"अयोध्या": अवतरणों में अंतर

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[[चित्र:Laxman-Ghat-Ayodhya.jpg|thumb|लक्ष्मण घाट, अयोध्या<br /> Laxman Ghat, Ayodhya]]
{{अयोध्या विषय सूची}}
अयोध्या [[उत्तर प्रदेश]] प्रान्त का एक शहर है। अयोध्या [[फ़ैज़ाबाद ज़िला|फ़ैज़ाबाद ज़िले]] में आता है। दशरथ अयोध्या के राजा थे। श्रीराम का जन्म यहीं हुआ था। [[राम]] की जन्म-भूमि अयोध्या उत्तर प्रदेश में [[सरयू नदी]] के दाएँ तट पर स्थित है। अयोध्या हिन्दुओं के प्राचीन और [[सप्ततीर्थ|सात पवित्र तीर्थस्थलों]] में से एक है। अयोध्या को [[अथर्ववेद]] में ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी संपन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है। [[रामायण]] के अनुसार अयोध्या की स्थापना [[वैवस्वत मनु|मनु]] ने की थी। कई शताब्दियों तक यह नगर [[सूर्य वंश]] की राजधानी रहा। अयोध्या एक तीर्थ स्थान है और मूल रूप से मंदिरों का शहर है। यहाँ आज भी [[हिन्दू धर्म|हिन्दू]], [[बौद्ध]], [[इस्लाम]] और [[जैन]] धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं। जैन मत के अनुसार यहाँ आदिनाथ सहित पाँच [[तीर्थंकर|तीर्थंकरों]] का जन्म हुआ था।
{{सूचना बक्सा पर्यटन
|चित्र=View-Of-Ayodhya.jpg
|चित्र का नाम=अयोध्या का एक दृश्य
|विवरण= 'अयोध्या' [[उत्तर प्रदेश]] राज्य का एक प्रसिद्ध धार्मिक नगर है। अयोध्या के राजा [[दशरथ]] के [[पुत्र]] [[राम|श्रीराम]] का जन्म यहीं हुआ था। राम की जन्म-भूमि [[सरयू नदी]] के दाएँ तट पर स्थित है।
|राज्य=[[उत्तर प्रदेश]]
|केन्द्र शासित प्रदेश=
|ज़िला=[[फ़ैज़ाबाद ज़िला|फ़ैज़ाबाद]]
|निर्माता=
|स्वामित्व=
|प्रबंधक=
|निर्माण काल=
|स्थापना=
|भौगोलिक स्थिति=
|मार्ग स्थिति=
|प्रसिद्धि=
|कब जाएँ=कभी भी जा सकते हैं
|यातायात=ऑटो रिक्शा, बस, टैम्पो, साइकिल रिक्शा
|हवाई अड्डा=निकटतम [[हवाई अड्डा]] [[लखनऊ]] में है जो लगभग 140 किमी. की दूरी पर है। 
|रेलवे स्टेशन=[[फैजाबाद]] अयोध्या का निकटतम रेलवे स्टेशन है। यह रेलवे स्टेशन मुग़ल सराय-लखनऊ लाइन पर स्थित है। 
|बस अड्डा= उत्तर प्रदेश सड़क परिवहन निगम की बसें लगभग सभी प्रमुख शहरों से अयोध्या के लिए चलती हैं। 
|कैसे पहुँचें=विमान, रेल, बस, टैक्सी
|क्या देखें=रामकोट, हनुमान गढ़ी, नागेश्वर नाथ मंदिर, कनक भवन, जैन मंदिर
|कहाँ ठहरें=होटल, धर्मशाला, अतिथि ग्रह
|क्या खायें=
|क्या ख़रीदें=
|एस.टी.डी. कोड=5278
|ए.टी.एम=सभी
|सावधानी=
|मानचित्र लिंक= [http://maps.google.co.in/maps?saddr=Lucknow,+Uttar+Pradesh&daddr=Ayodhya,+Uttar+Pradesh&hl=en&ll=26.85593,81.716309&spn=1.247196,2.705383&sll=26.79644,82.198639&sspn=0.077993,0.169086&geocode=FS-lmQEd-yXTBClrsTIfmf2bOTHni5cJibrMkw%3BFZjhmAEdb0DmBCkjKG1-kweaOTErIn-xg_bIXw&oq=l&mra=ls&t=m&z=9&iwloc=ddw1 अयोध्या]
|संबंधित लेख=
|शीर्षक 1=[[भाषा]]
|पाठ 1=[[हिंदी]], [[अवधी भाषा|अवधी]], [[अंग्रेज़ी]]
|शीर्षक 2=
|पाठ 2=
|अन्य जानकारी= जैन मत के अनुसार यहाँ [[आदिनाथ]] सहित पाँच [[तीर्थंकर|तीर्थंकरों]] का जन्म हुआ था।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
'''अयोध्या''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Ayodhya'') [[उत्तर प्रदेश]] राज्य का एक प्रसिद्ध धार्मिक नगर है। अयोध्या [[फ़ैज़ाबाद ज़िला|फ़ैज़ाबाद ज़िले]] में आता है। [[रामायण]] के अनुसार [[दशरथ]] अयोध्या के राजा थे। [[राम|श्रीराम]] का जन्म यहीं हुआ था। राम की जन्म-भूमि अयोध्या उत्तर प्रदेश में [[सरयू नदी]] के दाएँ तट पर स्थित है। अयोध्या [[हिन्दू|हिन्दुओं]] के प्राचीन और [[सप्तपुरी|सात पवित्र तीर्थस्थलों]] में से एक है। अयोध्या को [[अथर्ववेद]] में [[ईश्वर]] का नगर बताया गया है और इसकी संपन्नता की तुलना [[स्वर्ग]] से की गई है। रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना [[वैवस्वत मनु|मनु]] ने की थी। कई शताब्दियों तक यह नगर [[सूर्य वंश]] की राजधानी रहा। अयोध्या एक [[तीर्थ]] स्थान है और मूल रूप से मंदिरों का शहर है। यहाँ आज भी [[हिन्दू धर्म|हिन्दू]], [[बौद्ध]], [[इस्लाम]] और [[जैन धर्म]] से जुड़े [[अवशेष]] देखे जा सकते हैं। जैन मत के अनुसार यहाँ [[आदिनाथ]] सहित पाँच [[तीर्थंकर|तीर्थंकरों]] का जन्म हुआ था।
==इतिहास==
==इतिहास==
अयोध्या पुण्यनगरी है। अयोध्या श्रीरामचन्द्रजी की जन्मभूमि होने के नाते [[भारत]] के प्राचीन साहित्य व इतिहास में सदा से प्रसिद्ध रही है। अयोध्या की गणना भारत की प्राचीन सप्तपुरियों में प्रथम स्थान पर की गई है।<ref>अयोध्या [[मथुरा]] माया काशी काचिरवन्तिका, पुरी द्वारावती चैव सप्तैते मोक्षदायिका:</ref> अयोध्या की महत्त्वता के बारे में पूर्वी उत्तर प्रदेश के जनसाधारण में निम्न कहावतें प्रचलित हैं-  
अयोध्या पुण्यनगरी है। अयोध्या [[राम|श्रीरामचन्द्रजी]] की जन्मभूमि होने के नाते [[भारत]] के प्राचीन साहित्य व [[इतिहास]] में सदा से प्रसिद्ध रही है। अयोध्या की गणना [[भारत]] की प्राचीन सप्तपुरियों में प्रथम स्थान पर की गई है।<ref>अयोध्या [[मथुरा]] माया काशी काचिरवन्तिका, पुरी द्वारावती चैव सप्तैते मोक्षदायिका:</ref> अयोध्या की महत्ता के बारे में पूर्वी उत्तर प्रदेश के जनसाधारण में निम्न कहावतें प्रचलित हैं-  
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'''गंगा बड़ी गोदावरी''',
'''[[गंगा नदी|गंगा]] बड़ी [[गोदावरी नदी|गोदावरी]]''',
'''तीरथ बड़ो प्रयाग''',
'''तीरथ बड़ो [[प्रयाग]]''',
'''सबसे बड़ी अयोध्यानगरी''',
'''सबसे बड़ी अयोध्यानगरी''',
'''जहँ राम लियो अवतार'''
'''जहँ राम लियो [[अवतार]]।'''
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अयोध्या रघुवंशी राजाओं की बहुत पुरानी राजधानी थी। स्वयं मनु ने<ref>[[बाल काण्ड वा. रा.|बालकाण्ड]] 5, 6 के अनुसार</ref> अयोध्या का निर्माण किया था। वाल्मीकि रामायण<ref>([[वाल्मीकि रामायण]] [[उत्तर काण्ड वा. रा.|उत्तर काण्ड]]  108, 4)</ref> से विदित होता है कि स्वर्गारोहण से पूर्व रामचंद्रजी ने [[लव कुश|कुश]] को कुशावती नामक नगरी का राजा बनाया था। श्रीराम के पश्चात् अयोध्या उजाड़ हो गई थी क्योंकि उनके उत्तराधिकारी कुश ने अपनी राजधानी कुशावती में बना ली थी। [[रघु वंश]]<ref>([[रघु वंश]] सर्ग 16)</ref> से विदित होता है कि अयोध्या की दीन-हीन दशा देखकर कुश ने अपनी राजधानी पुन: अयोध्या में बनाई थी। [[महाभारत]] में अयोध्या के [[दीर्घयज्ञ]] नामक राजा का उल्लेख है जिसे भीमसेन ने पूर्वदेश की दिग्विजय में जीता था।<ref>अयोध्यां तु धर्मज्ञं दीर्घयज्ञं महाबलम्, अजयत् पांडवश्रेष्ठो नातितीव्रेणकर्मणा- सभापर्व 30-2</ref> घटजातक में अयोध्या (अयोज्झा) के कालसेन नामक राजा का उल्लेख है।<ref>(जातक संख्या 454)</ref> [[गौतमबुद्ध]] के समय कोसल के दो भाग हो गए थे- उत्तरकोसल और दक्षिणकोसल जिनके बीच में सरयू नदी बहती थी। अयोध्या या साकेत उत्तरी भाग की और श्रावस्ती दक्षिणी भाग की राजधानी थी। इस समय श्रावस्ती का महत्त्व अधिक बढ़ा हुआ था। बौद्ध काल में ही अयोध्या के निकट एक नई बस्ती बन गई थी जिसका नाम साकेत था। बौद्ध साहित्य में साकेत और अयोध्या दोनों का नाम साथ-साथ भी मिलता है<ref>(देखिए रायसडेवीज बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ 39)</ref> जिससे दोनों के भिन्न अस्तित्व की सूचना मिलती है।
अयोध्या [[रघु वंश|रघुवंशी]] राजाओं की बहुत पुरानी राजधानी थी। स्वयं मनु ने<ref>[[बाल काण्ड वा. रा.|बालकाण्ड]] 5, 6 के अनुसार</ref> अयोध्या का निर्माण किया था। [[वाल्मीकि रामायण]]<ref>वाल्मीकि रामायण [[उत्तर काण्ड वा. रा.|उत्तर काण्ड]]  108, 4</ref> से विदित होता है कि स्वर्गारोहण से पूर्व रामचंद्र जी ने [[लव कुश|कुश]] को '''कुशावती''' नामक नगरी का राजा बनाया था। श्रीराम के पश्चात् अयोध्या उजाड़ हो गई थी, क्योंकि उनके उत्तराधिकारी कुश ने अपनी राजधानी कुशावती में बना ली थी। [[रघु वंश]]<ref>[[रघु वंश]] सर्ग 16</ref> से विदित होता है कि अयोध्या की दीन-हीन दशा देखकर कुश ने अपनी राजधानी पुन: अयोध्या में बनाई थी। [[महाभारत]] में अयोध्या के '''दीर्घयज्ञ''' नामक राजा का उल्लेख है जिसे भीमसेन ने पूर्वदेश की दिग्विजय में जीता था।<ref>अयोध्यां तु धर्मज्ञं दीर्घयज्ञं महाबलम्, अजयत् पांडवश्रेष्ठो नातितीव्रेणकर्मणा- सभापर्व 30-2</ref> घटजातक में अयोध्या<ref>अयोज्झा</ref> के '''कालसेन''' नामक राजा का उल्लेख है।<ref>जातक संख्या 454</ref> [[गौतमबुद्ध]] के समय [[कोसल]] के दो भाग हो गए थे- उत्तर कोसल और दक्षिण कोसल जिनके बीच में [[सरयू नदी]] बहती थी। अयोध्या या [[साकेत]] उत्तरी भाग की और [[श्रावस्ती]] दक्षिणी भाग की राजधानी थी। इस समय श्रावस्ती का महत्त्व अधिक बढ़ा हुआ था। बौद्ध काल में ही अयोध्या के निकट एक नई बस्ती बन गई थी जिसका नाम साकेत था। बौद्ध साहित्य में साकेत और अयोध्या दोनों का नाम साथ-साथ भी मिलता है<ref>देखिए रायसडेवीज बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ 39</ref> जिससे दोनों के भिन्न अस्तित्व की सूचना मिलती है।
*[[रामायण]] में अयोध्या का उल्लेख [[कोशल]] जनपद की राजधानी के रूप में किया गया है।<ref>एस. सी. डे, हिस्टारिसिटी ऑफ़ [[रामायण]] एंड दि इंडो आर्यन सोसाइटी इन इंडिया एंड सीलोन ([[दिल्ली]], अजंता पब्लिकेशंस, पुनमुर्दित, [[1976]]), पृष्ठ 80-81</ref>  
*[[रामायण]] में अयोध्या का उल्लेख [[कोशल]] [[जनपद]] की राजधानी के रूप में किया गया है।<ref>एस. सी. डे, हिस्टारिसिटी ऑफ़ [[रामायण]] एंड इंडो आर्यन सोसाइटी इन इंडिया एंड सीलोन ([[दिल्ली]], अजंता पब्लिकेशंस, पुनमुर्दित, [[1976]]), पृष्ठ 80-81</ref>  
*[[पुराण|पुराणों]] में इस नगर के संबंध में कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु इस नगर के शासकों की वंशावलियाँ अवश्य मिलती हैं, जो इस नगर की प्राचीनता एवं महत्त्व के प्रामाणिक साक्ष्य हैं। ब्राह्मण साहित्य में इसका वर्णन एक ग्राम के रूप में किया गया है।<ref>[[ऐतरेय ब्राह्मण]], 7/3/1; देखें, ज. रा. ए. सो, [[1971]], पृष्ठ 52 (पादटिप्पणी)</ref>  
 
*[[पुराण|पुराणों]] में इस नगर के संबंध में कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु इस नगर के शासकों की वंशावलियाँ अवश्य मिलती हैं, जो इस नगर की प्राचीनता एवं महत्त्व के प्रामाणिक साक्ष्य हैं। [[ब्राह्मण साहित्य]] में इसका वर्णन एक [[ग्राम]] के रूप में किया गया है।<ref>[[ऐतरेय ब्राह्मण]], 7/3/1; देखें, ज. रा. ए. सो, [[1971]], पृष्ठ 52 (पादटिप्पणी</ref>  
 
*सूत और मागध उस नगरी में बहुत थे। अयोध्या बहुत ही सुन्दर नगरी थी। अयोध्या में ऊँची अटारियों पर ध्वजाएँ शोभायमान थीं और सैकड़ों शतघ्नियाँ उसकी रक्षा के लिए लगी हुई थीं।<ref>'सूतमागधसंबाधां श्रीमतीमतुलप्रभाम्, उच्चाट्टालध्वजवतीं शतघ्नीशतसंकुलाम्' बालका 5, 11</ref> 


*सूत और मागध उस नगरी में बहुत थें अयोध्या बहुत ही सुन्दर नगरी थी। अयोध्या में ऊँची अटारियों पर ध्वजाएँ शोभायमान थीं और सैकड़ों शतघ्नियाँ उसकी रक्षा के लिए लगी हुई थीं।<ref>'सूतमागधसंबाधां श्रीमतीमतुलप्रभाम्, उच्चाट्टालध्वजवतीं शतघ्नीशतसंकुलाम्' बालका 5, 11</ref>   
*[[राम]] के समय यह नगर [[अवध]] नाम की राजधानी से सुशोभित था।<ref>नंदूलाल डे, द जियोग्राफ़िकल डिक्शनरी ऑफ़, ऐंश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृष्ठ 14</ref>
*बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार अयोध्या पूर्ववर्ती तथा [[साकेत]] परवर्ती राजधानी थी। [[हिन्दु|हिन्दुओं]] के साथ पवित्र स्थानों में इसका नाम मिलता है। [[फ़ाह्यान]] ने इसका ‘शा-चें’ नाम से उल्लेख किया है, जो [[कन्नौज]] से 13 [[योजन]] [[दक्षिण]]-[[पूर्व दिशा|पूर्व]] में स्थित था।<ref>जेम्स लेग्गे, द ट्रैवेल्स ऑफ़ फ़ाह्यान ओरियंटल पब्लिशर्स, दिल्ली, पुनर्मुद्रित 1972, पृष्ठ 54</ref>
*मललसेकर ने [[पालि]]-परंपरा के साकेत को '''सई नदी''' के किनारे [[उन्नाव ज़िला|उन्नाव ज़िले]] में स्थित सुजानकोट के खंडहरों से समीकृत किया है।<ref>जी पी मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 2 पृष्ठ 1086</ref>   
*नालियाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी ने भी इसका समीकरण सुजानकोट से किया है।<ref>नलिनाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी, [[उत्तर प्रदेश]] में [[बौद्ध धर्म]] का विकास (प्रकाशन ब्यूरो, उत्तर प्रदेश सरकार, [[लखनऊ]], प्रथम संस्करण, [[1956]]) पृष्ठ 7 एवं 12</ref> [[थेरगाथा]] [[अट्ठकथा]]<ref>थेरगाथा अट्ठकथा, भाग 1, पृष्ठ 103</ref> में साकेत को [[सरयू नदी]] के किनारे बताया गया है। अत: संभव है कि पालि का साकेत, आधुनिक अयोध्या का ही एक भाग रहा हो।


*राम के समय यह नगर [[अवध]] नाम की राजधानी से सुशोभित था।<ref>नंदूलाल डे, दि जियोग्राफ़िकल डिक्शनरी ऑफ़, ऐंश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृष्ठ 14</ref>  
==उल्लेख ==
*बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार अयोध्या पूर्ववती तथा [[साकेत]] परवर्ती राजधानी थी। हिन्दुओं के साथ पवित्र स्थानों में इसका नाम मिलता है। फ़ाह्यान ने इसका ‘शा-चें’ नाम से उल्लेख किया है, जो [[कन्नौज]] से 13 [[योजन]] दक्षिण-पूर्व में स्थित था।<ref>जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स ऑफ़ फ़ाह्यान ओरियंटल पब्लिशर्स, दिल्ली, पुनर्मुद्रित 1972, पृष्ठ 54</ref>
{{Main|अयोध्या के प्राचीन उल्लेख}}
*मललसेकर ने पालि-परंपरा के साकेत को सई नदी के किनारे [[उन्नाव ज़िला|उन्नाव ज़िले]] में स्थित सुजानकोट के खंडहरों से समीकृत किया है।<ref>जी पी मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 2 पृष्ठ 1086</ref> 
[[चित्र:View-Of-Ayodhya-2.jpg|thumb|left|अयोध्या का एक दृश्य]]
*नालियाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी ने भी इसका समीकरण सुजानकोट से किया है।<ref>नलिनाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी, [[उत्तर प्रदेश]] में [[बौद्ध धर्म]] का विकास (प्रकाशन ब्यूरो, उत्तर प्रदेश सरकार, [[लखनऊ]], प्रथम संस्करण, [[1956]]) पृष्ठ 7 एवं 12</ref> थेरगाथा अट्ठकथा<ref>थेरगाथा अट्ठकथा, भाग 1, पृष्ठ 103</ref> में साकेत को [[सरयू नदी]] के किनारे बताया गया है। अत: संभव है कि पालि का साकेत, आधुनिक अयोध्या का ही एक भाग रहा हो।
[[शुंग वंश]] के प्रथम शासक [[पुष्यमित्र शुंग|पुष्यमित्र]] <ref>द्वितीय शती ई. पू.</ref> का एक [[शिलालेख]] अयोध्या से प्राप्त हुआ था जिसमें उसे '''सेनापति''' कहा गया है तथा उसके द्वारा दो [[अश्वमेध यज्ञ|अश्वमेध यज्ञों]] के लिए जाने का वर्णन है। अनेक [[अभिलेख|अभिलेखों]] से ज्ञात होता है कि [[गुप्तवंश|गुप्तवंशीय]] [[चंद्रगुप्त द्वितीय]] के समय (चतुर्थ शती ई. का मध्यकाल) और तत्पश्चात् काफ़ी समय तक अयोध्या गुप्त साम्राज्य की राजधानी थी। गुप्तकालीन महाकवि [[कालिदास]] ने अयोध्या का रघु वंश में कई बार उल्लेख किया है।<ref>'जलानि या तीरनिखातयूपा वहत्ययोध्यामनुराजधानीम्' [[रघु वंश]] 13, 61; 'आलोकयिष्यन्मुदितामयोध्यां प्रासादमभ्रंलिहमारुरोह'- [[रघु वंश]] 14, 29</ref> कालिदास ने उत्तरकौशल की राजधानी साकेत<ref>[[रघु वंश]] 5,31; 13,62</ref> और अयोध्या दोनों ही का नामोल्लेख किया है, इससे जान पड़ता है कि कालिदास के समय में दोनों ही नाम प्रचलित रहे होंगे। [[मध्यकाल]] में अयोध्या का नाम अधिक सुनने में नहीं आता था। [[युवानच्वांग]] के वर्णनों से ज्ञात होता है कि उत्तर बुद्धकाल में अयोध्या का महत्त्व घट चुका था।


==महाकाव्यों में अयोध्या==
====महाकाव्यों में अयोध्या====
अयोध्या का उल्लेख महाकाव्यों में विस्तार से मिलता है। रामायण के अनुसार यह नगर सरयू नदी के तट पर बसा हुआ था तथा कोशल राज्य का सर्वप्रमुख नगर था।<ref>कोसलो नाम मुद्रित: स्फीतो जनपदो महान्, निविष्ट: सरयूतीरे प्रभूत धनधान्यवान (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 5)</ref>  
अयोध्या का उल्लेख [[महाकाव्य|महाकाव्यों]] में विस्तार से मिलता है। [[रामायण]] के अनुसार यह नगर [[सरयू नदी]] के तट पर बसा हुआ था तथा [[कोशल |कोशल राज्य]] का सर्वप्रमुख नगर था।<ref>कोसलो नाम मुद्रित: स्फीतो जनपदो महान्, निविष्ट: सरयूतीरे प्रभूत धनधान्यवान ([[रामायण]], बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 5</ref>  
*इसे देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि मानों मनु ने स्वयं अपने हाथों के द्वारा इसका निर्माण किया हो।<ref>'मनुना मानवेर्द्रण या पुरी निर्मिता स्वयम्य। तत्रैव, पंक्ति 12</ref>  
*अयोध्या को देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि मानो [[मनु]] ने स्वयं अपने हाथों के द्वारा अयोध्या का निर्माण किया हो।<ref>'मनुना मानवेर्द्रण या पुरी निर्मिता स्वयम्य। तत्रैव, पंक्ति 12</ref>  
*यह नगर 12 योजन लम्बाई में और 3 योजन चौड़ाई में फैला हुआ था।<ref>विनोदविहारी दत्त, टाउन प्लानिंग इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, थैंकर स्पिंक एंड कं., 1925), पृ. 321-322; देखें विविध तीर्थकल्प, अध्याय 34</ref>  
*अयोध्या नगर 12 [[योजन]] लम्बाई में और 3 योजन चौड़ाई में फैला हुआ था,<ref>विनोदविहारी दत्त, टाउन प्लानिंग इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, थैंकर स्पिंक एंड कं., 1925), पृष्ठ 321-322; देखें विविध तीर्थकल्प, अध्याय 34</ref> जिसकी पुष्टि [[वाल्मीकि रामायण]] में भी होती है।<ref>आयता दश च द्वे योजनानि महापुरो, श्रीमती त्रणि विस्तीर्ण सुविभक्तमहापथा। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 7</ref>  
*जिसकी पुष्टि वाल्मीकि रामायण में भी होती है।<ref>आयता दश च द्वे योजनानि महापुरो, श्रीमती त्रणि विस्तीर्ण सुविभक्तमहापथा। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 7</ref>  
*एक परवर्ती जैन लेखक हेमचन्द्र<ref>यह [[चालुक्य]] '''राजा जयसिंह सिद्धराज''' और उसके उत्तराधिकारियों का दरबारी कवि था।</ref> ने नगर का क्षेत्रफल 12×9 [[योजन]] बतलाया है<ref>द्वादशयोजनायामां नवयोजन विस्तृताम्। अयोध्येल्यपराभिख्यां विनीतां सोऽकरोत्पुरीम्।।
*एक परवर्ती जैन लेखक हेमचन्द्र<ref>यह चालुक्य राजा जयसिंह सिद्धराज और उसके उत्तराधिकारियों का दरबारी कवि था।</ref> ने नगर का क्षेत्रफल 12×9 योजन बतलाया है<ref>द्वादशयोजनायामां नवयोजन विस्तृताम्। अयोध्येल्यपराभिख्यां विनीतां सोऽकरोत्पुरीम्।।
त्रिशस्तिसलाकापुरुशचरित, पर्व। अध्याय 2, श्लोक 912</ref> जो कि निश्चित ही अतिरंजित वर्णन है।  
त्रिशस्तिसलाकापुरुशचरित, पर्व। अध्याय 2, श्लोक 912</ref> जो कि निश्चित ही अतिरंजित वर्णन है।  
*साक्ष्यों के अवलोकन से नगर के विस्तार के लिए कनिंघम<ref>ए. कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, 1963), पृ. 342</ref> का मत सर्वाधिक महत्वपूर्ण लगता है। उनकी मान्यता है कि नगर की परिधि 12 कोश (24 मील) थी, जो वर्तमान नगर की परिधि के अनुरूप है।
*साक्ष्यों के अवलोकन से नगर के विस्तार के लिए कनिंघम<ref>ए. कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, 1963), पृष्ठ 342</ref> का मत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लगता है। उनकी मान्यता है कि नगर की परिधि 12 कोश (24 मील) थी, जो वर्तमान नगर की परिधि के अनुरूप है।
*धार्मिक महत्ता की दृष्टि से अयोध्या हिन्दुओं और जैनियों का एक पवित्र तीर्थस्थल था। इसकी गणना भारत की सात मोक्षदायिका पुरियों में की गई है। ये सात पुरियाँ निम्नलिखित थीं–<ref>अयोध्या माया मथुरा काशी काँची अवंतिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तेते मोक्षदायिका।।</ref>  
*धार्मिक महत्ता की दृष्टि से अयोध्या हिन्दुओं और जैनियों का एक पवित्र तीर्थस्थल था। इसकी गणना भारत की सात मोक्षदायिका पुरियों में की गई है। ये सात पुरियाँ निम्नलिखित थीं-<ref>अयोध्या माया मथुरा काशी काँची अवंतिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तेते मोक्षदायिका।।</ref>  
*इस नगर में कंबोजीय अश्व एवं शक्तिशाली हाथी थे। रामायण के अनुसार यहाँ चातुर्वर्ण्य व्यवस्था थी– ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य तथा शूद्र। उन्हें अपने विशिष्ट धर्मों एवं दायित्वों का निर्वाह करना पड़ता था। रामायण में उल्लेख है कि कौशल्या को जब राम वन गमन का समाचार मिला तो वे मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। उस समय कौशल्या के समस्त अंगों में धूल लिपट गयी थी और श्रीराम ने अपने हाथों से उनके अंगों की धूल साफ़ की।<ref>उपावृथ्थोत्थितां दीनां वाडवामिव वाहिताम्। पांसु गुंठित सर्वांगगीविमवर्श च पाणिना।
*अयोध्या में कंबोजीय अश्व एवं शक्तिशाली हाथी थे। रामायण के अनुसार यहाँ चातुर्वर्ण्य व्यवस्था थी- [[ब्राह्मण]], [[क्षत्रिय]], [[वैश्य]] तथा [[शूद्र]]। उन्हें अपने विशिष्ट धर्मों एवं दायित्वों का निर्वाह करना पड़ता था। रामायण में उल्लेख है कि कौशल्या को जब राम वन गमन का समाचार मिला तो वे मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। उस समय कौशल्या के समस्त अंगों में धूल लिपट गयी थी और श्रीराम ने अपने हाथों से उनके अंगों की धूल साफ़ की।<ref>उपावृथ्थोत्थितां दीनां वाडवामिव वाहिताम्। पांसु गुंठित सर्वांगगीविमवर्श च पाणिना।
रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग 20, पंक्ति 34</ref>  
रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग 20, पंक्ति 34</ref>  
*इस प्रसंग के सन्दर्भ में एच. डी. सांकलिया<ref>हंसमुख धीरजलाल साँकलिया, अयोध्या मिथ आर रियलिटी (पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली, 1973 ई.), पृ. 46</ref> का विचार है कि यदि कमरे की फ़र्श पक्की रही होती तो ऐसा होना सम्भव नहीं था। अत: प्रकारान्तर से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि अयोध्या के भवन मिट्टी के बने थे। इस तथ्य की पुरातात्विक प्रमाणों से भी पुष्टि होती है। प्राचीन स्थलों की खुदाई में कच्चे भवनों के अवशेष कई स्थानों पर मिले हैं।
[[चित्र:View-Of-Ayodhya-3.jpg|thumb|250px|अयोध्या का एक दृश्य<br /> वर्ष-1783]]
*यह नगर बड़े-बड़े फ़ाटकों और दरवाज़ों से सुशोभित था। यहाँ पर सब प्रकार के यंत्र और अस्त्र-शस्त्र संचित थे। इसके पृथक-पृथक बाज़ार थे। इस पुरी में सभी कलाओं के शिल्पी निवास करते थे।<ref>कपाट तोरणवर्ती सुविभक्तांतरायणाम्। सर्वयंत्रायुधवती मुषितां सर्वशिल्पिभि:।।
 
रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 12</ref>
====मध्यकाल में अयोध्या====
*उसके चारों ओर गहरी खाई खुदी हुई थी। जिसमें प्रवेश करना या लांघना अत्यन्त कठिन था। यह नगरी दूसरों के लिए सर्वथा दुर्गम एवं दुर्जेय थी।<ref>दुर्गमभीपरिखाँ दुर्गमन्यैर्दुरा सदाम्। वाजिवाराण सम्पूर्ण गोभिरूष्टै: खरैस्तथा।। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 13</ref>
मध्यकाल में [[मुसलमान|मुसलमानों]] के उत्कर्ष के समय, अयोध्या बेचारी उपेक्षिता ही बनी रही, यहाँ तक कि मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक [[बाबर]] के एक सेनापति ने [[बिहार]] अभियान के समय अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर स्थित प्राचीन मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद बनवाई, जो आज भी विद्यमान है। मस्जिद में लगे हुए अनेक स्तंभ और शिलापट्ट उसी प्राचीन मंदिर के हैं। अयोध्या के वर्तमान मंदिर कनकभवन आदि अधिक प्राचीन नहीं हैं, और वहाँ यह कहावत प्रचलित है कि सरयू को छोड़कर रामचंद्रजी के समय की कोई निशानी नहीं है। कहते हैं कि अवध के नवाबों ने जब फ़ैज़ाबाद में राजधानी बनाई थी तो वहाँ के अनेक महलों में अयोध्या के पुराने मंदिरों की सामग्री उपयोग में लाई गई थी।
*नगर के भीतर सुन्दर लम्बी तथा चौड़ी सड़कें थीं, जिन पर प्रतिदिन जल का छिड़काव होता था तथा फूल बिखेरे जाते थे।<ref>राजमार्गेण महता सुविभक्तेन शोभिता। मुक्तपुष्पावकीर्णेन जलसिक्तेन नित्यश:।। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 8</ref>
====बौद्ध साहित्य में अयोध्या====
*प्रतिदिन जल का छिड़काव सूचित करता है कि तत्कालीन सड़कें कच्ची थीं। यह नगर व्यापार का एक व्यापारिक केन्द्र भी था। व्यापार के निमित्त विभिन्न देशों से यहाँ पर वणिक आया करते थे।<ref>नानादेशनिवासैश्च वाणीभिरुपशोभिताम्।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 14</ref>  
बौद्ध साहित्य में भी अयोध्या का उल्लेख मिलता है। गौतम बुद्ध का इस नगर से विशेष सम्बन्ध था। उल्लेखनीय है कि गौतम बुद्ध के इस नगर से विशेष सम्बन्ध की ओर लक्ष्य करके मज्झिमनिकाय में उन्हें कोसलक (कोशल का निवासी) कहा गया है।<ref>मज्झिम निकाय, भाग 2, पृष्ठ 124</ref>  
*यहाँ पर सम्पूर्ण प्रकार के शिल्पी रहा करते थे।<ref>सर्वयंत्रयुधवतीमुषितां सर्वाशिल्पभि:।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 30</ref>
*धर्म-प्रचारार्थ वे इस नगर में कई बार आ चुके थे। एक बार गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों को मानव जीवन की निस्वारता तथा क्षण-भंगुरता पर व्याख्यान दिया था। अयोध्यावासी गौतम बुद्ध के बहुत बड़े प्रशंसक थे और उन्होंने उनके निवास के लिए वहाँ पर एक विहार  का निर्माण भी करवाया था।<ref>मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 1, पृष्ठ 165</ref>  
*रामायण में अयोध्या की व्यापारिक समितियों को निगम कहा गया है। इस ग्रन्थ से विदित होता है कि महत्वपूर्ण अवसरों पर निगमों के प्रतिनिधि राजसभा में आमंत्रित किये जाते थे।<ref>पौरजानपदश्रेष्ठा नैगमाश्च गणै: सह।। तत्रैव, अयोध्याकाण्ड, अध्याय 14, 80</ref>
*संयुक्तनिकाय में उल्लेख आया है कि बुद्ध ने यहाँ की यात्रा दो बार की थी। उन्होंने यहाँ फेण सूक्त<ref>संयुक्तनिकाय (पालि टेक्ट्स सोसाइटी), भाग 3, पृष्ठ 140 और आगे</ref> और दारुक्खंधसुक्त<ref>तत्रैव, भाग 4, पृष्ठ 179</ref> का व्याख्यान दिया था।
*इस नगर में ऐसे-ऐसे वीर योद्धा थे जो कि शब्दवेधी बाण चला सकते थे, जिनका बड़ा ही अचूक होता था।<ref>ये च वाणेन विध्यंति विविक्तपरापरम्। शब्दवेध्यां च विततं लघुहस्ता विशाखा:।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 20</ref>
*ये अपने बाहुबल से तीखे अस्त्रों से वनों में मस्त विचरण करने वाले सिंह, व्याघ्र और शूकरों को मार सकने में पूरी तरह से समर्थ थे।<ref>हिंसव्याघ्रवराहणं मतानां नदतां बने। हत्तारो निशितै: शस्तैर्वलाद्वाहुबलैरपि।। तत्रैव, बालकाण्ड, संर्ग 5, पंक्ति 22</ref>
*नगर में बस्ती बहुत ही सघन थी। यहाँ नागरिकों सहित दशरथ इस नगर में उसी प्रकार निवास करते थे, जिस प्रकार स्वर्गलोक में इन्द्र निवास करते हैं। रामायण में यहाँ के नागरिकों के सामाजिक एवं धार्मिक जीवन का एक आदर्श चित्रण मिलता है। निम्न जातियों के लोग उच्च जातियों का सम्मान करते थे। वहाँ के क्षत्रिय ब्राह्मणों के अनुयायी थे और वैश्य क्षत्रियों के अनुयायी थे। शूद्र अपने कार्य और सेवा के प्रति सजग रहना अपना कर्तव्य समझते थे। वे तीनों वर्णों की सेवा करते थे।<ref>क्षत्र ब्रह्ममुखं चासीद्वैश्या: क्षत्रमनुव्रता। शुद्रा: स्वकर्मनिरतास्त्रीचर्णानुपचारिण:।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 6, पंक्ति 22</ref>
*वहाँ के ब्राह्मण जितेन्द्रिय, अपने कर्मों में सलंग्न, दानी एवं स्वाध्यावसायी थे।<ref>स्वकर्मनिरता नित्यं ब्राह्मणा विजितेद्रिया:। दानाध्ययनशीलाश्च संयताश्च प्रतिग्रहे।। तत्रै, बालकाण्ड, सर्ग 6, पंक्ति 13</ref>
*वे धर्मशील, सुसंयत तथा महर्षियों के तुल्य पुण्यात्मा थे। महातेजस्वी दशरथ इन नागरिकों के बीच उसी प्रकार सुशोभित थे, जिस प्रकार [[नक्षत्र|नक्षत्रों]] के बीच [[चंद्र देवता|चन्द्रमा]] सुशोभित होता है।<ref>ता पुरीं स महातेजा राजा दशरथो महान। शशास शमितामित्रों नक्षत्राणीव चंद्रमा।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 6, पंक्ति 27</ref>
*अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं को इक्ष्वाकु इसलिए कहा जाता है, क्योंकि ये मनु वंशज हैं।<ref>विष्णुपुराण (विल्सन संस्करण), भाग 3, पृ. 259</ref>
*पुराणों में इन राजाओं की वंशावलियाँ मिलती हैं।<ref> एफ, ई. पार्जिटर इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशन (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1962), पृ. 90</ref>
*[[महाभारत]]<ref>महाभारत, 4/55/2170</ref> में सोलह राजाओं का उल्लेख मिलता है, जिनमें से कुछ अयोध्या से सम्बन्धित थे। ये मांधातु, सागर, भगीरथ, अंबरीष, दिलीप द्वितीय और राम दाशरथि थे।
*महाभारत में ही इक्ष्वाकु, ककुष्ठा, रघु और निमि का उल्लेख मिलता है।<ref>तत्रैव, 13/227-34</ref>
*युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ के समय अयोध्या में दीर्घयग्न शासन कर रहे थे।<ref>तत्रैव, 241-42</ref> इक्ष्वाकु, मनु वैवस्वत के नवें पुत्र थे, जिन्होंने अयोध्या में शासन किया।<ref>वायु पुराण, 85, 3-4</ref>
*रामायण में उल्लिखित राजाओं की वंशावलि संदेह पैदा करती है। रामायण में राम के काल तक 35 राजाओं का उल्लेख है। जबकि पुराणों में 63 राजाओं का उल्लेख मिलता है।<ref>पार्जिटर, ऐश्येंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशनल, पृ. 91</ref>
*पुराणों में दिलीप नामधारी दो राजाओं की चर्चा है, जिसमें एक भगीरथ के पितामह तथा दूसरे रघु के पिता या पितामह थे, जबकि रामायण में एक ही दिलीप की चर्चा मिलती है, जो भगीरथ के पिता और रघु के पितामह थे।<ref>विमलचरण लाहा, इंडोलाजिकल स्टडीज, भाग 2 (इलाहाबाद, 1954), पृ. 19</ref>
*इक्ष्वाकु वंश में अयोध्या के सिंहासन के उत्तराधिकारी का प्रश्न सामान्यत: ज्येष्ठाधिकार के नियम से निश्चित किया जाता था। अयोध्या  के नरेश वशिष्ठ गोत्र से सम्बन्धित थे। वशिष्ठ उनके वंशानुगत पुरोहित थे।<ref>विष्णुपुराण भाग 4, पृ. 3, 18; पद्मपुराण भाग 6, पृ. 219, 44</ref>
*अयोध्या युवनाश्व एवं उनके पुत्र मांधातृ के काल में ख्याति को प्राप्त हो गया था।<ref>महाभारत, 3, पृ. 126</ref>
*कालान्तर में अयोध्या के प्रभुत्व में ह्रास दृष्टिगत होता है। राजा जह्नु के राजस्व काल में कान्यकुब्ज के हैहयों ने अयोध्या पर विजय प्राप्त की। यह नगर पुन: अंबरीष के शासन काल में प्रसिद्धि को प्राप्त कर सका।<ref>ब्रह्मपुराण, 78, 55-57; पद्मपुराण, 5/22/7-18</ref> *दशरथ के शासन काल में हुए अश्वमेध यज्ञ में पूर्वी तथा दक्षिणी देशों एवं सुदुर पंजाब प्रदेश के नरेश आमंत्रित थे। पार्जिटर का विचार है कि तत्कालीन समय में अयोध्या एवं वशिष्ठों का सुसंस्कृत ब्राह्मण क्षेत्र से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं था।<ref>एफ, ई0 पार्जिटर, ऐश्येंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशन, (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1962), पृ. 314</ref>
==बौद्ध साहित्य में अयोध्या==
बौद्ध साहित्य में भी अयोध्या का उल्लेख मिलता है। गौतम बुद्ध का इस नगर से विशेष सम्बन्ध था। उल्लेखनीय है कि गौतम बुद्ध के इस नगर से विशेष सम्बन्ध की ओर लक्ष्य करके मज्झिमनिकाय में उन्हें कोसलक (कोशल का निवासी) कहा गया है।<ref>मज्झिम निकाय, भाग 2, पृ. 124</ref>  
*धर्म-प्रचारार्थ वे इस नगर मे कई बार आ चुके थे। एक बार गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों को मानव जीवन की निस्सरता तथा क्षण-भंगुरता पर व्याख्यान दिया था। अयोध्यावासी गौतम बुद्ध के बहुत बड़े प्रशंसक थे और उन्होंने उनके निवास के लिए वहाँ पर एक विहार  का निर्माण भी करवाया था।<ref>मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 1, पृ. 165</ref>  
*संयुक्तनिकाय में उल्लेख आया है कि बुद्ध ने यहाँ की यात्रा दो बार की थी। उन्होंने यहाँ फेण सूक्त<ref>संयुक्तनिकाय (पालि टेक्ट्स सोसाइटी), भाग 3, पृ. 140 और आगे</ref> और दारुक्खंधसुक्त<ref>तत्रैव, भाग 4, पृ. 179</ref> का व्याख्यान दिया था।  
*इस सूक्त में भगवान बुद्ध को गंगा नदी के तट पर विहार करते हुए बताया गया है।<ref>संयुक्तनिकाय (हिन्दी अनुवाद), भाग 1, पृ. 382</ref> इसी निकाय की अट्ठकथा में कहा गया है कि यहाँ के निवासियों ने गंगा के तट पर एक विहार बनवाकर किसी प्रमुख भिक्षु संघ को दान कर दिया था।<ref>सारत्थप्पकासिनी, भाग 2, पृ. 320; भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृ. 252</ref> *इस प्रकार पालि त्रिपिटक और अट्ठकथा दोनों साक्ष्यों में बुद्धकालीन अयोध्या की स्थिति गंगा नदी के तट पर वर्णित है। सम्भव है कि पालि साहित्यकारों ने दोनों नदियों को पवित्रता के आधार पर एक समझकर प्रयोग किया हो और इसी आधार पर अन्तर स्थापित करने में असफल रहे होंगे। उल्लेखनीय है कि ह्वेनसाँग ने भी गंगा नदी पार करके अयोध्या में प्रवेश किया था, जबकि वर्तमान अयोध्या गंगा नदी के तट पर स्थित नहीं है।<ref>वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृ. 354</ref> अत: जब तक हम पालि विवरणों को गलत न मानें, बुद्धकालीन अयोध्या का वर्तमान अयोध्या से समीकरण सम्भव नहीं है। बहुत सम्भव है कि पालि त्रिपिटक में वर्णित अयोध्या गंगा नदी के किनारे स्थित इसी नाम का कोई अन्य नगर रहा हो।<ref>विनयेंद्रनाथ चौधरी, बुद्धिस्ट सेंटर्स इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, 1969) पृ. 81</ref>
*पालि ग्रन्थों में अयोध्या के लिए 'अयोज्झा' तथा 'अयुज्झनगर' शब्द आते हैं। अयुज्झा (अयुज्झनगर) में अरिंदक तथा उसके उत्तराधिकारियों ने शासन किया था।<ref>दीपवंस, भाग 2, पृ. 15; वमसत्थप्पकासिनी (पालि टेक्ट्स सोसायटी), भाग 1, पृ. 127; विमलचरण लाहा, इंडोलाकिल स्टडीज, भाग 3, पृ. 23</ref> इसे कोशल में स्थित एक नगर से समीकृत किया गया है। घट जातक<ref>घट जातक, संख्या 454</ref> में अयोध्या के कालसेन नामक नरेश का उल्लेख आया है। इसके शासन काल में अंधकवेण्हु के दस पुत्रों ने इस नगर को बहुत क्षति पहुँचाई थी। उन्होंने आक्रमण करके इसके उद्यानों एवं प्राकारों को क्षतिग्रस्त् कर दिया था।<ref>जाति (फाउसबाल संस्करण), खण्ड 4, पृ. 82-83</ref>
*परवर्ती बौद्ध ग्रन्थों में अयोध्या का वर्णन एक धार्मिक केन्द्र के रूप में मिलता है। धार्मिक क्षेत्र में इसकी महत्ता का कारण सरयू के तट पर इसकी स्थिति तथा इक्ष्वाकु शासकों विशेषकर राम के जीवन के साथ इसका सम्बन्ध था। इसी कारण अयोध्या को इक्ष्वाकुभूमि तथा रामपुरी भी कहते थे।<ref>विविधतीर्थकल्प, पृ. 24; विमलचरण लाहा, इंडोलाजिकल स्टडीज, भाग 2, पृ. 7</ref>
==एक ही नगर से समीकृत==
==एक ही नगर से समीकृत==
अयोध्या और साकेत दोनों नगरों को कुछ विद्वानों ने एक ही माना है। कालिदास ने भी रघुवंश<ref>अध्याय 5, श्लोक 31</ref> में दोनों नगरों को एक ही माना है, जिसका समर्थन जैन साहित्य में भी मिलता है।<ref>आदि पुराण 12, पृष्ठ 77; विविधतीर्थकल्प, पृ. 55; विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल (मोतीलाल बनारसीदास, [[वाराणसी]] [[1963]] ई.) पृ. 55</ref> कर्निघम ने भी अयोध्या और साकेत को एक ही नगर से समीकृत किया है।<ref>ऐलक्जेंडर कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, [[वाराणसी]], [[1976]]), पृ. 405</ref> इसके विपरीत विभिन्न विद्वानों ने साकेत को भिन्न-भिन्न स्थानों से समीकृत किया है। इसकी पहचान सुजानकोट,<ref>नंदूलाल डे, दि जियोग्राफ़िकल डिक्शनरी ऑफ़ ऐश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृ. 174</ref> आधुनिक [[लखनऊ]],<ref>फर्गुसन, आर्कियोलाजी इन इंडिया, पृ. 110</ref> कुरसी<ref>बी. ए. स्मिथ, ज. रा. ए. सो., 1898, पृ. 124</ref> (KURSI), पशा (पसाका) <ref>विलियम होवी, ज. ऐ. सो. ब., [[1900]], पृ. 75</ref> और तुसरन बिहार<ref>डब्ल्यू, बोस्ट, ज. रा. ए. सो., 1906, पृ. 437 और आगे</ref> (इलाहाबाद से 27 मील दूर स्थित है) से की गई है। इस नगर के समीकरण में उपर्युक्त विद्वानों के मतों में सवल प्रमाणों का अभाव दृष्टिगत होता है। बौद्ध ग्रन्थों में भी अयोध्या और साकेत को भिन्न-भिन्न नगरों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वाल्मीकि रामायण में अयोध्या को कोशल की राजधानी बताया गया है और बाद के संस्कृत ग्रन्थों में साकेत से मिला दिया गया है। 'अयोध्या' को संयुक्तनिकाय में एक ओर गंगा के किनारे स्थित एक छोटा गाँव या नगर बतलाया गया है। जबकि 'साकेत' उससे भिन्न एक महानगर था।<ref>भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, (हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, 2018), पृ. 254</ref> अतएव किसी भी दशा में ये दोनों नाम एक नहीं हो सकते हैं।
अयोध्या और साकेत दोनों नगरों को कुछ विद्वानों ने एक ही माना है। कालिदास ने भी रघुवंश<ref>अध्याय 5, श्लोक 31</ref> में दोनों नगरों को एक ही माना है, जिसका समर्थन जैन साहित्य में भी मिलता है।<ref>आदि पुराण 12, पृष्ठ 77; विविधतीर्थकल्प, पृष्ठ 55; विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल (मोतीलाल बनारसीदास, [[वाराणसी]] [[1963]] ई.) पृष्ठ 55</ref> [[कनिंघम]] ने भी अयोध्या और [[साकेत]] को एक ही नगर से समीकृत किया है।<ref>ऐलक्जेंडर कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, [[वाराणसी]], [[1976]]), पृष्ठ 405</ref> इसके विपरीत विभिन्न विद्वानों ने साकेत को भिन्न-भिन्न स्थानों से समीकृत किया है। इसकी पहचान सुजानकोट,<ref>नंदूलाल डे, दि जियोग्राफ़िकल डिक्शनरी ऑफ़ ऐश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृष्ठ 174</ref> आधुनिक [[लखनऊ]],<ref>फर्गुसन, आर्कियोलाजी इन इंडिया, पृष्ठ 110</ref> कुर्सी,<ref>बी. ए. स्मिथ, ज. रा. ए. सो., 1898, पृष्ठ 124</ref> पशा (पसाका), <ref>विलियम होवी, ज. ऐ. सो. ब., [[1900]] पृष्ठ 75</ref> और तुसरन बिहार<ref>डब्ल्यू, बोस्ट, ज. रा. ए. सो., 1906, पृष्ठ 437 और आगे</ref>इलाहाबाद से 27 मील दूर स्थित है) से की गई है। इस नगर के समीकरण में उपर्युक्त विद्वानों के मतों में सवल प्रमाणों का अभाव दृष्टिगत होता है। बौद्ध ग्रन्थों में भी अयोध्या और साकेत को भिन्न-भिन्न नगरों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वाल्मीकि रामायण में अयोध्या को कोशल की राजधानी बताया गया है और बाद के संस्कृत ग्रन्थों में साकेत से मिला दिया गया है। 'अयोध्या' को संयुक्तनिकाय में एक ओर गंगा के किनारे स्थित एक छोटा गाँव या नगर बतलाया गया है। जबकि 'साकेत' उससे भिन्न एक महानगर था।<ref>भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, (हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, 2018), पृष्ठ 254</ref> अतएव किसी भी दशा में ये दोनों नाम एक नहीं हो सकते हैं।
[[चित्र:Laxman-Ghat-Ayodhya.jpg|thumb|left|लक्ष्मण घाट, अयोध्या]]
====जैन ग्रन्थ के अनुसार====
====जैन ग्रन्थ के अनुसार====
जैन ग्रन्थ विविधतीर्थकल्प में अयोध्या को ऋषभ, अजित, अभिनंदन, सुमति, अनन्त और अचलभानु- इन जैन मुनियों का जन्मस्थान माना गया है। नगरी का विस्तार लम्बाई में 12 योजन और चौड़ाई में 9 योजन कहा गया है। इस ग्रन्थ में वर्णित है कि [[चक्रेश्वरी]] और [[गोमुख यक्ष]] अयोध्या के निवासी थे। घर्घर-दाह और सरयू का अयोध्या के पास संगम बताया है और संयुक्त नदी को स्वर्गद्वारा नाम से अभिहित किया गया है। नगरी से 12 योजन पर अष्टावट या अष्टापद पहाड़ पर आदि-गुरु का कैवल्यस्थान माना गया है। इस ग्रन्थ में यह भी वर्णित है कि अयोध्या के चारों द्वारों पर 24 जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित थीं। एक मूर्ति की चालुक्य नरेश कुमारपाल ने प्रतिष्ठापना की थी। इस ग्रन्थ में अयोध्या को [[दशरथ]], [[राम]] और [[भरत]] की राजधानी बताया गया है। जैनग्रन्थों में अयोध्या को विनीता भी कहा गया है।<ref>आवस्सक कमेंट्री, पृष्ठ 24</ref>  
जैन ग्रन्थ विविधतीर्थकल्प में अयोध्या को ऋषभ, अजित, अभिनंदन, सुमति, अनन्त और अचलभानु- इन जैन मुनियों का जन्मस्थान माना गया है। नगरी का विस्तार लम्बाई में 12 योजन और चौड़ाई में 9 योजन कहा गया है। इस ग्रन्थ में वर्णित है कि चक्रेश्वरी और गोमुख यक्ष अयोध्या के निवासी थे। घर्घर-दाह और सरयू का अयोध्या के पास संगम बताया है और संयुक्त नदी को स्वर्गद्वारा नाम से अभिहित किया गया है। नगरी से 12 योजन पर अष्टावट या अष्टापद पहाड़ पर आदि-गुरु का कैवल्यस्थान माना गया है। इस ग्रन्थ में यह भी वर्णित है कि अयोध्या के चारों द्वारों पर 24 जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित थीं। एक मूर्ति की चालुक्य नरेश कुमारपाल ने प्रतिष्ठापना की थी। इस ग्रन्थ में अयोध्या को [[दशरथ]], [[राम]] और [[भरत]] की राजधानी बताया गया है। जैनग्रन्थों में अयोध्या को 'विनीता' भी कहा गया है।<ref>आवस्सक कमेंट्री, पृष्ठ 24</ref><br />
जैन ग्रंथ महापुराण (आदिपुराण) के अनुसार करोड़ों वर्ष पूर्व अयोध्या में पांच तीर्थंकरों के जन्म तो हुए ही हैं, साथ ही वहाँ अन्य अनेक इतिहास भी जुड़ें। अयोध्या में वर्तमान में रायगंज परिसर में 31 फुट उत्तुंग [[ऋषभदेव|भगवान ऋषभदेव]] की खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। वहाँ प्रतिवर्ष [[चैत्र]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] [[नवमी]] के दिन भगवान ऋषभदेव के जन्म कल्याणक दिवस का वार्षिक मेला आयोजित होता है। जिसमें हज़ारों श्रद्धालु भक्त भाग लेकर पुण्यलाभ प्राप्त करते हैं। अयोध्या में स्वर्गद्वार मोहल्ले में ऋषभदेव का सुन्दर जिन मंदिर बना है। वह भगवान का वास्तविक जन्म स्थान माना जाता है। [[सरयू नदी]] के निकट ही भगवान ऋषभदेव उद्यान बहुत सुंदर बना हुआ है, जहाँ देश- विदेश के हज़ारों पर्यटक प्रतिदिन आकर प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते हैं।
====राज डेविड्स के अनुसार====
====राज डेविड्स के अनुसार====
राज डेविड्स का कथन है कि दोनों नगर वर्तमान [[लंदन]] और वेस्टमिंस्टर के समान एक-दूसरे से सटे रहे होंगे<ref>राज डेविड्स, बुद्धिस्ट इंडिया, पृ. 39</ref> जो कालान्तर में विकसित होकर एक हो गये। अयोध्या सम्भवत: प्राचीन राजधानी थी और साकेत परवर्ती राजधानी <ref>हेमचन्द राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनैतिक इतिहास, (किताब महल, इलाहाबाद, 1976 ई.), पृ. 91</ref>। विशुद्धानन्द पाठक भी राज डेविड्स के मत का समर्थन करते हैं और परिवर्तन के लिए सरयू नदी की धारा में परिवर्तन या किसी प्राकृतिक कारण को उत्तरदायी मानते हैं जिसके कारण अयोध्या का संकुचन हुआ और दूसरी तरफ़ नई दिशा में परवर्ती काल में साकेत का उदभव हुआ।<ref>विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल, मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1963, पृ. 58</ref>
राज डेविड्स का कथन है कि दोनों नगर वर्तमान [[लंदन]] और वेस्टमिंस्टर के समान एक-दूसरे से सटे रहे होंगे<ref>राज डेविड्स, बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ 39</ref> जो कालान्तर में विकसित होकर एक हो गये। अयोध्या सम्भवत: प्राचीन राजधानी थी और साकेत परवर्ती राजधानी <ref>हेमचन्द राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, (किताब महल, इलाहाबाद, 1976 ई.), पृष्ठ 91</ref>। विशुद्धानन्द पाठक भी राज डेविड्स के मत का समर्थन करते हैं और परिवर्तन के लिए सरयू नदी की धारा में परिवर्तन या किसी प्राकृतिक कारण को उत्तरदायी मानते हैं, जिसके कारण अयोध्या का संकुचन हुआ और दूसरी तरफ़ नई दिशा में परवर्ती काल में साकेत का उद्भव हुआ।<ref>विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल, मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1963, पृष्ठ 58</ref>
====साक्ष्यों के अवलोकन के अनुसार====
====साक्ष्यों के अवलोकन के अनुसार====
साक्ष्यों के अवलोकन से दोनों नगरों के अलग-अलग अस्तित्व की सार्थकता सिद्ध हो जाती है तथा साकेत के परवर्ती काल में विकास की बात सत्य के अधिक समीप लगती है। इस सन्दर्भ में ई. जे. थामस रामायण की परम्परा को बौद्ध परम्परा की अपेक्षा उत्तरकालीन मानते हैं। उनकी मान्यता है कि पहले कोशल की राजधानी श्रावस्ती थी और जब बाद में कोशल का विस्तार दक्षिण की ओर हुआ तो अयोध्या राजधानी बनी, जो कि साकेत के ही किसी विजयी राजा द्वारा दिया हुआ नाम था।<ref>ई. जे. थामस, दि लाइफ़ ऑफ़ बुद्ध ऐज लीजेंड इन हिस्ट्री, (स्टलेज एंड केगन पाल लिमिटेड, लन्दन, तृतीय संस्करण, पुनर्मुद्रित, 1952), पृ. 15</ref>
साक्ष्यों के अवलोकन से दोनों नगरों के अलग-अलग अस्तित्व की सार्थकता सिद्ध हो जाती है तथा साकेत के परवर्ती काल में विकास की बात सत्य के अधिक समीप लगती है। इस सन्दर्भ में ई. जे. थामस रामायण की परम्परा को बौद्ध परम्परा की अपेक्षा उत्तरकालीन मानते हैं। उनकी मान्यता है कि पहले कोशल की राजधानी श्रावस्ती थी और जब बाद में कोशल का विस्तार दक्षिण की ओर हुआ तो अयोध्या राजधानी बनी, जो कि साकेत के ही किसी विजयी राजा द्वारा दिया हुआ नाम था।<ref>ई. जे. थामस, दि लाइफ़ ऑफ़ बुद्ध ऐज लीजेंड इन हिस्ट्री, (स्टलेज एंड केगन पाल लिमिटेड, लन्दन, तृतीय संस्करण, पुनर्मुद्रित, 1952), पृष्ठ 15</ref>
====पुरातत्वविदों के अनुसार====
====पुरातत्त्वविदों के अनुसार====
पिछले समय में कुछ पुरातत्वविदों यथा–प्रो. ब्रजवासी लाल<ref>ब्रजवासी लाल, आर्कियोलाजी एंड टू इंडियन इपिक्स, एनल्स ऑफ़ दि भण्डारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, जिल्द 54, 1973 ई.</ref> तथा हंसमुख धीरजलाल साँकलिया<ref>हंसमुख धीरजलाल साँकलिया, रामायण मिथ आर रियलिटी, नई दिल्ली, 1973 ई.</ref> ने रामायण इत्यादि में वर्णित अयोध्या की पहचान नगर की भौगोलिक स्थिति, प्राचीनता एवं सांस्कृतिक अवशेषों का अध्ययन किया; वरन् रामायण में वर्णित उपर्युक्त विवरणों के अन्तर की व्याख्या भी प्रस्तुत की है। इन दोनों विद्वानों का यह मत था कि पुरातात्विक दृष्टि से न केवल अयोध्या की पहचान की जा सकती है, वरन् रामायण में वर्णत अन्य स्थान यथा–नन्दीग्राम, श्रृंगवेरपुर, भारद्वाज आश्रम, परियर एवं वाल्मीकि आश्रम भी निश्चित रूप से पहचाने जा सकते हैं। इस सन्दर्भ में प्रो. ब्रजवासी लाल द्वारा विशद रूप में किए गए पुरातात्विक सर्वेक्षण एवं उत्खनन उल्लेखनीय है। पुरातात्विक आधार पर प्रो. लाल ने रामायण में उपर्युक्त स्थानों की प्राचीनता को लगभग सातवीं सदी ई. पू. में रखा। इस साक्ष्य के कारण रामायण एवं महाभारत की प्राचीनता का जो क्रम था, वह परिवर्तित हो गया तथा महाभारत पहले का प्रतीत हुआ। इस प्रकार प्रो. लाल तथा सांकलिया का मत हेमचन्द्र राय चौधरी<ref>हेमचन्द्र राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनैतिक इतिहास, पृ. 7</ref> के मत से मिलता है। श्री रायचौधरी का भी कथन था कि महाभारत में वर्णित स्थान एवं घटनाएँ रामायण में वर्णित स्थान एवं घटनाओं के पूर्व की हैं।
पिछले समय में कुछ पुरातत्त्वविदों यथा-प्रो. ब्रजवासी लाल<ref>ब्रजवासी लाल, आर्कियोलाजी एंड टू इंडियन इपिक्स, एनल्स ऑफ़ दि भण्डारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, जिल्द 54, 1973 ई.</ref> तथा हंसमुख धीरजलाल साँकलिया<ref>हंसमुख धीरजलाल साँकलिया, रामायण मिथ आर रियलिटी, नई दिल्ली, 1973 ई.</ref> ने [[रामायण]] इत्यादि में वर्णित अयोध्या की पहचान नगर की भौगोलिक स्थिति, प्राचीनता एवं सांस्कृतिक अवशेषों का अध्ययन किया, रामायण में वर्णित उपर्युक्त विवरणों के अन्तर की व्याख्या भी प्रस्तुत की है। इन दोनों विद्वानों का यह मत था कि पुरातात्विक दृष्टि से न केवल अयोध्या की पहचान की जा सकती है, रामायण में वर्णित अन्य स्थान यथा- नन्दीग्राम, श्रृंगवेरपुर, भारद्वाज आश्रम, परियर एवं वाल्मीकि आश्रम भी निश्चित रूप से पहचाने जा सकते हैं। इस सन्दर्भ में प्रो. ब्रजवासी लाल द्वारा विशद रूप में किए गए पुरातात्विक सर्वेक्षण एवं [[उत्खनन]] उल्लेखनीय है। पुरातात्विक आधार पर प्रो. लाल ने रामायण में उपर्युक्त स्थानों की प्राचीनता को लगभग सातवीं [[सदी]] ई. पू. में रखा। इस साक्ष्य के कारण रामायण एवं महाभारत की प्राचीनता का जो क्रम था, वह परिवर्तित हो गया तथा महाभारत पहले का प्रतीत हुआ। इस प्रकार प्रो. लाल तथा साँकलिया का मत हेमचन्द्र राय चौधरी<ref>हेमचन्द्र राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, पृष्ठ 7</ref> के मत से मिलता है। श्री रायचौधरी का भी कथन था कि महाभारत में वर्णित स्थान एवं घटनाएँ रामायण में वर्णित स्थान एवं घटनाओं के पूर्व की हैं।
====मुनीश चन्द्र जोशी के अनुसार====
====मुनीश चन्द्र जोशी के अनुसार====
श्री मुनीश चन्द्र जोशी<ref>मुनीशचन्द्र जोशी आर्कियोलाजी एंड इंडियन ट्रेडिशंस, सम आब्जर्वेशन, पुरातत्व, जिल्द 8, 1978 ई. पू., पृ. 89-102</ref> ने प्रो. लाल एवं सांकलिया के इस मत की खुलकर आलोचना की, तथा तैत्तिरीय आरण्यक<ref>तैत्तिरीय आरण्यक 1/27
श्री मुनीश चन्द्र जोशी<ref>मुनीशचन्द्र जोशी आर्कियोलाजी एंड इंडियन ट्रेडिशंस, सम आब्जर्वेशन, पुरातत्त्व, जिल्द 8, 1978 ई. पू., पृष्ठ 89-102</ref> ने प्रो. लाल एवं सांकलिया के इस मत की खुलकर आलोचना की, तथा तैत्तिरीय आरण्यक<ref>तैत्तिरीय आरण्यक 1/27
अष्टाचक्र नवद्वारा देवनां पुरयोध्यां
अष्टाचक्र नवद्वारा देवनां पुरयोध्यां
तस्याम् हिरन्म्यकोशाह स्वर्गलोको जयोतिषावृत:
तस्याम् हिरन्म्यकोशाह स्वर्गलोको जयोतिषावृत:
पंक्ति 78: पंक्ति 101:
तस्मै ब्रह्म च आयु: कीर्तिम् प्रजाम् यदुह
तस्मै ब्रह्म च आयु: कीर्तिम् प्रजाम् यदुह
विभ्राजमानाम् हरिणीम् यशशा संपरीवृत्ताम्
विभ्राजमानाम् हरिणीम् यशशा संपरीवृत्ताम्
पुरम् हिरण्यमयोम् ब्रह्मा विवेशापराजिताम्।</ref> में उद्धृत अयोध्या के उल्लेख का वर्णन करते हुए यह मत प्रस्तुत किया–
पुरम् हिरण्यमयोम् ब्रह्मा विवेशापराजिताम्।</ref> में उद्धृत अयोध्या के उल्लेख का वर्णन करते हुए यह मत प्रस्तुत किया-
*जब तैत्तिरीय आरण्यक की रचना हुई, उस समय मनीषियों की नगरी अयोध्या एवं उसकी संस्कृति–अगर यह थी तो–को लोग पूर्णत: भूल गये थे।
*जब तैत्तिरीय आरण्यक की रचना हुई, उस समय मनीषियों की नगरी अयोध्या एवं उसकी संस्कृति (अगर यह थी तो) को लोग पूर्णत: भूल गये थे।
*अयोध्या पूर्णत: पौराणिक नगरी प्रतीत होती है।
*अयोध्या पूर्णत: पौराणिक नगरी प्रतीत होती है।
*आधुनिक अयोध्या और राम से इसका साहचर्य परवर्ती काल का प्रतीत होता है।  
*आधुनिक अयोध्या और राम से इसका साहचर्य परवर्ती काल का प्रतीत होता है।  
 
[[चित्र:Hanuman-Garhi-Ayodhya.jpg|thumb|250px|हनुमान गढ़ी, अयोध्या]]
इन आधारों पर श्री जोशी ने कहा कि वैदिक या पौराणिक सामग्री के आधार पर पुरातात्विक साक्ष्यों का समीकरण न तो ग्राह्य है और न ही उचित। उनका यह भी कथन था कि अधिकतर भारतीय पौराणिक एवं वैदिक सामग्री का उपयोग धर्म एवं अनुष्ठान के लिए किया गया था ऐतिहासिक रूप से उनकी सत्यता संदिग्ध है।  
इन आधारों पर श्री जोशी ने कहा कि वैदिक या पौराणिक सामग्री के आधार पर पुरातात्विक साक्ष्यों का समीकरण न तो ग्राह्य है और न ही उचित। उनका यह भी कथन था कि अधिकतर भारतीय पौराणिक एवं वैदिक सामग्री का उपयोग धर्म एवं अनुष्ठान के लिए किया गया था। ऐतिहासिक रूप से उनकी सत्यता संदिग्ध है।
====ब्रजवासी लाल के अनुसार====
====ब्रजवासी लाल के अनुसार====
श्री जोशी के मतों का खण्डन प्रो. ब्रजवासी लाल ने पुरातत्व में छपे अपने एक लेख में<ref>ब्रजवासी लाल, बाज अयोध्या ए मिथिकल सिटी ?, पुरातत्व, जिल्द 10, पृ. 47</ref> किया है। श्री लाल का कहना है कि श्री जोशी का प्रथम मत उनके तृतीय मत से मेल नहीं खाता। उनका कहना है कि प्रथम तो जोशी यह मानने को तैयार ही नहीं होते एवं द्वितीय यह स्पष्ट नहीं है कि  राम एवं आधुनिक अयोध्या का सम्बन्ध किस काल में एवं कैसे जोड़ा गया। प्रो. लाल का कहना है कि अयोध्या शब्द न केवल तैत्तिरीय आरण्यक में है, बल्कि इसका उल्लेख अथर्ववेद<ref>अथर्वेवेद, 10/2/28-33</ref> में भी मिलता है। इसके विस्तृत अध्ययन से अयोध्या शब्द का प्रयोग अयोध्या नगरी से ही नहीं वरन् 'अजेय' से लिया जा सकता है। तैत्तिरीय आरण्यक में वर्णित अयोध्या नगरी का समीकरण उन्होंने मनुष्य शरीर से किया है तथा श्रीमतदभगवदगीता<ref>श्रीमदभगवदगीता, 5/13</ref> में आए उस श्लोक का जिक़्र किया है, जिसमें शरीर नामक नगर का वर्णन है। श्री लाल का कहना है कि तैत्तरीय आरण्यक, <ref>पूर्वउल्लिखित, 1/27</ref> अथर्ववेद तथा श्रीमदभगवदगीता में शरीर के एक समान उल्लेख मिलते हैं। जिसमें कहा गया है कि देवताओं की इस स्वर्णिम नगरी के आठ चक्र (परिक्षेत्र) और नौ द्वार हैं, जो कि हमेशा प्रकाशमान रहता है। नगर के प्रकाशमान होने की व्याख्या मनुष्य के ध्यानमग्न होने के पश्चात् ज्ञान ज्योति के प्राप्त होने की स्थिति से की गई है। आठ चक्रों (परिक्षेत्रों) का समीकरण आठ धमनियों के जाल-नीचे की मूलधारा से शुरु होकर ऊपर की सहस्र धारा तक-से की गई है। नवद्वारों का समीकरण शरीर के नवद्वारों–दो आँखें, नाक के दो द्वार, दो कान, मुख, गुदा एवं शिश्न– से किया गया है।
श्री जोशी के मतों का खण्डन प्रो. ब्रजवासी लाल ने पुरातत्त्व में छपे अपने एक लेख में<ref>ब्रजवासी लाल, बाज अयोध्या ए मिथिकल सिटी, पुरातत्त्व, जिल्द 10, पृष्ठ 47</ref> किया है। श्री लाल का कहना है कि श्री जोशी का प्रथम मत उनके तृतीय मत से मेल नहीं खाता। उनका कहना है कि प्रथम तो जोशी यह मानने को तैयार ही नहीं होते एवं द्वितीय यह स्पष्ट नहीं है कि  राम एवं आधुनिक अयोध्या का सम्बन्ध किस काल में एवं कैसे जोड़ा गया। प्रो. लाल का कहना है कि अयोध्या शब्द न केवल तैत्तिरीय आरण्यक में है, बल्कि इसका उल्लेख अथर्ववेद<ref>अथर्वेवेद, 10/2/28-33</ref> में भी मिलता है। इसके विस्तृत अध्ययन से अयोध्या शब्द का प्रयोग अयोध्या नगरी से ही नहीं बल्कि 'अजेय' से लिया जा सकता है। तैत्तिरीय आरण्यक में वर्णित अयोध्या नगरी का समीकरण उन्होंने मनुष्य शरीर से किया है तथा [[श्रीमद्भागवदगीता]]<ref>[[श्रीमद्भागवदगीता]], 5/13</ref> में आए उस श्लोक का जिक़्र किया है, जिसमें शरीर नामक नगर का वर्णन है। श्री लाल का कहना है कि तैत्तरीय आरण्यक,<ref>पूर्वउल्लेखित, 1/27</ref> अथर्ववेद तथा श्रीमदभगवदगीता में शरीर के एक समान उल्लेख मिलते हैं। जिसमें कहा गया है कि देवताओं की इस स्वर्णिम नगरी के आठ चक्र (परिक्षेत्र) और नौ द्वार हैं, जो कि हमेशा प्रकाशमान रहता है। नगर के प्रकाशमान होने की व्याख्या मनुष्य के ध्यानमग्न होने के पश्चात् ज्ञान ज्योति के प्राप्त होने की स्थिति से की गई है। आठ चक्रों (परिक्षेत्रों) का समीकरण आठ धमनियों के जाल-नीचे की मूलधारा से शुरू होकर ऊपर की सहस्र धारा तक-से की गई है। नवद्वारों का समीकरण शरीर के नवद्वारों-दो आँखें, नाक के दो द्वार, दो कान, मुख, गुदा एवं शिश्न- से किया गया है।


प्रो. ब्रजवासी लाल<ref>पूर्वउल्लिखित, पुरातत्व, जिल्द 10, पृ. 47</ref> ने श्री मुनीशचन्द्र जोशी<ref>पूर्वउल्लिखित, पुरातत्व, जिल्द 8, पृ. 98-102</ref> के शोधपत्र एवं सम्बन्धित सामग्री का विस्तृत विवेचन करके अपने इस मत का पुष्टीकरण किया कि आधुनिक अयोध्या एवं रामायण में वर्णित अयोध्या एक ही है। यदि पुरातात्विक सामग्री एवं रामायण में वर्णित सामग्री में मेल नहीं खाता तो इसका अर्थ यह नहीं कि अयोध्या की पहचान गलत है या कि वह पौराणिक एवं काल्पनिक नगर था। वास्तव में दोनों सामग्रियों के मेल न खाने का मुख्य कारण रामायण के मूल में किया गया बार-बार परिवर्तन है।
प्रो. ब्रजवासी लाल<ref>पूर्वउल्लेखित, पुरातत्त्व, जिल्द 10, पृष्ठ 47</ref> ने श्री मुनीशचन्द्र जोशी<ref>पूर्वउल्लेखित, पुरातत्त्व, जिल्द 8, पृष्ठ 98-102</ref> के शोधपत्र एवं सम्बन्धित सामग्री का विस्तृत विवेचन करके अपने इस मत का पुष्टीकरण किया कि आधुनिक अयोध्या एवं रामायण में वर्णित अयोध्या एक ही है। यदि पुरातात्विक सामग्री एवं रामायण में वर्णित सामग्री में मेल नहीं खाता तो इसका अर्थ यह नहीं कि अयोध्या की पहचान ग़लत है या कि वह पौराणिक एवं काल्पनिक नगर था। वास्तव में दोनों सामग्रियों के मेल न खाने का मुख्य कारण रामायण के मूल में किया गया बार-बार परिवर्तन है।
 
==चीनी यात्रियों का यात्रा विवरण==
==चीना यात्रियों का यात्रा विवरण==
====फ़ाह्यान====
====फाह्यान====
{{main|फ़ाह्यान}}
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चीनी यात्री [[फाह्यान]] ने अयोध्या को 'शा-चे' नाम से अभिहित किया है। उसके यात्रा विवरण में इस नगर का अत्यन्त संक्षिप्त वर्णन मिलता है। फाह्यान के अनुसार यहाँ बौद्धों एवं ब्राह्मण्त्रों में सौहार्द नहीं था। उसने यहाँ उन स्थानों को देखा था, जहाँ बुद्ध बैठते थे और टहलते थे। इस स्थान की स्मृतिस्वरूप यहाँ एक स्तूप बना हुआ था।<ref>जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स ऑफ़ फाह्यान, (ओरियंटल पब्लिशर्स, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1972), पृ. 54-55</ref>
चीनी यात्री फ़ाह्यान ने अयोध्या को 'शा-चे' नाम से अभिहित किया है। उसके यात्रा विवरण में इस नगर का अत्यन्त संक्षिप्त वर्णन मिलता है। फ़ाह्यान के अनुसार यहाँ बौद्धों एवं ब्राह्मणों में सौहार्द नहीं था। उसने यहाँ उन स्थानों को देखा था, जहाँ बुद्ध बैठते थे और टहलते थे। इस स्थान की स्मृतिस्वरूप यहाँ एक स्तूप बना हुआ था।<ref>जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स ऑफ़ फ़ाह्यान, (ओरियंटल पब्लिशर्स, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1972), पृष्ठ 54-55</ref>
====ह्वेनसाँग====
====ह्वेन त्सांग====
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ह्वेनसाँग नवदेवकुल नगर से दक्षिण-पूर्व 600 ली यात्रा करके और गंगा नदी पार करके अयुधा (अयोध्या) पहुँचा था। यह सम्पूर्ण क्षेत्र 5000 ली तथा इसकी राजधानी 20 ली में फैली हुई थी।<ref>थामस वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृ. 355</ref> यह असंग एवं बसुबंधु का अस्थायी निवास स्थान था। यहाँ फ़सलें अच्छी होती थीं और यह सदैव प्रचुर हरीतिमा से आच्छादित रहता था। इसमें वैभवशाली फलों के बाग़ थे तथा यहाँ की जलवायु स्वास्थ्यवर्धक थी। यहाँ के निवासी शिष्ट आचरण वाले, क्रियाशील एवं व्यावहारिक ज्ञान के उपासक थे। इस नगर में 100 से अधिक बौद्ध विहार और 3000 से अधिक भिक्षुक थे, जो महायान और हीनयान मतों के अनुयायी थे। यहाँ 10 देव मन्दिर थे, जिनमें अबौद्धों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी।
ह्वेन त्सांग नवदेवकुल नगर से दक्षिण-पूर्व 600 ली यात्रा करके और गंगा नदी पार करके अयुधा (अयोध्या) पहुँचा था। यह सम्पूर्ण क्षेत्र 5000 ली तथा इसकी राजधानी 20 ली में फैली हुई थी।<ref>थामस वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 355</ref> यह असंग एवं बसुबंधु का अस्थायी निवास स्थान था। यहाँ फ़सलें अच्छी होती थीं और यह सदैव प्रचुर हरीतिमा से आच्छादित रहता था। इसमें वैभवशाली फलों के बाग़ थे तथा यहाँ की जलवायु स्वास्थ्यवर्धक थी। यहाँ के निवासी शिष्ट आचरण वाले, क्रियाशील एवं व्यावहारिक ज्ञान के उपासक थे। इस नगर में 100 से अधिक बौद्ध विहार और 3000 से अधिक भिक्षुक थे, जो महायान और हीनयान मतों के अनुयायी थे। यहाँ 10 देव मन्दिर थे, जिनमें अबौद्धों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी।
 
[[चित्र:Xuanzang.jpg|thumb|[[ह्वेन त्सांग]]]]
ह्वेनसाँग के अनुसार राजधानी में एक प्राचीन संघाराम था। यह वह स्थान है जहाँ देशबंधु<ref>बसुबंधु का अध्यापन एवं परिश्रम आदि अयोध्या में ही हुआ था।</ref> ने कठिन परिश्रम से विविध शास्त्रों की रचना की थी। इन भग्नावशेषों में एक महाकक्ष था। जहाँ पर बसुबंधु विदेशों से आने वाले राजकुमारों एवं भिक्षुओं को बौद्धधर्म का उपदेश देते थे।
ह्वेन त्सांग के अनुसार राजधानी में एक प्राचीन संघाराम था। यह वह स्थान है जहाँ देशबंधु<ref>बसुबंधु का अध्यापन एवं परिश्रम आदि अयोध्या में ही हुआ था।</ref> ने कठिन परिश्रम से विविध शास्त्रों की रचना की थी। इन भग्नावशेषों में एक महाकक्ष था। जहाँ पर बसुबंधु विदेशों से आने वाले राजकुमारों एवं भिक्षुओं को बौद्धधर्म का उपदेश देते थे।
 
ह्वेनसाँग लिखते हैं कि नगर के उत्तर 40 ली दूरी पर गंगा के किनारे एक बड़ा संघाराम था, जिसके भीतर अशोक द्वारा निर्मित एक 200 फुट ऊँचा स्तूप था। यह वही स्थान था जहाँ पर तथागत ने देव समाज के उपकार के लिए तीन मास तक धर्म के उत्तमोत्तम सिद्धान्तों का विवेचन किया था। इस विहार से 4-5 ली पश्चिम में बुद्ध के अस्थियुक्त एक स्तूप था। जिसके उत्तर में प्राचीन विहार के अवशेष थे, जहाँ सौतान्त्रिक सम्प्रदाय सम्बन्धी विभाषा शास्त्र की रचना की गई थी।


ह्वेनसाँग के अनुसार नगर के दक्षिण-पश्चिम में 5-6 ली की दूरी पर एक आम्रवाटिका में एक प्राचीन संघाराम था। यह वह स्थान था जहाँ असंग<ref>असंग बोधिसत्व का छोटा भाई बसबंधु बोधिसत्व था।</ref> बोधिसत्व ने विद्याध्ययन किया था।
ह्वेन त्सांग लिखते हैं कि नगर के उत्तर 40 ली दूरी पर गंगा के किनारे एक बड़ा संघाराम था, जिसके भीतर अशोक द्वारा निर्मित एक 200 फुट ऊँचा स्तूप था। यह वही स्थान था जहाँ पर तथागत ने देव समाज के उपकार के लिए तीन मास तक धर्म के उत्तमोत्तम सिद्धान्तों का विवेचन किया था। इस विहार से 4-5 ली पश्चिम में बुद्ध के अस्थियुक्त एक स्तूप था। जिसके उत्तर में प्राचीन विहार के अवशेष थे, जहाँ सौतान्त्रिक सम्प्रदाय सम्बन्धी विभाषा शास्त्र की रचना की गई थी।


आम्रवाटिका से पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग 100 क़दम की दूरी पर एक स्तूप था, जिसमें तथागत के नख और बाल रखे हुए थे। इसके निकट ही कुछ प्राचीन दीवारों की बुनियादें थीं। यह वही स्थान है जहाँ पर वसुबंधु बोधिसत्व तुषित<ref>प्राचीन काल में बौद्धों की यह इच्छा रहती कि वे लोग मृत्यु के पश्चात् तुषित स्वर्ग में मैत्रेय के निकट निवास करें।</ref> स्वर्ग उतरकर असड्ग बोधिसत्व से मिलते थे।<ref>थामस वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृ. 357</ref>
ह्वेन त्सांग के अनुसार नगर के दक्षिण-पश्चिम में 5-6 ली की दूरी पर एक आम्रवाटिका में एक प्राचीन संघाराम था। यह वह स्थान था जहाँ असङ्ग़<ref>असङ्ग़ बोधिसत्व का छोटा भाई बसबंधु बोधिसत्व था।</ref>बोधिसत्व ने विद्याध्ययन किया था।


आम्रवाटिका से पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग 100 क़दम की दूरी पर एक स्तूप था, जिसमें तथागत के नख और बाल रखे हुए थे। इसके निकट ही कुछ प्राचीन दीवारों की बुनियादें थीं। यह वही स्थान है जहाँ पर वसुबंधु बोधिसत्व तुषित<ref>प्राचीन काल में बौद्धों की यह इच्छा रहती कि वे लोग मृत्यु के पश्चात् तुषित स्वर्ग में मैत्रेय के निकट निवास करें।</ref>स्वर्ग से उतरकर असङ्ग़ बोधिसत्व से मिलते थे।<ref>थामस वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 357</ref>
==अयोध्या का पुरातात्विक उत्खनन==
==अयोध्या का पुरातात्विक उत्खनन==
अयोध्या के सीमित क्षेत्रों में पुरातत्ववेत्ताओं ने उत्खनन कार्य किए। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम उत्खनन प्रोफ़ेसर अवध किशोर नारायण के नेतृत्व में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक दल ने [[1967]]-[[1970]] में किया। यह उत्खनन मुख्यत: जैन घाट के समीप के क्षेत्र, लक्ष्मण टेकरी एवं नल टीले के समीपवर्ती क्षेत्रों में हुआ।<ref>इ. आ. रि., 1959-70, पृ. 40-41</ref> उत्खनन से प्राप्त सामग्री को तीन कालों में विभक्त किया गया है–
{{Main|अयोध्या का उत्खनन}}
अयोध्या के सीमित क्षेत्रों में पुरातत्त्ववेत्ताओं ने उत्खनन कार्य किए। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम उत्खनन प्रोफ़ेसर अवध किशोर नारायण के नेतृत्व में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक दल ने [[1967]]-[[1970]] में किया। यह उत्खनन मुख्यत: जैन घाट के समीप के क्षेत्र, लक्ष्मण टेकरी एवं नल टीले के समीपवर्ती क्षेत्रों में हुआ।<ref>इ. आ. रि., 1959-70, पृष्ठ 40-41</ref> उत्खनन से प्राप्त सामग्री को तीन कालों में विभक्त किया गया है-
====प्रथम काल====
====प्रथम काल====
उत्खनन में प्रथम काल के उत्तरी काले चमकीले मृण्भांड परम्परा (एन. बी. पी., बेयर) के भूरे पात्र एवं लाल रंग के मृण्भांड मिले हैं। इस काल की अन्य वस्तुओं में मिट्टी के कटोरे, गोलियाँ, ख़िलौना, गाड़ी के चक्र, हड्डी के उपकरण, ताँबे के मनके, स्फटिक, शीशा आदि के मनके एवं मृण्मूर्तियाँ आदि मुख्य हैं। जमाव के ऊपरी स्तर से 6 मानव आकृति की मृण्मूर्तियाँ मिली हैं। परवर्ती स्तरों से अयोध्या के दो जपनदीय सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त कुछ लोहे की वस्तुएँ भी मिली हैं। सीमित क्षेत्र में उत्खनन होने के कारण कोई भी संरचनात्मक अवशेष नहीं मिल सके।
[[चित्र:Digambar-Jain-Mandir.jpg|thumb|left|दिगम्बर जैन मंदिर, अयोध्या]]
उत्खनन में प्रथम काल के उत्तरी काले चमकीले मृण्भांड परम्परा (एन. बी. पी., बेयर) के भूरे पात्र एवं लाल रंग के मृण्भांड मिले हैं। इस काल की अन्य वस्तुओं में मिट्टी के कटोरे, गोलियाँ, ख़िलौना, गाड़ी के चक्र, हड्डी के उपकरण, ताँबे के मनके, स्फटिक, शीशा आदि के मनके एवं मृण्मूर्तियाँ आदि मुख्य हैं।  
====द्वितीय काल====
====द्वितीय काल====
इस काल के मृण्भांड मुख्यत: ईसा के प्रथम शताब्दी के हैं। उत्खनन से प्राप्त मुख्य वस्तुओं में मकरमुखाकृति टोटी, दावात के ढक्कन की आकृति के मृत्पात्र, चिपटे लाल रंग के आधारयुक्त लम्बवत् धारदार कटोरे, स्टैंप और मृत्पात्र खण्ड आदि हैं। अन्य प्रमुख वस्तुओं में हड्डी का एक कंघा, पक्की मिट्टी के लोढ़े, गोमेद के मनके और मिट्टी की मानव और पशु आकृतियाँ भी हैं। इस काल की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि एक आयताकार पक्की ईटों (35×25×5 सेमी.) की संरचना तथा एक मृतिकावलय कूप (रिंगवेल) है। इस सरंचना की आंतरिक माप पूर्व से पश्चिम 88 सेमी. है।
इस काल के मृण्भांड मुख्यत: ईसा के प्रथम शताब्दी के हैं। उत्खनन से प्राप्त मुख्य वस्तुओं में मकरमुखाकृति टोटी, दावात के ढक्कन की आकृति के मृत्पात्र, चिपटे लाल रंग के चपटे आधारयुक्त लम्बवत धारदार कटोरे, स्टैंप और मृत्पात्र खण्ड आदि हैं।  
====तृतीय काल====
====तृतीय काल====
इस काल का आरम्भ एक लम्बी अवधि के बाद मिलता है। उत्खनन से प्राप्त मध्यकालीन चमकीले मृत्पात्र अपने सभी प्रकारों में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त काही एवं प्रोक्लेन मृण्भांड भी मिले हैं। अन्य प्रमुख वस्तुओं में मिट्टी के डैबर, लोढ़े, लोहे की विभिन्न वस्तुएँ, मनके, बहुमूल्य पत्थर, शीशे की एकरंगी और बहुरंगी चूड़ियाँ और मिट्टी की पशु आकृतियाँ (विशेषकर चिड़ियों की आकृति) हैं। इस काल से सात पक्की ईटों की संरचनाओं के अवशेष भी मिले हैं। उत्खनन से प्राप्त ये सभी संरचनाएँ, प्रारम्भिक संरचनाओं से निकाली गई ईटों से निर्मित हैं।
इस काल का आरम्भ एक लम्बी अवधि के बाद मिलता है। उत्खनन से प्राप्त मध्यकालीन चमकीले मृत्पात्र अपने सभी प्रकारों में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त काही एवं प्रोक्लेन मृण्भांड भी मिले हैं। अन्य प्रमुख वस्तुओं में मिट्टी के डैबर, लोढ़े, लोहे की विभिन्न वस्तुएँ, मनके, बहुमूल्य पत्थर, शीशे की एकरंगी और बहुरंगी चूड़ियाँ और मिट्टी की पशु आकृतियाँ (विशेषकर चिड़ियों की आकृति) हैं।
====अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुन: उत्खनन====
====अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुन: उत्खनन====
अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुन: उत्खनन दो सत्रों [[1975]]-[[1976]] तथा 1976-[[1977]] में ब्रजवासी लाल और के. वी. सुन्दराजन के नेतृत्व में हुआ। यह उत्खनन मुख्यत: दो क्षेत्रों– रामजन्मभूमि और हनुमानगढ़ी में किया गया।<ref>इ. आ. रि. 1976-77, पृ. 52</ref> इस उत्खनन से संस्कृतियों का एक विश्वसनीय कालक्रम प्रकाश में आया है। साथ ही इस स्थान पर प्राचीनतम बस्ती के विषय में जानकारी भी मिली है। उत्खनन में सबसे निचले स्तर से उत्तरी काली चमकीले मृण्भांड एवं धूसर मृण्भांड परम्परा के मृत्पात्र मिले हैं। धूसर परम्परा के कुछ मृण्भांडों पर काले रंग में चित्रकारी भी मिलती है। यहाँ से प्राप्त मृण्भांड श्रावस्ती, पिपरहवा और कौशांबी से समानता ग्रहण किए हुए हैं। उत्खननकर्ताओं ने इस प्रथम काल को सातवीं शताब्दी ई. पू. में निर्धारित किया है।
अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुन: उत्खनन दो सत्रों [[1975]]-[[1976]] तथा 1976-[[1977]] में ब्रजवासी लाल और के. वी. सुन्दराजन के नेतृत्व में हुआ। यह उत्खनन मुख्यत: दो क्षेत्रों- रामजन्मभूमि और हनुमानगढ़ी में किया गया।<ref>इ. आ. रि. 1976-77, पृष्ठ 52</ref> इस उत्खनन से संस्कृतियों का एक विश्वसनीय कालक्रम प्रकाश में आया है। साथ ही इस स्थान पर प्राचीनतम बस्ती के विषय में जानकारी भी मिली है। उत्खनन में सबसे निचले स्तर से उत्तर कालीन चमकीले मृण्भांड एवं धूसर मृण्भांड परम्परा के मृत्पात्र मिले हैं। धूसर परम्परा के कुछ मृण्भांडों पर काले रंग में चित्रकारी भी मिलती है।  
====हनुमानगढ़ी क्षेत्र में उत्खनन====
हनुमानगढ़ी क्षेत्र से भी उत्तरी काली चमकीली मृण्भांड संस्कृति के अवशेष प्रकाश में आए हैं। साथ ही यहाँ अनेक प्रकार के मृतिका वलय कूप तथा एक कुएँ में प्रयुक्त कुछ शंक्वाकार ईंटें भी मिली हैं। उत्खनन से बड़ी मात्रा में विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ मिली हैं, जिनमें मुख्यत: आधा दर्जन मुहरें, 70 सिक्के, एक सौ से अधिक लघु मृण्मूर्तियाँ आदि उल्लेखनीय हैं।
[[चित्र:Ayodhya-Laxman-Kila.jpg|thumb|left|लक्ष्मण क़िला, अयोध्या]]


स्तरों के अनुक्रम से ज्ञात होता है कि इस टीले पर बस्तियों का क्रम तीसरी शताब्दी ई. तक अविच्छिन्न रूप से जारी था। उत्खनन से पता चलता है कि प्रारम्भिक चरण में मकानों का निर्माण बाँस, बल्ली, मिट्टी तथा कच्ची ईंटों से किया जाता था। जन्मभूमि क्षेत्र से ईंटों की एक मोटी दीवार मिली है। जिसे उत्खाता महोदय ने क़िले की दीवार से समीकृत किया है। इस दीवार के ठीक नीचे कच्ची ईंटों से निर्मित एक अन्य दीवार के भी अवशेष मिले हैं। इस तल के ऊपरी स्तर का विस्तार, जो रक्षा प्राचीरों के बाद का है, तीसरी शताब्दी ई. पू. से प्रथम शताब्दी ई. के मध्य माना गया है। खुदाई में यहाँ से कुछ मृतिका वलय कूप तथा क़िले की दीवार के बाहर की ओर परिखा (खाई) के अवशेष भी मिले हैं।
====महत्त्वपूर्ण उपलब्धि====
====हनुमानगढ़ी क्षेत्र में उत्खनन====
इस उत्खनन में सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि आद्य ऐतिहासिक काल के रोलेटेड मृण्भांडों की प्राप्ति है। ये मृण्भांड प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई. के हैं। इस प्रकार के मृण्भांडों की प्राप्ति से यह सिद्ध होता है कि तत्कालीन अयोध्या में वाणिज्य और व्यापार बड़े पैमाने पर होता था। यह व्यापार [[सरयू नदी]] के जलमार्ग द्वारा [[गंगा नदी]] से सम्बद्ध था।  
हनुमानगढ़ी क्षेत्र से भी उत्तरी काली चमकीली मृण्भांड संस्कृति के अवशेष प्रकाश में आए हैं। साथ ही यहाँ अनेक प्रकार के मृतिका वलय कूप तथा एक कुएँ में प्रयुक्त कुछ शंक्वाकार ईंटें भी मिली हैं। उत्खनन से बड़ी मात्रा में विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ मिली हैं, जिनमें मुख्यत: आधा दर्जन मुहरें, 70 सिक्के, एक सौ से अधिक लघु मृण्मूर्तियाँ आदि उल्लेखनीय हैं। इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण कुषाण शासक वासुदेव की एक मिट्टी की मुहर (दूसरी शती ई.), इसी काल का मूलदेव का एक सिक्का तथा एक भूरे रंग की केश-विहीन जैन मृण्मूर्ति है।<ref>यह जैन मृण्मूर्ति चौथी शताब्दी ई. पू. की है जो प्राचीनता की दृष्टि से भारत वर्ष में जैन मूर्तियों में प्रथम रचना है।</ref> हनुमानगढ़ी से प्राप्त अन्य मृण्मूर्तियाँ पहली-दूसरी शताब्दी ई. पू. की हैं। ये मृण्मूर्तियाँ अहिच्छत्र, कौशांबी, पिपरहवा और वैशाली आदि क्षेत्रों से प्राप्त मृण्मूर्तियों के समान ही हैं। इस प्रकार की मृण्मूर्तियों को वासुदेवशरण अग्रवाल ने विजातीय प्रकार (Exotic type) से अभिहित किया है।<ref>इ. आ. रि., 1976-77, पृ. 53</ref>
====महत्वपूर्ण उपलब्धि====
इस उत्खनन में सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि आद्य ऐतिहासिक काल के रोलेटेड मृण्भांडों की प्राप्ति है। ये मृण्भांड प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई. के हैं। इस प्रकार के मृण्भांडों की प्राप्ति से यह सिद्ध होता है कि तत्कालीन अयोध्या में वाणिज्य और व्यापार बड़े पैमाने पर होता था। यह व्यापार [[सरयू नदी]] के जलमार्ग द्वारा [[गंगा नदी]] से सम्बद्ध था। यह व्यापार मुख्यत: छपरा और पूर्वी भारत के ताम्रलिप्ति से होता था। अभी भी सरयू और गंगा नदी में बड़ी नावों से पूर्वी भारत से व्यापार होता है। रोलेटेड मृण्भांडों की प्राप्ति आतंरिक व्यापार का महत्वपूर्ण उदाहरण है। उल्लेखनीय है प्रायद्वीपीय भारत में इस प्रकार के मृण्भांड कभी-कभी पृष्ठ प्रदेशों (जैसे-ब्रह्मगिरि और सेगमेडु) में भी मिलते हैं।
====ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन====
====ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन====
आद्य ऐतिहासिक काल के पश्चात् यहाँ के मलबों और गड्ढों से प्राप्त वस्तुओं के आधार पर व्यावसायिक क्रम में अवरोध दृष्टिगत होता है। सम्भवत: यह क्षेत्र पुन: 11वीं शताब्दी में अधिवासित हुआ। यहाँ से उत्खनन में कुछ परवर्ती मध्यकालीन ईंटें, कंकड़, एवं चूने की फ़र्श आदि भी मिले हैं।
आद्य ऐतिहासिक काल के पश्चात् यहाँ के मलबों और गड्ढों से प्राप्त वस्तुओं के आधार पर व्यावसायिक क्रम में अवरोध दृष्टिगत होता है। सम्भवत: यह क्षेत्र पुन: 11वीं शताब्दी में अधिवासित हुआ। यहाँ से उत्खनन में कुछ परवर्ती मध्यकालीन ईंटें, कंकड़, एवं चूने की फ़र्श आदि भी मिले हैं।
अयोध्या से 16 किमी. दक्षिण में तमसा नदी के किनारे स्थित नन्दीग्राम में भी श्री ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन कार्य किया गया। उल्लेख है कि राम के वनगमन के पश्चात् भरत ने यहीं पर निवास करते हुए अयोध्या का शासन कार्य संचालित किया था। यहाँ के सीमित उत्खनन से प्राप्त वस्तुएँ अयोध्या की वस्तुओं के समकालीन हैं।
अयोध्या से 16 किलोमीटर दक्षिण में तमसा नदी के किनारे स्थित नन्दीग्राम में भी श्री ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन कार्य किया गया। उल्लेख है कि राम के वनगमन के पश्चात् भरत ने यहीं पर निवास करते हुए अयोध्या का शासन कार्य संचालित किया था। यहाँ के सीमित उत्खनन से प्राप्त वस्तुएँ अयोध्या की वस्तुओं के समकालीन हैं।  
अयोध्या तथा अन्य स्थानों के उत्खनन के आधार पर इसका काल 7वीं शताब्दी ई. पू. निर्धारित किया गया है।
 
श्री ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में यह उत्खनन कार्य [[1979]]-[[1980]] में पुन: प्रारम्भ हुआ।<ref>इ. आ. रि., 1979-80, पृ. 76-77</ref> इस उत्खनन के प्रारम्भिक चरणों से अच्छी तरह पकाए गए एवं चमकदार उत्तरी काली चमकीले मृण्भांड (एन. बी. पी. बेयर) मिले हैं। इस मृण्भांड संस्कृति के काल में निर्मित मकानों में मुख्यत: कच्ची ईंटों का प्रयोग मिलता है। मकानों में मृत्तिका वलय कूपों का प्रावधान था। इस संस्कृति के पश्चात् यह स्थान शुंग, कुषाण, और गुप्त एवं मध्य कालों में आबाद रहा। उत्खनन में कच्ची ईंटों से निर्मित एक शुंग-कालीन दीवार भी मिली है। इसके अतिरिक्त गुप्तकालीन भवन का एक भाग तथा कुछ तत्कालीन मृण्भांड भी मिले हैं, जो श्रृंगवेरपुर और भारद्वाज आश्रम के मृण्भांडों के समतुल्य हैं।  
====सीमित क्षेत्र में उत्खनन====
====सीमित क्षेत्र में उत्खनन====
[[1981]]-[[1982]] ई. में सीमित क्षेत्र में उत्खनन किया गया। यह उत्खनन मुख्यत: हनुमानगढ़ी और लक्ष्मणघाट क्षेत्रों में हुआ। इसमें 700-800 ई. पू. के कलात्मक पात्र मिले हैं। श्री लाल के उत्खनन से प्रमाणित होता है कि यह बौद्ध काल में अयोध्या का महत्वपूर्ण स्थान था। महात्मा बुद्ध की प्रमुख शिष्या विशाषा ने यहीं पर दीक्षा ग्रहण की थी, जिसकी स्मृतिस्वरूप विशाखा ने अयोध्या में मणि पर्वत के समीप एक बौद्ध मठ की स्थापना की थी। सम्भव है कि कालान्तर में समय-समय पर सरयू नदी के घारा परिवर्तन के कारण प्राचीन अयोध्या नगरी का कुछ क्षेत्र नदी द्वारा नष्ट कर दिया गया हो।
[[1981]]-[[1982]] ई. में सीमित क्षेत्र में उत्खनन किया गया। यह उत्खनन मुख्यत: हनुमानगढ़ी और लक्ष्मणघाट क्षेत्रों में हुआ। इसमें 700-800 ई. पू. के कलात्मक पात्र मिले हैं। श्री लाल के उत्खनन से प्रमाणित होता है कि यह बौद्ध काल में अयोध्या का महत्त्वपूर्ण स्थान था।  
====बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में====
====बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में====
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में [[2002]]-[[2003]] ईसवी में रामजन्म भूमि क्षेत्र में उत्खनन कार्य किया गया। यह उत्खनन कार्य सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर संचालित हुआ। उत्खनन से पूर्व उत्तरी कृष्ण परिमार्जित (Pre NBP Culture) संस्कृति से लेकर परवर्ती मुग़लकालीन संस्कृति तक के अवशेष प्रकाश में आए। प्रथम काल के अवशेषों एवं रेडियो कार्बन तिथियों से यह निश्चित हो जाता है कि मानव सभ्यता की कहानी अयोध्या में 1300 ईसा पूर्व से प्रारम्भ होती है।<ref>हरि माँझी और बी. आर. मणि, अयोध्या 2002-2003, एक्सकैवेशन्स ऐट दी "डिस्प्यूटेड साइट" भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग, नई दिल्ली, 2003, छाया प्रति।</ref>
[[चित्र:View-Of-Ayodhya-1.jpg|thumb|300px||अयोध्या का एक दृश्य]]
उत्खनन में उपलब्ध प्रथम काल की सामग्री एक सीमित क्षेत्र से ही प्राप्त हैं। संरचनात्क क्रियाकलापों से परे प्रथम काल की संस्कृति इस क्षेत्र के अन्य उत्खनित पुरास्थलों श्रृंगवेरपुर, हुलासखेड़ा, सोहगौरा, नरहन और राजघाट के समान है। बीरबल साहनी पुरावानैस्पतिक संस्थान, लखनऊ से प्राप्त अयोध्या के प्रथम काल की कार्बन तिथियाँ निम्नलिखित हैं<ref>के. एन. दीक्षित, रामायण, महाभारत एंड आर्कियोलाजी, पुरातत्व, अंक-33, 2002-2003, पृ. 114-118.</ref>
भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में [[2002]]-[[2003]] ईसवी में रामजन्म भूमि क्षेत्र में उत्खनन कार्य किया गया। यह उत्खनन कार्य सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर संचालित हुआ। उत्खनन से पूर्व उत्तरी कृष्ण परिमार्जित संस्कृति से लेकर परवर्ती मुग़लकालीन संस्कृति तक के अवशेष प्रकाश में आए। प्रथम काल के अवशेषों एवं रेडियो कार्बन तिथियों से यह निश्चित हो जाता है कि मानव सभ्यता की कहानी अयोध्या में 1300 ईसा पूर्व से प्रारम्भ होती है।<ref>हरि माँझी और बी. आर. मणि, अयोध्या 2002-2003, एक्सकैवेशन्स ऐट दी "डिस्प्यूटेड साइट" भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, नई दिल्ली, 2003, छाया प्रति।</ref>
टेबल बनानी है। इस नवीन पुरातात्विक साक्ष्य एवं अन्य स्थलों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि यहाँ से प्राप्त पूर्व उत्तरी कृष्ण परिमार्जित संस्कृति, च्तम छठच् बनसजनतमद्ध के साक्ष्य भारतीयों के आस्था एवं विश्वास को पुष्ट करते हैं। इस प्रमाण से हमें रामकथा और अयोध्या की प्राचीनता को [[कृष्ण]], [[महाभारत]] और [[हस्तिनापुर]] के पूर्व के होने का सबल आधार मिलता है।
{|  border="1" class="bharattable"
|-
! नमूना सख्या
! नमूनों की तिथि <ref>कार्बन-4 के अर्द्धजीवन पर आधारित (5570 <math>\pm</math> 30 वर्ष</ref>
! पुर्नगणना वर्ष में
|-
| संख्या-7, अयोध्या-1, 2152 जी-7 (16) 9.15 मीटर
| 2830 <math>\pm</math> 100 बी. पी. (880 ई. पू.)
| 1190- 840 ई. पू.
|-
| संख्या-8, अयोध्या-1, 2153 जी-7 (19) 11.00 मीटर
| 2860 <math>\pm</math> 100 बी. पी. (910 ई. पू.)
| 1210- 900  ई. पू.
|-
| संख्या-9, अयोध्या-1, 2154 जी-7 (20) 11.53 मीटर
| 3200 <math>\pm</math> 130 बी. पी. (1250 ई. पू.)
| 1680- 1320  ई. पू.
|}
==पर्यटन==
अयोध्या घाटों और मंदिरों की प्रसिद्ध नगरी है। सरयू नदी यहाँ से होकर बहती है। सरयू नदी के किनारे 14 प्रमुख घाट हैं। इनमें गुप्तद्वार घाट, कैकेयी घाट, कौशल्या घाट, पापमोचन घाट, लक्ष्मण घाट आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। मंदिरों में 'कनक भवन' सबसे सुंदर है। लोकमान्यता के अनुसार [[कैकेयी]] ने इसे [[सीता]] को मुंह दिखाई में दिया था। ऊँचे टीले पर हनुमानगढ़ी आकर्षक का केंद्र है। इस नगर में रामजन्मभूमि-स्थल की बड़ी महिमा है। इस स्थान पर विक्रमादित्य का बनवाया हुआ एक भव्य मंदिर था किंतु बाबर के शासनकाल में वहाँ पर मस्जिद बना दी गई। जिसे 6 दिसंबर 1992 को कुछ कट्टरपंथियों ने गिरा दिया। इस विवादास्पद स्थान पर इस समय रामलला की मूर्ति स्थापित है सरयू के निकट नागेश्वर का मंदिर [[शिव]] के बारह ज्योतिलिंगों में गिना जाता है। 'तुलसी चौरा' वह स्थान है जहाँ बैठकर [[तुलसीदास]] जी ने [[रामचरितमानस]] की रचना आरंभ की थी। प्रह्लाद घाट के पास [[गुरु नानक]] भी आकर ठहरे थे। अयोध्या जैन धर्मावलंबियों का भी तीर्थ-स्थान है। वर्तमान युग के चौबीस तीर्थकरों में से पाँच का जन्म अयोध्या में हुआ था। इनमें प्रथम तीर्थकर [[ऋषभदेव]] भी सम्मिलित है।


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चित्र:Digambar-Jain-Mandir.jpg|[[दिगम्बर जैन मंदिर]], अयोध्या<br />Digambar Jain Temple, Ayodhya
चित्र:Ayodhya-Laxman-Kila.jpg|[[लक्ष्मण क़िला]], अयोध्या<br />Laxman Fort, Ayodhya
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
{{reflist|2}}
*ऐतिहासिक स्थानावली | पृष्ठ संख्या= 39| विजयेन्द्र कुमार माथुर |  वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
<references/>


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==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
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11:34, 3 मई 2018 के समय का अवतरण

अयोध्या विषय सूची
अयोध्या
अयोध्या का एक दृश्य
अयोध्या का एक दृश्य
विवरण 'अयोध्या' उत्तर प्रदेश राज्य का एक प्रसिद्ध धार्मिक नगर है। अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम का जन्म यहीं हुआ था। राम की जन्म-भूमि सरयू नदी के दाएँ तट पर स्थित है।
राज्य उत्तर प्रदेश
ज़िला फ़ैज़ाबाद
कब जाएँ कभी भी जा सकते हैं
कैसे पहुँचें विमान, रेल, बस, टैक्सी
हवाई अड्डा निकटतम हवाई अड्डा लखनऊ में है जो लगभग 140 किमी. की दूरी पर है।
रेलवे स्टेशन फैजाबाद अयोध्या का निकटतम रेलवे स्टेशन है। यह रेलवे स्टेशन मुग़ल सराय-लखनऊ लाइन पर स्थित है।
बस अड्डा उत्तर प्रदेश सड़क परिवहन निगम की बसें लगभग सभी प्रमुख शहरों से अयोध्या के लिए चलती हैं।
यातायात ऑटो रिक्शा, बस, टैम्पो, साइकिल रिक्शा
क्या देखें रामकोट, हनुमान गढ़ी, नागेश्वर नाथ मंदिर, कनक भवन, जैन मंदिर
कहाँ ठहरें होटल, धर्मशाला, अतिथि ग्रह
एस.टी.डी. कोड 5278
ए.टी.एम सभी
अयोध्या
भाषा हिंदी, अवधी, अंग्रेज़ी
अन्य जानकारी जैन मत के अनुसार यहाँ आदिनाथ सहित पाँच तीर्थंकरों का जन्म हुआ था।

अयोध्या (अंग्रेज़ी: Ayodhya) उत्तर प्रदेश राज्य का एक प्रसिद्ध धार्मिक नगर है। अयोध्या फ़ैज़ाबाद ज़िले में आता है। रामायण के अनुसार दशरथ अयोध्या के राजा थे। श्रीराम का जन्म यहीं हुआ था। राम की जन्म-भूमि अयोध्या उत्तर प्रदेश में सरयू नदी के दाएँ तट पर स्थित है। अयोध्या हिन्दुओं के प्राचीन और सात पवित्र तीर्थस्थलों में से एक है। अयोध्या को अथर्ववेद में ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी संपन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है। रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना मनु ने की थी। कई शताब्दियों तक यह नगर सूर्य वंश की राजधानी रहा। अयोध्या एक तीर्थ स्थान है और मूल रूप से मंदिरों का शहर है। यहाँ आज भी हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम और जैन धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं। जैन मत के अनुसार यहाँ आदिनाथ सहित पाँच तीर्थंकरों का जन्म हुआ था।

इतिहास

अयोध्या पुण्यनगरी है। अयोध्या श्रीरामचन्द्रजी की जन्मभूमि होने के नाते भारत के प्राचीन साहित्य व इतिहास में सदा से प्रसिद्ध रही है। अयोध्या की गणना भारत की प्राचीन सप्तपुरियों में प्रथम स्थान पर की गई है।[1] अयोध्या की महत्ता के बारे में पूर्वी उत्तर प्रदेश के जनसाधारण में निम्न कहावतें प्रचलित हैं-

गंगा बड़ी गोदावरी,
तीरथ बड़ो प्रयाग,
सबसे बड़ी अयोध्यानगरी,
जहँ राम लियो अवतार

अयोध्या रघुवंशी राजाओं की बहुत पुरानी राजधानी थी। स्वयं मनु ने[2] अयोध्या का निर्माण किया था। वाल्मीकि रामायण[3] से विदित होता है कि स्वर्गारोहण से पूर्व रामचंद्र जी ने कुश को कुशावती नामक नगरी का राजा बनाया था। श्रीराम के पश्चात् अयोध्या उजाड़ हो गई थी, क्योंकि उनके उत्तराधिकारी कुश ने अपनी राजधानी कुशावती में बना ली थी। रघु वंश[4] से विदित होता है कि अयोध्या की दीन-हीन दशा देखकर कुश ने अपनी राजधानी पुन: अयोध्या में बनाई थी। महाभारत में अयोध्या के दीर्घयज्ञ नामक राजा का उल्लेख है जिसे भीमसेन ने पूर्वदेश की दिग्विजय में जीता था।[5] घटजातक में अयोध्या[6] के कालसेन नामक राजा का उल्लेख है।[7] गौतमबुद्ध के समय कोसल के दो भाग हो गए थे- उत्तर कोसल और दक्षिण कोसल जिनके बीच में सरयू नदी बहती थी। अयोध्या या साकेत उत्तरी भाग की और श्रावस्ती दक्षिणी भाग की राजधानी थी। इस समय श्रावस्ती का महत्त्व अधिक बढ़ा हुआ था। बौद्ध काल में ही अयोध्या के निकट एक नई बस्ती बन गई थी जिसका नाम साकेत था। बौद्ध साहित्य में साकेत और अयोध्या दोनों का नाम साथ-साथ भी मिलता है[8] जिससे दोनों के भिन्न अस्तित्व की सूचना मिलती है।

  • पुराणों में इस नगर के संबंध में कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु इस नगर के शासकों की वंशावलियाँ अवश्य मिलती हैं, जो इस नगर की प्राचीनता एवं महत्त्व के प्रामाणिक साक्ष्य हैं। ब्राह्मण साहित्य में इसका वर्णन एक ग्राम के रूप में किया गया है।[10]
  • सूत और मागध उस नगरी में बहुत थे। अयोध्या बहुत ही सुन्दर नगरी थी। अयोध्या में ऊँची अटारियों पर ध्वजाएँ शोभायमान थीं और सैकड़ों शतघ्नियाँ उसकी रक्षा के लिए लगी हुई थीं।[11]
  • राम के समय यह नगर अवध नाम की राजधानी से सुशोभित था।[12]
  • बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार अयोध्या पूर्ववर्ती तथा साकेत परवर्ती राजधानी थी। हिन्दुओं के साथ पवित्र स्थानों में इसका नाम मिलता है। फ़ाह्यान ने इसका ‘शा-चें’ नाम से उल्लेख किया है, जो कन्नौज से 13 योजन दक्षिण-पूर्व में स्थित था।[13]
  • मललसेकर ने पालि-परंपरा के साकेत को सई नदी के किनारे उन्नाव ज़िले में स्थित सुजानकोट के खंडहरों से समीकृत किया है।[14]
  • नालियाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी ने भी इसका समीकरण सुजानकोट से किया है।[15] थेरगाथा अट्ठकथा[16] में साकेत को सरयू नदी के किनारे बताया गया है। अत: संभव है कि पालि का साकेत, आधुनिक अयोध्या का ही एक भाग रहा हो।

उल्लेख

अयोध्या का एक दृश्य

शुंग वंश के प्रथम शासक पुष्यमित्र [17] का एक शिलालेख अयोध्या से प्राप्त हुआ था जिसमें उसे सेनापति कहा गया है तथा उसके द्वारा दो अश्वमेध यज्ञों के लिए जाने का वर्णन है। अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुप्तवंशीय चंद्रगुप्त द्वितीय के समय (चतुर्थ शती ई. का मध्यकाल) और तत्पश्चात् काफ़ी समय तक अयोध्या गुप्त साम्राज्य की राजधानी थी। गुप्तकालीन महाकवि कालिदास ने अयोध्या का रघु वंश में कई बार उल्लेख किया है।[18] कालिदास ने उत्तरकौशल की राजधानी साकेत[19] और अयोध्या दोनों ही का नामोल्लेख किया है, इससे जान पड़ता है कि कालिदास के समय में दोनों ही नाम प्रचलित रहे होंगे। मध्यकाल में अयोध्या का नाम अधिक सुनने में नहीं आता था। युवानच्वांग के वर्णनों से ज्ञात होता है कि उत्तर बुद्धकाल में अयोध्या का महत्त्व घट चुका था।

महाकाव्यों में अयोध्या

अयोध्या का उल्लेख महाकाव्यों में विस्तार से मिलता है। रामायण के अनुसार यह नगर सरयू नदी के तट पर बसा हुआ था तथा कोशल राज्य का सर्वप्रमुख नगर था।[20]

  • अयोध्या को देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि मानो मनु ने स्वयं अपने हाथों के द्वारा अयोध्या का निर्माण किया हो।[21]
  • अयोध्या नगर 12 योजन लम्बाई में और 3 योजन चौड़ाई में फैला हुआ था,[22] जिसकी पुष्टि वाल्मीकि रामायण में भी होती है।[23]
  • एक परवर्ती जैन लेखक हेमचन्द्र[24] ने नगर का क्षेत्रफल 12×9 योजन बतलाया है[25] जो कि निश्चित ही अतिरंजित वर्णन है।
  • साक्ष्यों के अवलोकन से नगर के विस्तार के लिए कनिंघम[26] का मत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लगता है। उनकी मान्यता है कि नगर की परिधि 12 कोश (24 मील) थी, जो वर्तमान नगर की परिधि के अनुरूप है।
  • धार्मिक महत्ता की दृष्टि से अयोध्या हिन्दुओं और जैनियों का एक पवित्र तीर्थस्थल था। इसकी गणना भारत की सात मोक्षदायिका पुरियों में की गई है। ये सात पुरियाँ निम्नलिखित थीं-[27]
  • अयोध्या में कंबोजीय अश्व एवं शक्तिशाली हाथी थे। रामायण के अनुसार यहाँ चातुर्वर्ण्य व्यवस्था थी- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। उन्हें अपने विशिष्ट धर्मों एवं दायित्वों का निर्वाह करना पड़ता था। रामायण में उल्लेख है कि कौशल्या को जब राम वन गमन का समाचार मिला तो वे मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। उस समय कौशल्या के समस्त अंगों में धूल लिपट गयी थी और श्रीराम ने अपने हाथों से उनके अंगों की धूल साफ़ की।[28]
अयोध्या का एक दृश्य
वर्ष-1783

मध्यकाल में अयोध्या

मध्यकाल में मुसलमानों के उत्कर्ष के समय, अयोध्या बेचारी उपेक्षिता ही बनी रही, यहाँ तक कि मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के एक सेनापति ने बिहार अभियान के समय अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर स्थित प्राचीन मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद बनवाई, जो आज भी विद्यमान है। मस्जिद में लगे हुए अनेक स्तंभ और शिलापट्ट उसी प्राचीन मंदिर के हैं। अयोध्या के वर्तमान मंदिर कनकभवन आदि अधिक प्राचीन नहीं हैं, और वहाँ यह कहावत प्रचलित है कि सरयू को छोड़कर रामचंद्रजी के समय की कोई निशानी नहीं है। कहते हैं कि अवध के नवाबों ने जब फ़ैज़ाबाद में राजधानी बनाई थी तो वहाँ के अनेक महलों में अयोध्या के पुराने मंदिरों की सामग्री उपयोग में लाई गई थी।

बौद्ध साहित्य में अयोध्या

बौद्ध साहित्य में भी अयोध्या का उल्लेख मिलता है। गौतम बुद्ध का इस नगर से विशेष सम्बन्ध था। उल्लेखनीय है कि गौतम बुद्ध के इस नगर से विशेष सम्बन्ध की ओर लक्ष्य करके मज्झिमनिकाय में उन्हें कोसलक (कोशल का निवासी) कहा गया है।[29]

  • धर्म-प्रचारार्थ वे इस नगर में कई बार आ चुके थे। एक बार गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों को मानव जीवन की निस्वारता तथा क्षण-भंगुरता पर व्याख्यान दिया था। अयोध्यावासी गौतम बुद्ध के बहुत बड़े प्रशंसक थे और उन्होंने उनके निवास के लिए वहाँ पर एक विहार का निर्माण भी करवाया था।[30]
  • संयुक्तनिकाय में उल्लेख आया है कि बुद्ध ने यहाँ की यात्रा दो बार की थी। उन्होंने यहाँ फेण सूक्त[31] और दारुक्खंधसुक्त[32] का व्याख्यान दिया था।

एक ही नगर से समीकृत

अयोध्या और साकेत दोनों नगरों को कुछ विद्वानों ने एक ही माना है। कालिदास ने भी रघुवंश[33] में दोनों नगरों को एक ही माना है, जिसका समर्थन जैन साहित्य में भी मिलता है।[34] कनिंघम ने भी अयोध्या और साकेत को एक ही नगर से समीकृत किया है।[35] इसके विपरीत विभिन्न विद्वानों ने साकेत को भिन्न-भिन्न स्थानों से समीकृत किया है। इसकी पहचान सुजानकोट,[36] आधुनिक लखनऊ,[37] कुर्सी,[38] पशा (पसाका), [39] और तुसरन बिहार[40]इलाहाबाद से 27 मील दूर स्थित है) से की गई है। इस नगर के समीकरण में उपर्युक्त विद्वानों के मतों में सवल प्रमाणों का अभाव दृष्टिगत होता है। बौद्ध ग्रन्थों में भी अयोध्या और साकेत को भिन्न-भिन्न नगरों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वाल्मीकि रामायण में अयोध्या को कोशल की राजधानी बताया गया है और बाद के संस्कृत ग्रन्थों में साकेत से मिला दिया गया है। 'अयोध्या' को संयुक्तनिकाय में एक ओर गंगा के किनारे स्थित एक छोटा गाँव या नगर बतलाया गया है। जबकि 'साकेत' उससे भिन्न एक महानगर था।[41] अतएव किसी भी दशा में ये दोनों नाम एक नहीं हो सकते हैं।

लक्ष्मण घाट, अयोध्या

जैन ग्रन्थ के अनुसार

जैन ग्रन्थ विविधतीर्थकल्प में अयोध्या को ऋषभ, अजित, अभिनंदन, सुमति, अनन्त और अचलभानु- इन जैन मुनियों का जन्मस्थान माना गया है। नगरी का विस्तार लम्बाई में 12 योजन और चौड़ाई में 9 योजन कहा गया है। इस ग्रन्थ में वर्णित है कि चक्रेश्वरी और गोमुख यक्ष अयोध्या के निवासी थे। घर्घर-दाह और सरयू का अयोध्या के पास संगम बताया है और संयुक्त नदी को स्वर्गद्वारा नाम से अभिहित किया गया है। नगरी से 12 योजन पर अष्टावट या अष्टापद पहाड़ पर आदि-गुरु का कैवल्यस्थान माना गया है। इस ग्रन्थ में यह भी वर्णित है कि अयोध्या के चारों द्वारों पर 24 जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित थीं। एक मूर्ति की चालुक्य नरेश कुमारपाल ने प्रतिष्ठापना की थी। इस ग्रन्थ में अयोध्या को दशरथ, राम और भरत की राजधानी बताया गया है। जैनग्रन्थों में अयोध्या को 'विनीता' भी कहा गया है।[42]
जैन ग्रंथ महापुराण (आदिपुराण) के अनुसार करोड़ों वर्ष पूर्व अयोध्या में पांच तीर्थंकरों के जन्म तो हुए ही हैं, साथ ही वहाँ अन्य अनेक इतिहास भी जुड़ें। अयोध्या में वर्तमान में रायगंज परिसर में 31 फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। वहाँ प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण नवमी के दिन भगवान ऋषभदेव के जन्म कल्याणक दिवस का वार्षिक मेला आयोजित होता है। जिसमें हज़ारों श्रद्धालु भक्त भाग लेकर पुण्यलाभ प्राप्त करते हैं। अयोध्या में स्वर्गद्वार मोहल्ले में ऋषभदेव का सुन्दर जिन मंदिर बना है। वह भगवान का वास्तविक जन्म स्थान माना जाता है। सरयू नदी के निकट ही भगवान ऋषभदेव उद्यान बहुत सुंदर बना हुआ है, जहाँ देश- विदेश के हज़ारों पर्यटक प्रतिदिन आकर प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते हैं।

राज डेविड्स के अनुसार

राज डेविड्स का कथन है कि दोनों नगर वर्तमान लंदन और वेस्टमिंस्टर के समान एक-दूसरे से सटे रहे होंगे[43] जो कालान्तर में विकसित होकर एक हो गये। अयोध्या सम्भवत: प्राचीन राजधानी थी और साकेत परवर्ती राजधानी [44]। विशुद्धानन्द पाठक भी राज डेविड्स के मत का समर्थन करते हैं और परिवर्तन के लिए सरयू नदी की धारा में परिवर्तन या किसी प्राकृतिक कारण को उत्तरदायी मानते हैं, जिसके कारण अयोध्या का संकुचन हुआ और दूसरी तरफ़ नई दिशा में परवर्ती काल में साकेत का उद्भव हुआ।[45]

साक्ष्यों के अवलोकन के अनुसार

साक्ष्यों के अवलोकन से दोनों नगरों के अलग-अलग अस्तित्व की सार्थकता सिद्ध हो जाती है तथा साकेत के परवर्ती काल में विकास की बात सत्य के अधिक समीप लगती है। इस सन्दर्भ में ई. जे. थामस रामायण की परम्परा को बौद्ध परम्परा की अपेक्षा उत्तरकालीन मानते हैं। उनकी मान्यता है कि पहले कोशल की राजधानी श्रावस्ती थी और जब बाद में कोशल का विस्तार दक्षिण की ओर हुआ तो अयोध्या राजधानी बनी, जो कि साकेत के ही किसी विजयी राजा द्वारा दिया हुआ नाम था।[46]

पुरातत्त्वविदों के अनुसार

पिछले समय में कुछ पुरातत्त्वविदों यथा-प्रो. ब्रजवासी लाल[47] तथा हंसमुख धीरजलाल साँकलिया[48] ने रामायण इत्यादि में वर्णित अयोध्या की पहचान नगर की भौगोलिक स्थिति, प्राचीनता एवं सांस्कृतिक अवशेषों का अध्ययन किया, रामायण में वर्णित उपर्युक्त विवरणों के अन्तर की व्याख्या भी प्रस्तुत की है। इन दोनों विद्वानों का यह मत था कि पुरातात्विक दृष्टि से न केवल अयोध्या की पहचान की जा सकती है, रामायण में वर्णित अन्य स्थान यथा- नन्दीग्राम, श्रृंगवेरपुर, भारद्वाज आश्रम, परियर एवं वाल्मीकि आश्रम भी निश्चित रूप से पहचाने जा सकते हैं। इस सन्दर्भ में प्रो. ब्रजवासी लाल द्वारा विशद रूप में किए गए पुरातात्विक सर्वेक्षण एवं उत्खनन उल्लेखनीय है। पुरातात्विक आधार पर प्रो. लाल ने रामायण में उपर्युक्त स्थानों की प्राचीनता को लगभग सातवीं सदी ई. पू. में रखा। इस साक्ष्य के कारण रामायण एवं महाभारत की प्राचीनता का जो क्रम था, वह परिवर्तित हो गया तथा महाभारत पहले का प्रतीत हुआ। इस प्रकार प्रो. लाल तथा साँकलिया का मत हेमचन्द्र राय चौधरी[49] के मत से मिलता है। श्री रायचौधरी का भी कथन था कि महाभारत में वर्णित स्थान एवं घटनाएँ रामायण में वर्णित स्थान एवं घटनाओं के पूर्व की हैं।

मुनीश चन्द्र जोशी के अनुसार

श्री मुनीश चन्द्र जोशी[50] ने प्रो. लाल एवं सांकलिया के इस मत की खुलकर आलोचना की, तथा तैत्तिरीय आरण्यक[51] में उद्धृत अयोध्या के उल्लेख का वर्णन करते हुए यह मत प्रस्तुत किया-

  • जब तैत्तिरीय आरण्यक की रचना हुई, उस समय मनीषियों की नगरी अयोध्या एवं उसकी संस्कृति (अगर यह थी तो) को लोग पूर्णत: भूल गये थे।
  • अयोध्या पूर्णत: पौराणिक नगरी प्रतीत होती है।
  • आधुनिक अयोध्या और राम से इसका साहचर्य परवर्ती काल का प्रतीत होता है।
हनुमान गढ़ी, अयोध्या

इन आधारों पर श्री जोशी ने कहा कि वैदिक या पौराणिक सामग्री के आधार पर पुरातात्विक साक्ष्यों का समीकरण न तो ग्राह्य है और न ही उचित। उनका यह भी कथन था कि अधिकतर भारतीय पौराणिक एवं वैदिक सामग्री का उपयोग धर्म एवं अनुष्ठान के लिए किया गया था। ऐतिहासिक रूप से उनकी सत्यता संदिग्ध है।

ब्रजवासी लाल के अनुसार

श्री जोशी के मतों का खण्डन प्रो. ब्रजवासी लाल ने पुरातत्त्व में छपे अपने एक लेख में[52] किया है। श्री लाल का कहना है कि श्री जोशी का प्रथम मत उनके तृतीय मत से मेल नहीं खाता। उनका कहना है कि प्रथम तो जोशी यह मानने को तैयार ही नहीं होते एवं द्वितीय यह स्पष्ट नहीं है कि राम एवं आधुनिक अयोध्या का सम्बन्ध किस काल में एवं कैसे जोड़ा गया। प्रो. लाल का कहना है कि अयोध्या शब्द न केवल तैत्तिरीय आरण्यक में है, बल्कि इसका उल्लेख अथर्ववेद[53] में भी मिलता है। इसके विस्तृत अध्ययन से अयोध्या शब्द का प्रयोग अयोध्या नगरी से ही नहीं बल्कि 'अजेय' से लिया जा सकता है। तैत्तिरीय आरण्यक में वर्णित अयोध्या नगरी का समीकरण उन्होंने मनुष्य शरीर से किया है तथा श्रीमद्भागवदगीता[54] में आए उस श्लोक का जिक़्र किया है, जिसमें शरीर नामक नगर का वर्णन है। श्री लाल का कहना है कि तैत्तरीय आरण्यक,[55] अथर्ववेद तथा श्रीमदभगवदगीता में शरीर के एक समान उल्लेख मिलते हैं। जिसमें कहा गया है कि देवताओं की इस स्वर्णिम नगरी के आठ चक्र (परिक्षेत्र) और नौ द्वार हैं, जो कि हमेशा प्रकाशमान रहता है। नगर के प्रकाशमान होने की व्याख्या मनुष्य के ध्यानमग्न होने के पश्चात् ज्ञान ज्योति के प्राप्त होने की स्थिति से की गई है। आठ चक्रों (परिक्षेत्रों) का समीकरण आठ धमनियों के जाल-नीचे की मूलधारा से शुरू होकर ऊपर की सहस्र धारा तक-से की गई है। नवद्वारों का समीकरण शरीर के नवद्वारों-दो आँखें, नाक के दो द्वार, दो कान, मुख, गुदा एवं शिश्न- से किया गया है।

प्रो. ब्रजवासी लाल[56] ने श्री मुनीशचन्द्र जोशी[57] के शोधपत्र एवं सम्बन्धित सामग्री का विस्तृत विवेचन करके अपने इस मत का पुष्टीकरण किया कि आधुनिक अयोध्या एवं रामायण में वर्णित अयोध्या एक ही है। यदि पुरातात्विक सामग्री एवं रामायण में वर्णित सामग्री में मेल नहीं खाता तो इसका अर्थ यह नहीं कि अयोध्या की पहचान ग़लत है या कि वह पौराणिक एवं काल्पनिक नगर था। वास्तव में दोनों सामग्रियों के मेल न खाने का मुख्य कारण रामायण के मूल में किया गया बार-बार परिवर्तन है।

चीनी यात्रियों का यात्रा विवरण

फ़ाह्यान

चीनी यात्री फ़ाह्यान ने अयोध्या को 'शा-चे' नाम से अभिहित किया है। उसके यात्रा विवरण में इस नगर का अत्यन्त संक्षिप्त वर्णन मिलता है। फ़ाह्यान के अनुसार यहाँ बौद्धों एवं ब्राह्मणों में सौहार्द नहीं था। उसने यहाँ उन स्थानों को देखा था, जहाँ बुद्ध बैठते थे और टहलते थे। इस स्थान की स्मृतिस्वरूप यहाँ एक स्तूप बना हुआ था।[58]

ह्वेन त्सांग

ह्वेन त्सांग नवदेवकुल नगर से दक्षिण-पूर्व 600 ली यात्रा करके और गंगा नदी पार करके अयुधा (अयोध्या) पहुँचा था। यह सम्पूर्ण क्षेत्र 5000 ली तथा इसकी राजधानी 20 ली में फैली हुई थी।[59] यह असंग एवं बसुबंधु का अस्थायी निवास स्थान था। यहाँ फ़सलें अच्छी होती थीं और यह सदैव प्रचुर हरीतिमा से आच्छादित रहता था। इसमें वैभवशाली फलों के बाग़ थे तथा यहाँ की जलवायु स्वास्थ्यवर्धक थी। यहाँ के निवासी शिष्ट आचरण वाले, क्रियाशील एवं व्यावहारिक ज्ञान के उपासक थे। इस नगर में 100 से अधिक बौद्ध विहार और 3000 से अधिक भिक्षुक थे, जो महायान और हीनयान मतों के अनुयायी थे। यहाँ 10 देव मन्दिर थे, जिनमें अबौद्धों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी।

ह्वेन त्सांग

ह्वेन त्सांग के अनुसार राजधानी में एक प्राचीन संघाराम था। यह वह स्थान है जहाँ देशबंधु[60] ने कठिन परिश्रम से विविध शास्त्रों की रचना की थी। इन भग्नावशेषों में एक महाकक्ष था। जहाँ पर बसुबंधु विदेशों से आने वाले राजकुमारों एवं भिक्षुओं को बौद्धधर्म का उपदेश देते थे।

ह्वेन त्सांग लिखते हैं कि नगर के उत्तर 40 ली दूरी पर गंगा के किनारे एक बड़ा संघाराम था, जिसके भीतर अशोक द्वारा निर्मित एक 200 फुट ऊँचा स्तूप था। यह वही स्थान था जहाँ पर तथागत ने देव समाज के उपकार के लिए तीन मास तक धर्म के उत्तमोत्तम सिद्धान्तों का विवेचन किया था। इस विहार से 4-5 ली पश्चिम में बुद्ध के अस्थियुक्त एक स्तूप था। जिसके उत्तर में प्राचीन विहार के अवशेष थे, जहाँ सौतान्त्रिक सम्प्रदाय सम्बन्धी विभाषा शास्त्र की रचना की गई थी।

ह्वेन त्सांग के अनुसार नगर के दक्षिण-पश्चिम में 5-6 ली की दूरी पर एक आम्रवाटिका में एक प्राचीन संघाराम था। यह वह स्थान था जहाँ असङ्ग़[61]बोधिसत्व ने विद्याध्ययन किया था।

आम्रवाटिका से पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग 100 क़दम की दूरी पर एक स्तूप था, जिसमें तथागत के नख और बाल रखे हुए थे। इसके निकट ही कुछ प्राचीन दीवारों की बुनियादें थीं। यह वही स्थान है जहाँ पर वसुबंधु बोधिसत्व तुषित[62]स्वर्ग से उतरकर असङ्ग़ बोधिसत्व से मिलते थे।[63]

अयोध्या का पुरातात्विक उत्खनन

अयोध्या के सीमित क्षेत्रों में पुरातत्त्ववेत्ताओं ने उत्खनन कार्य किए। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम उत्खनन प्रोफ़ेसर अवध किशोर नारायण के नेतृत्व में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक दल ने 1967-1970 में किया। यह उत्खनन मुख्यत: जैन घाट के समीप के क्षेत्र, लक्ष्मण टेकरी एवं नल टीले के समीपवर्ती क्षेत्रों में हुआ।[64] उत्खनन से प्राप्त सामग्री को तीन कालों में विभक्त किया गया है-

प्रथम काल

दिगम्बर जैन मंदिर, अयोध्या

उत्खनन में प्रथम काल के उत्तरी काले चमकीले मृण्भांड परम्परा (एन. बी. पी., बेयर) के भूरे पात्र एवं लाल रंग के मृण्भांड मिले हैं। इस काल की अन्य वस्तुओं में मिट्टी के कटोरे, गोलियाँ, ख़िलौना, गाड़ी के चक्र, हड्डी के उपकरण, ताँबे के मनके, स्फटिक, शीशा आदि के मनके एवं मृण्मूर्तियाँ आदि मुख्य हैं।

द्वितीय काल

इस काल के मृण्भांड मुख्यत: ईसा के प्रथम शताब्दी के हैं। उत्खनन से प्राप्त मुख्य वस्तुओं में मकरमुखाकृति टोटी, दावात के ढक्कन की आकृति के मृत्पात्र, चिपटे लाल रंग के चपटे आधारयुक्त लम्बवत धारदार कटोरे, स्टैंप और मृत्पात्र खण्ड आदि हैं।

तृतीय काल

इस काल का आरम्भ एक लम्बी अवधि के बाद मिलता है। उत्खनन से प्राप्त मध्यकालीन चमकीले मृत्पात्र अपने सभी प्रकारों में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त काही एवं प्रोक्लेन मृण्भांड भी मिले हैं। अन्य प्रमुख वस्तुओं में मिट्टी के डैबर, लोढ़े, लोहे की विभिन्न वस्तुएँ, मनके, बहुमूल्य पत्थर, शीशे की एकरंगी और बहुरंगी चूड़ियाँ और मिट्टी की पशु आकृतियाँ (विशेषकर चिड़ियों की आकृति) हैं। ।

अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुन: उत्खनन

अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुन: उत्खनन दो सत्रों 1975-1976 तथा 1976-1977 में ब्रजवासी लाल और के. वी. सुन्दराजन के नेतृत्व में हुआ। यह उत्खनन मुख्यत: दो क्षेत्रों- रामजन्मभूमि और हनुमानगढ़ी में किया गया।[65] इस उत्खनन से संस्कृतियों का एक विश्वसनीय कालक्रम प्रकाश में आया है। साथ ही इस स्थान पर प्राचीनतम बस्ती के विषय में जानकारी भी मिली है। उत्खनन में सबसे निचले स्तर से उत्तर कालीन चमकीले मृण्भांड एवं धूसर मृण्भांड परम्परा के मृत्पात्र मिले हैं। धूसर परम्परा के कुछ मृण्भांडों पर काले रंग में चित्रकारी भी मिलती है।

हनुमानगढ़ी क्षेत्र में उत्खनन

हनुमानगढ़ी क्षेत्र से भी उत्तरी काली चमकीली मृण्भांड संस्कृति के अवशेष प्रकाश में आए हैं। साथ ही यहाँ अनेक प्रकार के मृतिका वलय कूप तथा एक कुएँ में प्रयुक्त कुछ शंक्वाकार ईंटें भी मिली हैं। उत्खनन से बड़ी मात्रा में विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ मिली हैं, जिनमें मुख्यत: आधा दर्जन मुहरें, 70 सिक्के, एक सौ से अधिक लघु मृण्मूर्तियाँ आदि उल्लेखनीय हैं।

लक्ष्मण क़िला, अयोध्या

महत्त्वपूर्ण उपलब्धि

इस उत्खनन में सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि आद्य ऐतिहासिक काल के रोलेटेड मृण्भांडों की प्राप्ति है। ये मृण्भांड प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई. के हैं। इस प्रकार के मृण्भांडों की प्राप्ति से यह सिद्ध होता है कि तत्कालीन अयोध्या में वाणिज्य और व्यापार बड़े पैमाने पर होता था। यह व्यापार सरयू नदी के जलमार्ग द्वारा गंगा नदी से सम्बद्ध था।

ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन

आद्य ऐतिहासिक काल के पश्चात् यहाँ के मलबों और गड्ढों से प्राप्त वस्तुओं के आधार पर व्यावसायिक क्रम में अवरोध दृष्टिगत होता है। सम्भवत: यह क्षेत्र पुन: 11वीं शताब्दी में अधिवासित हुआ। यहाँ से उत्खनन में कुछ परवर्ती मध्यकालीन ईंटें, कंकड़, एवं चूने की फ़र्श आदि भी मिले हैं। अयोध्या से 16 किलोमीटर दक्षिण में तमसा नदी के किनारे स्थित नन्दीग्राम में भी श्री ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन कार्य किया गया। उल्लेख है कि राम के वनगमन के पश्चात् भरत ने यहीं पर निवास करते हुए अयोध्या का शासन कार्य संचालित किया था। यहाँ के सीमित उत्खनन से प्राप्त वस्तुएँ अयोध्या की वस्तुओं के समकालीन हैं।

सीमित क्षेत्र में उत्खनन

1981-1982 ई. में सीमित क्षेत्र में उत्खनन किया गया। यह उत्खनन मुख्यत: हनुमानगढ़ी और लक्ष्मणघाट क्षेत्रों में हुआ। इसमें 700-800 ई. पू. के कलात्मक पात्र मिले हैं। श्री लाल के उत्खनन से प्रमाणित होता है कि यह बौद्ध काल में अयोध्या का महत्त्वपूर्ण स्थान था।

बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में

अयोध्या का एक दृश्य

भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में 2002-2003 ईसवी में रामजन्म भूमि क्षेत्र में उत्खनन कार्य किया गया। यह उत्खनन कार्य सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर संचालित हुआ। उत्खनन से पूर्व उत्तरी कृष्ण परिमार्जित संस्कृति से लेकर परवर्ती मुग़लकालीन संस्कृति तक के अवशेष प्रकाश में आए। प्रथम काल के अवशेषों एवं रेडियो कार्बन तिथियों से यह निश्चित हो जाता है कि मानव सभ्यता की कहानी अयोध्या में 1300 ईसा पूर्व से प्रारम्भ होती है।[66]

नमूना सख्या नमूनों की तिथि [67] पुर्नगणना वर्ष में
संख्या-7, अयोध्या-1, 2152 जी-7 (16) 9.15 मीटर 2830 पार्स नहीं कर पाये (सर्वर 'https://api.formulasearchengine.com/v1/' से अमान्य लेटेक्सएमएल उत्तर ('Math extension cannot connect to Restbase.')): \pm 100 बी. पी. (880 ई. पू.) 1190- 840 ई. पू.
संख्या-8, अयोध्या-1, 2153 जी-7 (19) 11.00 मीटर 2860 पार्स नहीं कर पाये (सर्वर 'https://api.formulasearchengine.com/v1/' से अमान्य लेटेक्सएमएल उत्तर ('Math extension cannot connect to Restbase.')): \pm 100 बी. पी. (910 ई. पू.) 1210- 900 ई. पू.
संख्या-9, अयोध्या-1, 2154 जी-7 (20) 11.53 मीटर 3200 पार्स नहीं कर पाये (सर्वर 'https://api.formulasearchengine.com/v1/' से अमान्य लेटेक्सएमएल उत्तर ('Math extension cannot connect to Restbase.')): \pm 130 बी. पी. (1250 ई. पू.) 1680- 1320 ई. पू.

पर्यटन

अयोध्या घाटों और मंदिरों की प्रसिद्ध नगरी है। सरयू नदी यहाँ से होकर बहती है। सरयू नदी के किनारे 14 प्रमुख घाट हैं। इनमें गुप्तद्वार घाट, कैकेयी घाट, कौशल्या घाट, पापमोचन घाट, लक्ष्मण घाट आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। मंदिरों में 'कनक भवन' सबसे सुंदर है। लोकमान्यता के अनुसार कैकेयी ने इसे सीता को मुंह दिखाई में दिया था। ऊँचे टीले पर हनुमानगढ़ी आकर्षक का केंद्र है। इस नगर में रामजन्मभूमि-स्थल की बड़ी महिमा है। इस स्थान पर विक्रमादित्य का बनवाया हुआ एक भव्य मंदिर था किंतु बाबर के शासनकाल में वहाँ पर मस्जिद बना दी गई। जिसे 6 दिसंबर 1992 को कुछ कट्टरपंथियों ने गिरा दिया। इस विवादास्पद स्थान पर इस समय रामलला की मूर्ति स्थापित है सरयू के निकट नागेश्वर का मंदिर शिव के बारह ज्योतिलिंगों में गिना जाता है। 'तुलसी चौरा' वह स्थान है जहाँ बैठकर तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना आरंभ की थी। प्रह्लाद घाट के पास गुरु नानक भी आकर ठहरे थे। अयोध्या जैन धर्मावलंबियों का भी तीर्थ-स्थान है। वर्तमान युग के चौबीस तीर्थकरों में से पाँच का जन्म अयोध्या में हुआ था। इनमें प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव भी सम्मिलित है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • ऐतिहासिक स्थानावली | पृष्ठ संख्या= 39| विजयेन्द्र कुमार माथुर | वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
  1. अयोध्या मथुरा माया काशी काचिरवन्तिका, पुरी द्वारावती चैव सप्तैते मोक्षदायिका:
  2. बालकाण्ड 5, 6 के अनुसार
  3. वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड 108, 4
  4. रघु वंश सर्ग 16
  5. अयोध्यां तु धर्मज्ञं दीर्घयज्ञं महाबलम्, अजयत् पांडवश्रेष्ठो नातितीव्रेणकर्मणा- सभापर्व 30-2
  6. अयोज्झा
  7. जातक संख्या 454
  8. देखिए रायसडेवीज बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ 39
  9. एस. सी. डे, हिस्टारिसिटी ऑफ़ रामायण एंड द इंडो आर्यन सोसाइटी इन इंडिया एंड सीलोन (दिल्ली, अजंता पब्लिकेशंस, पुनमुर्दित, 1976), पृष्ठ 80-81
  10. ऐतरेय ब्राह्मण, 7/3/1; देखें, ज. रा. ए. सो, 1971, पृष्ठ 52 (पादटिप्पणी
  11. 'सूतमागधसंबाधां श्रीमतीमतुलप्रभाम्, उच्चाट्टालध्वजवतीं शतघ्नीशतसंकुलाम्' बालका 5, 11
  12. नंदूलाल डे, द जियोग्राफ़िकल डिक्शनरी ऑफ़, ऐंश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृष्ठ 14
  13. जेम्स लेग्गे, द ट्रैवेल्स ऑफ़ फ़ाह्यान ओरियंटल पब्लिशर्स, दिल्ली, पुनर्मुद्रित 1972, पृष्ठ 54
  14. जी पी मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 2 पृष्ठ 1086
  15. नलिनाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी, उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म का विकास (प्रकाशन ब्यूरो, उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ, प्रथम संस्करण, 1956) पृष्ठ 7 एवं 12
  16. थेरगाथा अट्ठकथा, भाग 1, पृष्ठ 103
  17. द्वितीय शती ई. पू.
  18. 'जलानि या तीरनिखातयूपा वहत्ययोध्यामनुराजधानीम्' रघु वंश 13, 61; 'आलोकयिष्यन्मुदितामयोध्यां प्रासादमभ्रंलिहमारुरोह'- रघु वंश 14, 29
  19. रघु वंश 5,31; 13,62
  20. कोसलो नाम मुद्रित: स्फीतो जनपदो महान्, निविष्ट: सरयूतीरे प्रभूत धनधान्यवान (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 5
  21. 'मनुना मानवेर्द्रण या पुरी निर्मिता स्वयम्य। तत्रैव, पंक्ति 12
  22. विनोदविहारी दत्त, टाउन प्लानिंग इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, थैंकर स्पिंक एंड कं., 1925), पृष्ठ 321-322; देखें विविध तीर्थकल्प, अध्याय 34
  23. आयता दश च द्वे योजनानि महापुरो, श्रीमती त्रणि विस्तीर्ण सुविभक्तमहापथा। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 7
  24. यह चालुक्य राजा जयसिंह सिद्धराज और उसके उत्तराधिकारियों का दरबारी कवि था।
  25. द्वादशयोजनायामां नवयोजन विस्तृताम्। अयोध्येल्यपराभिख्यां विनीतां सोऽकरोत्पुरीम्।। त्रिशस्तिसलाकापुरुशचरित, पर्व। अध्याय 2, श्लोक 912
  26. ए. कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, 1963), पृष्ठ 342
  27. अयोध्या माया मथुरा काशी काँची अवंतिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तेते मोक्षदायिका।।
  28. उपावृथ्थोत्थितां दीनां वाडवामिव वाहिताम्। पांसु गुंठित सर्वांगगीविमवर्श च पाणिना। रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग 20, पंक्ति 34
  29. मज्झिम निकाय, भाग 2, पृष्ठ 124
  30. मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 1, पृष्ठ 165
  31. संयुक्तनिकाय (पालि टेक्ट्स सोसाइटी), भाग 3, पृष्ठ 140 और आगे
  32. तत्रैव, भाग 4, पृष्ठ 179
  33. अध्याय 5, श्लोक 31
  34. आदि पुराण 12, पृष्ठ 77; विविधतीर्थकल्प, पृष्ठ 55; विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल (मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी 1963 ई.) पृष्ठ 55
  35. ऐलक्जेंडर कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, 1976), पृष्ठ 405
  36. नंदूलाल डे, दि जियोग्राफ़िकल डिक्शनरी ऑफ़ ऐश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृष्ठ 174
  37. फर्गुसन, आर्कियोलाजी इन इंडिया, पृष्ठ 110
  38. बी. ए. स्मिथ, ज. रा. ए. सो., 1898, पृष्ठ 124
  39. विलियम होवी, ज. ऐ. सो. ब., 1900 पृष्ठ 75
  40. डब्ल्यू, बोस्ट, ज. रा. ए. सो., 1906, पृष्ठ 437 और आगे
  41. भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, (हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, 2018), पृष्ठ 254
  42. आवस्सक कमेंट्री, पृष्ठ 24
  43. राज डेविड्स, बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ 39
  44. हेमचन्द राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, (किताब महल, इलाहाबाद, 1976 ई.), पृष्ठ 91
  45. विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल, मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1963, पृष्ठ 58
  46. ई. जे. थामस, दि लाइफ़ ऑफ़ बुद्ध ऐज लीजेंड इन हिस्ट्री, (स्टलेज एंड केगन पाल लिमिटेड, लन्दन, तृतीय संस्करण, पुनर्मुद्रित, 1952), पृष्ठ 15
  47. ब्रजवासी लाल, आर्कियोलाजी एंड टू इंडियन इपिक्स, एनल्स ऑफ़ दि भण्डारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, जिल्द 54, 1973 ई.
  48. हंसमुख धीरजलाल साँकलिया, रामायण मिथ आर रियलिटी, नई दिल्ली, 1973 ई.
  49. हेमचन्द्र राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, पृष्ठ 7
  50. मुनीशचन्द्र जोशी आर्कियोलाजी एंड इंडियन ट्रेडिशंस, सम आब्जर्वेशन, पुरातत्त्व, जिल्द 8, 1978 ई. पू., पृष्ठ 89-102
  51. तैत्तिरीय आरण्यक 1/27 अष्टाचक्र नवद्वारा देवनां पुरयोध्यां तस्याम् हिरन्म्यकोशाह स्वर्गलोको जयोतिषावृत: यो वयताम् ब्रह्ममनो वेद अमृतेनावृतमपुरीम् तस्मै ब्रह्म च आयु: कीर्तिम् प्रजाम् यदुह विभ्राजमानाम् हरिणीम् यशशा संपरीवृत्ताम् पुरम् हिरण्यमयोम् ब्रह्मा विवेशापराजिताम्।
  52. ब्रजवासी लाल, बाज अयोध्या ए मिथिकल सिटी, पुरातत्त्व, जिल्द 10, पृष्ठ 47
  53. अथर्वेवेद, 10/2/28-33
  54. श्रीमद्भागवदगीता, 5/13
  55. पूर्वउल्लेखित, 1/27
  56. पूर्वउल्लेखित, पुरातत्त्व, जिल्द 10, पृष्ठ 47
  57. पूर्वउल्लेखित, पुरातत्त्व, जिल्द 8, पृष्ठ 98-102
  58. जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स ऑफ़ फ़ाह्यान, (ओरियंटल पब्लिशर्स, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1972), पृष्ठ 54-55
  59. थामस वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 355
  60. बसुबंधु का अध्यापन एवं परिश्रम आदि अयोध्या में ही हुआ था।
  61. असङ्ग़ बोधिसत्व का छोटा भाई बसबंधु बोधिसत्व था।
  62. प्राचीन काल में बौद्धों की यह इच्छा रहती कि वे लोग मृत्यु के पश्चात् तुषित स्वर्ग में मैत्रेय के निकट निवास करें।
  63. थामस वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 357
  64. इ. आ. रि., 1959-70, पृष्ठ 40-41
  65. इ. आ. रि. 1976-77, पृष्ठ 52
  66. हरि माँझी और बी. आर. मणि, अयोध्या 2002-2003, एक्सकैवेशन्स ऐट दी "डिस्प्यूटेड साइट" भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, नई दिल्ली, 2003, छाया प्रति।
  67. कार्बन-4 के अर्द्धजीवन पर आधारित (5570 पार्स नहीं कर पाये (सर्वर 'https://api.formulasearchengine.com/v1/' से अमान्य लेटेक्सएमएल उत्तर ('Math extension cannot connect to Restbase.')): \pm 30 वर्ष

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