राष्ट्रीय सुरक्षा दिवस

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राष्ट्रीय सुरक्षा दिवस
राष्ट्रीय सुरक्षा दिवस मनाते स्कूल के बच्चे
राष्ट्रीय सुरक्षा दिवस मनाते स्कूल के बच्चे
विवरण इस दिन से ही एक सप्ताह तक चलने वाला सुरक्षा अभियान भी शुरू होता है।
तिथि 4 मार्च
देश भारत
उद्देश्य कार्यस्थलों पर सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए पूरे देश में राष्ट्रीय सुरक्षा दिवस मनाया जाता है।
स्थापना 4 मार्च, 1966 को राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की स्थापना हुई थी।
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राष्ट्रीय सुरक्षा दिवस (अंग्रेज़ी:National Safety Day) भारत में प्रति वर्ष 4 मार्च को मनाया जाता है। इसी दिन से ही एक सप्ताह तक चलने वाला सुरक्षा अभियान भी शुरू हो जाता है। कार्यस्थलों पर सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए पूरे देश में राष्ट्रीय सुरक्षा दिवस मनाया जाता है।

स्थापना

4 मार्च, 1966 को राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की स्थापना हुई थी और इस अवसर पर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने औद्योगिक सुरक्षा के लिए व्यापक चेतना जगाने का उद्घोष किया था। इसके पूर्व सन् 1965 में विज्ञान भवन में आयोजित राष्ट्रपति की प्रथम औद्योगिक सुरक्षा संगोष्ठी में उन्होंने कहा था- “Our own constitution puts it down as a directive that we must provide safe and humane conditions of work, for our industrial workers. We should do our outmost to see that conditions of life for them are adequate and they are looked after well. There must be an integration between the management and labour.” उस संगोष्ठी के अंत में जो सिद्धांत प्रतिपादित किया गया वह था- “Safety is as responsibility of management with active co-operation of workers and with the sanction and support of the Government.”[1]

जन आंदोलन

उन्होंने औद्योगिक सुरक्षा को एक नई दिशा दी जिसमें यह स्पष्ट हुआ कि सुरक्षा प्रबंधन की जिम्मेदारी तो है, लेकिन उसमें सबका सम्मिलित सहयोग चाहिये। इसके पूर्व स्थिति वैसी नहीं थी। न केवल अपने देश में बल्कि उन्नीसवीं सदी में पाश्चात्य देशों में सुरक्षा के प्रति व्यक्ति की सोच स्पष्टत: विकसित नहीं हुई थी। लोग भाग्य या ईश्वर पर दुर्घटना के कारणों को थोप देते थे और निश्चिंत हो जाते थे। बाद में शिक्षा के प्रचार प्रसार से अनेक जन आंदोलन हुए। लोगों ने अपने अधिकार एवं कर्तव्यों के बारे में सोचा और अंतत: 1930 में एक जर्मन वैज्ञानिक एच. डब्ल्यू . हेनरिच ने उद्घोष किया - “दुर्घटना होती नहीं , की जाती है। यह हठात् नहीं होती – घटनाक्रम से अंतत: इस रूप में परिणत होती है। असुरक्षित परिवेश और असुरक्षित कार्य इसके लिए जिम्मेदार हैं। आदमी की आंतरिक-वैचारिक त्रुटियों को दूर करने के लिए प्रशिक्षण दो, कानून बनाओ और ऐसी तकनीक अपनाओ जो आदमी की गलती को भी रोके या उसे अंतिम परिणाम तक नहीं पहुँचने दे।” पूरे विश्व के लोग हेनरिच के इस सिद्धांत से चौंके, भारत के लोग भी। इसके पूर्व भारत में हीं नहीं बल्कि अन्य देशों में भी यह माना जाता था कि दुर्घटना मात्र संयोग है, जो होना होगा वही होगा या जो ईश्वर की इच्छा होगी वही होगा- उसके अधिक कुछ नहीं होगा। हेनरिच के विचारों से चिंतन में परिवर्तन हुआ। जो उसने कहा था कि कुछ कारण ऐसे हैं जो दिखाई नहीं देते, कुछ ऐसे हैं जो प्रत्यक्ष दिखाई पड़ते हैं। हमें गहराई में जाना पड़ेगा और दुर्घटना के मूल कारणों को खोजना होगा। जब यह भावना जगी कि दुर्घटना में हमारा हाथ है, हम ही असुरक्षित कार्वविधि एवं असुरक्षित परिस्थितियों को पैदा करते हैं तो हम इसे दूर भी कर सकते हैं ,यदि उन परिस्थितियों को दूर कर लें या मानवीय भूलों को सुधार लें। इसके साथ ही हेनरिच ने कहा था कि कोई दुर्घटना हठात् नहीं होती, बल्कि क्रमश: घटनाक्रम से आगे बढ़ती है। वह हमारे व्यक्तित्व से व्यवहार से आगे बढ़ती है। यदि घटनाक्रम को कहीं काट दिया जाए तो दुर्घटना और चोट से बचा जा सकता है। [1]

कानून संशोधन

बीसवीं सदी में इसके निवारण के लिए सरकार ने कानून बनाए। भारत में 1948 में कारखाना अधिनियम बना। क्रमश: 1976 तथा 1987 में इसमें अनेक धाराएँ जोड़ी गईं। इस कानूनी प्रावधान से कारखाने के अंदर हमारे कार्य व्यवहार में परिवर्तन हुआ। साथ ही परिस्थितियों में परिवर्तन प्रारम्भ हुआ, लेकिन यह तो न्यूनतम आवश्यकता है। मात्र कानून से बच जाना ही पर्याप्त नहीं- कुछ और करना ही होगा। इसके पश्चात सुरक्षा अभियंत्रण पर विचार किया गया और ऐसे तकनीक प्रावधानों पर सोचा गया जो व्यक्ति की गलती को रोकें और दुर्घटनासे बचाएँ। चलती हुई मशीनों में गार्ड की व्यवस्था, चलते हुए उपकरणों में इण्टरलॉक, इन्हें ख़ास परिस्थिति में स्वत: बंद होने के प्रावधान किये गये और डिजाइन स्तर से ही तकनीकी उपायों को सम्मिलित करने पर बल दिया गया जो प्रविधि को सुरक्षित बना दें। इससे भी समस्या का आंशिक निदान ही सम्भव था, इसके पश्चात ख़तरों से आगाह रखने एवं उनके लिए पर्याप्त जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से कानून संशोधन किया गया और संयंत्र के प्रभारी के लिए यह आवश्यक कर दिया गया कि अपने कर्मचारियों का सुरक्षा प्रशिक्षण अत्यंत आवश्यक है।

समस्या का निदान

यह हमारी वैधानिक एवं नैतिक जिम्मेदारी है। आजकल हर स्तर के कर्मचारी के लिए आवश्यकतानुसार सुरक्षा-प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है। प्रशिक्षण के माध्यम से काम की जानकारी देना, सुरक्षा के प्रति जागरुकता पैदा करना और कर्मचारियों के चिंतन और व्यवहार में परिवर्तन लाना यह एक कठिन कार्य है। भले ही उन्हें जानकारी मिल जाती है, लेकिन मनोवृत्ति में परिवर्तन उतना आसान नहीं। इसलिये प्रशिक्षण या शिक्षा एक सतत प्रक्रिया है। इसे निरंतर चलाते रहना होगा। लेकिन त्रुटि करने की प्रवृत्ति मानसमें बनी रहती है। कारण यह है कि परिस्थितियाँ एवं पूर्व संचित संस्कारकर्मचारी को प्रभावित करते रहते हैं। इन संस्कारों को पूर्णत: प्रभावित करना एक कठिन कार्य है। इसीलिए यह आवश्यक समझा गया है कि प्रणाली का विकास किया जाए जिसके तहत न केवल तकनीकी बल्कि प्रशासनिक नियंत्रण को कारगर बनाया जाए। आज आवश्यकता है सुरक्षा प्रबंधन प्रणाली की जिसके तहत कुछ बातों पर बल दिया जाता है जिसकी चर्चा आवश्यक है। पहली बात है सुरक्षा एवं स्वास्थ्य नीति, जिसे निश्चित करना एवं जारी करना आवश्यक है। यह संस्थान की मान्यता एवं मूल्यों की अवधारणा का संकेत है। इस नीति से ही स्पष्ट होनी चाहिए कि प्रबंधन कर्मचारियों के प्रति कितनी सचेष्ट है। इसका प्रभाव प्रत्येक कर्मचारी पर पड़ता है। इसके साथ ही हर वर्ष की सुरक्षा कार्य योजना होनी चाहिए जिसके अंतर्गत आर्थिक प्रावधान के साथ ही ख़तरों के आकलन एवं निवारण की योजना, गृहव्यवस्था एवं आकस्मिक स्थिति निपटने का पूरा प्रावधान होना आवश्यक है। सबसे आवश्यक है यह मान्यता कि सुरक्षा न केवल प्रबंधन की जिम्मेदारी है, बल्कि यह प्रत्येक कर्मचारी की जिम्मेदारी है। सभी इसमें सक्रिय रूप से सहायता करें और अपनी, कर्मचारियों की तथा उपकरणों की सुरक्षा को आश्वस्त करे। स्मरण रहे कि सुरक्षा उत्पादकता बढ़ाती है, लाभ अर्जन में सहायक है।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 ओझा, राज किशोर। भाषण कला (पुस्तक) (हिंदी) गूगल बुक्स। अभिगमन तिथि: 26 फ़रवरी, 2015।

बाहरी कड़ियाँ

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