पाया है; वही, त्सिम्मर ने हेरोडोट्स के दआई या दाअई, i. 126 को तूरानियन जनजाति का बताया है।
  35. शेफर : ‘एथनोग्राफ़ी इन एनशिएंट इण्डिया’, पृष्ठ 32, कहा गया है कि सामाजिक स्तर पर दास और आर्य का स्थान दस्यु भीलों से ऊपर था।
  36. स्टुअर्ट पिगाट : एंटिक्विटी, जिल्द XXIV, सं. 96, 218 लाल : एनशिएंट इण्डिया, दिल्ली, सं. 9, पृष्ठ 90-91. लाल का कथन है कि दूसरी सहस्राब्दी ई. पू. के पूर्वार्द्ध में शाही टुंप (आधनिक बलूचिस्तान) में और दूसरी सहस्राब्दी ई. पू. के उत्तरार्ध में फ़ोर्ट मुनरो (अफ़ग़ानिस्तान) में लोग झुंड के झुंड आए।
  37. वैदिक इंडेक्स, ii, पृष्ठ 255, ऋग्वेद, VI. 44.11, देखें, वर्ण शब्द।
  38. आर. सी. मजूमदार और ए. डी. पुसलकर : वैदिक एज, ऋग्वैदिक जातियों के लिये देखें, पृष्ठ 245-248 और वैदिक कालीन जातियों के लिए पृष्ठ 252-262.
  39. शतपथ ब्राह्मण, I. 1.4.11-12.
  40. महाभारत, शान्ति पर्व, 181.15, ‘वर्णश्चत्वार : एते हि येषां ब्राह्मी सरस्वती, विहिता ब्रह्मणा पूर्वा लोभात्वज्ञानतां गत:’।
  41. वेबर, इंडिश स्टुडियेन, II, 94 पाद टिप्पणी
  42. आर.एस. शर्मा : जर्नल ऑफ़ द बिहार रिसर्च सोसायटी, XXXVIII, 434-5; XXXIX, 418-9).
  43. ऋग्वेद, I. 70.9; V. 1.10; VIII. 100.9.
  44. ऋग्वेद, VII. 6.5; X. 173.6, बलिहृत (कर देना).
  45. वैदिक इंडेक्स, II. 62. त्सिम्मर के विचार।
  46. मैक्समूलर : ‘सेक्रेड बुक्स ऑफ़ द ईस्ट’, XXXII. 361. ऋग्वेद का अनुवाद, V. 61.8.
  47. वैदिक इंडेक्स, II. 331.
  48. लैंटमैन : ‘द ओरिजिन्स ऑफ़ सोशल इनइक्वेलिटीज़ ऑफ़ द सोशल क्लासेज’,, पृष्ठ 5-12 में दिए गए उदाहरण। उन्होंने पूर्व भारत के नागाओं और कूकियों में वर्गभेद के अभाव का भी उल्लेख किया है (पृष्ठ 11)।
  49. वायु पुराण, I. VIII. 60; देखें, दीघ निकाय, अगञ्ञसुत्त, ‘वर्णाश्रमव्यवस्थाश्च न तदासन्नसंकर: न लिप्सन्ति हि तेऽन्योन्यन्नानुगृहणन्ति चैव हि’।
  50. कार्ल डार्लिंग : ‘ए डिक्शनरी ऑफ़ सिलेक्टेड सिनोनिम्स इन द प्रिंसिपल इंडो-यूरोपियन लैंग्वेज’, चर्म (चर्मन् के लिए देखें पृष्ठ 40, बुनाई के लिए पृष्ठ 408, तक्षन् के लिए पृष्ठ 589-90 और वेणीकार के लिए पृष्ठ 621-22; चाइंल्ड : द एरियंस, पृष्ठ 86.)
  51. चाइल्ड : द एरियंस, पृष्ठ 86 और 92.
  52. ऋग्वेद, IV. 35.6, 36.5; VI. 32.1.
  53. अथर्ववेद, III 5.6; ‘ये धीवानो रथकारा: कर्मारा ये मनीषिण: उपस्तीन्पर्ण मह्यं त्वम् सर्वानकृण्वभितो जनान्’। यहाँ ब्लूमफ़ील्ड के अनुवाद का अनुसरण किया गया है। व्हिटने ने ब्लूमफ़ील्ड जैसा ही अनुवाद प्रस्तुत किया है, किन्तु उन्होंने सायण के विचारानुसार उपस्तिन् को प्रजा के अर्थ में लिया है। सायण धीवान: और मनीषिण: को अलग-अलग संज्ञा मानते हैं, जिनका अर्थ मछुआ और बुद्धिजीवी किया गया है। पैप्प. ग्रन्थ में थोड़ा सा पाठभेद है, ‘ये तक्षाणो रथकारा: कर्मारा ये मनीषिण:, सर्वांस तान्पर्ण रंघयोपस्तिं कृणु मेदिनम्’। III. 13.7.
  54. ‘वेदिक इंडेक्स’, I. पृष्ठ 247; सम्भवत: वह असैनिक और सैनिक, दोनों प्रकार के कार्यों के लिए गाँव का प्रधान था।
  55. अथर्ववेद, III. 5.7.
  56. ऋग्वेद, I. 105.18.
  57. वैदिक इंडेक्स, I. पृष्ठ 297.
  58. ऋग्वेद, VIII. 5.38.
  59. वैदिक इंडेक्स, II. पृष्ठ 265-6.
  60. फिक : ‘द सोशल आर्गेनाइजेशन इन नार्थ ईस्ट इण्डिया’, पृष्ठ 326-7.

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख