अपने आप पर -आदित्य चौधरी

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अपने आप पर -आदित्य चौधरी

कभी क्षुब्ध होता हूँ
अपने आप से
तो कभी मुग्ध होता हूँ
अपने आप पर

     कभी कुंठाग्रस्त मौन
     ही मेरा आवरण
     तो कभी कहीं इतना मुखर
     कि जैसे आकश ही मेरा घर

कभी तरस जाता हूँ
एक मुस्कान के लिए
या गूँजता है मेरा अट्टहास
अनवरत
रह रह कर

     कभी धमनियों का रक्त ही
     जैसे जम जाता है
     एक रोटी के लिए
     सड़क पर बच्चों की
     कलाबाज़ी देख कर

कभी चमक लाता है
आखों में मिरी
उसका छीन लेना
अपने हक़ को
निडर हो कर

     कभी सूरज की रौशनी भी
     कम पड़ जाती है
     तो कभी अच्छा लगता है
     कि चाँद भी दिखे तो
     दूज बन कर