"वी शांताराम": अवतरणों में अंतर
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राजाराम वांकुडरे शांताराम (जन्म- [[18 नवंबर]], [[1901]], [[कोल्हापुर]]; मृत्यु- [[30 अक्टूबर]], [[1990]]) | |चित्र=V-Shantaram.jpg | ||
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'''राजाराम वांकुडरे शांताराम''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Rajaram Vankudre Shantaram'', जन्म- [[18 नवंबर]], [[1901]], [[कोल्हापुर]]; मृत्यु- [[30 अक्टूबर]], [[1990]]) एक कुशल निर्देशक, फ़िल्मकार, बेहतरीन अभिनेता थे। हिन्दी फ़िल्मों में बतौर निर्देशक शुरुआत करने वाले शांताराम ने डॉक्टर कोटनिस की 'अमर कहानी' ([[1946]]), 'अमर भूपाली' ([[1951]]), 'झनक-झनक पायल बाजे' ([[1955]]), '[[दो आँखेंं बारह हाथ]]' ([[1957]]) और 'नवरंग' ([[1959]]) जैसी विविधतापूर्ण और गूढ़ अर्थों वाली फ़िल्में बनाकर अलग मुक़ाम हासिल किया था। | |||
==परिचय== | ==परिचय== | ||
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==गीत और संगीत== | ==गीत और संगीत== | ||
गीत और संगीत शांताराम की फ़िल्मों का एक और मज़बूत पक्ष होता था। एक फ़िल्मकार के | गीत और संगीत शांताराम की फ़िल्मों का एक और मज़बूत पक्ष होता था। एक फ़िल्मकार के रूप में वह अपनी फ़िल्मों के संगीत पर विशेष ध्यान देते और उनका ज़ोर इस बात पर रहता कि गानों के बोल आसान और गुनगुनाने योग्य हों। शांताराम की फ़िल्मों में रंगमंच का पुट ज़रूर नज़र आता था, लेकिन वह अपनी फ़िल्मों से समाज को एक नई दृष्टि देने में कामयाब रहे। हर फ़िल्म अपने वक़्त की कहानी बयान करती है, लेकिन उन्हें लगता है कि अब शांताराम की 'पड़ोसी' ([[1940]]) और '[[दो आँखेंं बारह हाथ]]' जैसी जीवंत फ़िल्में दोबारा नहीं बनाई जा सकतीं। शांताराम की कुछ कृतियों की गुणवत्ता का मुक़ाबला आज भी नहीं किया जा सकता। क़रीब छह दशक लंबे अपने फ़िल्मी सफर में शांताराम ने हिन्दी व मराठी भाषा में कई सामाजिक एवं उद्देश्यपरक फ़िल्में बनाई और समाज में चली आ रही कुरीतियों पर चोट की। | ||
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शांताराम ने फ़िल्मों की बारीकियाँ बाबूराव पेंटर से सीखीं। बाबूराव पेंटर ने उन्हें 'सवकारी पाश' ([[1925]]) में किसान की भूमिका भी दी। कुछ ही वर्षों में शांताराम ने फ़िल्म निर्माण की तमाम बारीकियाँ सीख लीं और निर्देशन की कमान संभाल ली। बतौर निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म 'नेताजी पालकर' थी। | शांताराम ने फ़िल्मों की बारीकियाँ बाबूराव पेंटर से सीखीं। बाबूराव पेंटर ने उन्हें 'सवकारी पाश' ([[1925]]) में किसान की भूमिका भी दी। कुछ ही वर्षों में शांताराम ने फ़िल्म निर्माण की तमाम बारीकियाँ सीख लीं और निर्देशन की कमान संभाल ली। बतौर निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म 'नेताजी पालकर' थी। | ||
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इसके बाद उन्होंने वी.जी. दामले, के. आर. धाईबर, एम. फतेलाल और एस. बी. कुलकर्णी के साथ मिलकर 'प्रभात फ़िल्म' कंपनी का गठन किया। अपने गुरु बाबूराव की ही तरह शांताराम ने शुरुआत में पौराणिक तथा ऐतिहासिक विषयों पर फ़िल्में बनाईं। लेकिन बाद में जर्मनी की यात्रा से उन्हें एक फ़िल्मकार के तौर पर नई दृष्टि मिली और उन्होंने [[1934]] में 'अमृत मंथन' फ़िल्म का निर्माण किया। शांताराम ने अपने लंबे फ़िल्मी सफर में कई उम्दा फ़िल्में बनाईं और उन्होंने मनोरंजन के साथ संदेश को हमेशा प्राथमिकता दी। | इसके बाद उन्होंने वी.जी. दामले, के. आर. धाईबर, एम. फतेलाल और एस. बी. कुलकर्णी के साथ मिलकर 'प्रभात फ़िल्म' कंपनी का गठन किया। अपने गुरु बाबूराव की ही तरह शांताराम ने शुरुआत में पौराणिक तथा ऐतिहासिक विषयों पर फ़िल्में बनाईं। लेकिन बाद में जर्मनी की यात्रा से उन्हें एक फ़िल्मकार के तौर पर नई दृष्टि मिली और उन्होंने [[1934]] में 'अमृत मंथन' फ़िल्म का निर्माण किया। शांताराम ने अपने लंबे फ़िल्मी सफर में कई उम्दा फ़िल्में बनाईं और उन्होंने मनोरंजन के साथ संदेश को हमेशा प्राथमिकता दी। | ||
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[[हिन्दी सिनेमा]] के शुरुआती दौर में प्रमुखता से उभरे फ़िल्मकार वी शांताराम उन हस्तियों में थे जिनके लिए फ़िल्में मनोरंजन के साथ सामाजिक संदेश देने का माध्यम थी। अपने लंबे फ़िल्मी सफर में उन्होंने प्रयोगधर्मिता को भी बढ़ावा दिया। डॉ. कोटनिस की अमर कहानी, झनक झनक पायल बाजे, दो आँखें बारह हाथ, नवरंग, दुनिया ना माने जैसी अपने समय की बेहद चर्चित फ़िल्मों में शांताराम ने फ़िल्म निर्माण से जुड़े कई प्रयोग किए। उन्होंने फ़िल्मों के मनोरंजन पक्ष से कोई समझौता किए बिना नए प्रयोग किए जिनके कारण उनकी फ़िल्में न केवल आम दर्शकों बल्कि समीक्षकों को भी काफ़ी प्रिय लगीं। शांताराम ने हिन्दी फ़िल्मों में मूविंग शॉट का प्रयोग सबसे पहले किया। उन्होंने बच्चों के लिए [[1930]] में रानी साहिबा फ़िल्म बनायी। 'चंद्रसेना' फ़िल्म में उन्होंने पहली बार ट्राली का प्रयोग किया। | |||
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उन्होंने [[1933]] में पहली रंगीन फ़िल्म 'सैरंध्री' बनाई। [[भारत]] में एनिमेशन का इस्तेमाल करने वाले भी वह पहले फ़िल्मकार थे। वर्ष [[1935]] में प्रदर्शित हुई फ़िल्म 'जंबू काका' (1935) में उन्होंने एनिमेशन का इस्तेमाल किया था। उनकी फ़िल्म | उन्होंने [[1933]] में पहली रंगीन फ़िल्म 'सैरंध्री' बनाई। [[भारत]] में एनिमेशन का इस्तेमाल करने वाले भी वह पहले फ़िल्मकार थे। वर्ष [[1935]] में प्रदर्शित हुई फ़िल्म 'जंबू काका' (1935) में उन्होंने एनिमेशन का इस्तेमाल किया था। उनकी फ़िल्म डॉ.कोटनिस की 'अमर कहानी' विदेश में दिखाई जाने वाली पहली भारतीय फ़िल्म थी। | ||
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शांताराम ने प्रभात फ़िल्म के लिए तीन बेहद शानदार फ़िल्में बनाई। शांताराम ने [[1937]] में करुकू ( | शांताराम ने प्रभात फ़िल्म के लिए तीन बेहद शानदार फ़िल्में बनाई। शांताराम ने [[1937]] में करुकू (हिन्दी में दुनिया ना माने), 1939 में मानुष (हिन्दी में आदमी) और [[1941]] में शेजारी (हिन्दी में पड़ोसी) बनाई। शांताराम ने बाद में प्रभात फ़िल्म को छोड़कर [[राजकमल कला मंदिर]] का निर्माण किया। इसके लिए उन्होंने 'शकुंतला' फ़िल्म बनाई। इसका 1947 में कनाडा की राष्ट्रीय प्रदर्शनी में प्रदर्शन किया गया। शांताराम की बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है डॉ.कोटनिस की अमर कहानी। यह एक देशभक्त डाक्टर की सच्ची कहानी पर आधारित है जो सद्भावना मिशन पर [[चीन]] गए चिकित्सकों के एक दल का सदस्य था। | ||
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शांताराम की सर्वाधिक चर्चित फ़िल्म दो आँखें बारह हाथ है। जो 1957 में प्रदर्शित हुई। यह एक साहसिक जेलर की कहानी है जो छह क़ैदियों को सुधारता है। इस फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ फ़ीचर फ़िल्म के लिए राष्ट्रपति के स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया था। इसे बर्लिन फ़िल्म फेस्टिवल में सिल्वर बियर और सर्वश्रेष्ठ विदेशी फ़िल्म के लिए सैमुअल गोल्डविन पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। इस फ़िल्म का गीत '''ऐ मालिक तेरे बंदे हम...''' आज भी लोगों को याद है। | |||
====झनक झनक पायल बाजे और नवरंग==== | ====झनक झनक पायल बाजे और नवरंग==== | ||
झनक झनक पायल बाजे और नवरंग उनकी बेहद कामयाब फ़िल्में रहीं। दर्शकों ने इन फ़िल्मों के गीत और नृत्य को काफ़ी सराहा और फ़िल्मों को कई-कई बार देखा। | झनक झनक पायल बाजे और नवरंग उनकी बेहद कामयाब फ़िल्में रहीं। दर्शकों ने इन फ़िल्मों के गीत और नृत्य को काफ़ी सराहा और फ़िल्मों को कई-कई बार देखा। | ||
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शांताराम की | शांताराम की आख़िरी महत्त्वपूर्ण फ़िल्म थी [[पिंजरा (फ़िल्म)|पिंजरा]]। यह फ़िल्म जोसफ स्टर्नबर्ग की 1930 में प्रदर्शित हुई क्लासिक फ़िल्म 'द ब्ल्यू एंजेल' पर आधारित थी। वैसे उनकी आख़िरी फ़िल्म झांझर थी। यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर कामयाब नहीं हो सकी और सात दशकों तक चले उनके शानदार फ़िल्मी कैरियर का अंत हो गया। | ||
==पुरस्कार== | ==पुरस्कार== | ||
शांताराम एक चलते-फिरते संस्थान थे, जिन्होंने फ़िल्म जगत में बहुत सम्मान हासिल किया। फ़िल्म निर्माण की उनकी तकनीक और उनके जैसी दृष्टि आज के निर्देशकों में कम ही | शांताराम एक चलते-फिरते संस्थान थे, जिन्होंने फ़िल्म जगत में बहुत सम्मान हासिल किया। फ़िल्म निर्माण की उनकी तकनीक और उनके जैसी दृष्टि आज के निर्देशकों में कम ही नज़र आती है। उन्हें वर्ष [[1957]] में '''झनक-झनक पायल बाजे''' के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का '''फ़िल्मफेयर पुरस्कार''' दिया गया था। उनकी कालजयी फ़िल्म '''[[दो आँखेंं बारह हाथ]]''' के लिए सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार प्रदान किया गया। इस फ़िल्म ने बर्लिन फ़िल्म समारोह और गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड में भी झंडे गाड़े। अन्नासाहब के नाम से मशहूर शांताराम को वर्ष [[1985]] में भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े पुरस्कार '''[[दादा साहब फाल्के पुरस्कार]]''' से सम्मानित किया गया। [[चित्र:V-Shantarao-google-doodle.jpg|thumb|गूगल के डूडल द्वारा वी. शांताराम को श्रद्धांजलि]] | ||
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[[सिनेमा|सिनेमा जगत]] के पितामह वी. शांताराम के 116वें जन्मदिन पर [[18 नवंबर]], [[2017]] को इंटरनेट सर्च कंपनी [[गूगल]] ने डूडल के जरिए उन्हें श्रद्धांजलि दी है। गूगल ने इस मौके पर एक खास डूडल बनाया है और उनकी तस्वीर के साथ GOOGLE लिखा गया है। | |||
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फ़िल्म जगत में अमूल्य योगदान करने वाले शांताराम का 30 अक्तूबर 1990 को मुंबई में निधन हो गया। | फ़िल्म जगत में अमूल्य योगदान करने वाले शांताराम का [[30 अक्तूबर]] [[1990]] को [[मुंबई]] में निधन हो गया। | ||
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वी शांताराम
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पूरा नाम | राजाराम वांकुडरे शांताराम |
अन्य नाम | अन्नासाहब |
जन्म | 18 नवंबर, 1901 |
जन्म भूमि | कोल्हापुर |
मृत्यु | 30 अक्टूबर, 1990 |
मृत्यु स्थान | मुंबई |
कर्म भूमि | महाराष्ट्र |
कर्म-क्षेत्र | फ़िल्म निर्देशक, अभिनेता |
मुख्य फ़िल्में | 'अमर कहानी', 'अमर भूपाली', 'झनक-झनक पायल बाजे', 'दो आँखेंं बारह हाथ', 'नवरंग'। |
विषय | नृत्य, संवाद, कथानक, संगीत |
पुरस्कार-उपाधि | 'फ़िल्मफेयर पुरस्कार', 'पद्म विभूषण', 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' |
प्रसिद्धि | फ़िल्म निर्देशक, फ़िल्मकार, अभिनेता |
नागरिकता | भारतीय |
राजाराम वांकुडरे शांताराम (अंग्रेज़ी: Rajaram Vankudre Shantaram, जन्म- 18 नवंबर, 1901, कोल्हापुर; मृत्यु- 30 अक्टूबर, 1990) एक कुशल निर्देशक, फ़िल्मकार, बेहतरीन अभिनेता थे। हिन्दी फ़िल्मों में बतौर निर्देशक शुरुआत करने वाले शांताराम ने डॉक्टर कोटनिस की 'अमर कहानी' (1946), 'अमर भूपाली' (1951), 'झनक-झनक पायल बाजे' (1955), 'दो आँखेंं बारह हाथ' (1957) और 'नवरंग' (1959) जैसी विविधतापूर्ण और गूढ़ अर्थों वाली फ़िल्में बनाकर अलग मुक़ाम हासिल किया था।
परिचय
महाराष्ट्र के कोल्हापुर में 18 नवंबर, 1901 को एक जैन परिवार में जन्मे राजाराम वांकुडरे शांताराम ने बाबूराव पेंटर की महाराष्ट्र फ़िल्म कम्पनी में छोटे-मोटे काम से अपनी शुरुआत की थी। शांताराम ने नाममात्र की शिक्षा पायी थी। उन्होंने 12 साल की उम्र में रेलवे वर्कशाप में अप्रेंटिस के रूप में काम किया था। कुछ समय बाद वह एक नाटक मंडली में शामिल हो गए।
गीत और संगीत
गीत और संगीत शांताराम की फ़िल्मों का एक और मज़बूत पक्ष होता था। एक फ़िल्मकार के रूप में वह अपनी फ़िल्मों के संगीत पर विशेष ध्यान देते और उनका ज़ोर इस बात पर रहता कि गानों के बोल आसान और गुनगुनाने योग्य हों। शांताराम की फ़िल्मों में रंगमंच का पुट ज़रूर नज़र आता था, लेकिन वह अपनी फ़िल्मों से समाज को एक नई दृष्टि देने में कामयाब रहे। हर फ़िल्म अपने वक़्त की कहानी बयान करती है, लेकिन उन्हें लगता है कि अब शांताराम की 'पड़ोसी' (1940) और 'दो आँखेंं बारह हाथ' जैसी जीवंत फ़िल्में दोबारा नहीं बनाई जा सकतीं। शांताराम की कुछ कृतियों की गुणवत्ता का मुक़ाबला आज भी नहीं किया जा सकता। क़रीब छह दशक लंबे अपने फ़िल्मी सफर में शांताराम ने हिन्दी व मराठी भाषा में कई सामाजिक एवं उद्देश्यपरक फ़िल्में बनाई और समाज में चली आ रही कुरीतियों पर चोट की।
निर्देशक
शांताराम ने फ़िल्मों की बारीकियाँ बाबूराव पेंटर से सीखीं। बाबूराव पेंटर ने उन्हें 'सवकारी पाश' (1925) में किसान की भूमिका भी दी। कुछ ही वर्षों में शांताराम ने फ़िल्म निर्माण की तमाम बारीकियाँ सीख लीं और निर्देशन की कमान संभाल ली। बतौर निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म 'नेताजी पालकर' थी।
कंपनी का गठन
इसके बाद उन्होंने वी.जी. दामले, के. आर. धाईबर, एम. फतेलाल और एस. बी. कुलकर्णी के साथ मिलकर 'प्रभात फ़िल्म' कंपनी का गठन किया। अपने गुरु बाबूराव की ही तरह शांताराम ने शुरुआत में पौराणिक तथा ऐतिहासिक विषयों पर फ़िल्में बनाईं। लेकिन बाद में जर्मनी की यात्रा से उन्हें एक फ़िल्मकार के तौर पर नई दृष्टि मिली और उन्होंने 1934 में 'अमृत मंथन' फ़िल्म का निर्माण किया। शांताराम ने अपने लंबे फ़िल्मी सफर में कई उम्दा फ़िल्में बनाईं और उन्होंने मनोरंजन के साथ संदेश को हमेशा प्राथमिकता दी।
फ़िल्मी सफर
हिन्दी सिनेमा के शुरुआती दौर में प्रमुखता से उभरे फ़िल्मकार वी शांताराम उन हस्तियों में थे जिनके लिए फ़िल्में मनोरंजन के साथ सामाजिक संदेश देने का माध्यम थी। अपने लंबे फ़िल्मी सफर में उन्होंने प्रयोगधर्मिता को भी बढ़ावा दिया। डॉ. कोटनिस की अमर कहानी, झनक झनक पायल बाजे, दो आँखें बारह हाथ, नवरंग, दुनिया ना माने जैसी अपने समय की बेहद चर्चित फ़िल्मों में शांताराम ने फ़िल्म निर्माण से जुड़े कई प्रयोग किए। उन्होंने फ़िल्मों के मनोरंजन पक्ष से कोई समझौता किए बिना नए प्रयोग किए जिनके कारण उनकी फ़िल्में न केवल आम दर्शकों बल्कि समीक्षकों को भी काफ़ी प्रिय लगीं। शांताराम ने हिन्दी फ़िल्मों में मूविंग शॉट का प्रयोग सबसे पहले किया। उन्होंने बच्चों के लिए 1930 में रानी साहिबा फ़िल्म बनायी। 'चंद्रसेना' फ़िल्म में उन्होंने पहली बार ट्राली का प्रयोग किया।
रंगीन फ़िल्म
उन्होंने 1933 में पहली रंगीन फ़िल्म 'सैरंध्री' बनाई। भारत में एनिमेशन का इस्तेमाल करने वाले भी वह पहले फ़िल्मकार थे। वर्ष 1935 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म 'जंबू काका' (1935) में उन्होंने एनिमेशन का इस्तेमाल किया था। उनकी फ़िल्म डॉ.कोटनिस की 'अमर कहानी' विदेश में दिखाई जाने वाली पहली भारतीय फ़िल्म थी।
राजकमल कला मंदिर
शांताराम ने प्रभात फ़िल्म के लिए तीन बेहद शानदार फ़िल्में बनाई। शांताराम ने 1937 में करुकू (हिन्दी में दुनिया ना माने), 1939 में मानुष (हिन्दी में आदमी) और 1941 में शेजारी (हिन्दी में पड़ोसी) बनाई। शांताराम ने बाद में प्रभात फ़िल्म को छोड़कर राजकमल कला मंदिर का निर्माण किया। इसके लिए उन्होंने 'शकुंतला' फ़िल्म बनाई। इसका 1947 में कनाडा की राष्ट्रीय प्रदर्शनी में प्रदर्शन किया गया। शांताराम की बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है डॉ.कोटनिस की अमर कहानी। यह एक देशभक्त डाक्टर की सच्ची कहानी पर आधारित है जो सद्भावना मिशन पर चीन गए चिकित्सकों के एक दल का सदस्य था।
दो आँखें बारह हाथ
शांताराम की सर्वाधिक चर्चित फ़िल्म दो आँखें बारह हाथ है। जो 1957 में प्रदर्शित हुई। यह एक साहसिक जेलर की कहानी है जो छह क़ैदियों को सुधारता है। इस फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ फ़ीचर फ़िल्म के लिए राष्ट्रपति के स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया था। इसे बर्लिन फ़िल्म फेस्टिवल में सिल्वर बियर और सर्वश्रेष्ठ विदेशी फ़िल्म के लिए सैमुअल गोल्डविन पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। इस फ़िल्म का गीत ऐ मालिक तेरे बंदे हम... आज भी लोगों को याद है।
झनक झनक पायल बाजे और नवरंग
झनक झनक पायल बाजे और नवरंग उनकी बेहद कामयाब फ़िल्में रहीं। दर्शकों ने इन फ़िल्मों के गीत और नृत्य को काफ़ी सराहा और फ़िल्मों को कई-कई बार देखा।
पिंजरा
शांताराम की आख़िरी महत्त्वपूर्ण फ़िल्म थी पिंजरा। यह फ़िल्म जोसफ स्टर्नबर्ग की 1930 में प्रदर्शित हुई क्लासिक फ़िल्म 'द ब्ल्यू एंजेल' पर आधारित थी। वैसे उनकी आख़िरी फ़िल्म झांझर थी। यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर कामयाब नहीं हो सकी और सात दशकों तक चले उनके शानदार फ़िल्मी कैरियर का अंत हो गया।
पुरस्कार
शांताराम एक चलते-फिरते संस्थान थे, जिन्होंने फ़िल्म जगत में बहुत सम्मान हासिल किया। फ़िल्म निर्माण की उनकी तकनीक और उनके जैसी दृष्टि आज के निर्देशकों में कम ही नज़र आती है। उन्हें वर्ष 1957 में झनक-झनक पायल बाजे के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिया गया था। उनकी कालजयी फ़िल्म दो आँखेंं बारह हाथ के लिए सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार प्रदान किया गया। इस फ़िल्म ने बर्लिन फ़िल्म समारोह और गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड में भी झंडे गाड़े। अन्नासाहब के नाम से मशहूर शांताराम को वर्ष 1985 में भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े पुरस्कार दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
गूगल द्वारा श्रृद्धांजलि
सिनेमा जगत के पितामह वी. शांताराम के 116वें जन्मदिन पर 18 नवंबर, 2017 को इंटरनेट सर्च कंपनी गूगल ने डूडल के जरिए उन्हें श्रद्धांजलि दी है। गूगल ने इस मौके पर एक खास डूडल बनाया है और उनकी तस्वीर के साथ GOOGLE लिखा गया है।
मृत्यु
फ़िल्म जगत में अमूल्य योगदान करने वाले शांताराम का 30 अक्तूबर 1990 को मुंबई में निधन हो गया।
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बाहरी कड़ियाँ
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