एक्स्प्रेशन त्रुटि: अनपेक्षित उद्गार चिन्ह "१"।

हर शख़्स मुझे बिन सुने -आदित्य चौधरी

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
गोविन्द राम (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:03, 26 जनवरी 2016 का अवतरण ('{| width="100%" style="background:#fbf8df; border:thin groove #003333; border-radius:5px; padding:8px;" |- | <noinclude>चित...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
Copyright.png
कितना बेदर्द और तन्हा -आदित्य चौधरी

एक गुमनाम किसान गजेन्द्र द्वारा, सरेआम फांसी लगा लेने पर...

हर शख़्स मुझे बिन सुने आगे जो बढ़ गया
तो दर्द दिखाने को मैं फांसी पे चढ़ गया

महलों के राज़ खोल दूँ शायद में इस तर्हा
इस वास्ते ये ख़ून मेरे सर पे चढ़ गया

कांधों पे जिसे लाद के कुर्सी पे बिठाया
वो ही मेरे कांधे पे पैर रख के चढ़ गया

किससे कहें, कैसे कहें, सुनता है यहाँ कौन
कुछ भाव ज़माने का ऐसा अबके चढ़ गया

जब बिक रहा हो झूठ हर इक दर पे सुब्ह शाम
‘आदित्य’ ये बुख़ार कैसा तुझपे चढ़ गया


टीका टिप्पणी और संदर्भ