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यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है भारतकोश का नहीं।
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- लेखक- लक्ष्मणप्रसाद सिन्हा
सरल, निश्च्छल और आडंबहीन नागरिक के रूप में भारत के आदिवासी रामायण-महाभारत काल से ही अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। प्रकृति से उनका तादात्म्य संबंध रहा है जिसके परिणामस्वरूप उनकी संगीतमय नैसर्गिक बोली ऐसी प्रतीत होती है, जैसे बाँसुरी बज रही हो। देश के विभिन्न भाग में फैले आदिवासियों में सामाजिक और सांस्कृतिक एकरूपता मिलती है। यह दुर्भाग्य का विषय है कि अपने देश में आदिवासियों का निरंतर शोषण हो रहा है। इसका प्रमुख कारण है उनके प्रति उपेक्षाभाव। इसके अतिरिक्त देश के सामंतवादी पृष्ठभूमि तथा जाति-पाँति के भेदभाव भी आदिवासी-शोषण के लिए बहुत अधिक उत्तरदायी है। भारतवर्ष में आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से आदिवासियों का शोषण तो हुआ ही है, वे सांस्कृतिक शोषण के शिकार रहे हैं। उनकी अपनी मातृभाषा रही है, जो शनै: शनै: लुप्त होती जा रही है। आदिवासी जब बोलते हैं, तो उनसे संगीतमयी ध्वनि निकलती है।
भारत के आदिवासियों में प्रचलित आदिवासी भाषाएँ दो भाषा-परिवार के अन्तर्गत वर्गीकृत की गई हैं- आस्ट्रो एशियाटिक (आग्नेय) भाषा परिवार तथा, द्रविड़ भाषापरिवार। आस्ट्रो एशियाटिक भाषा-परिवार की मुंडा शाखा के अन्तर्गत तीन महत्वपूर्ण भाषाएँ हैं- ‘संताली’, ‘हो’ तथा ‘मुंडारी’। इसी प्रकार द्रविड़ भाषा की उत्तरी द्रविड़ शाखा के अन्तर्गत महत्वपूर्ण भाषा ‘कुरुख’ है जो भारतीय आदिवासियों के बीच अत्यधिक लोकप्रिय है।
‘संताली’, ‘हो’ या ‘मुंडारी’ चूँकि एक ही भाषा-परिवार से व्यत्पन्न हैं, इसलिए उनकी रूपरचना में बहुत कुछ साम्य स्वाभाविक है। वैसे विरोहर, भूमिज, तुरी और असुरी आदि इस परिवार की गौण बोलियाँ हैं। सर जॉर्ज ग्रियर्सन के अनुसार संताल, हो, मुंडा, भूमिज, विरोहर आदि आदिवासियों के पूर्वज खरवार कहे जाते हैं। आज खरवार छोटानागपुर के गृहस्थ हैं, जिनकी जीविका का साधन कृषिकार्य है। चूँकि मुंडा दक्षिण से होते हुए उत्तर भारत में आ बसे हैं, इसलिय आर्यभाषाओं से पारस्परिक संपर्क के कारण इनमें हिन्दी के बहुतेरे शब्द आ गए हैं।
संताली
मुंडा-परिवार की भाषाओं में संताली बहुत ही लोकप्रिय भाषा है। इसे संथाली भी कहा जाता है। प्राय: 500 किलोमीटर क्षेत्र में बसे मुंडा आदिवासियों में 57 प्रतिशत लोग संताली बोलते हैं। 1971 की जनगणना के अनुसार संताली भाषा-भाषियों की संस्था 36,93,558 है। भारत में संताल आदिवासी एक बड़े भूभाग में बसे हैं। सर्वेक्षण से यह ज्ञात होता है कि उत्तर में इसकी सीमा रेखा गंगा नदी है तथा दक्षिण में वैतरणी नदी। फिर भी प्रमुख रूप से ये बिहार के संताल परगना ज़िले में ही बसे हैं। छुटपुछ रूप से ये बिहार के भागलपुर, मुंगेर, सिंहभूम, बंगाल के बर्दमान, बांकुड़ा, मिदनापुर तथा आसाम के जलपाइगुड़ी में भी जा बसे हैं। संताली में हिन्दी के चार-चार परंपरित कंठ्य, तालव्य, मूर्धन्य, दंत्य तथा ओष्ठ्य वर्णों का प्रचलन है और प्रत्येक वर्ण के अंत में अनुनासिक व्यंजन मिलता है। साथ ही, हिन्दी के समान वर्णों का क्रम भी अल्पप्राण के बाद महाप्राण है अर्थात् प्रत्येक वर्ग के वर्ण न तो लगातार महाप्राण हो सकते हैं और नही अल्पप्राण ही। चूँकि संताली भाषा-भाषी आज बिहार, बंगाल और आसाम के विभिन्न क्षेत्रों में बसे हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से परस्पर सांस्कृतिक संपर्क के कारण संतालों ने कार्यभाषा के बहुतेरे शब्दों को अपना लिया है। इसीलिए हिन्दी का तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशी शब्दों के यथातथ्य रूप संताली में मुक्त रूप से प्रचलित है। ऐसे शब्दों की संख्या तो बहुत है, किंतु साम्य-दिग्दर्शन हेतु कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
तत्सम
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ईश्वर, आरसी, ऋषि, कथा, खंड, तुला, तेज, दया, गुरू, विष आदि।
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तद्भव
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आधा, उपास, ओदा, ऊँट, कर्जा, घोड़ा, मुती, आचार, विचार, भितरी आदि।
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देशज
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आलू, काबू, चाभी, लोटा, घानी आदि।
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विदेशी
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आमदनी, इंजिन, इंसाफ, इनाम, एलान, कायदा, कारखाना, क़िस्सा , खुशामद, तारीख, मतलब आदि।
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संताली भाषा में ऐसे शब्द भी प्रचलित हैं जिनका प्रचलन तो हिन्दी भाषा में नहीं है, किंतु विकल्प से उनसे ध्वनिगत समान शब्द हिन्दी भाषा वर्तमान है। वस्तुत: मूल रूप से ऐसे शब्द संताली से हिन्दी में आए हैं और स्वतंत्र रूप से मुंडा भाषा-परिवार में विकसित होने के कारण आज ध्वन्यात्मक रूप से ये हिन्दी से भिन्न प्रतीत हो रहे हैं। भाषा की परिवर्तनशीलता की तुला पर हिन्दी और संताली के रूप-भेद का दिशा-निर्देश सहज रूप से सम्भव है-
1. अल्पप्राण – महाप्राण
अल्पप्राण से महाप्राण
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हिन्दी
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संताली
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ऊँट
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ऊँठ
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तम्बाकू
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तंमासुर
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तरबूज
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तारभुज
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महाप्राण से अल्पप्राण
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ढिबरी
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डिबरी
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फल
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पाल
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हाथी
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हाती
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दुख
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दुक
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2. घोष - अघोष
अघोष से घोष
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हिन्दी
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संताली
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जुटाना
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जुड़ाव
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शुक्रतारा
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भुरका
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सस्ता
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साहता
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मस्जिद
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महजिद
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घोष से अघोष
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अवसर
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अपसर
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दिमाग
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दिमाक
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जुलान
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जुलाप
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नारियल
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नारकोड़
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बालिग
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बालोक
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3. आगम (स्वर)
आदि
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हिन्दी
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संताली
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अपमान
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औपमान
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अमीन
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आमीन
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खजूर
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खिजूर
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जटा
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जाटा
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वारिस
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ओवारिस
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मध्य
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उमर
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उमेर
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टुअर
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टुआर
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उलट
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उलाट
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तुरत
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तुरान्त
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कारण
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कारोम
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अंत
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इंच
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इंची
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ताड़
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ताड़े
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चाँद
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चांदी
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3. आगम (व्यंजन)
मध्य
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हिन्दी
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संताली
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कैंची
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कापची
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केला
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कापरा
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चुनौटी
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चुनायटी
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छिलका
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चोकलाक
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अन्त
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चूड़ी
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चुरली
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छाता
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छातार
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थैली
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थैलार
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साढू
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साड़गे
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भादो
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भादोर
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4. लोप (स्वर)
आदि
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हिन्दी
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संताली
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उधार
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धार
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आंदोलन
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अंदोलन
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अरहर
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रोहड़
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अन्त
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टिकुली
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टिकुल
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मिरचाई
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मरिच
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4. लोप (व्यंजन)
आदि
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हिन्दी
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संताली
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स्टेशन
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टिसान
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श्मशान
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मसान
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मध्य
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कोयल
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कोल
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किफायत
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किफात
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सावन
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सान
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मध्य
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चाय
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चा
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बटेर
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बाटा
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5. विपर्यय
हिन्दी
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संताली
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रूमाल
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उरमाल
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कहानी
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काहनी
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अखाड़ा
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आखड़ा
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बयाना
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बायना
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6. पार्श्विक ध्वनि का लुंठित ध्वनि में परिवर्तन
हिन्दी
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संताली
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अंचल
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आँचार
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काजल
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काजार
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तालु
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तारू
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तुलसी
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तुरसी
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तलवार
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तारवाड़ी
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7. लुंठित का पार्श्विक ध्वनि में परिवर्तन
हिन्दी
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संताली
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कारीगर
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कारीगोल
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पत्थर
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पत्थल
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मन्दिर
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मन्दिल
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8. अनुनासिक का पार्श्विक ध्वनि में परिवर्तन
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नींबू
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लेम्बो
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नालिश
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लालिस
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नुकसान
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लोकसान
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नोटिस
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लुटिस
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संताली अपने क्षेत्र-विशेष में प्रचलित हिन्दी की विभाषाओं से विशेष रूप से प्रभावित रही है। इस प्रकार बिहार में इस बिहारी विभाषा का प्रभाव स्पष्ट है। रस्सा, दिवाली, बर्त्तन, कसम, हिस्सा, अच्छा आदि जैसे सैंकड़ों शब्द के विकल्प रूप में बिहारी विभाषा में जो शब्द प्रचलित हैं, उनसे संताली की समता है-
हिन्दी
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संताली
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बिहारी
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रस्सा
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बाराही
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बरहा
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दिवाली
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सोहराय
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सोहराइ
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बर्त्तन
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खण्डा
|
खण्डा
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कसम
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किरिया
|
किरिया
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हिस्सा
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बाखरा
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बखरा
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अच्छा
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बेस
|
बेस
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जीविका की खोज में मुंडा आदिवासी बंगाल और आसाम के विभिन्न भागों में जा बसे हैं। आसाम के जलपाईगुड़ी में बहुत बड़ी संख्या में मुंडा आदिवासी कुली के रूप में प्रतिनियोजित हैं। इसलिए संताली शब्दों पर बंगला और असमिया का प्रभाव भी स्वाभाविक रूप से परिलक्षित है। इसका, प्रमाण है- ‘अ’ की वर्तुलाकार ध्वनि। चूँकि यह वर्तुलाकार उच्चारण संताली भाषा की मौलिक नहीं, अनुकरण पर आधारित है, इसलिए इस भाषा की लिपि में भी ‘अ’ की ओकार ध्वनि से निर्मित शब्द मुक्त रूप से प्रचलित हो गए हैं।यथा -
हिन्दी
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लिखित बंगला
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उच्चरित बंगला
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संताली
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अन्तर्मन
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अन्तर्मन
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ओन्तोरमोन
|
ओन्तोरमोन
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जलपान
|
जलपान
|
जोलपान
|
जोलपान
|
जंतर
|
जंतर
|
जोन्तोर
|
जोन्तोर
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जंजाल
|
जंजाल
|
जोंजोल
|
जोंजोल
|
कष्ट
|
कष्ट
|
कोष्टो
|
कोष्टो
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संताली के वाक्य-विन्यास भी हिन्दी और इसकी विभाषाओं के इतने निकट हैं कि बड़े साधारण प्रयास से उन्हें समझा जा सकता है। कुछ वाक्यों से इस कथन की पुष्टि हो जाती है।
संताली
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हिन्दी
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जान्तेरे दाल को रीदा
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जाँते में दाल पीसी जाती है।
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बंगाली आसोकायते हाकोकी जाम कोआ
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बंगाली विशेष रूप से मछली खाते हैं।
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ढाक वासाड़ एना, चावले खादले में
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पानी गरम हो गया, चावल डालो
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इस प्रकार संताली में प्रचलित शब्दों, उनकी रूपरचना, वाक्य-विन्यास का भाषावैज्ञानिक विश्लेषण करने पर यह बात सर्वथा स्पष्ट हो जाती है कि संताल आदिवासी आर्यभाषा संस्कृति में इतने अधिक घुलमिल गए हैं कि दोनों भाषाओं में पार्थक्य की अपेक्षा मैलिक समता की मात्रा बहुत अधिक है।
मुंडारी
मुंडा परिवार में संताली, हो, कोरकू, खड़िया, भूमिज आदि कई प्रमुख भाषाएँ हैं किंतु अपनी जननी का नाम मुंडारी ही उत्तराधिकार के रूप में पा सकी है। मुंडारी का, प्रचलन बिहार के राँची ज़िले के दक्षिणी-पश्चिमी भाग में है। वैसे, हजारीबाग के पूर्वी भाग तथा पलामू ज़िले में भी मुंडारी बोली जाती है। उल्लेखनीय बात यह है कि राँची ज़िले के दक्षिणी भाग में ‘हो’ भाषा के समानांतर विकसित होती हुई दक्षिण-पश्चिम में मुंडारी भाषा उड़ीसा के बामरा तथा संबलपुर तक चली गई है। इसकी दूसरी शाखा राँची ज़िले के उत्तरी भाग अर्थात् पालमू होते हुए मध्यप्रदेश के अंबिकापुर तक पहुँच गई है। नियोजन की खोज में मुंडा आदिवासी बंगाल के चौबीस परगना तथा आसाम के जलपाइगुड़ी चायबागान तक जा बसे हैं। 1971 की जनगणना के अनुसार मुंडारी भाषा-भाषियों की संख्या 770916 है।
संताली के समान मुंडारी भाषा के शब्दों में भी हिन्दी से बहुत अधिक समता है। हिन्दी से प्रचलित देशज और विदेशी शब्द मुंडारी में भरे ही हैं। साथ ही, कदल, कुटुंब, गुरु, तुला, तुंबा, दया, दर्पण और दिन जैसे तत्सम शब्दों का भी मुंडारी में मुक्त प्रचलन है। लोटा, करछुल, ढकना, ढेला जैसे देशज तथा कलम, तलब, नकलनबीस, मेज, मोजा आदि विदेशी शब्दों से यह स्पष्ट पता चलता है कि सांस्कृतिक दृष्टि से दोनों भाषाएँ एक दूसरे के समीप हैं। यदि कुछ भिन्नता दिखाई पड़ती है तो उसके कारण हैं – स्थानगत भेद तथा भिन्न वंश-परंपरा में भाषा का विकास। मुंडारी की बात कौन कहे, स्वयं हिन्दी की विभाषाओं में ऐसे कई शब्द विकसित हुए हैं जिनकी अपनी मूलभाषा के साथ कोई ध्वन्यात्मक समता प्रतीत नहीं होती, किंतु आश्चर्य का विषय यह है कि अपनी विभाषा के साथ हिन्दी की शब्दसमता का भ्रम भले ही उत्पन्न हो, अपनी समीपवर्ती मुंडारी भाषा से उनका प्रत्यक्ष साम्य है। ध्वनि और अर्थ की दृष्टि से हिन्दी की बिहारी विभाषा और मुंडारी भाषा में ऐसे बहुतेरे समानार्थी शब्द प्रचलित हैं:
हिन्दी
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मुंडारी
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बिहारी
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बुद्धि
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अकिल
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अक्किल
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ईख
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कताउरी
|
केतारी
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बहू
|
कोनया
|
कनया
|
अमरूद
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टम्बरस
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तामड़स
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उपर्युक्त उदाहरणों में बुद्धि, ईख, बहू, अमरूद के साथ मुंडारी के क्रमश: अकिल, कताउरी, कोनिया, टम्बरस, मे कोई ध्वन्यात्मक नहीं है किंतु ये शब्द बिहारी विभाषा के क्रमश: अक्किल, केतारी, कनया तथा तामड़स से भिन्न प्रतीत नहीं होते। ऐसे उदाहरण विशेषण और क्रिया सहित अन्य पदविभागों में भी मिल सकते हैं:
हिन्दी
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मुंडारी
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बिहारी
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चौड़ा
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चकर
|
चाकर
|
मजबूत
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जबर
|
जबड़
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उसीनना (उबालना), कोनाना (ध्यान से सुनना) तथा हिगारना (अलग करना) आदि क्रियाएँ बिहारी और मुंडारी में समान अर्थ का दुयोतन करती हैं। मुंडारी में प्रचलित कका (काका), जति (जाति), डलि (डाली), नता (नाता), कमची (कमाची), कहनी (कहानी), असल (असली), औसार (ओसरा), गदा (गद्दा), मचा (मचान), मुगर (मुद्गर) आदि लोप तथा टुपरी (टोपी), सबूती (सबूत) सिंदुरी (सिंदूर), हंसा (हंस) आदि रूप आगम से स्पष्ट होकर यह सिद्ध करते हैं कि विकासक्रम में इनमें स्वल्प भेद भले आ गया हो, मूलत: ये शब्द हिन्दी के सन्निकट है। हिन्दी का ‘गाजर’ विपर्यय के द्वारा मुंडारी में ‘गजरा’ हो जाता है। ‘चाय’ का वैकल्पिक रूप बिहारी विभाषा मे ‘चाह’ है। मुंडारी में इसका रूप ‘चहा’ है जो स्पष्टत: ‘चाह’ का विपर्यय है। घोष, अघोष, महाप्राणीकरण तथा अल्पप्राणीकरण के कारण हिन्दी और मुंडारी भाषा में भिन्नता प्रतीत होती है। उदाहरणार्थ, अघोष वर्ण ‘प’ ‘ब’ में परिवर्तित होकर हिन्दी का ‘पपीता’ मुंडारी में ‘पबीता’ बन जाता है। इसी प्रकार ‘तरा-मरा’ ‘बतर’ और ‘सुकरी’ हिन्दी के लिए सर्वथा नए शब्द प्रतीत होते हैं। वस्तुत: ये क्रमश: ‘जरा-मरा’ ‘भीतर’ और ‘सुअर’ के परिवर्तित रूप हैं, जिनमें घोष वर्ण अघोष में परिवर्तित हो गए हैं। इसी प्रकार मुंडारी शब्द कस्सी (खस्सी), डिबरी (ढिबरी), उदार (उधार), अदिका (अधिक), पुकरी (पौखरी), बेटेकान (बेठकान), दुकु (दुख) हिन्दी के महाप्राण वर्ण से अल्पप्राणीकरण के उदाहरण हैं।
मुंडारी भाषाभाषियों की एक शाखा जीविका की खोज में बंगाल और आसाम की ओर गई और वहीं बस गई। परिणामस्वरूप आधुनिक भारतीय आर्यभाषा – बंगला और असमिया के शब्द भी मुंडारी भाषा में मुक्त रूप से प्रचलित हो गए हैं। यथा-एकला (अकेला), एमन (ऐसा), गुलि (गोली), तोवे (तब) तथा मोटो (मोटा) आदि।
हो
बिहार के सिंहभूम ज़िले तथा उड़ीसा के राउरकेला, वारीपदा और मयूरभंज में मुंडा परिवार के आदिवासी, जो भाषा बोलते हैं उसे ‘हो’ कहा जाता है। 1971 की जनगणना के अनुसार ‘हो’ भाषा-भाषियों की संख्या 749793 है। ‘हो’ शब्द की व्यत्पत्ति मुंडा परिवार की संताली भाषा के ‘होड़’ शब्द से हुई है। होड़ का अर्थ है – आदमी। अन्तिम वर्ण के लोप से ‘हो’ शब्द बना है। ‘हो’ भाषाभाषी यह मानते हैं कि वे वीर कोल की संतान है जिन्हें ‘लड़ाका कोल’ कहा जाता था। इतिहास से यह ज्ञात होता है कि ये कोल बड़े योद्धा थे। जब भी इन पर बाहरी आक्रमण हुआ तो अपनी भूमि से आक्रमणकारियों को इन्होंने भगाकर ही दम लिया।
वैसे तो इसी क्षेत्र में ‘हो’ भाषा के समानांतर मुंडारी भाषा भी प्रचलित है, किन्तु ‘हो’ सिंहभूम ज़िले की प्रधान भाषा है। चूँकि सिंहभूम भी हिन्दी-भाषी क्षेत्र है, इसलिए हिन्दी से मिलते-जुलते शब्द ‘हो’ भाषा में भी समान रूप से व्यवहृत है। गृहस्थी की सामग्री लें तो चाभी, थैली, ओल, धनिया, जीरा, अमरूद आदि शब्द दोनों ही भाषाओं में समान रूप से प्रचलित हैं। व्यवसायी, सोनार, असुर आदि शब्दों में कहीं कोई भेद नहीं। कहीं कुछ भेद है भी, तो यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि ऐसे परिवर्तित रूप ध्वनि-परिवर्तन के प्रतिफलन हैं। इस दृष्टि से ‘हो’ भाषा में प्रचलित गाई (गाय), गादा (गदहा), गोरूड़ (गरूड़), हाति (हाथी), सुकर (सुअर), रींगुर (झींगुर) आदि शब्द हिन्द में सर्वथा भिन्न नहीं कहे जा सकते। दिन के नाम को लें, तो सोमवार, बुधवार और गुरुवार ‘हो’ भाषा में भी समान रूप से प्रचलित हैं। हाँ रविवार, मंगलवार, शुक्रवार और शनिवार के विकल्प में क्रमश: रूईवार, मोगोड़वार, सुकुरवार और सनिवार का प्रचलन है।
‘हो’ भाषा के सामान्यत: हिन्दी का संघर्षी वर्ण ‘ह’ लुप्त हो जाता है। यथा— कड़ाई (कड़ाही), गदा (गदहा), गोआ (गवाह), दई (दही), सायोब (साहब)। हिन्दी में प्रचलित शब्द के रूप ‘हो’ भाषा में जब ध्वनि-परिवर्तन के नियम से प्रभावित होते हैं तो दोनों भाषाओं के शब्दों में भेद का भ्रम होता है। ‘हो’ में प्रचलित पोशु (पशु), कोमजोर (कमज़ोर), रसी (रस), चावली (चावल), अम्वड़ा (अमड़ा), चातोम (छाता), दिसुम (देश) आदि आगम तथा करला (करैला), सबोन (साबुन), बैंगा (बैंगन) आदि शब्द ध्वनि-परिवर्तन के लोप नियम के प्रभाव से विकसित हैं। इसी प्रकार दोबा (धोबी), गासी (घास), बालु (भालू), हाति (हाथी), मागे (माघ), पुरका (पुरखा) आदि रूप से स्पष्ट होता है कि हिन्दी के महाप्राण वर्ण ‘हो’ में अल्पप्राण बन गए हैं। ‘हो’ भाषा के क्रिया-रूप पृथक् हैं, किंतु वे हिन्दी से बहुत दूर नहीं दिखाई पड़ते, अर्थात् थोड़े प्रयास से दोनों के बीच समता स्थापित की जा सकती है। यथा-
हो
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हिन्दी
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ओकोन होन पड़ाव तना?
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कौन लड़का पढ़ता है?
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चिआ इनि किताबे पड़ाव तना?
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क्या वह किताब पढ़ता है?
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इमि किताब ए पढ़ाव लेड़ टाईना
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उसने किताब पढ़ी थी।
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सिंहभूम ज़िले में आर्यभाषा परिवार की बिहारी विभाषा बोली जाती है। ‘हो’ भाषा पर बिहारी विभाषा के शब्दों का भी प्रभाव पड़ा है।
उराँव या कुरूख
भारत में प्रचलित आदिवासी भाषाओं में उराँव एक महत्वपूर्ण भाषा है, किंतु अन्य आदिवासी भाषाओं के समान इसे कोल या मुंडा शाखा के अंतर्गत वर्गीकृत नहीं किया गया है। इसे द्रविड़-परिवार की भाषा माना गया है। द्रविड़ भाषा-परिवार की दक्षिणी द्रविड़ शाखा में तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम चार प्रमुख भाषाओं का प्रचलन है। भाषाविज्ञानियों ने उराँव को उत्तरी द्रविड़ शाखा की भाषा माना है। 1971 की जनगणना के अनुसार उराँव भाषा-भाषियों की संख्या 1240395 है। उराँव चूँकि कुरूख आदिवासियों की भाषा है, इसलिए इसका दूसरा नाम कुरूख भाषा भी है। कुरूख आदिवासियों की मान्यता है कि मूलत: वे कर्नाटक के निवासी थे, जहाँ से उत्तर-पूरब की ओर वे दो टोलियों में बढ़े। एक टोली गंगा के दक्षिण किनारे होती हुई पूरब की ओर बढ़ी और बिहार की राजमहल पहाड़ियों में बस गईं। दूसरी टोली सोन के किनारे चलकर मध्यप्रदेश के अम्बिकापुर और विलासपुर आदि मार्ग से बिहार के दक्षिण-पूरब भाग और उड़ीसा के उत्तर-पूरब में बस गई। जहाँ दूसरी टोली बसी है, वह बिहार में छोटानागपुर तथा उड़ीसा में बामरा, संबलपुर आदि के नाम प्रसिद्ध है। जनसंख्या की दृष्टि से इस जाति के अधिकांश अदिवासी छोटानगर के राँची ज़िले में ही बसे हैं। इस प्रकार कुरूख आदिवासी भारत के जिन भागों में आज बसे हैं, वह क्षेत्र छोटानागपुर के पठार से होते हुए पूरब में मध्यप्रदेश के अंबिकापुर और विलासपुर ज़िले में है तथा दक्षिण में उड़ीसा के सुंदरगढ़ और संबलपुर ज़िले अवस्थित हैं।
भाषा की दृष्टि से बिहार और मध्यप्रदेश में आर्यभाषा हिन्दी तथा उड़ीसा में आर्यभाषा उड़िया का प्रचलन है। हिन्दी की बोलियों में बिहार के छोटानागपुर में हिन्दी की बिहारी विभाषा तथा अंबिकापुर तथा बिलासपुर आदि में पूर्वी हिन्दी प्रचलित है। इन क्षेत्रों में आदिवासियों के मुंडा परिवार की भाषाएँ प्रचलित हैं ही। ऐसी स्थिति में उराँव भाषा पर हिन्दी तथा उड़िया भाषाओं तथा बिहारी और पूर्वी हिन्दी विभाषाओं के परस्पर संपर्क से इस द्रविड़ और आर्यभाषाओं परिवार का सांस्कृतिक संबंध स्थापित हो गया है। सैंकड़ों वर्षों के सांस्कृतिक मेल के कारण इस द्रविड़ भाषा और आर्य-भाषा में प्रत्यक्ष समता है। चूँकि तीन चौथाई कुरूख बिहार के छोटानागपुर के पठार में बसे हुए हैं, इसलिय उराँव भाषा के साथ हिन्दी भाषा की विशेष समता सर्वथा स्वाभाविक है।
हिन्दी और उराँव भाषा के तुलनात्मक विश्लेषण से यह बात सर्वथा स्पष्ट हो जाती है कि दोनों भाषाओं की शब्दावली में बहुत अधिक समता है। गुलाब, कमल, बाँस ताड़, ऊँट, कछुआ, गदहा आदि शब्द दोनों ही भाषाओं में समान रूप से प्रचलित हैं। ऐसे शब्दों की संख्या हजारों होगी, जो दोनों भाषाओं में समानरूप से प्रचलित हैं: किंतु जहाँ भेद भी हैं, ध्वन्यात्मक परिवर्तन के कारण भेद के दिशा-निर्देश से भ्रम का निवारण हो जाता है। दिन के नाम लें तो बिहारी विभाषा में, प्रचलित एतवार, सोमार, मंगर, बुध, बिफे, सुकर, और सनीचर दोनों ही भाषाओं में यथातथ्य रूप से प्रचलित हैं। इनके अतिरिक्त ध्वनि-परिवर्तन के कारण भी दोनों भाषाओं की शब्दावली में स्वल्प भेद का आभास होता है। उदाहरणार्थ ‘दढ़ी’ (दाढ़ी), ‘छती’ (छाती), ‘दना’ (दाना), ‘नरटि’ (नरेटी), ‘नरंगि’ (नारंगी) आदि में ध्वनि — परिवर्तन के लोप नियम का प्रभाव है। इसी प्रकार ‘पंडुकि’ (पंडुक), ‘हंसा’ (हंस), ‘बेंता’ (बेंत), ‘दालि’ (दाल), ‘खुरि’ (खुर), ‘जेहल’ (जेल) तथा ‘खदान’ (खान) आगम के उदाहरण है। हिन्दी अकरान्त शब्दों के साथ संघर्षी वर्ण ‘स’ के योग से उराँव भाषा में शब्द-निर्माण की सामान्य प्रवृत्ति पाई जाती है। यथा-
हिन्दी
|
उराँव
|
कोचवान
|
कोचवासन
|
लोहार
|
लोहारस
|
चौकीदार
|
चौकीदारस
|
हिन्दी शब्द यदि दीर्धांत हो तो ‘स’ के योग के पूर्व दीर्घ स्वर को हस्व बना लिया जाता है। यथा—
हिन्दी
|
उराँव
|
बनिया
|
बनियस
|
किरानी
|
किरानिस
|
अंगुली
|
अंगलिस
|
साढू
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साढ़स
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पार्श्विक ध्वनि का लुंठित ध्वनि में परिवर्तन
हिन्दी
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उराँव
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पीपल
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पीपर
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मूली
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मुरइ
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उराँव भाषाभाषी आज वहाँ बसे हैं जहाँ हिन्दी की बिहारी तथा पूर्वी हिन्दी विभाषा का प्रचलन है। ऐसी स्थिति में उराँव भाषा में भी ऐसे शब्द प्रचलित हैं जो हिन्दी से तो भिन्न प्रतीत होते हैं किंतु हिन्दी की विभाषाओं से इनका रूपसाम्य है-
हिन्दी
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उराँव
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बिहारी
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पूर्वी हिन्दी
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घूप
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घाम
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घाम
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घाम
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चौड़ा
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चाकर
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चाकर
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चाकर
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जबड़ा
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चौहट्टा
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चौहट्टा
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चौहट
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शिखा
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चुंदी
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चुंदी
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चूंदी
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उराँव के वाक्यविन्यास से भी हिन्दी की समता का संबंध दुयोतित होता है। यथा—
उराँव
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हिन्दी
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ई अड़ी हुदी ती दमकर रई
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यह घड़ा उससे वजनदार है।
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सोमरस एतवस ती बड़यर
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सोमर एतवा से मजबूत है।
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सोमरस एतवस ती ढेर
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सोमर एतवा से अधिक मजबूत है।
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करमी मंडी में चीखी हुतंग
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करमी खाना के लिए चीखती होगी।
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संताली, मुंडारी, हो तथा उराँव योगात्मक परिवार की भाषाएँ हैं। वस्तुत: इन भाषाओं में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं। संस्कृत के समान इन भाषाओं में तीन वचनों का प्रचलन है- एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन; किंतु यह त्रिवचन प्रणाली संस्कृत से कुछ पृथक् भी है। द्विवचन के लिए दो भिन्न रूप मिलते हैं। एक रूप है- श्रोता समेत वक्ता और दूसरा रूप है- श्रोता को छोड़कर अन्य पुरुष समेत वक्ता। इस प्रकार पुरुष के अनुसार प्रत्येक कर्त्ता के लिए पृथक् क्रिया का प्रयोग होता है अर्थात् केवल क्रिया-रूप देखकर ही उसके कर्त्ता का सहज बोध हो जाता है।
ध्वनियों की दृष्टि से आदिवासी भाषाएँ पर्याप्त समृद्ध हैं। अभिव्यक्ति के लिए हिन्दी के प्राय: सभी स्वर और व्यजंन आदिवासी भाषाओं में प्रचलित हैं। इन भाषाओं में घोष, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण आदि सभी व्यंजन वर्तमान हैं। एक विशेष यह है कि आदिवासियों में बीस की गणना-प्रणाली का प्रचलन है अर्थात् सत्तर के लिए वे कहेंगे— तीन बीस और दस। डॉ. ग्रियर्सन का अनुमान उचित ही प्रतीत होता है कि हिन्दी भाषा में गणन की ऐसी प्रचलित प्रणाली आदिवासियों के साथ आर्य भाषाभाषियों के परस्पर संपर्क का प्रतिफलन है। भारत के मुंडा, द्रविड़ और आर्य सुदीर्घ काल तक साथ-साथ रहते आए हैं। सब ने भाषा से बढ़कर राष्ट्रीय एकता को महत्वपूर्ण माना है। इसलिय स्वाभाविक रूप से सबकी भाषाओं में एक दूसरे की शब्दावली का आदान-प्रदान मिलता है। यही कारण है कि हिन्दी और आदिवासी भाषाओं में जो आंतरिक समता दिखाई पड़ती है, वह भारतीय परिवेश की अनेकता में एकता को पूर्णरूप से चरितार्थ करती है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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