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आठ प्रकृतियाँ, सोलह विकार, [[आत्मा]], पाँच अवयव, तीन,गुण, मन, सृष्टि और प्रलय, ये सांख्यशास्त्र के विषय हैं। 'तत्वसमाससूत्र' में भी ऐसा ही पाठ मिलता है। साथ ही तत्वसमाससूत्र के टीकाकार भावागणेश कहते हैं कि उन्होंने टीका लिखते समय पंचशिख लिखित टीका से सहायता ली है। रिचार्ड गार्वे के अनुसार पंचशिख का काल प्रथम शताब्दी का होना चाहिए। अत: भगवज्जुकीयम्‌ तथा भावागणेश की टीका को यदि प्रमाण मानें तो 'तत्वसमाससूत्र' का काल ईसा की पहली शताब्दी तक ले जाया जा सकता है। इसके पूर्व इसकी स्थिति के लिए सबल प्रमाण का अभाव है। सांख्यप्रवचनसूत्र को भी कुछ टीकाकार कपिल की कृति मानते हैं। कौमुदीप्रभा के कर्ता स्वप्नेश्वर 'सांख्यप्रवचनसूत्र' को पंचशिख की कृति मानते हैं और कहते हैं कि यह ग्रंथ कपिल द्वारा निर्मित इसलिए माना गया है कि कपिल सांख्य के प्रवर्तक हैं। यही बात 'तत्वसमास' के बारे में भी कही जा सकती है। परंतु सांख्यप्रवचनसूत्र का विवरण माधव के 'सर्वदर्शनसंग्रह' में नहीं है और न तो गुणरत्न में ही इसके आधार पर सांख्य का विवरण दिया है। अत: विद्वान लोग इसे 14वीं [[शताब्दी]] का [[ग्रंथ]] मानते हैं।<ref name="aa"/>
आठ प्रकृतियाँ, सोलह विकार, [[आत्मा]], पाँच अवयव, तीन,गुण, मन, सृष्टि और प्रलय, ये सांख्यशास्त्र के विषय हैं। 'तत्वसमाससूत्र' में भी ऐसा ही पाठ मिलता है। साथ ही तत्वसमाससूत्र के टीकाकार भावागणेश कहते हैं कि उन्होंने टीका लिखते समय पंचशिख लिखित टीका से सहायता ली है। रिचार्ड गार्वे के अनुसार पंचशिख का काल प्रथम शताब्दी का होना चाहिए। अत: भगवज्जुकीयम्‌ तथा भावागणेश की टीका को यदि प्रमाण मानें तो 'तत्वसमाससूत्र' का काल ईसा की पहली शताब्दी तक ले जाया जा सकता है। इसके पूर्व इसकी स्थिति के लिए सबल प्रमाण का अभाव है। सांख्यप्रवचनसूत्र को भी कुछ टीकाकार कपिल की कृति मानते हैं। कौमुदीप्रभा के कर्ता स्वप्नेश्वर 'सांख्यप्रवचनसूत्र' को पंचशिख की कृति मानते हैं और कहते हैं कि यह ग्रंथ कपिल द्वारा निर्मित इसलिए माना गया है कि कपिल सांख्य के प्रवर्तक हैं। यही बात 'तत्वसमास' के बारे में भी कही जा सकती है। परंतु सांख्यप्रवचनसूत्र का विवरण माधव के 'सर्वदर्शनसंग्रह' में नहीं है और न तो गुणरत्न में ही इसके आधार पर सांख्य का विवरण दिया है। अत: विद्वान लोग इसे 14वीं [[शताब्दी]] का [[ग्रंथ]] मानते हैं।<ref name="aa"/>
==रामायण सन्दर्भ==
==रामायण सन्दर्भ==
रामायण में कपिल ऋषि- [[जल] की खोज में थके-मांदे [[राम]], [[सीता]] और [[लक्ष्मण]] कपिल की [[कुटिया]] में पहुँचे। कपिल की पत्नी सुशर्मा ने उन्हें ठंडा जल दिया। तभी समिधाएँ एकत्र करके कपिल भी अपनी कुटिया पर पहुँचे। वहाँ धूलमंडित पैरों से आये उन तीनों अतिथियों का निरादर करके कपिल ने उन्हें घर से बाहर निकाल दिया। आंधी-तूफ़ान और [[वर्षा]] से बचने के लिए उन्होंने एक बरगद की छाया में आश्रय लिया। इस वृक्ष की छाया में साक्षात हलधर और [[नारायण]] आये हैं, वे तीनों वृक्ष की छाया में सो रहे थे। सुबह उठे तो देखा, एक विशाल महल में गद्दे पर सो रहे हैं। रात-भर में यक्षपति ने उनके लिए उस महल का निर्माण कर दिया थां। वहाँ रहते हुए वे निकटस्थ [[जैन]] मंदिर के श्रमणों को यथेच्छ दान दिया करते थें।
[[रामायण]] में [[जल]] की खोज में थके-मांदे [[राम]], [[सीता]] और [[लक्ष्मण]] कपिल की [[कुटिया]] में पहुँचे। कपिल की पत्नी सुशर्मा ने उन्हें ठंडा जल दिया। तभी समिधाएँ एकत्र करके कपिल भी अपनी कुटिया पर पहुँचे। वहाँ धूलमंडित पैरों से आये उन तीनों अतिथियों का निरादर करके कपिल ने उन्हें घर से बाहर निकाल दिया। आंधी-तूफ़ान और [[वर्षा]] से बचने के लिए उन्होंने एक बरगद की छाया में आश्रय लिया। इस वृक्ष की छाया में साक्षात हलधर और [[नारायण]] आये हैं, वे तीनों वृक्ष की छाया में सो रहे थे। सुबह उठे तो देखा, एक विशाल महल में गद्दे पर सो रहे हैं। रात-भर में यक्षपति ने उनके लिए उस महल का निर्माण कर दिया थां। वहाँ रहते हुए वे निकटस्थ जैन मंदिर के श्रमणों को यथेच्छ दान दिया करते थे।


अगले दिन कपिल समिधा आकलन के लिए जंगल में गये तो, महल देखकर विस्मित हो गये। वहाँ के निवासी जैन मतावलंबियों को दान देते हैं, यह जानकर उन्होंने जैनियों से गृहस्थ-धर्म की दीक्षा ली। वे दोनों महल में गये तो, उन तीनों को पहचानकर बहुत लज्जित हुए। राम ने उनका सत्कार करके उन्हें धन प्रदान किया। कपिल ने नि:संग होकर प्रव्रज्या ग्रहण की। वर्षाकाल के उपरांत उन तीनों ने वहाँ से प्रस्थान किया। यक्षपति ने राम को स्वयंप्रभ नाम का हार, लक्ष्मण को मणिकुण्डल तथा सीता को चूड़ामणिरत्न उपहारस्वरूप समर्पित किये। उनके प्रस्थान के उपरांत यक्षराज ने उस मायावी नगरी का संवरण कर लिया<ref>पउम चरित, 35।-36।1-8।–</ref>
अगले दिन कपिल समिधा आकलन के लिए जंगल में गये तो महल देखकर विस्मित हो गये। वहाँ के निवासी जैन मतावलंबियों को दान देते हैं, यह जानकर उन्होंने जैनियों से गृहस्थ-धर्म की दीक्षा ली। वे दोनों महल में गये तो उन तीनों को पहचानकर बहुत लज्जित हुए। राम ने उनका सत्कार करके उन्हें धन प्रदान किया। कपिल ने नि:संग होकर प्रव्रज्या ग्रहण की। वर्षाकाल के उपरांत उन तीनों ने वहाँ से प्रस्थान किया। यक्षपति ने राम को स्वयंप्रभ नाम का हार, लक्ष्मण को मणिकुण्डल तथा सीता को चूड़ामणिरत्न उपहारस्वरूप समर्पित किये। उनके प्रस्थान के उपरांत यक्षराज ने उस मायावी नगरी का संवरण कर लिया|<ref>पउम चरित, 35।-36।1-8।–</ref>


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12:38, 27 अगस्त 2014 का अवतरण

कपिल मुनि 'सांख्य दर्शन' के प्रवर्तक थे, जिन्हें भगवान विष्णु का पंचम अवतार माना जाता है। इनकी माता का नाम देवहुतीपिता का नाम कर्दम था। कपिल मुनि की माता देवहूती ने विष्णु के समान पुत्र की कामना की थी। अतः भगवान विष्णु ने स्वयं उनके गर्भ से जन्म लिया था। कर्दम जब संन्यास लेकर वन जाने लगे तो देवहूती ने कहा, "स्वामी मेरा क्या होगा?" इस पर ऋषि कर्दम ने कहा कि "तेरा पुत्र ही तुझे ज्ञान देगा।" समय आने पर कपिल ने माता को जो ज्ञान दिया, वही 'सांख्य दर्शन' कहलाया।

जन्म विवरण

कपिल सांख्यशास्त्र के प्रवर्तक थे। इनके समय और जन्म स्थान के बारे में निश्चय नहीं किया जा सकता। बहुत से विद्वानों को तो इनकी ऐतिहासिकता में ही संदेह है। पुराणों तथा महाभारत में इनका उल्लेख हुआ है। कहा जाता है, प्रत्येक कल्प के आदि में कपिल जन्म लेते हैं। जन्म के साथ ही सारी सिद्धियाँ इनको प्राप्त होती हैं। इसीलिए इनको 'आदिसिद्ध' और 'आदिविद्वान' कहा जाता है। महाभारत में ये सांख्य के वक्ता कहे गए हैं। इनको अग्नि का अवतार और ब्रह्मा का मानसपुत्र भी पुराणों में कहा गया है। श्रीमद्भगवत के अनुसार कपिल विष्णु के पंचम अवतार माने गए हैं। कर्दम और देवहूति से इनकी उत्पत्ति मानी गई है। बाद में इन्होंने अपनी माता देवहूति को सांख्यज्ञान का उपदेश दिया, जिसका विशद वर्णन श्रीमद्भगवत के तीसरे स्कंध में मिलता है।[1]

समय काल

कपिलवस्तु, जहाँ बुद्ध पैदा हुए थे, कपिल के नाम पर बसा नगर था और सगर के पुत्र ने सागर के किनारे कपिल को देखा और उनका शाप पाया तथा बाद में वहीं गंगा का सागर के साथ संगम हुआ। इससे मालूम होता है कि कपिल का जन्मस्थान संभवत: कपिलवस्तु और तपस्या क्षेत्र गंगासागर था। इससे कम-से-कम इतना तो अवश्य कह सकते हैं कि बुद्ध के पहले कपिल का नाम फैल चुका था। यदि हम कपिल के शिष्य आसुरि का 'शतपथ ब्राह्मण' के आसुरि से अभिन्न मानें तो कह सकते हैं कि कम-से-कम ब्राह्मण काल में कपिल की स्थिति रही होगी। इस प्रकार 700 वर्ष ई.पू. कपिल का काल माना जा सकता है।

शिष्य

इनका शिष्य कोई आसुरि नामक वंश में उत्पन्न वर्षसहस्रयाजी श्रोत्रिय ब्राह्मण बतलाया गया है। परंपरा के अनुसार उक्त आसुरि को निर्माणचित्त में अधिष्ठित होकर इन्होंने तत्वज्ञान का उपदेश दिया था। निर्माणचित्त का अर्थ होता है- 'सिद्धि के द्वारा अपने चित्त को स्वेच्छा से निर्मित कर लेना'। इससे मालूम होता है कि कपिल ने आसुरि के सामने साक्षात्‌ उपस्थित होकर उपदेश नहीं दिया, अपितु आसुरि के ज्ञान में इनके प्रतिपादित सिद्धांतों का स्फुरण हुआ। अत: ये आसुरि के गुरु कहलाए।

सगर पुत्रों को दण्ड

कुछ पुराणों में कपिल मुनि को अग्नि का अवतार और ब्रह्मा का मानस पुत्र भी बताया गया है। महात्मा बुद्ध का जन्म स्थान 'कपिलवस्तु' ही कपिल का भी जन्म स्थान माना जाता है। इन्हीं के नाम पर वह नगर 'कपिलवस्तु' कहलाया था। 'गंगासागर' क्षेत्र इनकी तपस्या स्थली थी। इक्ष्वाकु वंशी राजा सगर के अश्वमेध यज्ञ के अश्व को चुराकर इंद्र ने इन्हीं के आश्रम के पास छोड़ दिया था। अश्व की रक्षा कर रहे सगर के साठ हज़ार पुत्रों ने कपिल मुनि को घोड़े का चोर बताकर उनका अपमान किया। इस मिथ्या अभियोग से क्रुद्ध मुनि ने सगर के पुत्रों को शाप देकर भस्म कर दिया। घोड़ा लेकर पिता के पास आने के लिए केवल पाँच पुत्र बच गए थे। आधुनिक विद्वानों का मत है कि, यह संकेत अयोध्या की प्रजा की ओर है, जो अकाल से त्रस्त हो गई थी, और भगीरथ के प्रयत्न से गंगा के आने पर लोगों का कष्ट दूर हुआ।

सांख्य दर्शन

अपने सांख्य दर्शन में कपिल मुनि ने कर्मकांड के विपरीत ज्ञानकांड को महत्व दिया। उनके पहले कर्म को ही एक मार्ग माना जाता था और ज्ञान केवल चर्चा तक सीमित था। त्याग, तपस्या और समाधि को भारतीय संस्कृति में प्रतिष्ठित कराने का श्रेय कपिल मुनि को ही है। विकासवाद का सर्वप्रथम प्रतिपादन करके उन्होंने संसार को स्वाभाविक गति से उत्पन्न माना। ये सृष्टि के किसी अति प्राकृतिक कर्त्ता को नहीं मानते। ईश्वर का विशेष उल्लेख न होने के कारण कुछ विद्वान 'सांख्य दर्शन' को अनीश्वरवादी मानते हैं।

रचनाएँ

कपिल मुनि के नाम से कई ग्रंथ प्रसिद्ध हैं, जिनमें प्रमुख हैं- 'सांख्य सूत्र', 'तत्व समास', 'व्यास प्रभाकर', 'कपिल गीता', 'कपिल पंचराम', 'कपिल स्तोभ' और 'कपिल स्मृति'।

कपिल ने क्या उपदेश दिया, यह कहना कठिन है। 'तत्वसमाससूत्र' को उसके टीकाकार कपिल द्वारा रचित मानते हैं। सूत्र छोटे और सरल हैं। इसीलिए मैक्समूलर ने उन्हें बहुत प्राचीन बतलाया। परंतु इस पर न तो कोई बहुत प्राचीन टीका उपलब्ध होती है और न किसी पुराने ग्रंथ में इसका उल्लेख मिलता है। 8वीं शताब्दी के जैन ग्रंथ 'भगवदज्जुकीयम्‌' में सांख्य का उल्लेख करते हुए कहा गया है-

'अष्टौ प्रकृतय:, षोडश विकारा:, आत्मा, पंचावयवा:, त्रैगुण्यम, मन:, संचर: प्रतिसंचरश्च'

आठ प्रकृतियाँ, सोलह विकार, आत्मा, पाँच अवयव, तीन,गुण, मन, सृष्टि और प्रलय, ये सांख्यशास्त्र के विषय हैं। 'तत्वसमाससूत्र' में भी ऐसा ही पाठ मिलता है। साथ ही तत्वसमाससूत्र के टीकाकार भावागणेश कहते हैं कि उन्होंने टीका लिखते समय पंचशिख लिखित टीका से सहायता ली है। रिचार्ड गार्वे के अनुसार पंचशिख का काल प्रथम शताब्दी का होना चाहिए। अत: भगवज्जुकीयम्‌ तथा भावागणेश की टीका को यदि प्रमाण मानें तो 'तत्वसमाससूत्र' का काल ईसा की पहली शताब्दी तक ले जाया जा सकता है। इसके पूर्व इसकी स्थिति के लिए सबल प्रमाण का अभाव है। सांख्यप्रवचनसूत्र को भी कुछ टीकाकार कपिल की कृति मानते हैं। कौमुदीप्रभा के कर्ता स्वप्नेश्वर 'सांख्यप्रवचनसूत्र' को पंचशिख की कृति मानते हैं और कहते हैं कि यह ग्रंथ कपिल द्वारा निर्मित इसलिए माना गया है कि कपिल सांख्य के प्रवर्तक हैं। यही बात 'तत्वसमास' के बारे में भी कही जा सकती है। परंतु सांख्यप्रवचनसूत्र का विवरण माधव के 'सर्वदर्शनसंग्रह' में नहीं है और न तो गुणरत्न में ही इसके आधार पर सांख्य का विवरण दिया है। अत: विद्वान लोग इसे 14वीं शताब्दी का ग्रंथ मानते हैं।[1]

रामायण सन्दर्भ

रामायण में जल की खोज में थके-मांदे राम, सीता और लक्ष्मण कपिल की कुटिया में पहुँचे। कपिल की पत्नी सुशर्मा ने उन्हें ठंडा जल दिया। तभी समिधाएँ एकत्र करके कपिल भी अपनी कुटिया पर पहुँचे। वहाँ धूलमंडित पैरों से आये उन तीनों अतिथियों का निरादर करके कपिल ने उन्हें घर से बाहर निकाल दिया। आंधी-तूफ़ान और वर्षा से बचने के लिए उन्होंने एक बरगद की छाया में आश्रय लिया। इस वृक्ष की छाया में साक्षात हलधर और नारायण आये हैं, वे तीनों वृक्ष की छाया में सो रहे थे। सुबह उठे तो देखा, एक विशाल महल में गद्दे पर सो रहे हैं। रात-भर में यक्षपति ने उनके लिए उस महल का निर्माण कर दिया थां। वहाँ रहते हुए वे निकटस्थ जैन मंदिर के श्रमणों को यथेच्छ दान दिया करते थे।

अगले दिन कपिल समिधा आकलन के लिए जंगल में गये तो महल देखकर विस्मित हो गये। वहाँ के निवासी जैन मतावलंबियों को दान देते हैं, यह जानकर उन्होंने जैनियों से गृहस्थ-धर्म की दीक्षा ली। वे दोनों महल में गये तो उन तीनों को पहचानकर बहुत लज्जित हुए। राम ने उनका सत्कार करके उन्हें धन प्रदान किया। कपिल ने नि:संग होकर प्रव्रज्या ग्रहण की। वर्षाकाल के उपरांत उन तीनों ने वहाँ से प्रस्थान किया। यक्षपति ने राम को स्वयंप्रभ नाम का हार, लक्ष्मण को मणिकुण्डल तथा सीता को चूड़ामणिरत्न उपहारस्वरूप समर्पित किये। उनके प्रस्थान के उपरांत यक्षराज ने उस मायावी नगरी का संवरण कर लिया|[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 कपिल (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 27 अगस्त, 2014।
  2. पउम चरित, 35।-36।1-8।–

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