भारतकोश सम्पादकीय 27 मई 2014

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जनतंत्र की जाति -आदित्य चौधरी


          खेल भावना से राजनीति करना एक स्वस्थ मस्तिष्क के विवेक पूर्ण होने की पहचान है लेकिन राजनीति को खेल समझना मस्तिष्क की अपरिपक्वता और विवेक हीनता का द्योतक है। राजनीति को खेल समझने वाला नेता मतदाता को खिलौना और लोकतंत्र को जुआ खेलने की मेज़ समझता है।
          भारत में या विश्व में कहीं भी लोकतंत्र के ढांचे में जब चुनाव होता है तो जनता अपने मत का प्रयोग करके न सिर्फ़ सरकार चुनती है बल्कि हर एक राजनैतिक दल और उम्मीदवार को एक संदेश भी देती है। यह संदेश भले ही गूढ़ होता हो लेकिन समझने वाले के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है। इस तरह के संदेश जनता चुनाव से इतर भी देती है जो कभी आंदोलन के रूप में होता है या कभी धरना-प्रदर्शन आदि के रूप में होता है। सत्ता के मद में इस प्रकार के संदेश अनदेखे किए जाना चुनाव में भारी पड़ता है।
          सत्ता किसी की निजी सम्पत्ति नहीं होती, न तो स्थायी रूप से और न ही अस्थाई रूप से। शक्ति राजनैतिक हो या धन की, काफ़ी हद तक समान रूप से ही व्यवहार करती है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि किसी भी व्यक्ति की जवाबदेही समाज और देश के प्रति है या नहीं, इसी से व्यक्ति का मूल्यांकन होता है।
          दुम शेर की भी होती है और कुत्ते की भी लेकिन शेर अपनी दुम लहराता है और कुत्ता अपनी दुम हिलाता है। दुम तो दोनों हिलती हैं लेकिन मतलब अलग होता है। ये एक ऐसा फ़र्क़ है जिसको हम समझ लें तो ज़िन्दगी के बहुत से फ़न्डे क्लीयर हो जाते हैं।
जैसे कि-
          आज़ादी के वक़्त साढ़े तीन सौ से अधिक छोटी-बड़ी रियासतों में भारत बंटा हुआ था। इन रियासतों के रहनुमा अंग्रेज़ों के आगे जिस द्रुत गति से अपनी दुम हिलाते थे उससे उत्सर्जित होने वाली ऊर्जा से भारत की विद्युत आपूर्ति हो सकती थी। इन रियासतों के सरमायेदारों के नाम, आज जनता में कोई नहीं जानता। इसी समय ही अनेक व्यापारी-व्यवसायी भी थे, उन्हें भी कोई नहीं जानता। हाँ टाटा अवश्य अपवाद हैं लेकिन मैं टाटा को व्यापारी नहीं बल्कि उद्योगपति मानता हूँ जिसकी जवाबदेही जनता और देश के प्रति अवश्य होती है।
ख़ैर...
          ऐसा क्यों है कि जनता- गांधी, पटेल, सुभाष, नेहरू, भगतसिंह, सावरकर, अशफ़ाक़ आदि जैसे नाम तो जानती है लेकिन उन राजा-नवाबों के नहीं जो इन्हीं के समय में सत्ता में थे और जिनके कुत्ते भी तंदूरी मुर्ग़ का मज़ा लेते थे।
जवाब सीधा सा है जिसे सब जानते हैं-
          शक्ति का प्रयोग अय्याशी और अहंकार के लिए करने वाले शासकों से जनता का सरोकार क्षणिक होता है और शक्ति को जनता का कर्ज़ समझने वाले शासकों को जनता याद रखती है।
          2014 का चुनाव पिछले चुनावों से कुछ भिन्न रहा। इस चुनाव में सेक्यूलरिज़्म याने धर्म निरपेक्षता शायद अब सामयिक मुद्दा नहीं रहा। नई पीढ़ी 'धर्म सापेक्ष' है और काफ़ी हद तक 'सर्व धर्म सम्मान' या कहें कि 'सर्व धर्म सापेक्ष' है। निश्चय ही 'नीरस धर्म निरपेक्षता' से धर्म के सांस्कृतिक स्वरूप का अनुसरण सुखदायी है। मुझे कभी नहीं लगा कि धर्म निरपेक्षता, संकीर्णता से भरे दिमाग़ से मुक्त होने की कोई गारंटी है। संकीर्णता को एक बार फिर से परिभाषित किए जाने की आवश्यकता है। सिर्फ़ चुनाव में ही नहीं बल्कि आज के ज़माने की शादियों में भी देखने में आ रहा है कि अन्तर-धर्म शादी में नई पीढ़ी के लोग अपने जीवन साथी का धर्म बदलने पर कोई ज़ोर नहीं देते और एक दूसरे के धर्म का सम्मान करते हैं।
          चुनाव जब भी आते हैं तो जाति और धर्म की बहस मीडिया में शोर मचाने लगती है। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी जाति और धर्म बड़े ज़ोर-शोर से याद दिलाया जाता है। चुनावों में जाति और धर्म के आधार पर ही अधिकतर चुनाव क्षेत्रों की उम्मीदवारी निश्चित की जाती है। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उस राजनैतिक पार्टी का नारा जाति और धर्म का भेदभाव के ख़िलाफ़ है। किसी राजनैतिक दल का श्वेत पत्र या देश का राज पत्र भले ही जाति या धर्म के आधार पर चुनाव न होने की बात करता हो लेकिन मतदाता तो इसी को आधार बना कर मतदान करता है।
एक संस्मरण-
          बचपन में मेरी वर्षगाँठ पर हवन करने पंडित जी आया करते थे, वह हमारे शहर के वरिष्ठ और विद्वान् माने जाते थे। उस दिन खीर, पूड़ी, हलवा आदि बना करता था। पंडित जी खीर खाने के लिए हँसकर मना कर दिया करते थे। मेरे पूछने पर पिताजी ने बताया कि पंडित जाटों के यहाँ खीर नहीं खाते क्योंकि खीर पक्का खाना नहीं माना जाता, खीर तो कच्चे खाने में आती है। बात-चीत में पंडित जी यह भी कह देते थे कि चौधरी साहब मैं तो ये नियम-धर्म निबाह रहा हूँ पर लगता नहीं कि मेरा बेटा भी यह निबाहेगा। उनको अफ़सोस होता था कि जितनी छुआ-छूत वे मानते हैं, शायद उनका बेटा उतनी नहीं मानेगा और यह सोचकर उदास हो जाते थे। यह सब कुछ सामान्य था और आज भी है। दलित जातियों के भी जो हिंदू धार्मिक कर्मकाण्ड होते हैं उनमें भी ब्राह्मण ही बुलाए जाते हैं।
          धुर राजस्थान में जाटों को अछूत की श्रेणी में माना जाता था। जे.पी. दत्ता ने अपनी फ़िल्म 'ग़ुलामी' में यह सब कुछ दिखाया भी है। मेरे ही परिवार के एक सदस्य ने एक बार यह त्रास स्वयं भी झेला। जब उनको एक गाँव के घर में पीने को पानी मांगने पर "दूर हट के पीओ तुम जाट हो" वाक्य सुनना पड़ा।
          सामाजिक स्तर पर जातिवाद विरोधी प्रयास काफ़ी हद तक व्यावहारिक रहे हैं। समाज सुधार के प्रयास, समाज सुधारकों द्वारा किए जाने पर ही जनता के मन को छू पाते हैं। राजनैतिक स्तर पर जो समाज सुधार या जातिवाद विरोधी प्रयास होते हैं वे सामान्यत: निष्फल ही रहते हैं कभी-कभी वे हास्यास्पद भी होते हैं। कारण यह है कि जनता अपनी सरकार या किसी राजनैतिक दल को देश के विकास से जोड़कर चलती है न कि समाज सुधार से।
एक उदाहरण देखिए-
          कुछ वर्ष पहले की बात है कि एक राजनैतिक दल ने कुछ दलितों का धर्म परिवर्तन कराने का अभियान चलाया। इन दलितों ने हिंदू धर्म को त्याग कर एक अन्य धर्म अपना लिया था। यह तय किया गया कि दलितों के पैर धोए जाएंगे और उन्हें यह भरोसा दिलाया जाएगा कि ज़ात-पात का पक्षपात अब हिन्दू धर्म में नहीं होता। सोचा यह गया कि दलित तो संकोच के कारण उच्च जाति के लोगों से पैर नहीं धुलवाएंगे इसलिए सचमुच पैर धोने की नौबत नहीं आएगी। हुआ कुछ अलग ही- सभी दलितों ने अपने पैर धुलवाने के लिए आगे कर दिए और जनेऊ पहने हुए लोगों ने जब यह कार्यक्रम संपन्न किया तो उसके बाद वहाँ से लगभग भागकर स्नान करने गए और तीन दिन बाद गंगा स्नान करके स्वयं को शुद्ध करने के लिए हरिद्वार चले गए। जिन्होंने अपना धर्म बदला था उनमें से बहुत से साल भर के भीतर ही वापस उसी धर्म में चले गए। सीधा-साधा सा सवाल है कि कौन सा धर्म हमें अधिक सुविधा दे रहा है और कौन से धर्म को निबाहने में हमें परेशानी हो रही है। निश्चित रूप से ही आर्थिक और सामाजिक रूप से अति पिछड़ों की यह समस्या शाश्वत है।
एक और संस्मरण-
          एक प्रथम श्रेणी के उच्च पद पर आसीन सरकारी अधिकारी को सपरिवार मेरे यहाँ खाने पर आना था। जब वह नहीं आये तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। सामान्यत: मैं किसी अधिकारी को इस प्रकार निमंत्रित नहीं करता लेकिन वह मुझे बड़ा भाई मानते थे तो मैंने उन्हें बुलाया। पूछने पर उन्होंने न आने का जो कारण मुझे बताया तो मुझे बहुत हैरानी और दुख: हुआ। उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी ने कहा कि शायद भाई साब को इस बात का पता नहीं है कि हम वाल्मीकि हैं, उन्हें हमारी जाति का पता नहीं है, इसीलिए खाने पर बुलाया है, हमें नहीं जाना चाहिए। ज़रा सोचिए कि पति उच्च अधिकारी और वह स्वयं डॉक्टर इसके बाद भी उसका ऐसा संकोच... मुझे लगा कि हे ईश्वर यह धरती फट जाए और मैं इसमें समा जाऊँ। इसके बाद मेरी ज़िद पर हमने एक थाली में ही खाना खाया।
          राजतंत्र में वर्ण व्यवस्था का जन्म हुआ है और जनतंत्र में इसका अंतिम संस्कार होना चाहिए था पर हुआ नहीं...
          मेरी समझ में नहीं आता कि जिस सवर्ण जाति के कर्मचारी को दलित अधिकारी के जूठे बर्तन उठाने में संकोच नहीं होता उसी कर्मचारी को किसी दलित मज़दूर को एक गिलास पानी देने में क्यों संकोच होने लगता है।
          मैं यह नहीं कह रहा कि सभी ऐसा करते हैं बल्कि यह कहना चाहता हूँ कि हिंदू धर्म की वर्ण व्यवस्था के दुरुपयोग को रोका जाना चाहिए और नई पीढ़ी को नए सिरे से यह पढ़ाया जाना चाहिए कि वर्णव्यवस्था एक बहुत पुराने अतीत की व्यवस्था थी जो कि अब कोई मायने नहीं रखती।

इस बार इतना ही... अगली बार कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक