छाऊ नृत्य

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लोक नृत्य में छाऊ नृत्‍य रहस्‍यमय उद्भव वाला है। छाऊ नर्तक अपनी आं‍तरिक भावनाओं व विषय वस्‍तु को, शरीर के आरोह-अवरोह, मोड़-तोड़, संचलन व गत्‍यात्‍मक संकेतों द्वारा व्‍यक्‍त करता है। 'छाऊ' शब्‍द की अलग-अलग विद्वानों द्वारा भिन्‍न-भिन्‍न व्‍याख्‍या की गई है। कुछ का मानना है कि 'छाऊ' शब्‍द संस्‍कृत शब्‍द 'छाया' से आया है। 'छद्मवेश' इसकी दूसरी सामान्‍य व्‍याख्‍या है, क्‍योंकि इस नृत्‍य शैली में मुखौटों का व्‍यापक प्रयोग किया जाता है। छाऊ की युद्ध संबंधी चेष्‍टाओं ने इसके शब्‍द की दूसरी ही व्‍याख्‍या कर डाली 'गुपचुप तरीके से हमला करना या शिकार करना।'

विधाऐं

छाऊ की तीन विधाएं मौजूद हैं, जो तीन अलग-अलग क्षेत्रों सेराई केला (बिहार), पुरूलिया (पश्चिम बंगाल) और मयूरभंज (उड़ीसा) से शरू हुई हैं। युद्ध जैसी चेष्‍टाओं, तेज लयबद्ध कथन, और स्‍थान का गतिशील प्रयोग छाऊ की विशि‍ष्‍टता है। यह नृत्‍य विशाल जीवनी शक्ति और पौरूष की श्रेष्‍ठ पराकाष्‍ठा है। चूंकि मुखौटे के साथ बहुत समय तक नृत्‍य करना कठिन होता है, अत: नृत्‍य की अ‍वधि 7-10 मिनट से अधिक नहीं होती।

शिल्‍पमय मुखौटे

छाऊ नृत्‍य मनोभावों की स्थिति अथवा अवस्‍था का प्रकटीकरण है। नृत्‍य का यह रूप फारीकन्‍दा, जिसका अर्थ ढाल और तलवार है, की युद्धकला परम्‍परा पर आधारित है। नर्तक विस्‍‍तृत मुखौटे लगाता और वेशभूषा धारण करता है तथा पौराणिक-ऐतिहासिक, क्षेत्रीय लोक सा‍हित्‍य, प्रेम प्रसंग और प्रकृति से संबंधित कथाएं प्रस्‍तुत करता है। युद्ध जैसे संचालन, तेज तालबद्ध लोक धुनो, सुन्‍दर शिल्‍पमय मुखौटों के साथ विशाल पगडियां छाऊ की विशिष्‍टता है। मुखौटे आमतौर पर नर्तकों द्वारा स्‍वयं चिकनी मिट्टी से बनाए जाते हैं।

इसके प्रभावशाली युद्ध विषयक चरित्र इसे केवल नर्तक के उपयुक्‍त बनाते हैं। राजा न केवल इसके संरक्षक होते थे वरन् नर्तक, शिक्षक और मुखौटे बनाने में निपुण भी होते थे। सेराईकेला मुखौटे जापान के नोहकेला नृत्‍य और जावा के वायांग नृत्‍य में प्रयोग किए जाने वाले मुखौटों जैसे हैं। पुरुलिया छाऊ में जो मुखौटे प्रयुक्‍त होते हैं वह क्षेत्र की उच्‍च विकसित कला है। जन जातीय रहवासियों सहित बंजर भूमि, वैदिक साहित्‍य का बहुपर्तीय प्रभाव, हिन्‍दुत्‍व और युद्ध संबंधी लोक साहित्‍य ने मिलकर पुरुलिया छाऊ नृत्‍यों को आकार दिया है जिसका केवल एक संदेश है बुराई पर अच्‍छाई की विजय।

मयूरभंज छाऊ में उच्‍च विकसित संचलन होता है, कोई मुखौटे नहीं होते तथा अन्‍य दो पद्धतियों से इसकी शब्‍दावली तीखी होती है। सेराइकेला छाऊ की भांति य‍ह भी राजाश्रय में फला-फूला है, तथा यह स्‍वाभाविक भारतीय नृत्‍य व पश्चिम के उड़ान, कुदान, उत्‍थान नृत्‍य रूपों के बीच की कड़ी है। भारत की अन्‍य शास्त्रीय नृत्य विधाओं में स्‍वर संगीत की तुलना में छाऊ में यह बमुश्किल होता है। इसमें वाद्य संगीत तथा विभिन्‍न प्रकार के नाद-वाद्य जैसे ढोल, धूम्बा, नगाड़ा, धान्सा और छादछादी से संगत की जाती है।

युद्ध परम्परा

इसके अलावा, शास्त्रीय संगीत के तीन मुख्‍य घटक, अर्थात्, राग (स्‍वर माधुर्य), भाव (चितवृति) और ताल (लयबद्धता) छाऊ नृत्‍य के महत्‍वपूर्ण पहलू हैं। लोक, जनजातीय और युद्ध परंपराओं का मिश्रण होते हुए, तथा नृत्‍ता, नृत्‍य और नाट्य के तीनों पक्षों के साथ-साथ तांडव तथा शास्‍त्रीय नृत्‍य लास्‍य पक्ष को भी अपने में समाहित करते हुए, छाऊ नृत्‍य, लोक और शास्‍त्रीय मूल भावों का जटिल मिश्रण हैं।

भारत की अन्‍य नृत्‍य विधाओं से अलग हटकर छाऊ नृत्‍य ओजस्विता व शक्ति से परिपूर्ण हैं। नर्तक का पूरा शरीर व सम्‍पूर्ण व्‍यक्तित्‍व उसकी भाषा के रूप में एक एकल इकाई में लगाया जाता है। शरीर की यह भाषा अत्‍यन्‍त काव्‍यात्‍मक व सशक्‍त होती है। भावों का संप्रेषण करने के लिए पैर प्रभावशाली साधन होते हैं। हाल के दिनों में, मयूरभंज छाऊ, उसकी अनेक मुद्राओं और विधाओं, जो आधुनिक व परंपरागत दोनों निरूपणों को अपनाती हैं, के कारण नृत्‍यकला के राष्‍ट्रीय व अंतराष्‍ट्रीय दोनों मंचों पर प्रसिद्ध हुआ है।


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