भारतकोश सम्पादकीय 9 जुलाई 2013

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कल आज और कल -आदित्य चौधरी


        हमारी भाषा हिन्दी में गुज़रे हुए कल और आने वाले कल के लिए एक ही शब्द है 'कल'। ऐसा क्यों है और क्या यह सही है या फिर इसके पीछे हमारी कौन सी सोच या मानसिकता काम करती है, इस पर चर्चा करते हैं लेकिन पहले नारद जी क्या पूछ रहे हैं वह भी देखें-
अक्सर नारद जी ही अपने अनूठे प्रश्नों के लिए प्रसिद्ध हैं, तो नारद जी ने भगवान कृष्ण से पूछा-
"अब द्वापर के बाद कलियुग आएगा वह कैसा युग होगा प्रभु!
कृष्ण बोले "देवर्षि नारद! सतयुग, सत्य का युग था। त्रेता मर्यादा का युग था। द्वापर कर्म का युग है और कलियुग न्याय का युग होगा।"
नारद: "सर्वश्रेष्ठ युग कौन सा होता है प्रभु?"
नारद जी के इस प्रश्न का उत्तर श्री कृष्ण ने दिया या नहीं, वह तो मुझे पता नहीं लेकिन यहाँ चर्चा करके हम इस प्रश्न का उत्तर खोजने की कोशिश करेंगे...
        पौराणिक ग्रंथों के अनुसार सतयुग में राजा हरिश्चन्द्र सबसे प्रसिद्ध राजा हुए हैं। त्रेता में राम हुए और द्वापर में कृष्ण। राम और कृष्ण को तो अवतार या भगवान माना जाता है लेकिन राजा हरिश्चन्द्र को अवतार या भगवान नहीं माना जाता।
ऐसा क्यों है? इस पर चर्चा की जा सकती है...
        यदि हिन्दू धार्मिक ग्रंथों को देखें तो, भगवान राम ने बालि और रावण को छल से मारा था। बालि को वृक्ष के पीछे छिप कर मारने का कारण यह था कि बालि को वरदान था कि जो भी उसके सामने होगा उसका आधा बल बालि को मिल जायेगा इस प्रकार बालि अजेय ही रहा। जिससे भी लड़ा उसका आधा बल ले लिया और अपना बल भी उसमें सम्मिलित हो गया, तो फिर हारता कैसे ? इसलिए राम ने पेड़ के पीछे से छिप कर बालि को बाण मारा और बालि मारा गया। इसी प्रकार रावण को भी मारना असंभव ही था क्योंकि उसकी नाभि में अमृत था जो उसको मरने नहीं देता था। विभीषण ने यह रहस्य खोला और राम ने नाभि में तीर मारा, जिससे रावण मारा गया।
        कृष्ण की कूटनीति से महाभारत में कौरवों के सभी महारथी मारे गए। पहले भीष्म फिर द्रोणाचार्य फिर कर्ण और अंत में दुर्योधनजयद्रथ और जरासंध वध भी भगवान कृष्ण की कूटनीति का ही फल था। कृष्ण ने भीष्म से ही पूछा कि वो कैसे मरेंगे क्योंकि भीष्म प्रतिदिन दस सहस्त्र रथियों को मार कर ही जल ग्रहण करते थे। दस दिनों में भीष्म ने पांडवों की सेना को गाजर मूली की तरह संहारित किया था। भीष्म ने बताया कि स्त्री और उभयलिङ्गी पर अस्त्र-शस्त्र नहीं उठाने की प्रतिज्ञा कर चुके हैं। इसीलिए शिखङ्डी को अर्जुन ने अपने सामने खड़ा करके भीष्म पर तीर मारे और भीष्म शरशैय्या पर लेटे हुए मृत्यु की प्रतीक्षा तब तक करते रहे जब तक कि सूर्य उत्तरायण नहीं हो गए।
        द्रोणाचार्य के संबंध में सभी को मालूम था कि वे केवल अश्वत्थामा के लिए ही जीवन जी रहे हैं और अश्वत्थामा के मरने से वे भी मर जाएँगे। सत्यवादी धर्मराज युधिष्ठिर से "अश्वत्थामा हतौहत: नरोवाकुंजरोवा" कहलवाया गया। जिससे द्रोणाचार्य ने समझा कि अश्वत्थामा मारा गया और वे समाधिस्त हो गए। समाधि अवस्था में ही धृष्टद्युम्न ने उनका वध किया। दुर्योधन की जंघा पर वार करवाना हो या जयद्रथ को मरवाने के लिए सूर्य को छिपा कर सूर्यास्त का भ्रम पैदा करना हो, कृष्ण सदा सफल ही रहे।
        राजा हरिश्चंद्र सतयुग में हुए और उन्हें अपना राज्य, रानी और पुत्र ऋषि विश्वामित्र के कारण त्यागने पड़े। हरिश्चंद्र अपने सत्य के मार्ग से नहीं हटे चाहे कितनी भी कठिनाइयां आईं। अपना राज्य भी वापस नहीं लिया और यह कहकर छोड़ दिया कि दान की हुई वस्तु को वापस कैसे लूँ ? राजा हरिश्चंद्र को भगवान का अवतार नहीं माना जाता इसलिए कहीं भी उनके मंदिर नहीं पाए जाते।
        ऐसा क्यों है ? हमारे अवतार और भगवान वे क्यों नहीं हैं जो सदा सत्य के नियमों पर चले, जिन्होंने कभी किसी भी परिस्थिति में छल-कपट का सहारा नहीं लिया ? इसका दूसरा पहलू भी है जो व्यावहारिक धरातल पर खरा उतरता है। राम ने अपने माता-पिता के प्रति पूरी श्रद्धा-भक्ति का परिचय दिया और अनेक मर्यादाओं का पालन भी किया लेकिन अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ छल का सहारा भी लिया। कृष्ण के संबंध में भी यही है।
        राजा हरिश्चंद्र के बारे में यदि हम विचार करें तो समझ में आता है कि उन्होंने अपना राज्य एक ऋषि को सौंप दिया जो कि राज्य की जनता के प्रति पूर्णत: अन्याय ही हुआ। ठीक इसी तरह हरिश्चंद्र ने अपने राज्य, पत्नी और पुत्र को एक वस्तु की तरह दान कर दिया जो कि जनता को अन्यायपूर्ण लगा और सतयुगीन राजा होने के बावजूद भी, राजा हरिश्चंद्र कभी भी अवतार या भगवान का स्थान नहीं पा सके।
अब कलियुग की चर्चा करते हैं-
        कलियुग न्याय का युग है। जो अपराध करेगा उसे उसके देश की सरकार या शासन द्वारा दण्डित किया जाता है न कि अगले जन्म तक प्रतीक्षा की जाती है कि कब वह अगला जन्म लेगा और अपने कर्मों का फल पाएगा। कलियुग में अधिकतर देशों में जनता द्वारा चुनी हुई सरकारें हैं और गर्व की बात है कि भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और भारत में जनता अपना शासक स्वयं चुनती है (वो एक अलग बात है कि हमारे देश की आधी आबादी वोट नहीं देती और वोट देने वाली आबादी में एक बड़ा प्रतिशत निरक्षरों का है।)
कलियुग के संबंध में निम्न पंक्तियाँ कही गई हैं ज़रा इन पक्तियों पर भी ग़ौर फ़रमाइए-

"राम चंद्र कह गए सिया से ऐसा कलियुग आएगा ।
हंस चुगेगा दाना तिनका कौआ मोती खाएगा ।।"

इन पंक्तियों में छिपे हुए अर्थ बड़े ही अन्यायपूर्ण हैं। बिचारे कौओं की क्या ग़लती है जो उन्हें कलियुग से पहले के युगों में दाना-तिनका ही खाने को मिलता था और हंस में ऐसी क्या ख़ास बात थी कि वह बेशक़ीमती मोती ही खाता था। क्या इसका उत्तर है, गोरा रंग और सुंदरता, जो हंस में थी और कौओं में नहीं। इसे तो नस्ली पक्षपात की मानसिकता ही कहेंगे। ईश्वर ने तो सबको समान ही बनाया है। बाढ़ आती है तो गोरे को भी डुबोती है और काले को भी, सुंदर को भी और असुंदर को भी... तो फिर ये भेद-भाव भी ईश्वर ने तो नहीं किया होगा। ये तो मनुष्य के दिमाग़ की उपज है।
        कलियुग में ऐसा भेदभाव कम है। आजकल के युग (कलियुग) में किसी खेल स्पर्धा में किसी को सिर्फ़ इसलिए नहीं रोका जाता कि वह किसी सवर्ण जाति का नहीं है जबकि द्वापर में तो ऐसा था... हस्तिनापुर की सार्वजनिक रङ्गशाला में कर्ण को मात्र इसलिए अपमानित किया गया क्योंकि वह कुलीन नहीं था, सूतपुत्र था। आज के युग में तो किसी भी व्यक्ति का राज्य का मुख्यमंत्री या देश का प्रधानमंत्री बनना संभव है चाहे वह किसी भी जाति अथवा धर्म का हो।
        कलियुग, सामान्यत: प्रजातंत्र का युग है। राजा-महाराजाओं के युग में राज्य को किसी सुयोग्य राजा का शासन मिलने की संभावना बहुत कम ही होती थी। योग्य से योग्य राजा के उत्तराधिकारी भी निकम्मे और ऐय्याश निकल जाते थे। जिनके अव्यवस्थित शासन को जनता झेलती थी। तथाकथित कलियुग में धीरे-धीरे विश्व के अनेक देश प्रजातंत्र को अपना चुके हैं और आने वाले समय में संभवत: विश्व का प्रत्येक देश प्रजातांत्रिक होगा।
जो कुछ भी मैंने ऊपर लिखा उस सब का उद्देश्य क्या है ?
        मेरा कहना सिर्फ़ इतना ही है कि हम वर्तमान में जीना सीख लें तो हमारा देश विश्व का महानतम और सफलतम देश हो सकता है। वर्तमान में जीने के लिए सबसे पहले तो हमें स्वयं को यह विश्वास दिलाना होगा कि हम जिस काल अवधि में जी रहे हैं वही सर्वश्रेष्ठ है। विश्व, विश्व की सभ्यता और समाज सदैव प्रगतिगामी हैं ना कि चक्रीय क्रम-बद्ध।
अब ज़रा 'कल' वाली बात पर वापस चलते हैं-
        हमारी भाषा ही हमारी सोच का आइना है। गुज़रे कल को भी कल कहना और आने वाले कल को भी कल कहना, चक्रीय-क्रम सिद्धांत से ही प्रभावित है। इस 'कल' को लेकर, दूसरी भारतीय और विदेशी भाषाओं की क्या स्थिति है, यह भी देखें-

भाषाएँ 

बीता हुआ कल आने वाला कल
हिन्दी कल कल
अंग्रेज़ी Yesterday Tomorrow
लॅटिन Heri (हॅरी) Crastinum (क्रस्तीनोम)
चीनी 昨天 (ज़ोतियन) 明天 (मिंगतियन)
यूनानी (ग्रीक) χτες (क्षतेश) αύριο (आवरियो)
फ़्रांसीसी (फ़्रॅन्च) hier (हियॅ) demain (डुमा)
जर्मन gestern (गॅस्टन) morgen (मॉगन)
बंगाली গতকাল (घटकाल) আগামীকাল (आगामी काल)
तमिल நேற்று (नेत्रू) நாளை (नालाई)
 

ऊपर की तालिका में हिन्दी के अलावा सभी भाषाओं के पास गुज़रे और आने वाले दोनों कल के लिए अलग-अलग शब्द हैं। जिसका अर्थ है कि जो कल बीत गया वह उस कल से भिन्न है जो कि अगले दिन आएगा। समय को सीधे रेखा की तरह मान लिया गया। जो कि विकास और प्रगतिवादी दृष्टिकोण हुआ। लेकिन हिन्दी की सोच भिन्न जा रही है और यह संदेश देती है कि समय सीधे रेखा में गतिमान नहीं है, यह वर्तुलाकार पथ पर गतिमान है। जो घट गया वही फिर घटेगा और जो घटेगा वह पहले भी घट चुका है। इसलिए आने वाला कल वही है जो बीता हुआ कल था। यह सोच हमें किस तरह प्रगति और विकास की ओर ले जाएगी ? कहना मुश्किल है।

        खोज और रचना में क्या अंतर है? जो पहले से उपस्थित हो लेकिन उसकी जानकारी न हो और उसकी जानकारी हमें किसी साधन से हो जाय तो उसे 'खोज' कहते हैं। जो पहले से उपस्थित नहीं है लेकिन पहले से उपस्थित साधनों द्वारा जिसे बनाया जाय उसे 'रचना' कहते हैं। समय कोई मोटरकार या रेलगाड़ी नहीं है जो किसी रेखा में या वर्तुल में चलेगा। समय की कोई खोज नहीं की गई बल्कि इसे तो मनुष्य ने अपनी सुविधानुसार परिभाषित किया है जो आइंसटाइन के 'सापेक्षता के सिद्धांत' पर आधारित है। एक तरह से कह सकते हैं कि विज्ञान के बहुत से प्रश्नों के हल के लिए, समय को बनाया गया है रचा गया है। ब्रह्माण्ड में समय, आकार और गति की परिभाषा करने के लिए जो नियम और वैज्ञानिक-तथ्य इस्तेमाल किए गए हैं, वे निश्चित रूप से अपूर्ण ही हैं लेकिन फिर भी हम समय को परिभाषित तो करते ही हैं। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि समय की परिभाषा विज्ञान के पास न होने का अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि हम धर्म ग्रंथों को खंगालना प्रारम्भ कर दें और किसी अव्यावहारिक से नतीजे से संतुष्ट हो कर बैठ जाएँ।
        धर्म-ग्रंथों में युगों का चक्रीय सिद्धांत समय की वर्तुल चाल वाली सोच पर आधारित है। मनुष्य का बार-बार जन्म लेना और विभिन्न योनियों को भोगना भी इसी सिद्धांत को दर्शाता है। जो युग बीत गया वह फिर आएगा, अगले जन्म में कर्मों का फल मिलेगा, ईश्वर के अंश वाले अवतार फिर होंगे आदि। ये बातें किसी संन्यासी के लिए तो ठीक हैं लेकिन प्रगति और विकास के पथ पर जाने वाले नागरिकों और देश के लिए इनका कोई अर्थ नहीं है।
        अपने देश, संस्कृति, धर्म, जाति की सकारात्मक विकासवादी संरचना पर तो सभी को गर्व करना चाहिए लेकिन आने वाले कल को फलित-ज्योतिष के पन्नों में और गुज़रे हुए कल को धार्मिक ग्रंथों में तलाशने के बजाय गुज़रे हुए कल को इतिहास के पन्नों में और आने वाले कल को विज्ञान की पुस्तकों में तलाशना ही भारत को और भारतवासियों को प्रगति पथ पर ले जाएगा।

इस बार इतना ही... अगली बार कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक


अपना भी कोई ख़ाब हो -आदित्य चौधरी

 
इस ज़िन्दगी की दौड़ में, अपना भी कोई ख़ाब हो
अलसाई सी सुबह कोई, शरमाया आफ़ताब हो

वादों की किसी शाम से, सहमी सी किसी रात में
इज़हार के गीतों को गुनगुनाती, इक किताब हो

छूने के महज़ ख़ौफ़ से, सिहरन भरे ख़याल में
धड़कन के हर सवाल का, साँसों भरा जवाब हो

मिलना हो यूँ निगाह का, पलकों के किसी कोर से
ज़ुल्फ़ों की तिरे साये में, लम्हों का इंतिख़ाब हो

फ़ुरसत की दोपहर कोई, गुमसुम से किसी बाग़ में
मैं देखता रहूँ तुझे और वक़्त बेहिसाब हो

टीका टिप्पणी और संदर्भ