लीपज़िंग विश्वविद्यालय में हिन्दी -डॉ. मार्गेट गात्स्लाफ़

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है भारतकोश का नहीं।
लेखक- डॉ. (श्रीमती) मार्गेट गात्स्लाफ़

          19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से लीपज़िग विश्वविद्यालय प्राच्य विद्या को प्रोत्साहन देता आ रहा है और इस क्षेत्र में बड़ा ही सटीक अनुसंधान कार्य करता आ रहा है। उदाहरण के लिए हर्मन ब्रॉक हॉस (1806-1857), अर्नेस्ट विंडिश (1844-1919), जॉहेन्स हर्टल (1872-1955) और फ्रीडरिच बेलर (1889-1980) जैस विद्वानों ने लीपज़िग विश्वविद्यालय में काम किया और इसे प्राच्य विद्या का विश्वविख्यात केन्द्र बनाने में सहायता दी। विश्व के सर्वाधिक विख्यात प्राच्य विद्या विशेषज्ञ मैक्समूलर ने अपने प्रोफेसर हर्मन ब्रॉक हॉस के साथा लीपज़िग विश्वविद्यालय में 1841 में अपना अध्ययन आरंभ किया और यहीं पर उन्होंने अपने व्यापक ज्ञान का भंडार अर्जित किया और इसके बाद वे अपने अध्ययन को जारी रखने के लिए 1844 में पेरिस और उसके बाद बर्नाफ चले गए।
          हर्मन ब्रॉक हॉस को उनकी पत्रिका जेटाशिफ्टि देर हयूशेन मार्गेन हैंडीशेन गेसल शेफ्ट (जर्नल ऑफ जर्मन ओरियंटल सोसाइटी) के प्रकाशन के कारण बड़ी ख्याति मिली। उन्होंने देवनागरी वर्णमाला का लैटिन लिप्यंकन किया जो आज भी प्रयोग लाया जाता है। अर्नेस्ट विंडिश विशेषत: तुलनात्मक भाषा विज्ञान के क्षेत्र में सक्रिय रहे और उन्होंने वैदिकोत्तर साहित्य पर कार्य किया। जॉहेक्स हर्टल भारतीय परियों की कहानियों के संग्रह, हितोपदेश और पंचतंत्र से संबंधित कार्यों के कारण प्रसिद्ध हुए। हर्टल ऐसे पहले व्यक्ति थे, जो आधुनिक भारतीय भाषाओं को जानते थे और इनमें भी वे सबसे अधिक गुजराती जानते थे और साथ ही हिन्दी और उर्दू जानते थे। फ्रीडरिच वेलर का स्थान बुद्ध धर्म और सर्वाधिक सक्षम विशेषज्ञों में आता है और उन्होंने इस क्षेत्र में अपने मौलिक और तुलनात्मक कार्य के कारण बड़ी ख्याति अर्जित की। उन्होंने लीपज़िग विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाने का श्रीगणेश किया। इस कार्य में इन्हें प्रसिद्ध भारतीय विद्वान शांति भिक्षु शास्त्री ने सहायता की। शास्त्री जी ने लीपज़िग विश्वविद्यालय में 1956-1958 तक कार्य किया और हिन्दी भाषा में विद्यार्थियों को सबसे पहले प्रशिक्षण दिया। इन्होंने ‘रेव बुनेन देस ठाकुर‘’ (ठाकुर का कुआँ, लीपज़िग 1962) नामक भारतीय लघु कहानियों के एक खंड का संपादन किया।
          1960 के बाद लीपज़िग कार्लमार्क्स विश्विद्यालय (1955 में यह नाम पड़ा) में युवा विद्वानों ने बुर्जुआ जर्मन प्राच्य विद्या की प्रगतिवादी परंपराओं का जारी रखते हुए आधुनिक समय की अपेक्षाओं को पूरा करने की दिशा में सक्रिय रूप से कार्य किया। यह नवीन मार्गदर्शन इस जानकारी पर आधारित है कि जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य के साथ मित्रतापूर्ण संबंधों के लिए यह आवश्यक है कि जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य को सभी समस्याओं की व्यापक जानकारी हो, जिससे पारस्परिक संबंध दोनों देशों के लिए अधिक से अधिक लाभकारी हो। अत: पुराने भारतीय भाषाविज्ञान के क्षेत्र में पारंपरिक अनुसंधान कार्य करने के अलावा, भारत के आधुनिक और समसामयिक इतिहास, भारतीय भूगोल और उनके अर्थशास्त्र एवं आधुनिक भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य, विशेषत: हिन्दी और उर्दू के साहित्य क्षेत्र में अनुसंधान कार्य करने की दिशा में विशेष प्रयास किए गए।
          1961 में मार्गेट गात्स्लाफ़ हेलसिग (जन्म 1934) लीपज़िग में कार्लमार्क्स विश्वविद्यालय में हिन्दी के क्षेत्र में सक्रिय हुई। इन्होंने सोवियत संघ में लेनिनग्राद और मास्को विश्वविद्यालयों में प्राच्य विद्या का अध्ययन किया। 1962-64 तक इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में पोस्ट-डिप्लोमा का अध्ययन पूरा किया। बाद में शब्दकोश संबंधी कार्य के लिए भारत गईं। उनके मार्ग-निर्देशन में 1973 तक बहुत से छात्रों को हिन्दी का शिक्षण दिया गया। उसके बाद कार्य-विभाजन संबंधी नए निर्णयों के अनुसार प्राच्य विद्या के उच्च शिक्षा के छात्रों को बर्लिन स्थित हंबोल्ड विश्वविद्यालय में मुख्यतया प्राच्य विद्या की शिक्षा दी जाती है।
          मा. गात्स्लाफ हेलसिग ने पहले लीपज़िग विश्वविद्यालय में हिन्दी व्याकरण और भारत में भाषायी स्थिति पर अनुसंधान कार्य किया। उन्होंने इस क्षेत्र में जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य और भारत के वैज्ञानिक पत्रिकाओं में बहुत से लेख और निबंध लिखे। 1966 में, ‘‘आधुनिक साहित्यिक हिन्दी में ‘हुआ’ संयुक्त कृदंत के प्रकार्य’’ पर शोध प्रबंध लिखकर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की और 1978 में ‘‘स्वतंत्र भारत में हिन्दी के प्रकार्यात्मक विकास की प्रवृत्तियाँ और समस्याएँ’’ पर प्रारंभिक शोध-प्रबंध लिखकर कार्लमार्क्स विश्वविद्यालय से डी.एस.सी की उपाधि प्राप्त की।
          उन्हें कई बार अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय सम्मेलनों और संगोष्ठियों में अपने वैज्ञानिक कार्य के परिणामों और हिन्दी की कतिपय समस्याओं तथा भारत की भाषायी स्थिति के बारे में अपने दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करने का अवसर मिला। उन्होंने भी अन्य विद्वानों के साथ 1975 में भारत में नागपुर में हुए प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लिया और 1976 में मारिशस में मोका में हुए द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लिया। 1981 में उन्होंने ‘‘प्रेमचंद और भारतीय उपन्यास की भारतीयता’’ पर हुए अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग लिया जिसका आयोजन नई दिल्ली की साहित्य अकादमी ने किया था। वह नई दिल्ली में लल्लनप्रसाद व्यास द्वारा संपादित ‘विश्व हिन्दी दर्शन’ नामक भारतीय पत्रिका की परामर्शदात्री समिति की भी सदस्य हैं।
          इसके अतिरिक्त जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य के हिन्दी विद्वान अध्यापन-सामग्री के संपादन का प्रयास करते रहे हैं। इस प्रयास में उन्हें लीपज़िग स्थित पुराने प्रकाशन गृह ‘‘बेब वेरलाग ऐनजीक्लोपेडी’’ का, जिसे पहले ओटो हैरेसोविज के नाम से जाना जाता था, सहयोग प्राप्त होता रहा है। इस प्रकाशन गृह ने पहले ही 1945 में हिन्दुस्तानी भाषा पर एक पाठ्यपुस्तक प्रकाशित की थी, जिसका संकलन ओटो स्पाइज ने किया था। हिन्दी पर इस प्रकाशन गृह द्वारा संपादित निम्नलिखित अध्यापन-सामग्री उपलब्ध है:

  1. 29 वीं शताब्दी के हिन्दी गद्य की उद्धरणिका, दगमर अंसादी द्वारा संशोधित तथा संपादित, लीपज़िग 1967, पृष्ठ 221;
  2. हिन्दी व्याकरण गाइड, लेखिका: मार्गेट गात्स्लाफ हेलसिग, लीपज़िग, 1967, 1978, 1983, पृष्ठ 197;
  3. हिन्दी– जर्मन कोश, लेखक: एरिका क्लेम, लीपज़िग 1971, पृष्ठ 418 (लगभग 12 हजार संदर्भ शब्द);
  4. जर्मन-हिन्दी कोश: लेखक: मार्गेट गात्स्लाफ हेलसिग, लीपज़िग, 1977, 1982 पृष्ठ 646 (लगभग 16 हजार संदर्भ शब्द);
  5. जर्मन-हिन्दी वार्तालाप पुस्तक, ले० दगमर मारकोपा–अंसारी तथा एम. अहमद अंसारी, लीपज़िग, 1981, पृष्ठ 266;

          नवीनतम प्रकाशन जॉर्गज ए. जो ग्राफ द्वारा लिखित ‘‘दक्षिण एशिया की भाषाएँ’’ नामक भाषायी सर्वेक्षण का रूसी भाषा से जर्मन भाषा में किए गए अनुवाद का प्रकाशन है, जो 1982 में लीपज़िग से प्रकाशित हुआ और जिसमें 167 पृष्ठ हैं। इसका अनुवाद एरिका क्लेम ने किया है।
          1963-1968 तक इरेने विटिग जाहरा (जन्म 1927) ने लीपज़िग कार्लमार्क्स विश्वविद्यालय में आधुनिक हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में काम किया। उनके विशेष अध्ययन का विषय सुमित्रानंदन पंत का गीतिकाव्य था और इस पर ही उन्होंने शोधप्रबंध लिखा तथा 1967 में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। एम. गात्स्लाफ में हेलसिग ने आधुनिक हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में भी काम किया। अब तक उन्होंने यशपाल, प्रेमचंद, कृशन चन्दर और कुल भूषण की कुछ लघु कहानियों का हिन्दी से जर्मन में अनुवाद किया जो जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ। इसके अतिरिक्त उन्होंने प्रेपचंद का ‘‘निर्मला’’ (लीपज़िग, 1976), भीष्म साहनी का ‘‘बसंती’’ (प्रकाशनाधीन) और ‘‘मारिशस की भारतीय लोक कथाएँ’’ (लीपज़िग, 1979) का भी हिन्दी से जर्मन भाषा में अनुवाद किया। ये तीनों पुस्तकें फिलिप रैक्लेम जन, प्रकाशन गृह ने प्रकाशित की हैं।
          1973 में एक नए प्रयत्न का सूत्रपात हुआ, जो प्राच्य विद्या के विकास में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य और भारत के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम के अंतर्गत बर्लिन स्थित हबोल्ट विश्वविद्यालय और नई दिल्ली स्थित केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, जिसमें पारस्परिक सहयोग से एक ऐसे कोश के संकलन की व्यवस्था है, जिसमें (हबोल्ट विश्वविद्यालय के दायित्व के अधीन) ‘‘हिन्दी-जर्मन’’ और केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय के दायित्व के अधीन) ‘‘जर्मन-हिन्दी’’ के खंड होंगे। इन खंडों में लगभग 45 हजार संदर्भ-शब्द होंगे। इन खंडों का कार्य जल्दी ही पूरा हो जाएगा। यह कोश परियोजना अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का ही नहीं अपितु राष्ट्रीय सहयोग का भी एक अच्छा उदाहरण है। हम्बोल्ट विश्वविद्यालय, लीपज़िग कार्लमार्क्स विश्वविद्यालय तथा लीपज़िग स्थित एनजीक्लोपेडिया प्रकाशन-गृह से हिन्दी के विद्वान शामिल किए गए हैं।
          इस प्रकार कार्लमार्क्स विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या विशेषज्ञ भारत में ही नहीं अपितु विश्व भर में एक महत्वपूर्ण भाषा के रूप में हिन्दी के अध्ययन एवं प्रचार के कार्य में संलग्न है और इस प्रकार वे जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य और भारतीय गणराज्य के बीच मैत्रीपूर्ण संबधों को व्यापक एवं सुदृढ़ बनाने की दृष्टि से सहायता कर रहे हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन 1983
क्रमांक लेख का नाम लेखक
हिन्दी और सामासिक संस्कृति
1. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. कर्ण राजशेषगिरि राव
2. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति प्रो. केसरीकुमार
3. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर
4. हिन्दी की सामासिक एवं सांस्कृतिक एकता डॉ. जगदीश गुप्त
5. राजभाषा: कार्याचरण और सामासिक संस्कृति डॉ. एन.एस. दक्षिणामूर्ति
6. हिन्दी की अखिल भारतीयता का इतिहास प्रो. दिनेश्वर प्रसाद
7. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति डॉ. मुंशीराम शर्मा
8. भारतीय व्यक्तित्व के संश्लेष की भाषा डॉ. रघुवंश
9. देश की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति में हिन्दी का योगदान डॉ. राजकिशोर पांडेय
10. सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया और हिन्दी साहित्य श्री राजेश्वर गंगवार
11. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति के तत्त्व डॉ. शिवनंदन प्रसाद
12. हिन्दी:सामासिक संस्कृति की संवाहिका श्री शिवसागर मिश्र
13. भारत की सामासिक संस्कृृति और हिन्दी का विकास डॉ. हरदेव बाहरी
हिन्दी का विकासशील स्वरूप
14. हिन्दी का विकासशील स्वरूप डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित
15. हिन्दी के विकास में भोजपुरी का योगदान डॉ. उदयनारायण तिवारी
16. हिन्दी का विकासशील स्वरूप (शब्दावली के संदर्भ में) डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया
17. मानक भाषा की संकल्पना और हिन्दी डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी
18. राजभाषा के रूप में हिन्दी का विकास, महत्त्व तथा प्रकाश की दिशाएँ श्री जयनारायण तिवारी
19. सांस्कृतिक भाषा के रूप में हिन्दी का विकास डॉ. त्रिलोचन पांडेय
20. हिन्दी का सरलीकरण आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा
21. प्रशासनिक हिन्दी का विकास डॉ. नारायणदत्त पालीवाल
22. जन की विकासशील भाषा हिन्दी श्री भागवत झा आज़ाद
23. भारत की भाषिक एकता: परंपरा और हिन्दी प्रो. माणिक गोविंद चतुर्वेदी
24. हिन्दी भाषा और राष्ट्रीय एकीकरण प्रो. रविन्द्रनाथ श्रीवास्तव
25. हिन्दी की संवैधानिक स्थिति और उसका विकासशील स्वरूप प्रो. विजयेन्द्र स्नातक
देवनागरी लिपि की भूमिका
26. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी श्री जीवन नायक
27. देवनागरी प्रो. देवीशंकर द्विवेदी
28. हिन्दी में लेखन संबंधी एकरूपता की समस्या प्रो. प. बा. जैन
29. देवनागरी लिपि की भूमिका डॉ. बाबूराम सक्सेना
30. देवनागरी लिपि (कश्मीरी भाषा के संदर्भ में) डॉ. मोहनलाल सर
31. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी लिपि पं. रामेश्वरदयाल दुबे
विदेशों में हिन्दी
32. विश्व की हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ डॉ. कामता कमलेश
33. विदेशों में हिन्दी:प्रचार-प्रसार और स्थिति के कुछ पहलू प्रो. प्रेमस्वरूप गुप्त
34. हिन्दी का एक अपनाया-सा क्षेत्र: संयुक्त राज्य डॉ. आर. एस. मेग्रेगर
35. हिन्दी भाषा की भूमिका : विश्व के संदर्भ में श्री राजेन्द्र अवस्थी
36. मारिशस का हिन्दी साहित्य डॉ. लता
37. हिन्दी की भावी अंतर्राष्ट्रीय भूमिका डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा
38. अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में हिन्दी प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद
39. नेपाल में हिन्दी और हिन्दी साहित्य श्री सूर्यनाथ गोप
विविधा
40. तुलनात्मक भारतीय साहित्य एवं पद्धति विज्ञान का प्रश्न डॉ. इंद्रनाथ चौधुरी
41. भारत की भाषा समस्या और हिन्दी डॉ. कुमार विमल
42. भारत की राजभाषा नीति श्री कृष्णकुमार श्रीवास्तव
43. विदेश दूरसंचार सेवा श्री के.सी. कटियार
44. कश्मीर में हिन्दी : स्थिति और संभावनाएँ प्रो. चमनलाल सप्रू
45. भारत की राजभाषा नीति और उसका कार्यान्वयन श्री देवेंद्रचरण मिश्र
46. भाषायी समस्या : एक राष्ट्रीय समाधान श्री नर्मदेश्वर चतुर्वेदी
47. संस्कृत-हिन्दी काव्यशास्त्र में उपमा की सर्वालंकारबीजता का विचार डॉ. महेन्द्र मधुकर
48. द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन : निर्णय और क्रियान्वयन श्री राजमणि तिवारी
49. विश्व की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का स्थान डॉ. रामजीलाल जांगिड
50. भारतीय आदिवासियों की मातृभाषा तथा हिन्दी से इनका सामीप्य डॉ. लक्ष्मणप्रसाद सिन्हा
51. मैं लेखक नहीं हूँ श्री विमल मित्र
52. लोकज्ञता सर्वज्ञता (लोकवार्त्ता विज्ञान के संदर्भ में) डॉ. हरद्वारीलाल शर्मा
53. देश की एकता का मूल: हमारी राष्ट्रभाषा श्री क्षेमचंद ‘सुमन’
विदेशी संदर्भ
54. मारिशस: सागर के पार लघु भारत श्री एस. भुवनेश्वर
55. अमरीका में हिन्दी -डॉ. केरीन शोमर
56. लीपज़िंग विश्वविद्यालय में हिन्दी डॉ. (श्रीमती) मार्गेट गात्स्लाफ़
57. जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी डॉ. लोठार लुत्से
58. सूरीनाम देश और हिन्दी श्री सूर्यप्रसाद बीरे
59. हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य श्री बच्चूप्रसाद सिंह
स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
61. राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा श्री शंकरराव लोंढे
सम्मेलन संदर्भ
62. प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ श्री मधुकरराव चौधरी
स्मृति-श्रद्धांजलि
63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे