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लीला नाट्य के रूप में अभिनीत 'रहस' अधिकतर कार्तिक उत्सव और मेले में आयोजित होते हैं। इनका मंच मंदिर-प्रांगण, गांव की चौपाल अथवा विशिष्ट रूप से तख्तों से तैयार 'रास चैंतरा' होता है। [[राधा]]-[[कृष्ण]] बनने वाले पात्र 'सरूप' कहे जाते हैं। [[वाद्य यंत्र]] के रूप में [[मृदंग]] एवं परवावज (वर्तमान में [[ढोलक]] या [[तबला]]) [[वीणा]] के बदले [[हारमोनियम]], [[मंजीरा|मंजीरे]] आदि का प्रयोग होता है। संवाद पद्यवद है। विदूषक का कार्य मनसुखा करता है। बीच-बीच में राधा-कृष्ण तथा गोपियों का मण्डलाकार [[नृत्य]] अनिवार्य है। अंत में सरूप की आरती के बाद मांगलिक गीत से पटाक्षेप होता है।<ref name="aa"/> | लीला नाट्य के रूप में अभिनीत 'रहस' अधिकतर कार्तिक उत्सव और मेले में आयोजित होते हैं। इनका मंच मंदिर-प्रांगण, गांव की चौपाल अथवा विशिष्ट रूप से तख्तों से तैयार 'रास चैंतरा' होता है। [[राधा]]-[[कृष्ण]] बनने वाले पात्र 'सरूप' कहे जाते हैं। [[वाद्य यंत्र]] के रूप में [[मृदंग]] एवं परवावज (वर्तमान में [[ढोलक]] या [[तबला]]) [[वीणा]] के बदले [[हारमोनियम]], [[मंजीरा|मंजीरे]] आदि का प्रयोग होता है। संवाद पद्यवद है। विदूषक का कार्य मनसुखा करता है। बीच-बीच में राधा-कृष्ण तथा गोपियों का मण्डलाकार [[नृत्य]] अनिवार्य है। अंत में सरूप की आरती के बाद मांगलिक गीत से पटाक्षेप होता है।<ref name="aa"/> |
07:36, 3 जनवरी 2016 के समय का अवतरण
रहस बुंदेलखण्ड में प्रचलित लोक नाट्य कला है। यह ब्रज, उत्तर प्रदेश की 'रासलीला' से प्रभावित है। इस नाट्य कला का मंच खुला होता है। इसमें प्राय: संवाद पद्यमय होते हैं। रहस नाटक कला में वाद्य यंत्रों का प्रयोग नहीं किया जाता। रहस बुन्देली प्रदेश में राजमहल के अन्तःपुर तथा उद्यानों में क्रियान्वित होते थे।[1]
प्रकार
ब्रज की 'रासलीला' से प्रभावित यह नाट्य कला बुन्देली अंचल में प्राप्त होती है। इसके दो रूप प्रचलित हैं-
- कतकारियों की रहस लीला
- लीला नाट्य
व्रत परम्परा
कतकारियों का रहस बुन्देलखण्ड की व्रत परम्परा का अंग बन गया है। कार्तिक बदी एक से पूर्णिमा तक स्नान और व्रत करने वाली कतकारियां गोपी भाव से जितने क्रिया व्यापार करती हैं, वे सब 'रहस' की सही मानसिकता बना देते हैं।[1]
विषय
रहस लोक नाट्य कला के माध्यम से श्रीकृष्ण के जीवन से सम्बंधित अधिकांशत: निम्न लीलाएँ प्रस्तुत की जाती हैं-
- दधिलीला
- द्रौपदी चीरहरण
- माखन चोरी
- बंसी चोरी
- गेंद लीला
- दानलीला
'रहस' का मंच खुला हुआ सरोवर तट, मंदिर प्रांगण, नदी तट और जनपथ होता है। कतकारी वस्त्रों में परिवर्तन करके पुरुष तथा स्त्री पात्रों का अभिनय करते हैं। वाद्यों का प्रयोग नहीं होता। संवाद अधिकांशतः पद्यमय होते हैं। बुन्देलखण्ड में कृष्ण विषयक 'रहस' के अतिरिक्त राम विषयक 'रहस' भी मिलते हैं।
मंच तथा वाद्य
लीला नाट्य के रूप में अभिनीत 'रहस' अधिकतर कार्तिक उत्सव और मेले में आयोजित होते हैं। इनका मंच मंदिर-प्रांगण, गांव की चौपाल अथवा विशिष्ट रूप से तख्तों से तैयार 'रास चैंतरा' होता है। राधा-कृष्ण बनने वाले पात्र 'सरूप' कहे जाते हैं। वाद्य यंत्र के रूप में मृदंग एवं परवावज (वर्तमान में ढोलक या तबला) वीणा के बदले हारमोनियम, मंजीरे आदि का प्रयोग होता है। संवाद पद्यवद है। विदूषक का कार्य मनसुखा करता है। बीच-बीच में राधा-कृष्ण तथा गोपियों का मण्डलाकार नृत्य अनिवार्य है। अंत में सरूप की आरती के बाद मांगलिक गीत से पटाक्षेप होता है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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