दिवारी नृत्य
दिवारी नृत्य बुन्देलखण्ड में 'दीपावली' के अवसर पर किया जाता है। गांव के निवासी, विशेषतः अहीर ग्वाले लोग इस नृत्य में भाग लेते हैं। 'दिवारी' नामक लोक गीत के बाद नाचे जाने के कारण ही इसे 'दिवारी नृत्य' कहा जाता है। ढोल-नगाड़े की टंकार के साथ पैरों में घुंघरू, कमर में पट्टा और हाथों में लाठियां ले बुन्देले जब इशारा होते ही जोशीले अंदाज में एक-दूसरे पर लाठी से प्रहार करते हैं, तो यह नजारा देख लोगों का दिल दहल जाता है। इस हैरतंगेज कारनामे को देखने के लिए लोगों का भारी हुजूम उमड़ता है। सभी को आश्चर्य होता है कि ताबड़तोड़ लाठियां बरसने के बाद भी किसी को तनिक भी चोट नहीं आती। बुन्देलखंड की यह अनूठी लोक विधा 'मार्शल आर्ट' से किसी मायने में कम नहीं है।[1]
इतिहास
बुन्देलखंड का दीवारी नृत्य बुन्देलों के शौर्य एवं वीरता का प्रतीक है। इतिहासकारों का मानना है कि चंदेल शासन काल में शुरू हुई इस अनूठी लोक विधा का मकसद था कि घर-घर में वीर सपूत तैयार किए जा सकें और वह बुराई व दुश्मनों के खिलाफ लड़ सकें।
आयोजन का समय
प्रकाश के पर्व 'दीपावली' के कुछ दिन पहले से ही गांव-गांव में लोग टोलियां बना दीवारी खेलने का अभ्यास करने लगते हैं। जो भाई बहन के प्यार के पर्व भैया दूज के दिन खत्म होता है। इसके बाद दोहों व लोक गीतों के साथ दीवारी नृत्य की शुरूआत होती है। कार्तिक के पवित्र माह में हर तरफ इस लोक विधा की धूम मची रहती है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी इसका खासा प्रचलन है।
नृत्य पद्धति
'दिवारी' लोक गीत में एक ही पद रहता है और वह ढोलक, नगड़िया पर गाया जाता है। गाने वालों के दल के साथ प्रमुख रूप से एक नाचने वाला भी रहता है, जो रंग-बिरंगे धागों की जाली से बनी, घुटनों तक लटकती हुई, पोशाक पहने रहता है। इस पोशाक में अनेक फूँदने लगे रहते हैं, जो नृत्य के समय चारों ओर घूमते हैं। इस प्रमुख नर्तक के साथ अन्य छोटे-बड़े और भी नर्तक बारी-बारी से नृत्य में शामिल होते रहते हैं। जिस प्रकार प्रमुख नर्तक अपने दोनों हाथों में मोर पंख के मूठ लिये होता है, उसी प्रकार अन्य नर्तक भी लिये रहते हैं। दिवारी एक निराला राग है। इसमें बाजे गाने के समय नहीं बजाये जाते, अपितु गा चुकने के बाद बजाये जाते हैं।[2]
दिवारी गीत
दिवारी गीत निम्नवत हैं-
1. 'वृन्दावन बसयौ तजौ, अर होन लगी अनरीत।
तनक दही के कारने, फिर बैंया गहत अहीर।'
2. 'ऊँची गुबारे बाबा नंद की, चढ़ देखें जशोदा माय।
आज बरेदी को भओ, मोरी भर दुपरै लौटी गाय रे।'
मान्यता
'दीवारी नृत्य' बुन्देली संस्कृति का अभिन्न अंग है। ऐसी मान्यता है कि जब भगवान श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया था, तब इसकी खुशी में ग्वाल वालों ने हाथों में लाठियां लेकर नृत्य किया था।
बुन्देले अलग-अलग टोलियां बना कर हाथों में लाठियाँ लेकर करतब दिखाते हैं तो इसे देखने के लिए सैकड़ों की संख्या में लोग एकत्र होते हैं। नगाडे़ की टंकार के साथ दीवारी खेलने वालों की भुजाएं भी फड़कने लगती हैं। लाठियों की गूंज व बुन्देलों के करतब देख लोगों के दिल दहल जाते है। सभी दंग रह जाते है कि लाठियों के इतने प्रहार के बाद भी किसी को खरोंच तक नहीं आयी। अनूठा खेल दिखाने के बाद टोली में शामिल लोग हाथों में मोर पंख लेकर लोक गीतों व कृष्ण की भक्ति में थिरकने लगते हैं, जिसे देख मौजूद लोग भी झूम उठते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शौर्य का प्रतीक बुन्देली 'दिवारी नृत्य (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 02 मई, 2014।
- ↑ आदिवासियों के लोक नृत्य (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 02 मई, 2014।
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