कहानी
कहानी हिन्दी साहित्य में गद्य लेखन की एक विधा है। उन्नीसवीं सदी में गद्य साहित्य में एक नई विधा का विकास हुआ, जिसे 'कहानी' के नाम से जाना गया। बंगला में इसे 'गल्प' कहा जाता है। कहानी गद्य कथा साहित्य का एक अन्यतम भेद तथा उपन्यास से भी अधिक लोकप्रिय साहित्य का रूप है। मनुष्य के जन्म के साथ ही साथ कहानी का भी जन्म हुआ और कहानी कहना तथा सुनना मानव का आदिम स्वभाव बन गया। इसी कारण से प्रत्येक सभ्य तथा असभ्य समाज में कहानियाँ पाई जाती हैं। हमारे देश में कहानियों की बड़ी लंबी और सम्पन्न परंपरा रही है। वेदों, उपनिषदों में वर्णित 'यम-यमी', 'पुरुरवा-उर्वशी', 'सौपणीं-काद्रव', 'सनत्कुमार-नारद', 'गंगावतरण', 'श्रृंग', 'नहुष', 'ययाति', 'शकुन्तला', 'नल-दमयन्ती' जैसे आख्यान कहानी के ही प्राचीन रूप हैं।
परिभाषा
अमेरिका के कवि-आलोचक-कथाकार 'एडगर एलिन पो' के अनुसार कहानी की परिभाषा इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है-
"कहानी वह छोटी आख्यानात्मक रचना है, जिसे एक बैठक में पढ़ा जा सके, जो पाठक पर एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न करने के लिये लिखी गई हो, जिसमें उस प्रभाव को उत्पन्न करने में सहायक तत्वों के अतिरिक्त और कुछ न हो और जो अपने आप में पूर्ण हो।"
- भारत के उपन्यास सम्राट 'प्रेमचन्द' ने कहानी के प्रमुख लक्षणों को बताते हुए उसकी परिभाषा की है। उन्होंने लिखा है
"कहानी वह ध्रुपद की तान है, जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी संपूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूर्ण कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता।"
हिन्दी के लेखकों में प्रेमचंद पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने तीन लेखों में कहानी के सम्बंध में अपने विचार व्यक्त किए- "कहानी (गल्प) एक रचना है, जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी शैली, उसका कथा-विन्यास, सब उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं। उपन्यास की भाँति उसमें मानव-जीवन का संपूर्ण तथा बृहत रूप दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता। वह ऐसा रमणीय उद्यान नहीं, जिसमें भाँति-भाँति के फूल, बेल-बूटे सजे हुए हैं, बल्कि एक गमला है, जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप में दृष्टिगोचर होता है।"
कहानी की और भी परिभाषाएँ उद्धृत की जा सकती हैं। पर किसी भी साहित्यिक विधा को वैज्ञानिक परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता, क्योंकि साहित्य में विज्ञान की सुनिश्चितता नहीं होती। इसलिए उसकी जो भी परिभाषा दी जाएगी, वह अधूरी होगी।
सर्वश्रेष्ठ कथापीठ 'भारत'
यह कहना प्रामाणिक और उचित ही है कि भारत संसार का प्रथम और सर्वश्रेष्ठ कथापीठ रहा है। यह देश कहानी की जन्मभूमि है। वैसे यह कहना अनुचित नहीं होगा कि विश्व की समस्त अर्वाचीन, लुप्त-विलुप्त और प्राचीनतम सभ्यताओं के नीचे से यदि कहानियों के आधार स्तम्भ हटा दिये जाएँ तो सारी सभ्यताएँ भरभराकर कच्ची मिट्टी की तरह गिर पड़ेंगी। सभ्यताओं के अस्तित्व और उनकी संरचना की पहचान का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत भी कहानियाँ ही हैं। कहानी के बिना बड़ी से बड़ी मानव सभ्यता के इतिहास के शुभारम्भ को नहीं जाना जा सकता। यहाँ कि तक संसार के आदि ग्रन्थों की सारी संरचना, कहानियों पर ही टिकी हुई है। वैदिक संहिताएँ (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) विश्व-साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इनके दौर में भी कथाओं, किंवदन्तियों, मिथक प्रसंगों और आख्यानों की कमी नहीं है। प्रत्येक वैदिक देवता कहानी से ही जन्मता है। वह किसी न किसी कहानी की ही देन है। सभी सभ्यताओं का यह सत्य है। वह चाहे अमेरिकी आदिवासियों की अजटेक-माया सभ्यता रही हो या चीन की, मिस्र की, सुमेरी या अक्कादी। भारतीय सभ्यता तो वेद, ब्राह्मण, पुराण, उपनिषद, महाभारत, रामायण आदि की असंख्य कहानियों का खजाना है, जिसके द्वारा लौकिक और अलौकिक जीवन के तथ्यों और सत्यों को रूपायित किया गया। धर्मग्रन्थों के जितने भी अलौकिक प्रसंग या विवरण हैं, वे तो कहानी के बिना पूरे ही नहीं हो पाते, यहाँ तक कि अध्यात्म और दर्शन में भी कथा दृष्टान्तों की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति बनी ही रहती है।[1]
लोक-कथापीठ
भारत में आज भी लोक-कथापीठों की कमी नहीं है। यह लोककथाएँ ही साहित्य में भी पहुँचीं, क्योंकि कहानियों का मूल स्रोत लोकधर्मी कथा प्रतिभा ही है। वैदिक कथा साहित्य के साथ ही भारत बौद्ध और जैन कथाओं का भी आदि देश है। जातक कथाएँ तो आज भी श्रीलंका, कम्बोडिया, म्यांमार आदि देशों में बेहद लोकप्रिय हैं और भगवान गौतम बुद्ध के पूर्वजन्मों के वे विवरण रात-रातभर बैठकर सुने और सुनाये जाते हैं। यह रामकथा की ही तरह घर-घर में प्रचलित हैं। इसके अलावा जातक कथाओं का यह खजाना दुनिया भर में कहानियों का सबसे बड़ा कोष है। 'पंचतंत्र' की पशु-पक्षी कथाएँ तो संसार भर में बेमिसाल हैं ही। यह कहानियाँ मात्र लोक स्मृति में ही मौजूद नहीं हैं बल्कि इनके दृश्य साँची और भरहुत आदि के बौद्ध स्तूपों पर भी अंकित हैं।
वैदिक कथाएँ
वैदिक कथाएँ तो बहुत प्राचीन हैं ही। अभी तक पुराण-कथाओं, महाभारत और रामायण के रचना समय का अन्तिम निर्धारण नहीं हो पाया है, पर बौद्ध-कथाओं का समय ईसा के जन्म से पाँच सदी पहले से लेकर ईसा के बाद की पहली और दूसरी सदी तक फैला हुआ है। महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध समकालीन हैं। जैन श्रमण साहित्य भी कहानियों से आप्लावित है, पर जैन-कालीन प्राकृत भाषा के कथा ग्रन्थ सुरक्षित नहीं रहे, जबकि बौद्धकालीन पाली भाषा के धम्म और कथा ग्रन्थ आज भी काफी-कुछ सुरक्षित हैं। वैदिक, बौद्ध और जैन कथाओं का आदान-प्रदान, लेन-देन और संवर्धन भी चलता रहा है। बौद्ध विद्वान भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने जातक ग्रन्थों की जो टीका लिखी है, उसमें उन्होंने लिखा है कि "प्राचीन बौद्ध कथाओं में से कई एक कहानियाँ अपने विकसित रूप में महाभारत और रामायण में मिलती हैं।" वैसे कौसल्यायन जी की स्थापना को वाद-विवाद का विषय नहीं बनना चाहिए, पर यह सहज ही माना जा सकता है कि कहानियों का लेन-देन लगातार जारी रहा है। यह मात्र संस्कृत, पाली और प्राकृत भाषाओं के बीच ही जारी नहीं रहा है, बल्कि क्षेत्रीय और जनपदीय बोलियों और भाषाओं में तो लोक-कथाओं का लेन-देन जारी था।[1]
धर्म प्रचार में भूमिका
बौद्ध और जैन कथाओं ने धर्म के प्रचार में बड़ी भूमिका अदा की है। यह कहानियाँ अधिकांशतः उस समय की हैं, जब वैदिक संस्कृत का लोप हो रहा था। यह पाली, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं और साहित्य का उदय काल था। वैदिक संस्कृत लौकिक संस्कृत में पर्यवसित हो चुकी थी और ब्राह्मणवादी वैदिक धर्म के प्रति जन-साधारण वीतराग हो चुका था या हो रहा था। लौकिक संस्कृत विकसित होती पाली और प्राकृत के सामने नहीं टिक पायी। वैदिक समाज वर्णवादी ब्राह्मणों के हाथों में चला गया, अतः उसकी सामाजिक संरचना और कार्यश्रेणी विभाजन आम जनता को रास नहीं आ रहा था। उनके पौराणिक प्रवचन और आध्यात्मिक विमर्श लोगों के सांसारिक जीवन और उसकी समस्याओं से विरक्त थे। आर्य-आध्यात्मिकता और अपने-अपने परा-जीवन, ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व के प्रश्न समाज की सामूहिकता को नकार कर व्यक्ति की निजी व्यक्तिवादिता को प्रश्रय दे रहे थे...वर्णवाद ने जो श्रम-विभाजन का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था, वह समाज में श्रम करने और जीने के अधिकार के नियमों से अधिक वर्ण-विशेष की वर्चस्वता और श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता था, अतः जन-साधारण की बहुसंख्या वैदिक पुराण, जन्मगत सामाजिक शोषण के सिद्धान्त, पाखण्ड और पुरोहितवाद से ऊबकर ब्राह्मणवादी आर्य व्यवस्था की विरोधी हो रही थी।
उपन्यास और कहानी
कहानी आकार में उपन्यास से छोटी होती है, लेकिन आकार में छोटा होना भर कहानी को कहानी नहीं बना सकता। उपन्यास का कोई अध्याय कहानी नहीं हो सकता और न कहानी उपन्यास का कोई अध्याय। अत: कहानी उपन्यास की जाति की होते हुए भी स्वतंत्र विधा है। उसके छोटे होने के कारण लेखक की प्रेरणा और ग्रहण की गई जीवन की सामग्री में निहित संभावना होती है। उपन्यास में जहाँ जीवन की सम्पूर्णता लेखक का सरोकार है वहाँ कहानी में कोई एक भाव, घटना या चरित्र का कोई एक मार्मिक प्रसंग का वर्णन होता है। उपन्यास की तरह जीवन के विभिन्न प्रसंगों को खोलते-गूँथते हुए विस्तार करने की स्वतंत्रता कहानी में नहीं होती। कहानी की मूलभूत विशेषता को प्रेमचंद ने बताया है। उनका कहना है कि-
जब तक वे किसी घटना या चरित्र में कोई ड्रामाई पहलू नहीं पहचान लेते तब तक कहानी नहीं लिखते।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 कथा संस्कृति (हिन्दी) आर्चिव टुडे। अभिगमन तिथि: 08 नवम्बर, 2014।
- ↑ उपन्यास और कहानी (हिंदी) साहित्यालोचन। अभिगमन तिथि: 25 फ़रवरी, 2013।
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