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}}'''वीरेन्द्र सिंह यादव''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Virender Singh Yadav'', जन्म- [[1 अप्रॅल]], [[1986]]) भारतीय फ्रीस्टाइल पहलवान हैं। 'गूंगा पहलवान' के नाम से मशहूर वीरेन्द्र सिंह के संघर्ष की दास्तां बहुत लंबी है। उन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा के बल पर ख़ास पहचान बनाई है। उन्हें '[[अर्जुन पुरस्कार]]' से सम्मानित किया जा चुका है। वर्ष [[2021]] में वीरेन्द्र सिंह को '[[पद्मश्री]]' से भी पुरस्कृत किया गया।
 
==परिचय==
 
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वीरेन्द्र सिंह ने बचपन में ही अपनी सुनने की क्षमता खो दी और इसी वजह से वे कभी बोल नहीं पाए। उनके [[पिता]] अजीत सिंह, सीआइएसएफ (केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल) में जवान थे और अब दिल्ली में एक अखाड़ा चलाते हैं। अजीत सिंह अपनी नौकरी के चलते दिल्ली में रहते थे और उनका बाकी [[परिवार]] गांव में। वीरेन्द्र सिंह ने देश विदेश में कई प्रतियोगिताओं में पदक जीतकर [[भारत]] का सम्मान बढ़ाया है।
 
वीरेन्द्र सिंह ने बचपन में ही अपनी सुनने की क्षमता खो दी और इसी वजह से वे कभी बोल नहीं पाए। उनके [[पिता]] अजीत सिंह, सीआइएसएफ (केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल) में जवान थे और अब दिल्ली में एक अखाड़ा चलाते हैं। अजीत सिंह अपनी नौकरी के चलते दिल्ली में रहते थे और उनका बाकी [[परिवार]] गांव में। वीरेन्द्र सिंह ने देश विदेश में कई प्रतियोगिताओं में पदक जीतकर [[भारत]] का सम्मान बढ़ाया है।

06:07, 31 मार्च 2021 के समय का अवतरण

वीरेन्द्र सिंह
वीरेन्द्र सिंह
पूरा नाम वीरेन्द्र सिंह यादव
जन्म 1 अप्रॅल, 1986
जन्म भूमि ससरोली, झज्जर, हरियाणा
अभिभावक पिता- अजीत सिंह
कर्म भूमि भारत
खेल-क्षेत्र कुश्ती
पुरस्कार-उपाधि 'अर्जुन पुरस्कार' (2016)

'पद्मश्री' (2021)

प्रसिद्धि पहलवान
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी वीरेन्द्र सिंह ने 2002 में हरिद्वार में कैडेट नैशनल्स में 76 किलोग्राम भारवर्ग में जीत हासिल की। इसके बाद उन्हें उनके पहले इंटरनैशनल कॉम्पीटिशन के लिए चुना गया।
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वीरेन्द्र सिंह यादव (अंग्रेज़ी: Virender Singh Yadav, जन्म- 1 अप्रॅल, 1986) भारतीय फ्रीस्टाइल पहलवान हैं। 'गूंगा पहलवान' के नाम से मशहूर वीरेन्द्र सिंह के संघर्ष की दास्तां बहुत लंबी है। उन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा के बल पर ख़ास पहचान बनाई है। उन्हें 'अर्जुन पुरस्कार' से सम्मानित किया जा चुका है। वर्ष 2021 में वीरेन्द्र सिंह को 'पद्मश्री' से भी पुरस्कृत किया गया।

परिचय

वीरेन्द्र सिंह ने बचपन में ही अपनी सुनने की क्षमता खो दी और इसी वजह से वे कभी बोल नहीं पाए। उनके पिता अजीत सिंह, सीआइएसएफ (केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल) में जवान थे और अब दिल्ली में एक अखाड़ा चलाते हैं। अजीत सिंह अपनी नौकरी के चलते दिल्ली में रहते थे और उनका बाकी परिवार गांव में। वीरेन्द्र सिंह ने देश विदेश में कई प्रतियोगिताओं में पदक जीतकर भारत का सम्मान बढ़ाया है।

संघर्षपूर्ण समय

वीरेन्द्र सिंह का सफर काफी संघर्षपूर्ण रहा है। साल 2013 में स्पोर्ट्स डॉक्यूमेंट्री 'गूंगा पहलवान' में उनके जीवन और संघर्ष को बयां किया गया है। वह जन्म से ही बोल और सुन नहीं सकते थे। लेकिन उनके पिता अजीत सिंह और चाचा सुरेंदर सिंह ने उन्हें रेसलिंग के साथ जोड़ा। दोनों रेसलिंग से जुड़े रहे और उन्होंने देशभर में कई दंगल में भाग लिया। वीरेन्द्र सिंह ने मर्जी से नहीं बल्कि मजबूरी में रेसलिंग का हाथ थामा। वह हरियाणा के झज्जर इलाके के ससरोली गांव में पैदा हुए। जब सिर्फ आठ साल के थे तो पैर में चोट लग गई। पिता इलाज के लिए दिल्ली लेकर आए।

इसी समय अजीत का भी ऐक्सीडेंट हो गया और वह कई महीनों तक बिस्तर पर ही पड़े रहे। वह अब बेटे की देखभाल नहीं कर सकते थे। ऐसे में उन्होंने वीरेन्द्र सिंह को दिल्ली के सदर बाजार इलाके स्थित पुल मिठाई पर रहने वाले उनके चाचा के पास भेज दिया। चूंकि सुरेंदर को अपनी ड्यूटी पर जाना था। इसलिए उन्होंने वीरेन्द्र सिंह को इसी इलाके में बाल व्यायामशाला अखाड़ा में भेज दिया गया। जहां कुश्ती से उनकी पहली मुलाकात हुई। जल्द ही सुरेंदर ने उन्हें पर्सनल कोचिंग देनी शुरू की। 'गूंगा पहलवान' दिल्ली के मोरी गेट इलाके में दंगल में भाग लेने लगा। विरेंदर ने अपना पहला बड़ा टाइटल 'नौशेरवां' खिताब जीता। यहां उन्हें 11 हजार रुपये का नकद पुरस्कार मिला।

दंगल से मैट कुश्ती भी ऐसी ही रही। उन्होंने 2002 में हरिद्वार में कैडेट नैशनल्स में 76 किलोग्राम भारवर्ग में जीत हासिल की। इसके बाद उन्हें उनके पहले इंटरनैशनल कॉम्पीटिशन के लिए चुना गया। हालांकि बाद में उनकी जगह पर दूसरे स्थान पर रहने वाले पहलवान को चुना गया। हालांकि विरेंदर को यह बात बुरी लगी कि उनकी शारीरिक कमजोरी के चलते उन्हें नजरअंदाज किया गया। इससे उनका दिल टूट गया और वह जीवनयापन करने के लिए दंगल में लौट गए।

साल 2005 में उन्होंने वह हासिल किया जो कोई अन्य बोलने में असमर्थ पहलवान नहीं कर पाया था। उनके पिता और अंकल को डेफलिंपिक्स के बारे में पता चला। उन्होंने वीरेन्द्र सिंह के सफर के लिए 70 हजार रुपये का बंदोबस्त किया। उन्होंने वहां मेलबर्न में गोल्ड मेडल जीता। हालांकि इस जीत ने न उन्हें कोई पहचान दिलाई और न ही कोई आर्थिक लाभ ही पहुंचाया। तब से वीरेन्द्र सिंह दंगल और डेफलिंपिक्स व वर्ल्ड चैंपियनशिप्स के बीच झूल रहे हैं। 'पद्मश्री' से पहले उन्हें एकमात्र पहचान साल 2016 में 'अर्जुन पुरस्कार मिलने पर मिली थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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