"एक महान डाकू की शोक सभा -आदित्य चौधरी" के अवतरणों में अंतर
गोविन्द राम (चर्चा | योगदान) |
आदित्य चौधरी (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 29: | पंक्ति 29: | ||
"हमारे देश के डक़ैतों में अब जातीय भावना उत्पन्न होने लगी है। जो धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही है। डक़ैतियाँ अब जाति के आधार पर डाली जा रही हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी जाति के डाकू को बढ़ावा देने में लगा है। पार्टियों में भी जाति के आधार पर डाकुओं को वरीयता दी जाती है। अभी पिछले दिनों एक सज्जन के यहाँ एक 'शानदार डक़ैती' पड़ी। वो जानते थे... कि डक़ैती किसने डाली है... लेकिन उन्होंने डक़ैती में नाम लिखवाना अपनी ही जाति के एक ऐसे डाकू का... जो उस समय इलाक़े में था ही नहीं... इस जातिवादी डाकू-तन्त्र को रोकना होगा... अन्यथा इसके परिणाम बहुत बुरे होंगे। इससे योग्य डाकू पिछड़ जायेंगे।" | "हमारे देश के डक़ैतों में अब जातीय भावना उत्पन्न होने लगी है। जो धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही है। डक़ैतियाँ अब जाति के आधार पर डाली जा रही हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी जाति के डाकू को बढ़ावा देने में लगा है। पार्टियों में भी जाति के आधार पर डाकुओं को वरीयता दी जाती है। अभी पिछले दिनों एक सज्जन के यहाँ एक 'शानदार डक़ैती' पड़ी। वो जानते थे... कि डक़ैती किसने डाली है... लेकिन उन्होंने डक़ैती में नाम लिखवाना अपनी ही जाति के एक ऐसे डाकू का... जो उस समय इलाक़े में था ही नहीं... इस जातिवादी डाकू-तन्त्र को रोकना होगा... अन्यथा इसके परिणाम बहुत बुरे होंगे। इससे योग्य डाकू पिछड़ जायेंगे।" | ||
"मैंने अनेक बार देखा है कि टिकिट प्राप्त करने की लालसा में बहुत से डाकुओं ने डक़ैती डालना कम करके दूसरे तरीक़ों से जल्दी प्रगति करनी चाही है। जैसे कुछ डक़ैतों ने शराब के ठेके लिए, कुछ ने जुए-सट्टे का कारोबार खोल लिया और कुछ ने अपहरण का धन्धा अपना लिया। ये तो ठीक है कि इस बदलाव से टिकिट पाने में आसानी हो जाती है, लेकिन डक़ैती की परम्परा को बेहद नुक़सान होता है। | "मैंने अनेक बार देखा है कि टिकिट प्राप्त करने की लालसा में बहुत से डाकुओं ने डक़ैती डालना कम करके दूसरे तरीक़ों से जल्दी प्रगति करनी चाही है। जैसे कुछ डक़ैतों ने शराब के ठेके लिए, कुछ ने जुए-सट्टे का कारोबार खोल लिया और कुछ ने अपहरण का धन्धा अपना लिया। ये तो ठीक है कि इस बदलाव से टिकिट पाने में आसानी हो जाती है, लेकिन डक़ैती की परम्परा को बेहद नुक़सान होता है। | ||
− | वे क्रोधित होकर दहाड़े, "क्या सिर्फ़ टिकिट पाने के लिए ही हम भू-माफ़िया बन जाएँ, शराब के ठेके लें, अपहरण करवाएँ और जुए-सट्टे का कारोबार करें... क्या सिर्फ़ डक़ैती डालने से ही टिकिट के लिए हमारी योग्यता सिद्ध नहीं हो जाती?" तभी एक नौजवान डाकू बीच में बोला, "आजकल तो भू-माफियाओं का ज़माना है। पूछता कौन है डाकुओं को...डाकुओं से ज़्यादा इज़्ज़त तो राजनीति में अब दलालों को मिलती है !... अब गया ज़माना डाकुओं का !..." | + | वे क्रोधित होकर दहाड़े, "क्या सिर्फ़ टिकिट पाने के लिए ही हम भू-माफ़िया बन जाएँ, शराब के ठेके लें, अपहरण करवाएँ और जुए-सट्टे का कारोबार करें... क्या सिर्फ़ डक़ैती डालने से ही टिकिट के लिए हमारी योग्यता सिद्ध नहीं हो जाती?" |
+ | तभी एक नौजवान डाकू बीच में बोला, "आजकल तो भू-माफियाओं का ज़माना है। पूछता कौन है डाकुओं को...डाकुओं से ज़्यादा इज़्ज़त तो राजनीति में अब दलालों को मिलती है !... अब गया ज़माना डाकुओं का !..." | ||
"भू-माफ़िया ! क्या है भू-माफ़िया हमारे सामने ?... कुछ भी नहीं... ज़्यादा से ज़्यादा चार-छ: मर्डर... बस !... और उसके बाद राजनीति में ट्रांसफ़र... उसके बाद क्या ? बताइए ?... राजनीति में स्थापित होने के बाद तो हमारी ही ज़रूरत पड़ती है ना ? अरे ! ख़ुद कहाँ करते हैं ये क़त्ल ? ये तो हमसे करवाते हैं ना ? इसमें सारी ग़लती किसकी है... आपकी। आपने ही यह छूट दी है। मैं पूछता हूँ कि जान जाने का ख़तरा सबसे ज़्यादा किसमें है... सिर्फ़ डक़ैती में! इसलिए सबसे ज़्यादा बहादुरी का काम डाकू बनना ही है, बाक़ी सारी चीज़ें कम बहादुरी की हैं, फिर भी डक़ैतों की मान्यता कम होती जा रही है। मान्यता ही कम नहीं हो रही है, बल्कि उनका मूल्यांकन भी ग़लत तरीक़े से होता है। इसका कारण है एकता की कमी। मेरे प्यारे डाकुओ एक हो जाओ और फिर से छा जाओ राजनीति पर..." | "भू-माफ़िया ! क्या है भू-माफ़िया हमारे सामने ?... कुछ भी नहीं... ज़्यादा से ज़्यादा चार-छ: मर्डर... बस !... और उसके बाद राजनीति में ट्रांसफ़र... उसके बाद क्या ? बताइए ?... राजनीति में स्थापित होने के बाद तो हमारी ही ज़रूरत पड़ती है ना ? अरे ! ख़ुद कहाँ करते हैं ये क़त्ल ? ये तो हमसे करवाते हैं ना ? इसमें सारी ग़लती किसकी है... आपकी। आपने ही यह छूट दी है। मैं पूछता हूँ कि जान जाने का ख़तरा सबसे ज़्यादा किसमें है... सिर्फ़ डक़ैती में! इसलिए सबसे ज़्यादा बहादुरी का काम डाकू बनना ही है, बाक़ी सारी चीज़ें कम बहादुरी की हैं, फिर भी डक़ैतों की मान्यता कम होती जा रही है। मान्यता ही कम नहीं हो रही है, बल्कि उनका मूल्यांकन भी ग़लत तरीक़े से होता है। इसका कारण है एकता की कमी। मेरे प्यारे डाकुओ एक हो जाओ और फिर से छा जाओ राजनीति पर..." | ||
वक्तव्य ख़त्म करने का इशारे को समझ कर भी अनजान बनकर वे घड़ी देखकर बोले- | वक्तव्य ख़त्म करने का इशारे को समझ कर भी अनजान बनकर वे घड़ी देखकर बोले- | ||
पंक्ति 61: | पंक्ति 62: | ||
इस सूची में एक 'पान सिंह तौमर' फ़िल्म ही ऐसी है जो मैंने अभी तक देखी नहीं है। वजह ये है कि थिएटर में फ़िल्म देखने में मेरा दम घुटता है और 'पाइरेटेड डीवीडी' देखने में मोज़रबेयर और टी सिरीज़ वालों का डर लगता है। वैसे भी 'भारतकोश' से समय बचता ही कहाँ है जो फ़िल्म देखूँ! सुना है कि अच्छी चली है, ख़ास तौर से वो संवाद कि "बीहड़ में बाग़ी होते हैं डक़ैत मिलते हैं पार्लियामेन्ट में", ख़ासा लोकप्रिय हुआ है। | इस सूची में एक 'पान सिंह तौमर' फ़िल्म ही ऐसी है जो मैंने अभी तक देखी नहीं है। वजह ये है कि थिएटर में फ़िल्म देखने में मेरा दम घुटता है और 'पाइरेटेड डीवीडी' देखने में मोज़रबेयर और टी सिरीज़ वालों का डर लगता है। वैसे भी 'भारतकोश' से समय बचता ही कहाँ है जो फ़िल्म देखूँ! सुना है कि अच्छी चली है, ख़ास तौर से वो संवाद कि "बीहड़ में बाग़ी होते हैं डक़ैत मिलते हैं पार्लियामेन्ट में", ख़ासा लोकप्रिय हुआ है। | ||
− | असल ज़िन्दगी में भी डाकुओं के नाम बहुत प्रसिद्ध हुए। सुल्ताना डाकू, डाकू मान सिंह, पुतली बाई, पाना डाकू (पान सिंह), मोहर सिंह, माधो सिंह, मलखान सिंह, फूलन देवी आदि। | + | असल ज़िन्दगी में भी डाकुओं के नाम बहुत प्रसिद्ध हुए। सुल्ताना डाकू, डाकू मान सिंह, पुतली बाई, पाना डाकू (पान सिंह), मोहर सिंह, माधो सिंह, मलखान सिंह, फूलन देवी आदि। बात क्या है डाकू हमें क्यों आकर्षित करते रहे हैं ? हर एक जीव स्वभाव से कायर होता है चाहे वह जानवर हो या इंसान। बहादुर तो हमें समाज और [[संस्कृति]] बनाती है। जिसे हम बहादुरी या निडरता कहते हैं उसके मुख्य कारण दो ही होते हैं एक तो उस भय के प्रति पूरी अज्ञानता जैसे बच्चा [[सांप]] से नहीं डरता और दूसरा कारण है, अपने भय को छुपा जाना अर्थात यह ज़ाहिर न होने देना कि हम भयभीत हैं। जिन्हें हम साहसी और बहादुर मानते हैं। उन्होंने अपने भय को कभी किसी के सामने ज़ाहिर नहीं होने दिया, बस यही है बहादुरी। |
− | बात क्या है डाकू हमें क्यों आकर्षित करते रहे हैं ? हर एक जीव स्वभाव से कायर होता है चाहे वह जानवर हो या इंसान। बहादुर तो हमें समाज और [[संस्कृति]] बनाती है। जिसे हम बहादुरी या निडरता कहते हैं उसके मुख्य कारण दो ही होते हैं एक तो उस भय के प्रति पूरी अज्ञानता जैसे बच्चा [[सांप]] से नहीं डरता और दूसरा कारण है, अपने भय को छुपा जाना अर्थात यह ज़ाहिर न होने देना कि हम भयभीत हैं। जिन्हें हम साहसी और बहादुर मानते हैं। उन्होंने अपने भय को कभी किसी के सामने ज़ाहिर नहीं होने दिया, बस यही है बहादुरी। | + | जिस तरह हर एक साहस वीरता नहीं होता उसी तरह हर एक पलायन कायरता नहीं होता। इसीलिए बहादुरी और मूर्खता के बीच बहुत महीन सीमा रेखा होती है और यही महीन रेखा कायरता और बुद्धिमानी के बीच भी होती है। ग़लत निर्णय से आपकी बहादुरी मूर्खता में गिनी जा सकती है और समझदारी से किया गया पलायन भी बुद्धिमानी में शामिल हो जाता है। हमारा यही स्वभाव और इच्छाएँ हमें डाकू-फ़ॅन बना देती हैं। हमारे मित्र जानवरों में कुत्ता, घोड़ा, [[गाय]] आदि गिने जाते हैं लेकिन हर-कोई बनना '[[शेर]]' ही चाहता है। घोड़ा या गाय बनने की कोई नहीं सोचता और कुत्ता बनने का तो सवाल ही नहीं है। हम ख़ुद को बहादुर और साहसी देखना और दिखाना चाहते हैं और इस और बहादुरी का जो जो ग्लॅमर शेर के पास है, वह दूसरों के पास कहाँ ? इसलिए डाकुओं को भी चम्बल का शेर कहा जाता है। |
− | जिस तरह हर एक साहस वीरता नहीं होता उसी तरह हर एक पलायन कायरता नहीं होता। इसीलिए बहादुरी और मूर्खता के बीच बहुत महीन सीमा रेखा होती है और यही महीन रेखा कायरता और बुद्धिमानी के बीच भी होती है। ग़लत निर्णय से आपकी बहादुरी मूर्खता में गिनी जा सकती है और समझदारी से किया गया पलायन भी बुद्धिमानी में शामिल हो जाता | ||
− | |||
यदि हम जल-दस्युओं के बारे में जानकरी करने के लिए गहरे में उतरें तो एक ज़बर्दस्त इतिहास और किंवदंतियों से भरी दुनियाँ हमें मिलती है। इनकी लोकप्रियता का अन्दाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि कॅप्टेन जॅक स्पॅरो के किरदार में 'जॉनी डेप' अभिनीत 'पाइराइट्स ऑफ़ कॅरेबियन' करोड़ों डॉलर का व्यापार कर रही है और इसके सीक्वल, ट्रायोलॉजी और क्वाड्रियोलॉजी बनते जा रहे हैं। इन समुद्री डाकुओं ने तो एक बहुत प्रभावी संस्कृति का प्रतिनिधित्व भी किया है। | यदि हम जल-दस्युओं के बारे में जानकरी करने के लिए गहरे में उतरें तो एक ज़बर्दस्त इतिहास और किंवदंतियों से भरी दुनियाँ हमें मिलती है। इनकी लोकप्रियता का अन्दाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि कॅप्टेन जॅक स्पॅरो के किरदार में 'जॉनी डेप' अभिनीत 'पाइराइट्स ऑफ़ कॅरेबियन' करोड़ों डॉलर का व्यापार कर रही है और इसके सीक्वल, ट्रायोलॉजी और क्वाड्रियोलॉजी बनते जा रहे हैं। इन समुद्री डाकुओं ने तो एक बहुत प्रभावी संस्कृति का प्रतिनिधित्व भी किया है। | ||
डाकुओं, दस्युओं या लुटेरों से प्रभावित होने का कारण है हमारा उनकी दुनियाँ से अनभिज्ञ होना। इनका जीवन, जिससे कि लोग चमत्कृत हो जाते हैं, वास्तव में नारकीय जीवन होता है। समाज से कटे होने का दर्द इनके हृदय को हर समय कचोटता रहता है। आत्म समर्पण के बाद कुछ दिन ये लोग शो-पीस बने इधर-उधर घूमते रहते हैं फिर कोई घास नहीं डालता। सब की क़िस्मत फूलन जैसी नहीं होती कि सांसद बन जाय। | डाकुओं, दस्युओं या लुटेरों से प्रभावित होने का कारण है हमारा उनकी दुनियाँ से अनभिज्ञ होना। इनका जीवन, जिससे कि लोग चमत्कृत हो जाते हैं, वास्तव में नारकीय जीवन होता है। समाज से कटे होने का दर्द इनके हृदय को हर समय कचोटता रहता है। आत्म समर्पण के बाद कुछ दिन ये लोग शो-पीस बने इधर-उधर घूमते रहते हैं फिर कोई घास नहीं डालता। सब की क़िस्मत फूलन जैसी नहीं होती कि सांसद बन जाय। |
16:02, 14 अप्रैल 2012 का अवतरण
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ