हिन्दी का विकासशील स्वरूप -डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया

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(शब्दावली के संदर्भ में)

लेखक- डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया

मेरा विश्वास है कि लगभग दूसरी हर चीज के बनिस्वत भाषा किसी राष्ट्र के चरित्र की ज्यादा बड़ी कसौटी है। अगर भाषा शक्तिशाली और जोरदार होती है तो उसका इस्तेमाल करने वाले लोग भी वैसे होते हैं। अगर वह छिछली, लच्छेदार और पेंचीदा है तो उसे बोलने वाली प्रजा में भी वही लक्षण देखने को मिलेगें - अखिल भारतीय भाषा यदि कोई हो सकती है तो वह सिर्फ हिन्दी या हिन्दुस्तानी, कुछ भी कह लीजिए-ही हो सकती है। -पंडित जवाहरलाल नेहरू

भाषा के विकास से तात्पर्य

किसी भी जीवित भाषा से तात्पर्य है, उसमें अंतर्निहित रचनात्मक शक्तियों का निरंतर तथाा सुग्राहिता। अपने परिवेश के प्रति सजग रहने से प्रथम लाभ होता है कि जो शब्द वहां से मिले उसे अपने अनुकूल बनाकर लिखा जाये। अगर भाषा की प्रवृत्ति के अनुकूल न हो तो उस भाव को व्यक्त करने के लिए शब्द बना लिया जाए। बनाई हुई, गढ़ी हुई शब्दावली तब ही काम की हो सकती है जब वह जीवंत और गतिशील भाषा के साथ निरंतर संपर्क रहे और प्रयोग कसौटी पर अपने को परखती कसती रहे। 18वीं शताब्दी के अंत मे बर्लिन अकादमी द्वारा आयोजित शोध प्रतियोगिता में डी. येनिश ने जोरदार शब्दों में घोषणा की थी कि भाषा मात्र एक वस्तु नहीं मानव जाति की बौद्धिक एवं नैतिक जीवन की अभिव्यक्ति है। मनुष्य की अभिलाषाओं और सांस्कृतिक प्रगति के साथ उसमें तद्नुरूप परिवर्तन होते रहे। माधुर्य, सूक्ष्मता, शक्ति, स्पष्टता एवं ओज से संपन्न होना जीवित भाषा का अनिवार्य लक्षण है। यही लक्षण निरंतर विकासशील एवं प्रबुद्ध जनजाति का भी होता है। सफल भाषा ही पूर्ण भाषा हो सकती है और पूर्ण भाषा ही सफल भाषा बन सकती है। शब्द भंडार और व्याकणिक स्पष्टता से ही एक संभव है जो वस्तुतः भाषा की समृद्धि का द्योतक है।
         किसी भाषा को विकसित विकासशील माना जाए और किसको नहीं इसके लिए प्रो० फर्ग्युसन ने बड़ी गहराई से विचार किया है। लिखित रूप मे प्राप्त जिस भाषा में (क) आपसी पत्र व्यवहार होता हो (ख) पत्र-पत्रिकायें प्रकाशित होती हों (ग) मौलिक पुस्तकों का लेखन कार्य होता हो, वह भाषा विकसित मानी जायेगी। इस कसौटी पर हिन्दी बिल्कुल खरी उतरती है। हां, उन्होंने जो आगे की अवस्थायें स्वीकार की हैं कि

  1. उसमें वैज्ञानिक साहित्य निरंतर प्रकाशित होता रहे तथा
  2. अन्य भाषाओं में हुए वैज्ञानिक कार्य का अनुवाद तथा सार संक्षेप में प्रकाशित होता है।

उस दृष्टि से अभी विकासशील और भविष्य में अनंत संभावनाएं निहित हैं। हाॅगेन ने विकसित भाषा के जो चार तत्व स्वीकार किये है, उनमें से ‘आधुनिकता’ पर विशेष बल दिया है। ‘भाषा की आधुनिकता’ से तातपर्य है शब्दावली में वृद्धि तथा नई शैली और अभिव्यक्तियों का विकास। इस कसौटी पर भी हिन्दी खरी उतरती है।
         हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि तथा विचारक सच्चिदानंद वात्स्यायन की मान्यता है कि ‘भाषा कल्पवृक्ष है जो उससे आस्थापूर्वक मांगा जाता है, भाषा वह देती है। उससे कुछ मांगा ही न जाए क्योंकि वह पेड़ से लटका हुआ नहीं दीख रहा है, तो कल्पवृक्ष भी कुछ नहीं देता’।
         20वीं शताब्दी के लब्धप्रतिष्ठ, भाषाविद् ब्लूमफील्ड के अनुसार भाषा की शक्ति अथवा संपत्ति रूपिमों और व्याकरिणमों में (वाक्य प्रतिरूपों, संरचनाओं और स्थानापत्तियों में) है। रूपिमों और व्यकरणिमोेें भी संख्या भाषाविशेष में हजारों में पहुचती हैं। यह साधारणतयः माना जाता है कि भाषा सम्पत्ति विभिन्न प्रयुक्त शब्दों पर निर्भर है किंतु यह संख्या अनिश्चित है क्योंकि रूपीय संरचनाओं के सादृश्य पर शब्द मन चाहे ढंग से बनते रहते हैं।[1]
         वस्तुतः भाषा मूलतः अभिव्यक्ति की संचना तथा शब्दावली का संयुक्त रूप है जो परस्पर सुंगुुफित है। शब्दावली आती जाती, नई बनी रहती है, पुराने शब्दों में नवीन अर्थ भरते जाते हैं, जैसे आज अधिक्रम, अधिवक्ता, अभिलेख, अभ्यर्थी, आख्यापन से सर्वथा नवीन अर्थों की अभिव्यंजना होती है। हिन्दी की आक्षरिक संरचना भी बड़ी संपन्न है। आक्षरिक सांचों में पर्याप्त रिक्त स्थान होने के कारण विकास की अभूतपूर्व क्षमता स्पष्ट होती है। ‘व्यंजन स्वर दीर्घ स्वर’ सांचे में यदि मात्र ‘क’ तथा ‘ल’ व्यंजन क्रमशः लिए जाएं तो 21 संभव शब्द बन सकते है जिनमें से 19 स्थान रिक्त पड़े हुए थे। इन रिक्त स्थानों में से चार स्थानों पर किला, कुली शब्द आसानी से खप गये।
         अब तक के प्रमुख भाषाविद् उपयुक्त सभी दृष्अियों से हिन्दी की अभूतपूर्व क्षमता तथा सामथ्र्य में विश्वास करते हैं।

  • हिन्दी इसी मिट्टी की बोली है और अरबी या फारसी से अधिक जनमानस के निकट है।
  • भारतीय भाषा में कोई भी मानवीय भावना व्यक्त करने की पूर्ण सामर्थ्य है और वह उच्चतम वैज्ञानिक शिक्षा के लिए उपयुक्त है।
  • हिन्दी के पास ऐसा शब्दकोश और अभिव्यक्ति की ऐसी सामर्थ्य है, जो अंग्रेज़ी से किसी प्रकार कम नहीं है।[2]
  • यही (हिन्दी) एक भाषा है जिसमें दो विभिन्न प्रांतों के लोग आपस में बातचीत कर सकते हैं। यह भारत में सर्वत्र समझी जाती है, क्योंकि इसका व्याकरण भारत की अधिकांश भाषाओं के समान है और इसका शब्दकोश सबकी सम्मिलित संपति है।- ग्रियर्सन

         भारतीय संविधान में (351) हिन्दी के शब्द भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से तथा गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द कर समृद्ध करने की व्यवस्था है।

शब्दावली संकलन का प्रारंभ तथा विकास

मध्यकाल की नाममालाओं की परंपरा के बाद पहला शब्दावली संकलन का कार्य पादरी आदम ने 1829 ‘हिन्दवी भाषा का कोश’ शीर्षक से तैयार किया, जिसमें 20,000 शब्द थे। तद्भव तथा देशज शब्दों को प्रधानता दी गई। आदम साहब पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने लोक से बोल चाल के शब्द संग्रहीत किये। आदम से पूर्व गिलक्राइस्ट, कर्कपैट्रिक, विलियम हंटर, शेक्सपियर, राॅबक के कोश और बाद मे फैलन, येट, डंकर, फोब्र्स, थॅम्सन तथा जाॅन प्लाट्स के काश कार्य उल्लेखनीय हैं। इनमें से फैलन, थाॅमसन तथा जाॅन प्लाट्स के कार्य महत्वपूर्ण हैं। थाॅमसन के संकलन में शब्दसंख्या 30,000 है, फैलन के कोश में 1216 पृष्ठ (राॅयल आक्टेव) हैं। प्लाॅट्स के कोश का पूरा नाम है ‘ए डिक्शनरी आॅफ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एंड इंगलिश’ (1874) जिसकी प्रमुख विशेषताएं हैं:-

  1. शब्दों की व्युत्पत्ति पर प्रकाश तथा
  2. समान वर्तनी के अलग अलग स्रोतों से आए शब्दों की अलग अलग प्रविष्टियां
  3. अकर्मक तथा सकर्मक क्रियाओं का उल्लेख
  4. साहित्येतर शब्दों का संकलन।

भारतीयों द्वारा बनाए गए कोशों में जिन दो कोशों का संकलन। भारतीयों द्वारा बनाए गए कोशों में जिन दो कोशों का सर्वाधिक प्रचार प्रसार हुआ, वे हैं श्रीधर भाषा कोश (सन् 1894) श्रीधर त्रिपाठी, लखनऊ, पृष्ठ सं. 74 तथा ‘हिन्दी शब्दार्थ पारिजात’ (सन् 1914) द्वारकाप्रसाद चतुर्वेदी, इलाहाबाद। पहले कोश मे लगभग 25,000 शब्द संख्या है, जबकि दूसरे मेें ब्रजभाषा, अवधी आदि विभाषाओं के शब्दों की पर्याप्त संख्या रहने के कारण शब्द संख्या अधिक है। अनुमान किया जा सकता है कि 20वीं शताब्दी के प्रारंभ तक शब्द संकलन 50,000 तक पहुंच गया
         आधुनिक काल में बाबू श्यामसुंदर दास, रामचंद्र शुक्ल, रामचंद्र वर्मा के सत्प्रयासों से नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी से ‘हिन्दी शब्द सागर’ (1922-29) प्रकाशित हुआ, जिसकी योजना 32 अगस्त 1907 को सभा के परम हितैषी और उत्साही सदस्य श्रीयुत रेवरेंड ई. ग्रीब्ज के उस प्रस्ताव के अनुसार बनी जिसमें प्रार्थना की गई थी कि ‘हिन्दी के एक बृहत और सर्वांगपूर्ण कोश बनाने का भार सभी अपने ऊपर लें।’ सन 1910 के आरंभ में शब्द संग्रह का कार्य समाप्त हुआ। 10 लाख स्लिप बनाई गईं जिनमें से लगभग एक लाख शब्दों का आकलन किया गया। यह कोश वस्तुतः सागर था, जो शब्दों, अर्थाें, मुहावरों, लाकेक्तियों, उदाहरणों तथा उद्धरणों से भरपूर अर्थचछटायें देनें मे सर्वोत्तम माना जाएगा। इसके बाद कोशकला में दीर्घकालीन अनुभव प्राप्त आचार्य रामचंद्र वर्मा के प्रयासों से वाराणसी से ‘प्रामाणिक हिन्दी कोश’ तथ हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से ‘मानक हिन्दी कोश’ पृष्ठ संख्या 3966 (1962-196) प्रकाशित हुआ। ‘बृहत् हिन्दी कोश’ तीसरे संस्करण में एक लाख अड़तीस हजार शब्द हैं। इस बीच ‘हिन्दी शब्द सागर’ का नवीन संशोधित और परिवर्धित संस्करण (1665-75) प्रकाशित हुआ जिसमें कुल पृष्ठ संख्या 5870 है संयोजक श्री करुणापति त्रिपाठी के दिनांक 18 फरवरी, 1965 के वक्तव्य के अनुसार मूल शब्द सागर से इसकी शब्द संख्या में दुगनी से अधिक की वृद्धि हुई है। इस प्रकार कोशों के आधार पर शब्दावली की संख्या दो लाख है।

पारिभाषिक शब्दावली

          प्राचीन भारत में ही दर्शन, ज्योतिष, आर्युवेद आदि कुछ विषया में प्रचुर भारतीय शब्दावली उपलब्ध थी। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही वैज्ञानिक उपलब्धियों से संबंधित शब्दाली हिन्दी भाषा में आने लगी थी। काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी ने वैज्ञानिक शब्दावलियों के रूप में सर्वप्रथम पुस्तकाकार प्रकाशन किये। इस दिशा में डाॅ. सत्यप्रकाश (विज्ञान परिषद, इलाहबाद) तथा डाॅ. रघुवीर के कार्य विशेष उल्लेखनीय हैं।
          डाॅ. रघुवीर के कोशकार्य की एक ओर अत्यधिक प्रशंसा हुई, दूसरी ओर अत्यधिक आलोचना। वस्तुतः यह प्रशंसनीय कार्य था, जिसको अत्यधिक श्रम से वैज्ञानिक आधार पर प्रस्तुत किया गया। संपूर्णतः संस्कृत पर आधारित होने के कारण इसकी व्यावहारिकता पर संदेह किया जाने लगा। उन्होंने सर्वप्रथम भाषा निर्माण में यांत्रिकता तथा वैज्ञानिकता को स्थान दिया। उपसर्ग तथा प्रत्ययों के धातुओं के योग से लाखों शब्द सहज ही बनाए जा सकते हैं।
उपसर्गेण धात्वर्धाे बलाद्न्त्र नीयते।
प्रहार-आहार-विहार-परिहार वत्।
          इस प्रक्रिया को कोश की भूमिका में समझाया गया है। यदि मात्र दो संभावित योग लें, तो 400 और तीन लें तो 8000 रूप बन सकते हैं, जबकि अभी तक मात्र 340 योगों का उपयोग किया गया है, शब्द निर्माण की अद्भुत क्षमता उद्घटित होती है उन्होंने विस्तार से उदाहरण देकर समझाया कि किस प्रकार गम् धातु मात्र से 180 शब्द सहज ही बन जाते हैं। प्रगति, परागति, परिगति, प्रतिगति, अनुगति, अधिगति, अपगति, अतिगति, आगति, अवगति, उपगति, उद्गति, सुगति, संगति, निर्गति, निगति, विगति, दुर्गति, अवगति, अतिगति, गति, गंतव्य, गम्य, गमनीय, गमक जंगम, गम्यमान, गत्वर, गमनिका आदि कुछ उदाहरण हैं। मात्र ‘इ’ धातु के साथ विभिन्न एक अथवा दो उपसर्ग जोड़कर 107 शब्दों का निर्माण संभव है। उन्होंने स्पष्ट किया कि 520 धातुओं के साथ 20 उपसर्गों तथा 80 प्रत्ययों के योग से लाखों शब्दों का निर्माण किया जा सकता है। अगर धातुओं की संख्या बढ़ा ली जाए तो 1700 धातुओं से 23800 मौलिक तथा 84,96,24000 शब्दों को व्युत्पन्न किया जा सकता है। इस प्रकार संस्कृत में शब्द निर्माण की अद्भुत क्षमता है जिसका अभी नाम मात्र का ही उपयोग किया जा सकता है। अतिवादी दृष्टि से बचकर भी लाखों ऐसे सरल शब्दों को प्रयोग में लाया जा सकता है, जो हिन्दी की प्रवृत्ति के अनुकूल हैं।
          अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयोग में आने वाले तथा पूर्व स्वीकृत वैज्ञानिक शब्दों को स्वीकार कर लेना चाहिए। प्रयोग के आधार पर कुछ पूर्ण पारिभाषिक (ध्वनिग्राम, संस्वन, प्रकरी, दशमलव), कुछ अर्ध पारिभाषिक, जैसे अक्षर, संगति, आप हैं। ऐतिहासिक आधार पर तत्सम, तद्भव के साथ विदेशी शब्दावली का विशेष महत्व है। आगत शब्दावली पर लेखक ने विस्तार से विचार किया है - हिन्दी में अंग्रेजी के आगत शब्दों का भाषातात्विक अध्ययन।
          स्वतंत्रता के बाद वैज्ञानिक तकनीकि शब्दावली के लिए शिक्षा मंत्रालय ने सन् 1950 में बोर्ड की स्थापना की। सन् 1952 में बोर्ड के तत्वाधान में शब्दावली निर्माण का कार्य प्रारंभ हुआ। अंततः 1960 में केंद्रीय हिन्दी निदेशालय की स्थापना हुई। इस प्रकार विभिन्न अवसरों पर तैयार शब्दावली को ‘पारिभाषिक शब्द संग्रह से प्रकाशित किया गया, जिसका उद्देश्य एक ओर वैज्ञानिक तथा तकनीकि शब्दावली आयोग के समन्वय कार्य के लिए आधार प्रदान करना था और दूसरी ओ अंतरिम अवधि में लेखकों को नई संकल्पनाओं के लिए सर्वसम्मत पारिभाषिक शष्द प्रदान करना था। आयोग द्वारा शब्दावली निर्माण के सिद्धांतों का सार इस प्रकार है:
1- अंतर्राष्ट्रीय शब्दों को ज्यों का त्यों रखा गया और केवल उनका लिप्यंतरण ही किया गया:
(अ) तत्वों तथा योगिकों के नाम, यथा- हाइड्रोजन, कार्बन आदि।
(आ) भार, माप तथा भौतिक परिमाणों की इकाइयां, यथा, कैलारी, डाइन, एम्पीयर्स आदि।
(इ) ऐसे शब्द जो व्यक्तियों के नाम पर बनाये गये हैं, यथा- फारेनहाइट, एम्पीयर्स तथा वोल्टमीटर।
(ई) वनस्पति विज्ञान, जीव विज्ञान, भू विज्ञान आदि विज्ञानों में द्विपदी नाम पद्वति है।
(उ) स्थिरांक।
(ऊ) रेडियो, पेट्रोल, रेडार, इलेक्ट्राॅन, प्रोटाॅन, न्यूट्राॅन आदि।
(ए) संख्यांक प्रतीक।
2- अखिल भारतीय समानकों का निर्माण संस्कृत के आधारपर किया गया है।
3- क्षेत्रीय प्रकृति के ऐसे हिन्दी शब्दों को, जो हिन्दी में प्रचलित हैं, यथावत रख लिया गया है। जैसे जीव, चूना, बिजली आदि शब्द।
विभिन्न विज्ञानों, मानविकी तथा सामाजिक विज्ञानों की मूलभूत शब्दावली के निर्माण का कार्य सन 1971 में पूरा कर लिया गया। तत्पश्चात् उक्त शब्दावली के समन्वय तथा समेकन का कार्य प्रारंभ हुआ। इन सभी शब्द संग्रहों की स्थिति इस प्रकार है:
1. बृहत् पारिभाषिक शब्द संग्रह (विज्ञान खंड) 130000
2. बृहत् पारिभाषिक शब्द संग्रह (मानविकी खंड) 80000
3. बृहत् पारिभाषिक शब्द संग्रह (आर्युविज्ञान) 50000
4. बृहत् पारिभाषिक शब्द संग्रह (इंजीनियरी) 50000
5. बृहत् पारिभाषिक शब्द संग्रह (रक्षा) 40000
6. बृहत् पारिभाषिक शब्द संग्रह (कृषि) 17500
7. समेकित प्रशासन शब्दावली (प्रशासन) 8000
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कुल- 3,75,500
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विश्लेषण से ज्ञात हुआ कि 70 प्रतिशत समानक संस्कृत मूलक थे, 20 प्रतिशत अंतर्राष्ट्रीय शब्दावली से लिप्यंतरित और 10 प्रतिशत से कम क्षेत्रीय हिन्दी शब्द थे। यह स्थिति स्नातक स्तरीय शब्दावली की थी, जबकि स्नातकोतर स्तरीय शब्दावली में, अन्तर्राष्ट्रीय शब्दावली का प्रयोग अपेक्षाकृत बहुत अधिक है।
यह विषय इतना विस्तृत है कि पृथक् से शोध का विषय है, फिर भी इतना कहा जा सकता है कि इस प्रक्रिया में हिन्दी के विकासेन्मुख स्वरूप’ पर विशेष ध्यान रखना चाहिए। वाषपरिकोठित, चलतुल्यवयवता, वैद्युत्रौप्परंजन, वैयुतन्निकेलरंजन, आश्लेष्य विवक्रमण बिंदु आदि शब्दों से बचना ठीक रहेगा। यहां पारिभाषिक शब्दावली की समस्यों पर विचार करना अपेक्षित नहीं है फिर भी एकरूपता तथा मानक रूपों के स्थिरीकरण की और विशेष ध्यान देना है।

संक्षिप्त रूपों द्वारा नई शब्दावली

आज इस भागदौड़ के युग मे हर आदमी की यह आदत बनती जा रही है कि कम से कम समय मे कम से कम शब्दों में अपने मन के भावों को अभिव्यक्त करे। इस स्वाभाविक प्रवृत्ति के फलस्वरूप ही संस्थाओं तथा संगठनों के लंबे लंबे नाम संक्षिप्त होते हा रहे हैं। नई प्रकार की यह शब्दावली अंग्रेजी में ‘एक्रोनिम’ से अभिहित की जाती है। प्रत्येक काल में ऐसे शब्द बनते रहे हैं। कालांतर में जब ये शब्द बहुप्रयुक्त होकर कोश के अन्तर्गत अपना समुचित स्थान बना लेते हैं, तो प्रायः भूल जाते हैं कि इनका निर्माण इस विधि से हुआ होगा, जैसे अंग्रेजी ‘न्यूज’। हिन्दी में प्रचलित ‘बदी’ तथा ‘सुदी’ शब्द भी इस प्रक्रिया के फलस्वरूप हैं ‘सु’ सुदिः शु. (शुक्ल पक्ष) तथा ‘ब’ बहुल (कृष्ण पक्ष) हिन्दी में अंकटाड, सैम, मीडो, सीटो, इंटक, नाटो, यूनेस्को आदि पर्याप्त शब्द इसी कोटि के हैं। पिछली बार चीन के आक्रमण के समय नेफा, मिग तथा राडार तीन शब्द काफ़ी प्रचलित हो गये। युद्ध में ‘लेसर’, मिग प्रचलित हैं, प्रबंधशस्त्र में ‘प्रिंस’ ‘पर्ट’ इसी प्रकार के शब्द हैं। हिन्दी पत्रकारिता में प्रचलित अनिया, उर्वशी, उपूसी, इंका, लोद इसी प्रकार के शब्द हैं।

हिन्दी की विभाषा तथा बोलियों का महत्व

बोली तथा अपभाषा-

किसी बोली का लोकजीवन से अभिन्न संबंध है। बोलियों का ही परिष्कृत, सामान्यीकृत तथा संस्कृत रूप भाषा है। भाषा को बोलियों से ही सहज शक्ति प्राप्त होती है। गंगा का आदि स्रोत हिमखंडों से निर्मित गोमुख है, उसी प्रकार हिन्दी की गंगा को उसकी बालियों से सारभूत तथा प्राणशक्ति मिलती है। व्यावहारिक लोकभाषा से शब्द संग्रह करना सरल कार्य नहीं। लोक बोली के स्थयी तत्व लोकगीत तथा लोक कहानियों में समाहित रहते हैं। शब्द रूपों के स्रोत तथा उसके विकास की परंपरा और साथ ही अर्थ विकास की श्रृंखला निर्धारित करने में लोक जीवन का विशेष महत्व है। बोलियों में जब कोई बोली शिक्षित लोगों के मुख्य नगर या अन्य शिष्ट सामाजिक वर्ग की भाषा के पद पर प्रतिष्ठित हो जाती है तब वह मानक भाषा कहलाती है। विभिन्न भाषिक स्तरों का स्वरूप कुछ इस प्रकार होता है:

                                                                        गंवार शिष्टेतर प्रयोग          बोलीगत प्रयोग
                                                                                  ↓                               ↓
                                                                          निम्नस्तरीय व्यक्तियों द्वारा बोलचाल की बोली
                                                                                                    ↓
                                                                                      बोलचाल का मानक रूप
                                                                                                    ↓
                                                                              साहित्यिक गद्य पद्य में प्रयुक्त मानक रूप
                                                                                                     ↓
                                                                                      अति सुसंस्कृत तथा मानक रूप

          विभिन्न स्तरों को पारकर ‘अपभाषा’ या गंवारू बोली की साहित्यिक या मानक भाषा का रूप ग्रहण कर लेती है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि मानक भाषा को शक्ति संपन्न बनाने के लिए लोकभाषा ही खान का काम करती है। ‘शिष्ट’ क्या है और ‘शिष्टेतर’ क्या है, इन दोनों को परिभाषित करना कठिन काम है। सामान्यतः शिष्ट तथा शिष्टेतर के मध्य सीमा रेखा खींचना संभव नहीं है। अज्ञान के कारण यह भी हो सकता है कि जिस प्रयोग को हम शिष्ट समझ रहे हैं, वह शिष्टेतर हो। इसके ठीक विपरीत जब किसी मान्य लेखक द्वारा शिष्टेतर प्रयोग भी साहित्यिक कृति में डाल दिये जाते है। तो कालांतर में ‘शिष्ट’ बन जाते हैं। जब कोई शब्द या कोई प्रयोग चल पड़ता है तो उसमें इतनी सामथ्र्य शक्ति आ सकती है कि वह शिष्ट भाषा में प्रयुक्त होता है और कालांतर में स्थान बना लेता है। बाद के कोशाकार यदि उनकी ओर ध्यान न दें तो ये शब्द पुनः लोक में खो जाते हैं।
          इस दृष्टि से हिन्दी बहु दूरव्यापिनी भाषा है, जिसका विस्तार काफ़ी बड़े भूभाग में है। इस प्रकार हिन्दी की बोलियों की संख्या काफ़ी बड़ी हो जाती है। किसी की पूर्णरूपेण मातृभाषा न होते हुए भी लगभग भारत की चालीस प्रतिशत जनसंख्या व्यवहार में इसका प्रयोग करती है। इसके अंतर्गत अनेक अंचलों की बोलियां तथा विभाषाएं: ब्रज, बुंदेली, कन्नौजी, खड़ी बोली, हरियाणवी , अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी, निमाडी, मालवी, मेवाती, मारवाड़ी, मेवाड़ी, मैथिली, भोजपुरी, मगही, पहाड़ी-गढ़वाली, कुमायूँनी आदि हैं। पारस्परिक बोधगम्यता, व्यकरण गठन में साम्य तथा जातीयता व ऐतिहासिक श्रृंखला इन सभी उपभाषाओं बोलियों को एक दूसरे से इतनी अधिक जोड़े हुए हैं कि कभी कभी यह पहचानना कि ‘यह हमारी बोली नहीं है’ असंभव हो जाता है। यही कारण है कि एक ओर विद्यापति के पद तो दूसरी ओर रासो साहित्य हिन्दी में समाहित है। यही मानक हिन्दी में शक्ति श्रोत हैं। इस प्रकार मानक हिन्दी को शब्दावली देने के लिए लोकबोलियों के कोश की नितांत आवश्यकता है। जब स्काटिश का बोलीकोश अनेक खंडों में आ सकता है तो इतने विशाल भूभाग में फैली और हजारों सालो की दीर्घ परंपरा में विकसित इन बोलियों में कितनी विपुल शब्द राशि समाहित होगी, इसकी कल्पना मात्र से आश्चर्य होता है। कुछ वर्षाें पहले तक मात्र ‘अवधी काष’ (रामाज्ञा द्विवेदी ‘समीर’) तथा ‘ब्रजभाषा सूर कोश’ (डाॅ. प्रेमनारायण टंडन) दो कोश थे। ‘डिंगल कोश’ तथा ‘राजस्थानी सबद कोश’ (अभी आधा) से भविष्य की संभावनाओं पर प्रकाश पड़ता है क्याकि मात्र राजस्थानी में सवा लाख से अधिक शब्द होंगे। हाल में डाॅ. हरिदेव बाहरी के प्रयासों से अवधी और भोजपुरी शब्द संपदा प्रकाशित हुए हैं। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के तत्वाधान में अनेक विश्वविद्यालयों के सहयोग से भोजपुरी, ब्रजभाषा तथा कुमायुंनी पर कार्य प्रगति पर है। कुरुलोक संस्थान, मेरठ ने कौरवी कोश तैयार कर लिया है। रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर में ‘छत्तीसगढ़ी पर कार्य प्रकाशनाधीन है। मध्य प्रदेश सरकार के भाषाविभाग ने बुंदेली पर कार्य लगभग पूरा कर लिया है। कुछ बोलियों की शब्द सामर्थ्य पर कुछ उपयोगी कार्य हो चुके हैं, जैसे: मगही’ से डाॅ. विश्वनाथ प्रसाद ने 542077 शब्द संकलित किये, गढ़वाली (डाॅ. हरिदत्त भट्ट ‘शैलेश’), बैसवाड़ी (डाॅ. देवीशंकर द्विवेदी), बुंदेली (डाॅ. छविनाथ तिवारी तथा डाॅ. हरिप्रसाद), निमाड़ी (डाॅ. मीना भट्ट), बघेली (डाॅ.अयोध्याप्रसाद सिंह), जिनमें से प्रथम दो शोधकार्य प्रकाशित हो चुके हैं। अगर अतिसंयोक्ति न समझा जाए तो इस संभावना से इंकार नही किया जा सकता कि सभी लोक भाषाओं के कोश आने पर लाखों की नई शब्दावली उपलब्ध होगी जिसमेें से बड़ी सरलता से पचास प्रतिशत मानक भाषा में प्रयुक्त हो रही होगी।

कृषि तथा उद्योग धंधों से संबंधित शब्दावली

इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य ग्रियर्सन कृत ‘बिहार पीजेंट लाइफ’ से लगभग एक शताब्दी पूर्व सन 1885 से प्रारंभ हुआ जिसको आगे बढ़ाया डाॅ. हरिहरप्रसाद गुप्त (भारतीय ग्रामोद्योग शब्दावली-1951, प्रकाशित 1956) तथा डाॅ. अंबाप्रसाद ‘सुमन’ ने (कृषक जीवन संबंधी ब्रजभाषा शब्दावली, 1956, प्रकाशित दो खंडों में 1961-62) इसके बाद अनेक कार्य हो चुके हैं प्रकाशन के अभाव में (कुछ ही प्रकाशित) जिनका मूल्यांकन नही किया जा सकता। ‘कृषि शब्दावली’ में हुए कार्य हैं: कृषि कोश 1959 (डाॅ. विश्वनाथ प्रसाद) इलाहाबाद ज़िला (शालिग्राम शर्मा), कूर्मांचल (रामसिंह), भोजपुरी (नंदकिशोर राय तथा शालिग्राम ओझा), गुना ज़िला (बाबूलाल जैन), ग्वालियर ज़िला (प्रभूदयाल शर्मा), छत्तीसगढ़ (डाॅ. कांतिकुमार जैन), दिल्ली प्रदेश (धर्मवीर शर्मा), फतेहपुर ज़िला (द्वारिका प्रसाद वर्मा), बलिया ज़िला (सत्यदेव तिवारी), बुंदेली (हरगोविंद सिंह), मगही (शिवरानी और शशिबाला देवी), मालवी (सुरेंद्र कुमार तेनगुरी), बघेली (सुधाकर प्रसाद तिवारी), सतना ज़िला (रामायण प्रसाद त्रिपाठी), सहारनपुर ज़िला (आनंद प्रकाश शर्मा), सीहोर ज़िला (दाऊदयाल कुलश्रेष्ठ), हिन्दी की कृषि शब्दावली (रामकृष्ण पाराशर)। औद्योगिक शब्दावली में उल्लेखनीय कार्य हैं, मेरठ ज़िला (सरीज तोमर), पश्चिमी राजस्थानी (ओंकारमल), बुंदेली (पवन कुमार जैन), मुज़फ़्फ़रनगर ज़िला (तिलकराम शर्मा), मुरादाबाद ज़िला (गापीचंद्र शर्मा), राजस्थानी (ब्रजमोहन जावलिया), रामपुर ज़िला (वाचस्पति शर्मा)। आवश्यकता इस बात की है कि इन सभी शब्दावलियों को समेकित रूप में प्रस्तुत किया जाए। काफ़ी समय पूर्व महापंडित राहुल जी के नेतृत्व में डाॅ. प्रभाकर माचवे तथा डाॅ. विद्यानिवास मिश्र के सहयोग से इस प्रकार का कार्य प्रारंभ हुआ था। तेलुगू में व्यवसायपरक शब्दकोश के कई खंड प्रकाशित हो चुके हैं। डाॅ. विद्यानिवास मिश्र के उपयोगी कार्य ‘हिन्दी शब्द संपदा के नमूने पर विस्तार से काम होना चाहिए।

हिन्दी साहित्य से शब्दावली

प्रायः कोश में किसी भी भाषा में प्राप्त लिखित साहित्य से शब्दावली ले ली जाती है। इस प्रक्रिया को ‘हिन्दी शब्द सागर के पहले संस्करण में अपनाया गया और दूसरे परिवर्धित संस्करण में भी (शब्दचयन 1956 तक प्रकाशित ग्रंथों से)। अभी तक तुलसी, कबीर,, जायसी, मीरा प्रसाद कोश ही प्रकाशित हुए हैं। अभी तक हम अपने सभी विशिष्ट कवियों/साहित्यकारों के साहित्य की अनुक्रमिणकाएं प्रस्तुत नहीं कर सके हैं, जिनसे शब्दकोशों को अपेक्षतया पूर्ण बनाया जा सके, केंद्रीय हिन्दी निदेशालय के प्रयास से जो भी अनुक्रमणिकाएं तैयार हुईं हैं वे अभी तक प्रकाशित नही हो सकी हैं और न सूर का शब्द कोश ही। डाॅ. हरदेव बाहरी तथा डाॅ. राजेन्द्र कुमार ने निजी सत्प्रयासों से ‘सूरकोशक’ अवश्य प्रकाशित हुआ। शब्द सागर के परिवर्धित संस्करण के संपादकीय (दिनांक 18/2/1965) में यह स्वीकार किया गया है कि आधुनिक हिन्दी वाङ्मय के अपेक्षाकृत नव्यग्रंथों से कम ही शब्द जोडे़ गये हैं। नए साहित्य कहानी, उपन्यास, नवीन विधाएं - में पर्याप्त संख्या में नए कोण, नई शैली नये भाव बोध के लिये नये नये शब्दों-नवोद्भूत, नवागत, नवाद्भवित का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है फिर कैसे मान लिया जाये कि सभी शब्दावलियों को समाहित कर लिया गया है। इस प्रकार जीवंत भाषा में नित नवीन बिंबों, नव नव अर्थचित्रों और नई अभिव्यक्ति की छटाओं का विकास होता रहता है, कभी पुराने शब्दों में नवीन अर्थछटाएं अभिव्यक्ति हो जातीं हैं औ कभी नये नये शब्दों को आयातित अथवा निर्मित कर लिया जाता है जिससे भाषा साहित्य को और साहित्य भाषा को परस्पर समृद्ध करता रहता है जिसके फलस्वरूप कोशों में निरंतर शब्द संख्या में वृद्धि होती रहती है।

निष्कर्ष

व्यापक भूभाग में फैली शिष्ट व साहित्यिक भाषा और उसकी आंचलिक बोलिया- अपभाषाओं से शब्द संग्रह का कार्य कष्टकर होते हुए भी बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। वैज्ञानिक, प्रोद्योगिक-औद्योगिक, शैक्षणिक, सामाजिक आदि ज्ञान विज्ञान के विकास-विस्तार के साथ साथ जीवंत भाषा में नित्य नए नए शब्दों के आने का क्रम बना रहता है, वह चाहे आगत हों, चाहे संकर योगिक निर्मित। ज्ञान विज्ञान के मौलिक साहित्य सर्जन के साथ नए अर्थबोध के साथ नए नए शब्दरूपों से अर्थव्यंजन होता रहता है। हिन्दी की शब्दावली निरंतर गतिशील है। भविष्य में इतनी अधिक संभावनाएं हैं कि अन्य किसी विश्वभाषा को उपलब्ध नहीं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (भाषा, पृ० 332)
  2. -‘1901 की जनगणना की रिपोर्ट

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