"मौसम है ओलम्पिकाना -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर
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"अरे शपथ तो हम दिला देते हैं लेकिन फिर भी कुछ खिलाड़ी नालायक़ निकल जाते हैं... विदेश में जाकर न जाने क्या हो जाता है इनको, कभी-कभी शपथ को भूलकर सोने-चाँदी के मॅडलों पर ध्यान लगा देते हैं। वैसे तो मैं ख़ूब समझाता हूँ कि कितने भी मॅडल जीत लो, बुढ़ापे में मरना तो तुम्हें भूखा ही है... बाद में इन्हीं मॅडल को बेचकर काम चलाते हैं... एक-आध तो डाकू भी बन गया...अब तुम ही बताओ कि कहाँ तक समझाऊँ इन्हें, ये नई जॅनरेशन के लोग नहीं मानते हैं हमारी बात" | "अरे शपथ तो हम दिला देते हैं लेकिन फिर भी कुछ खिलाड़ी नालायक़ निकल जाते हैं... विदेश में जाकर न जाने क्या हो जाता है इनको, कभी-कभी शपथ को भूलकर सोने-चाँदी के मॅडलों पर ध्यान लगा देते हैं। वैसे तो मैं ख़ूब समझाता हूँ कि कितने भी मॅडल जीत लो, बुढ़ापे में मरना तो तुम्हें भूखा ही है... बाद में इन्हीं मॅडल को बेचकर काम चलाते हैं... एक-आध तो डाकू भी बन गया...अब तुम ही बताओ कि कहाँ तक समझाऊँ इन्हें, ये नई जॅनरेशन के लोग नहीं मानते हैं हमारी बात" | ||
"चलिए छोड़िए, लंदन के लिए सामान की पॅकिंग भी तो करनी है... और शॉपिंग की लिस्ट बनानी है।" | "चलिए छोड़िए, लंदन के लिए सामान की पॅकिंग भी तो करनी है... और शॉपिंग की लिस्ट बनानी है।" | ||
हमारे देश में खेल और खिलाड़ियों की उपेक्षा करने की एक परंपरा है। इस परंपरा की जड़ में कहीं न कहीं भारत का मौसम और प्रकृति है। आइए इस पर चर्चा करें। | |||
खेलों के लिए चाहिए मज़बूत शरीर और मज़बूत शरीर जिन चीज़ों से बनता है उनमें मांसपेशियाँ और हड्डियों की मुख्य भूमिका है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि भारतवासियों की हड्डियाँ उतनी चौड़ी, मज़बूत नहीं हैं जितनी कि यूरोप, [[अमरीका]] और [[अफ़्रीका]] के निवासियों की मानी जाती हैं। मनुष्य का विकास जब सभ्य-मनुष्य के रूप में हो रहा था तो ठंडे देशों में जन-जीवन कठिन था। भोजन के लिए जानवरों का शिकार करना अनिवार्य था। ये जानवर भी कभी-कभी भारी भरकम होते थे और इनका शिकार करना अकेले के वश की बात नहीं थी। इसके लिए 'योजना' और 'दल' बनाने पड़ते थे, तब कहीं जाकर भालू और मॅमथ जैसे जानवर क़ाबू में आते थे। इस भाग-दौड़ से हड्डियाँ और मांसपेशियां मज़बूत होती गईं, साथ ही शारीरिक बल भी बढ़ता गया। जानवर मारा जाता था और पका या अधपका खाया जाता था। इस भोजन को अधिक समय तक संभाल कर रखना संभव नहीं था तो सामूहिक भोज जैसा आयोजन होता था। इन क्रिया-कलापों से 'टीम-भावना' की पद्धति भी विकसित होने लगी। झगड़े तो तब शुरू हुए जब जानवर पालना शुरू हो गया और जानवरों की स्थिति एक संपत्ति के रुप में हो गई। | अब आइए ज़रा ओलम्पिक के हालात भी देखें- | ||
आपने अनेक खेल आयोजन ऐसे देखे होंगे जिनमें कुर्सियाँ ख़ाली पड़ी रहती हैं बावजूद इसके कि वह खेल काफ़ी लोकप्रिय होता है। इस बार ओलम्पिक में भी यही हो रहा है। आप जानते हैं इसका कारण क्या है ? इसका कारण है ओलम्पिक समिति द्वारा बाँटे गए मुफ़्त टिकिट। इन टकिटों को प्राप्त करने वाले लोग बहुत कम ही खेलों को देखने जाते हैं केवल परम्परा के रूप में सम्मानार्थ इन्हें टिकिट दी जाती हैं। यदि आप ऐसे किसी आयोजन का टिकिट ख़रीदना चाहें तो टिकिट खिड़की और इंटरनेट पर टिकिट नहीं मिलेगा बल्कि वहाँ सूचित किया जाएगा कि टिकिट बिक चुके हैं। टी.वी. पर आप देखेंगे कि कुर्सियाँ ख़ाली पड़ी हैं। इस अजीब स्थिति का हल अभी तक आयोजकों नहीं मिला है। ख़ैर हम ज़रा अपने देख के खेलों और खिलाड़ियों की समस्या पर भी कुछ बात कर लें। | |||
हमारे देश में खेल और खिलाड़ियों की उपेक्षा करने की एक पुरानी परंपरा है। इस परंपरा की जड़ में कहीं न कहीं भारत का मौसम और प्रकृति भी है। आइए इस पर चर्चा करें।- | |||
खेलों के लिए चाहिए मज़बूत शरीर और मज़बूत शरीर जिन चीज़ों से बनता है उनमें मांसपेशियाँ और हड्डियों की मुख्य भूमिका है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि भारतवासियों की हड्डियाँ उतनी चौड़ी, मज़बूत नहीं हैं जितनी कि यूरोप, [[अमरीका]] और [[अफ़्रीका]] के निवासियों की मानी जाती हैं। मनुष्य का विकास जब सभ्य-मनुष्य के रूप में हो रहा था तो ठंडे देशों में जन-जीवन कठिन था। भोजन के लिए जानवरों का शिकार करना अनिवार्य था। ये जानवर भी कभी-कभी भारी भरकम होते थे और इनका शिकार करना अकेले के वश की बात नहीं थी। इसके लिए 'योजना' और 'दल' बनाने पड़ते थे, तब कहीं जाकर भालू और मॅमथ जैसे जानवर क़ाबू में आते थे। इस भाग-दौड़ से हड्डियाँ और मांसपेशियां मज़बूत होती गईं, साथ ही शारीरिक बल भी बढ़ता गया। जानवर मारा जाता था और पका या अधपका खाया जाता था। इस भोजन को अधिक समय तक संभाल कर रखना संभव नहीं था तो सामूहिक भोज जैसा आयोजन होता था। इन क्रिया-कलापों से 'टीम-भावना' की पद्धति भी विकसित होने लगी। झगड़े तो तब शुरू हुए जब जानवर पालना शुरू हो गया और जानवरों की स्थिति एक संपत्ति के रुप में हो गई। | |||
भारत में शिकार करके ही भोजन प्राप्त करना अनिवार्य नहीं था। अनेक फल, सब्ज़ी और कन्दमूल से भारत की भूमि संपन्न थी। बाद में खेती करना भी यहाँ आसान ही रहा। तरह-तरह की खेती के लिए उपयोगी तीनों मौसम (गर्मी, सर्दी और बरसात) यहाँ उपलब्ध थे। [[हड़प्पा]] से प्राप्त, [[सिंधु सभ्यता]] के समय के [[अवशेष|अवशेषों]] में, जो भाले मिले हैं वे किसी जानवर का शिकार करने के लिए उपयोगी नहीं हैं, जिसका कारण इन भालों का बेहद कमज़ोर होना है। ये भाले मात्र धार्मिक अनुष्ठानों को आयोजित करने में प्रयुक्त होते थे न कि किसी जानवर का शिकार करने में। इन बातों पर ग़ौर करें तो हमें समझ में आता है कि क्यों औसत भारतीयों की क़द-काठी बड़ी नहीं होती। [[पंजाब]], [[हरियाणा]] और पश्चिमी [[उत्तर प्रदेश]] के लोगों को यदि शामिल न किया जाय तो भारतीय मनुष्य की औसत ऊँचाई (क़द) एक से दो इंच तक कम हो जाती है। यही स्थिति सीने की नाप की भी है। | भारत में शिकार करके ही भोजन प्राप्त करना अनिवार्य नहीं था। अनेक फल, सब्ज़ी और कन्दमूल से भारत की भूमि संपन्न थी। बाद में खेती करना भी यहाँ आसान ही रहा। तरह-तरह की खेती के लिए उपयोगी तीनों मौसम (गर्मी, सर्दी और बरसात) यहाँ उपलब्ध थे। [[हड़प्पा]] से प्राप्त, [[सिंधु सभ्यता]] के समय के [[अवशेष|अवशेषों]] में, जो भाले मिले हैं वे किसी जानवर का शिकार करने के लिए उपयोगी नहीं हैं, जिसका कारण इन भालों का बेहद कमज़ोर होना है। ये भाले मात्र धार्मिक अनुष्ठानों को आयोजित करने में प्रयुक्त होते थे न कि किसी जानवर का शिकार करने में। इन बातों पर ग़ौर करें तो हमें समझ में आता है कि क्यों औसत भारतीयों की क़द-काठी बड़ी नहीं होती। [[पंजाब]], [[हरियाणा]] और पश्चिमी [[उत्तर प्रदेश]] के लोगों को यदि शामिल न किया जाय तो भारतीय मनुष्य की औसत ऊँचाई (क़द) एक से दो इंच तक कम हो जाती है। यही स्थिति सीने की नाप की भी है। | ||
भारत की टीमें जब खेलती हैं तो बार-बार टीम भावना की कमी की बात उठती है। 'टीम के लिए नहीं अपने लिए खेलने' के आरोप हमारे खिलाड़ियों पर अक्सर लगते रहते हैं। आख़िर करना क्या चाहिए इसे सुधारने के लिए ? इसका मात्र एक उपाय है- स्कूलों और कॉलेजों में अनिवार्य शारीरिक शिक्षा। इस शारीरिक शिक्षा के अंक मूल परीक्षा के अंकों में जोड़े जाएँ। साथ ही कम से कम तीन वर्ष की सैनिक शिक्षा भी अनिवार्य होनी चाहिए। इसके बाद ही विद्यार्थी अपना जीवन प्रारम्भ करे। आजकल जो स्थिति है उसको देखें तो शिक्षण संस्थानों में जो भी छात्र खेलकूद में भाग लेते हैं उन्हें कोई पदक, कप, शील्ड या प्रमाणपत्र पकड़ा दिया जाता है। कितनी कम्पनी ऐसी हैं जो ये पदक और प्रमाणपत्र देखकर नौकरी देती हैं ? कोई देखता भी नहीं है इनकी तरफ़ बल्कि हम ख़ुद ही देखना भूल जाते हैं। 30-40 साल पहले शिक्षण संस्थानों में एन.सी.सी. और स्काउट का प्रशिक्षण हुआ करता था लेकिन तब भी यह अनिवार्य नहीं था अब तो इतना भी नहीं होता। | भारत की टीमें जब खेलती हैं तो बार-बार टीम भावना की कमी की बात उठती है। 'टीम के लिए नहीं अपने लिए खेलने' के आरोप हमारे खिलाड़ियों पर अक्सर लगते रहते हैं। आख़िर करना क्या चाहिए इसे सुधारने के लिए ? इसका मात्र एक उपाय है- स्कूलों और कॉलेजों में अनिवार्य शारीरिक शिक्षा। इस शारीरिक शिक्षा के अंक मूल परीक्षा के अंकों में जोड़े जाएँ। साथ ही कम से कम तीन वर्ष की सैनिक शिक्षा भी अनिवार्य होनी चाहिए। इसके बाद ही विद्यार्थी अपना जीवन प्रारम्भ करे। आजकल जो स्थिति है उसको देखें तो शिक्षण संस्थानों में जो भी छात्र खेलकूद में भाग लेते हैं उन्हें कोई पदक, कप, शील्ड या प्रमाणपत्र पकड़ा दिया जाता है। कितनी कम्पनी ऐसी हैं जो ये पदक और प्रमाणपत्र देखकर नौकरी देती हैं ? कोई देखता भी नहीं है इनकी तरफ़ बल्कि हम ख़ुद ही देखना भूल जाते हैं। 30-40 साल पहले शिक्षण संस्थानों में एन.सी.सी. और स्काउट का प्रशिक्षण हुआ करता था लेकिन तब भी यह अनिवार्य नहीं था अब तो इतना भी नहीं होता। |
13:29, 31 जुलाई 2012 का अवतरण
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