चुनाव हो रहे हैं। एक गाँव के स्कूल में पोलिंग बूथ बना हुआ है। दनादन वोट डाले जा रहे हैं। पोलिंग बूथ के आस-पास एक आदमी गले में एक थैला लटका कर कुछ बेच रहा है और आवाज़ लगा रहा है-
"उंगली की स्याई हटाने की दवाई ले लोऽऽऽ ... चुनाव की स्याई उंगली से ऐसे ग़ायब होगी जैसे यूपी से बिजली, जैसे बाज़ार से चवन्नी और स्कूल से क़लम-दवात... एक आदमी दस-दस वोट, साइंस का कमाल है भैया साइंस का कमाल... वोट डाल के आओ और तुरंत स्याई हटाओ... क़ीमत पच्चीस रुपये केवल ... केवल पच्चीस रुपये।"
एक सिपाही ने टोका-
"अबे! पोलिंग के पास ही स्याई मिटाने की दवाई बेच रहा है... थोड़ा दूर जाकर बेच... मालूम है ये ग़ैर क़ानूनी है।"
"तो क्या कुंभ के मेले में जाकर बेचूं ... अरे ये दवाई तो चुनाव में ही बिकेगी ना"
दवाई वाला इतना कहकर फिर आवाज़ लगाने लगा।
तभी पोलिंग बूथ में कुछ वाद-विवाद हो गया। छोटे पहलवान ज़ोर-ज़ोर से बोल रहा था-
"अजी साहब ! ऐसे कैसे वोट कैंसिल हो जाएगा... हमारे पास एक ही तो ताक़त है वोट की और वो भी तुम कैंसिल कर दोगे...?"
"लेकिन नेता जी! आप किसी मरे हुए आदमी का वोट कैसे डाल सकते हो?" चुनाव अधिकारी ने आश्चर्य से कहा।
"अरे तो कौन सा दस-बीस साल पहले मरा है ? अभी छ: महीने पहले ही तो मरा है, एकदम से इतनी जल्दी वोट थोड़े ही ख़तम होता है... एक-दो साल तो चलेगा ही। हम भी पढ़े-लिखे हैं साहब ! दिखाओ कौन से क़ानून में लिखा है कि मरा आदमी वोट नहीं डालेगा... ये हिन्दुस्तान है बाबूजी हिन्दुस्तान... सबको बराबर का हक़ है ज़िन्दा को भी और मरे हुए को भी... डेमोकिरेसी है, डेमोकिरेसी... सब एक बराबर चाहे आदमी-औरत, बड़ा-छोटा, राजा-भिखारी... और चाहे ज़िन्दा चाहे मरा... समझे" छोटे पहलवान ने अधिकारी को समझाया। जब मामला नहीं सुलटा तो इस विवाद को पुलिस के दरोग़ा के पास ले जाया गया
दरोग़ा ने गम्भीरता से समझाया-
"देखिए जी ! हमारी तैनाती है यहाँ शान्ति-व्यवस्था बनाए रखने के लिए न कि किसी के ज़िन्दा-मुर्दा होने का फ़ैसला करने के लिए ... अरे ये तो काम डाक्टर का है कि बताए कि कौन ज़िन्दा है और कौन नहीं... ये हमारा काम नहीं है।... काहे को लड़ रहे हैं ?... सिर्फ एक वोट के लिए ?... अरे ! करोड़ों वोटर हैं हमारे देश में अगर एक-आध वोट कम ज़्यादा हो भी जाय तो क्या फ़र्क़ पड़ता है जी ? हमारे देश में जब करोड़ों ज़िन्दा वोटर वोट नहीं देते तो एक मरा हुआ वोटर वोट दे दे तो क्या परेशानी है ?"
चुनाव अधिकारी ने एक दूसरे वरिष्ठ अधिकारी से संपर्क किया तो जवाब मिला-
"यार ! तुम नौजवान हो तुमने दुनिया नहीं देखी। जो कुछ हो रहा है, होने दो। मेरे सफ़ेद बालों को देखो तो सब समझ में आ जाएगा। छोटे पहलवान यहाँ का नेता है। मंत्री जी का आदमी है। कल को हमें-तुम्हें काम पड़ेगा तो छोटे पहलवान ही काम आएगा... समझे !"
तभी एक दूसरा मसला सामने आया जिसमें दो गुट आपस में बहस कर रहे थे।
"चुनाव के पूरे स्टाफ़ को नाश्ता तुम कराओगे तुम ! क्योंकि वोट तो सारे तुम्हारे ही फ़र्ज़ी डल रहे हैं ना... हमारे तो बार-बार कैंसिल किए जा रहे हैं।"
दूसरे गुट ने भी अपना पक्ष रखना शुरू किया लेकिन दरोग़ा ने बीच-बचाव करा दिया और मामले की गम्भीरता को समझते हुए फ़ैसला सुनाया-
"देखो जी ! पहली बात तो ये है कि हम एक तरफ़ से नहीं बल्कि दोनों तरफ़ से ही फ़र्ज़ी वोट डलवा रहे हैं, उसकी वजह ये है कि हम पूरे ईमानदार आदमी हैं, हमारी ईमानदारी पर शक करने की ज़रूरत नहीं है। हम लोगों को अब तक नाश्ता-पानी नहीं मिला है, फिर भी हमारी तरफ़ से बिलकुल ठीक काम हो रहा है, क्योंकि ड्यूटी इज़ ड्यूटी... अगर आप लोग आपस में लड़ेंगे तो तो पोलिंग बूथ ही कैन्सिल हो जाएगा। इसलिए आप मेरी बात मानिए और समझौता कर लीजिए..."
"कैसा समझौता ?" एक नेतानुमा व्यक्ति बोला।
"समझौता ये है कि सब कुछ फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी... मतलब सीधा है कि हमारे और चुनाव अधिकारियों का नाश्ता-पानी आप दोनों पार्टी आधा-आधा दो और वोट भी आधे-आधे बाँट लो... आप दोनों पार्टी एक-एक आदमी हमें दे दो वो दोनों मिलकर पूरे गाँव के वोट डाल देंगे... आधे-आधे... , आधे आपके और आधे आपके...
बस अब हो गया तय... कोई समस्या ?"
झगड़ा निपट गया और समझौता हो गया। इस तरह से आधे-आधे वोट 'ईमानदारी से' बँट गए।
एक बार एक विश्वविद्यालय की कक्षा में पूछा गया-
"जो न जन्मता है न मरता है यानि शाश्वत है, जो पृथ्वी पर सब जगह पाया जाता है यानि सार्वभौमिक है, जो प्रत्येक स्थान पर पाया जाता है यानि सर्वव्यापी है, जो सबके के लिए शुभ है यानि सर्वमंगलकारी है, जो सारे कष्ट दूर करता है यानि सर्वविघ्नहर्ता है, जिसकी न तो शुरुआत का किसी को पता न अंत का ही यानि अनादि-अनंत-अमर्त्य है। वह क्या है?"
ज़्यादातर छात्रों ने 'ईश्वर' बताया लेकिन एक छात्र ने कहा-
"हमने ईश्वर को तो देखा नहीं और ना ही हमारे विचार इस संबंध में स्पष्ट हैं, यदि इस परिभाषा पर कुछ खरा उतरता है तो वह है 'भ्रष्टाचार'। भ्रष्टाचार ही एक ऐसी चीज़ है जो इन सारे गुणों को पूरा करता है जो आपने बताई हैं।"
इसलिए हे तात ! जहाँ-जहाँ प्रजातंत्र होता है वहाँ-वहाँ वोटर होता है, जहाँ-जहाँ वोटर होता है वहाँ-वहाँ चुनाव होता है, जहाँ-जहाँ चुनाव होता है वहाँ-वहाँ राजनीति होती है, जहाँ-जहाँ राजनीति होती है वहाँ-वहाँ नेता होता है, जहाँ-जहाँ नेता होता है वहाँ-वहाँ भ्रष्टाचार होता है, जहाँ-जहाँ भ्रष्टाचार होता है, वहाँ-वहाँ आंदोलन होता है, जहाँ-जहाँ आंदोलन होता है वहाँ-वहाँ चुनाव होता है... फिर वही राजनीति फिर वही नेता और... यानि कि लौट के यह चक्र फिर भ्रष्टाचार पर आ जाता है।
सारा खेल वोट का है जिसे 'वोटर' देता है। हमारे देश में जब भी कोई बच्चा पैदा होता है तो आकाशवाणी होती है-
"हे वोटरानी! ये नौनिहाल जो तेरी गोदी में मचल रहा है यह बड़ा होकर क्या बनेगा ! इसकी जिज्ञासा तो तुझे अवश्य होगी ही... लेकिन तू परेशान न हो ये भी भारत के अन्य बच्चों की तरह वोटर ही बनेगा। वोटर और सिर्फ़ वोटर न इससे ज़्यादा न कम..."
इसके बाद माँ बच्चे को लोरी गाकर सुलाने लगती है-
"सो जा वोटर मेरे सो जा..."
'वोटर', वैसे तो विश्व के कोने-कोने में पाया जाता है लेकिन भारत के वोटर की नस्ल सबसे अलग है। वोटरों की कई प्रजातियाँ भी हैं जैसे सयाना, सीधा, पढ़ा-लिखा, गुम्म, रूठा, बिकाऊ, सौदेबाज़ आदि।
वोटर बनना आसान नहीं है। इसके लिए कई शर्तें हैं जो पूरी करनी पड़ती हैं लेकिन नेताओं की नज़र से अगर देखें तो सबसे अच्छा वोटर वही माना जाता है जो ज़िन्दा ही न हो यानि बहुत पहले ही मर चुका हो क्योंकि इस प्रकार का वोटर बिना किसी मांग के और बिना कोई वादा लिए वोट दे सकता है। दूसरा वह जो कभी भी पोलिंग बूथ पर न जाए लेकिन उसका वोट हर चुनाव में डल जाय। ऊपर वाले दोनों प्रकार के वोटर सबसे अच्छे माने जाते हैं क्योंकि इनका वोट उम्मीदवार के शुभचिंतकों द्वारा ही डाले जाते हैं। ये दोनों ही क़िस्में भारत में या भारत जैसे देशों में ही पायी जाती हैं।
18 वर्ष की आयु तक प्रत्येक भारतीय का जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता है। इसके बाद वही सीधा-सादा भारतीय नागरिक एक वोटर में परिवर्तित हो जाता है। वोटर बनते ही वह सभी राजनीतिक दलों की 'निगाह' में वैसे ही आ जाता जैसे ईद से पहले कोई तन्दुरुस्त बकरा। इस बेचारे वोटर को तरह-तरह से बहलाया फुसलाया जाता है और जब वो इस लायक़ बन जाता है कि अपने दिमाग़ का इस्तेमाल किए 'बिना' वोट दे सके तो उससे वोट ले लिया जाता है। इस सारी बाज़ीगरी से वोटर के दिमाग़ में यह बैठ जाता है कि वोट देना उसका कर्तव्य नहीं है बल्कि राजनीतिक दलों और नेताओं पर किया जाने वाला एक अहसान है। वोटर अपने वोट का संबंध देश के भविष्य से न मान कर नेताओं के भविष्य से मानने लगता है।
चुनाव शुरू होते हैं। चुनावी सभाओं में नेता हॅलीकॉप्टर से आते हैं और अपने आप को जनता का सेवक बताते हैं, जिससे जनता को तुरंत विश्वास हो जाता है कि भई वाक़ई सही बात है, ये जनता का सेवक ही तो है वरना बेचारा हॅलीकॉप्टर में कैसे चल सकता है। दूसरा ये भी है कि आम आदमी को बड़ा गर्व भी होता है कि देखो ! हम न सही लेकिन हमारा नौकर तो हॅलीकॉप्टर में चल रहा है। अनेक राजनीतिक दल वोटर को तरह-तरह की योजनाएं बना कर यह समझाने का प्रयास करते हैं कि वोटर होना, जीवन की एक महान् घटना है और वोटर को ख़ुद यह मालूम नहीं है कि किसे वोट देना है। बेचारा वोटर क्या जाने कि वोट कैसे, किसे और कब देना है इसीलिए चुनावी सभाएं की जाती हैं, रैलियां निकाली जाती हैं और घर-घर जाकर वोट मांगे जाते हैं। शराब पिलाई जाती है, उपहार बाँटे जाते हैं और नक़द रुपया दिया जाता है। विज्ञापनों द्वारा यह प्रचार किया जाता है कि वोट ज़रूर दो।
ये जो 'वोट ज़रुर दो ये तुम्हारा हक़ है, कर्तव्य है।' का वाक्य, चुनाव के क़रीब आने पर धीरे-धीरे अपना रंग बदलने लगता है ज़रा देखिए कैसे-
चुनाव से 15 दिन पहले (स्थान: कोई सभा स्थल जैसे चौपाल):
'भाइयो-बहनो ! वोट देना आपका कर्तव्य है, अधिकार है और देश की तरक़्क़ी के लिए ज़रूरी है। वोट ज़रूर दीजिए, बिना डर के दीजिए, हम आपके सेवक हैं, ज़ात-पात नहीं मानते... ज़ात-पात माने नहीं कोई हरि को भजे सो हरि का होई... इसलिए हमें ही वोट दीजिए।'
अब सभा समाप्त (स्थान: अंदर कमरे में नाश्ते की मेज़ पर): 'अरे यार वो लोग तुम्हारी जात के कहाँ हैं ! हमारी जात एक है ख़ून एक है... समझे ! किसी चक्कर में मत आना सारे वोट हमें ही जाएँगे और तुम्हारे लड़कों को नौकरी में एडजस्ट कर लेंगे। अब कुछ चंदा-चिट्ठा दे रहे हो कि सूखा स्वागत ही रहेगा।'
चुनाव से 5 दिन पहले: 'हमें वोट दो या मत दो पर उसे मत देना।' या फिर 'किसके कहने से वोट देगा तू किसका आदमी है और तेरे पास कितने वोट हैं सीधे-सीधे पैसे बता?'
चुनाव से एक दिन पहले: 'सातों जात के जो भी हमारे ख़िलाफ़ वोट डालने गया... समझ लो अपने घर वापस नहीं जा पाएगा... समझेऽऽऽ ...
चुनाव के दिन: 'अबे जा! तेरा वोट तो डल गया... जो करना है करले... चल भाग जा..."
चुनाव के बाद सरकारें बनती हैं, सरकारों के मंत्री बनते हैं। मंत्री उसे कहते हैं जो अपने और अपने परिवार के विकास को ही जनता का विकास माने और सच्चा विकास-पुरुष बने। जनता के सामने, मंत्री हमेशा मासूम और चौंके हुए रहते हैं। उनके संवाद कुछ इस तरह के होते हैं-
"अरे! ऐसा कैसे हो सकता है कि आपके यहाँ सड़क नहीं है... क्या कह रहे हैं ? स्कूल भी नहीं है... बड़े कमाल की बात है... मैं अभी रिपोर्ट मंगवाता हूँ..."
अब इसके बाद सारा मामला उन अधिकारियों के हाथ में सौंप दिया जाता है जो चालाक लोमड़ी होने के बावजूद ख़ुद को भेड़ साबित करने में स्वर्ण पदक विजेता होते हैं।
ऐसा नहीं है कि जनता यह नहीं जानती कि चुनाव के बाद नेता अचानक रंग पलट जाते हैं, जनता सब जानती है लेकिन इसका आनंद लेती है और भाग्यवादी भारत की जनता इस तरह की बातों को भाग्य का लेखा या क़िस्मत की लिखाई ही समझ लेती है। इस तरह देश चलता रहता है और आम आदमी, नेताओं को म्यूज़िकल चेयर वाले खेल की तरह बदलता रहता है।
इस बार इतना ही... अगली बार कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक
इससे तो अच्छा है -आदित्य चौधरी
करना सियासत, तिजारत की ख़ातिर ।[1]
इससे तो अच्छा है नाक़ारा रहते ।।[2]
चूल्हे बुझाकर, अलावों का मजमा ।
इससे तो अच्छा है कुहरे में रहते ।।
गर है लियाक़त का आग़ाज़ सजदा ।[3]
इससे तो अच्छा है आवारा रहते ।।
महलों की खिड़की से रिश्तों को तकना ।
इससे तो अच्छा है गलियों में रहते ।।
ग़ैरों की महफ़िल में बेवजहा हँसना ।
इससे तो अच्छा है तन्हा ही रहते ।।
बेमानी वादों से जनता को ठगना ।
इससे तो अच्छा है तुम चुप ही रहते ।।