हिन्दी का एक अपनाया-सा क्षेत्र: संयुक्त राज्य -डॉ. आर. एस. मेग्रेगर
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- लेखक- डॉ. आर. एस. मेग्रेगर
जिस कालक्षेप के अन्दर मेरा काम हिन्दी से रहा है, उसमें संयुक्त राज्य के भाषा-चित्र में एक नई रेखा खिंच गई है। पचासों के दशक में भारत के इंग्लैंड में बसकर रह जाने वाले लोग संख्या में नहीं के बराबर थे। आजकल की साफ दिखाई देने वाली लकीर तब अधूरी ही रही। अब तो भारत के हज़ारों लोग संयुक्त राज्य के बाशिंदे हो गए हैं। अखबारों में और आकाशवाणी के प्रसारणों में बार-बार मिलने से भारत की कई भाषाओं के नाम- पंजाबी, गुजराती, बंगला, उर्दू और हिन्दी- इस देश की आम शब्दावली में घुसकर जम गए हैं। संयुक्त राज्य के दस-बारह शहर और एक प्रकार से सारा ही देश भाषा की एक विशाल प्रयोगशाला-सा बन गया है, जिसमें भाषा का एक सिद्धांत, जो हिन्दुस्तान में पहले से ही ठीक ठहर चुका है, नये सिरे से ठीक सिद्ध हो रहा है। वह सिद्धांत यही कि नाते वाली भाषाओं की एक मंडली में कोई बीच वाली भाषा साधारण व्यवहार के लिए सहायक होती है, विशेषकर तब, जब उस भाषा का क्षेत्र किसी राजनीतिक, आर्थिक या ऐतिहासिक-सांस्कृतिक कारण या कारणों से महत्ता रखता है। हिन्दुस्तान की यह पुरातन भाषा स्थिति तो संयुक्त राज्य के बिखरे हिन्दुस्तानी जन समुदायों पर असर डाले बिना नहीं रह सकती। कोई बीस साल से आकाशवाणी का 'नई जिंदगी नया जीवन' वाला कार्यक्रम चल रहा है, जिसकी मिली-जुली भाषा ख़ासों आम समझी जाती है। हिन्दी के और भी कार्यक्रम आकाशवाणी और दूरदर्शन के हैं। हिन्दी की फिल्में शहर-शहर में देखी जा सकती हैं, दूरदर्शन में भी प्रदर्शित होती हैं। साथ ही और भी एक नई बात है, जो ऊपर वाली बातों से शायद ज़्यादा अहमियत रखती हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भारत की भाषाएं पधार रही हैं। वयस्क शिक्षा में हिन्दी के सबसे पहले कार्यक्रम आयोजित किए हुए दस साल हो चुके हैं। अब कक्षाओं की संख्या काफ़ी हद तक बढ़ गई है। इस बात पर ज़ोर देना है कि सबसे पहले ऐसे ही लोग इन कक्षाओं में आ बैठते हैं, जिनका हिन्दुस्तान से कोई संबंध न था। हिन्दी के प्रति उनकी रुचि यहाँ बसे लोगों के संपर्क में आ जाने से या किसी किसी दूसरे कारण से पैदा हो जाती थी। आज की स्थिति यहाँ तक बदली है कि वयस्क शिक्षा में भारत के भी लोग आ जाते हैं। ऐसे जवान-जवान लोग जो इस देश में पलकर अपनी सांस्कृतिक विरासत से नाता बनाए रखना चाहते हैं। भाषा के साथ भारत का इतिहास भी चाव से पढ़ते हैं। अपनी परंपरागत संस्कृति का मनन-मूल्यांकन भी करते हैं। स्कूली शिक्षा वयस्क शिक्षा के पग-पग पर आगे बढ़ने लगी है। यह एक नई पौध सी है। उस पौध से तो एक तिमुंही आशा रखी जा सकती है- शैक्षणिक, सामाजिक और सांस्कृतिक। मुझे पूरी आशा है कि समय के साथ इस देश के भारत के लोगों के बच्चे अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिन्दी भी नियमित रूप से सार्वजनिक परीक्षाओं के स्तर पर पढ़ सकेंगे। उनके लिए कई विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ने का भी प्रबंध है। समय के साथ अंग्रेज़ी बच्चे भी कुछ हद तक स्कूलों में हिन्दी पढ़ने लगेंगे, इसका मुझे विश्वास है। यह शुभ स्थिति जैसे-जैसे यथार्थ हो जायेगी वैसे पुराने जमाने के उन अल्प संख्यक अंग्रेज़ों का जीवन-कार्य एक प्रकार से फलीभूत होते देखा जाएगा, जिन्होंने पुश्तदर पुश्त हिन्दी भाषा को सीखने में और साहित्य संस्कृति को समझने में परिश्रम किया था। उनके प्रयत्नों की बदौलत हिन्दी का अध्ययन-अध्यापन इस देश के विश्वविद्यालयों में काफ़ी समय से हो रहा है। आने वाले पत्रों में इस प्रक्रिया के नवीनतम विकास की रूपरेखा दी जाती है। हिन्दी साहित्य के अध्ययन के विविध क्षेत्रों में पदार्पण किया। उन लोगों की संख्या कम थी, लेकिन उनके उत्तराधिकारियों का सिलसिला बीसवीं शताब्दी में आगे चलकर अटूटा ही रहा। फिर भी कहना यही पड़ेगा कि इस जमाने में अधिकतर अंग्रेज़ों का ध्यान आधुनिक भाषाओं की उपयोगिता से कुछ हटकर दूसरे विषयों पर चला गया था। इसका नतीजा यह हुआ कि जिन अंग्रेज़ विद्यार्थियों की रुचि भारतीय भाषाओं और साहित्य की ओर गई उस काल में वे अधिकतर संस्कृत की ही ओर खिंच गए, न कि आधुनिक भाषाओं की ओर।
ऊपर का पलड़ा कब नीचे जाने वाला था। द्वितीय महायुद्ध के बाद यह निश्चय कर लिया गया था कि भारतीय भाषाओं के ही नहीं, समस्त एशियाई भाषाओं के पढ़ने-पढ़ाने के प्रबंध में मौलिक परिवर्तन करने चाहिए। यह तो नया ज़माना था। इस दूरदर्शी निश्चय के फलस्वरूप हिन्दी भाषा और साहित्य पढ़ने का एक त्रिवर्षीय या चतुर्वर्षीय अध्ययन क्रम की व्यवस्था रखी गई। भारत की संस्कृति, साहित्य और भाषाएं तो विदेशी विद्यार्थी के लिए बिल्कुल नई अध्ययन सामग्री है। इस बात पर ध्यान देकर यह समझा गया था कि विदेशी विद्यार्थी सिर्फ़ कई साल का ही एक अध्ययन क्रम पूरा करने के बाद इन विषयों पर काबू पा सकेगा। साथ ही एक दूसरी बात भी सोचने की थी। विद्यार्थी को भारत के जीवन के अलग-अलग पहलुओं से परिचित करा देना था, ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था इत्यादि। ऐसे विषयों को पढ़ने से उन्हें भाषा और साहित्य के अध्ययन के लिए एक ठोस नींव बन जाए। (उल्टी तरफ़ यह भी कहा जा सकता है कि कोई भी विद्यार्थी किसी अज्ञात संस्कृति में तभी बैठ सकेगा, जब उसने उसकी भाषा या भाषाओं का अध्ययन कर लिया है) इस बहुरूपी अध्ययन-ढांचे का नाम पश्चिमी देशों में 'क्षेत्रोन्मुख' रखा जाता है। इस अध्ययन में भाषा विज्ञान का समुचित स्थान है। किसी भाषा की बनावट के समझने में भाषा विज्ञान का ज्ञान कितना उपयोगी हो सकता है, यह अच्छी तरह से समझा था। उपर्युक्त दोमुखी दृष्टिकोण के अनुसार ही हिन्दी का अध्ययन ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों में व्यवस्थित हो गया है, सबसे पहले लंदन के प्राच्य संस्थान में (जहाँ भारत के अध्ययन के लिए क्षेत्रोन्मुख पृष्ठभूमि की सामग्री की व्यवस्था उसी एक संस्थान में मिलती है, और बाद में कैंब्रिज में (जहाँ प्राच्य भाषाओं और साहित्य के अध्ययन प्राच्य विद्या के ही संकाय में किए जाते हैं) और यार्क में (जहाँ हिन्दी का अध्ययन-अध्यापन अधिकतर भाषा विज्ञान के ही संबंध में विकसित हुआ है)।
चूंकि यूरोपीय विद्यार्थियों को हिन्दी का अध्ययन आरम्भिक स्तर से ही शुरू करना है, इसलिए उसमें उनका जल्दी ही बढ़ना ज़रूरी है, ताकि वे वहाँ तक पहुँचे जहाँ साहित्य के पढ़ने से पूरा लाभ उठा सकते हैं। पढ़ाने वाले का कार्य यदि एक ओर विद्यार्थियों के सामने एक विविधता भरी साहित्य सामग्री रखना है, तो दूसरी ओर उसे यही देखना है कि हिन्दी बोलने में भी विद्यार्थी तरक्की करते रहें, नहीं तो पढ़ने में भी प्रगति कम ही करेंगे। हिन्दी भाषा पढ़ाने की एक दो तरफ़ प्रक्रिया अधिकतर यहाँ अपना ली गई है, जिसमें एक तो नवीनतम अध्यापन साधनों का भाषा प्रयोगशाला, यांत्रिक उपकरणों का प्रयोग किया जाता है, साथ ही पढ़ने वाले का ध्यान शुरू से ही लिपि और व्याकरण दोनों पर आकृष्ट किया जाता है।
अपने कोर्स के हर वर्ष में विद्यार्थी हिन्दी बोलने का अभ्यास अनुवाद या निबंध लिखने का अभ्यास करते हैं। साहित्य का अध्ययन पहले वर्ष के दूसरे पर्व से शुरू होता है। पहले वर्ष में प्रेमचंद की ओर आज के दूसरे लेखकों की कई कहानियाँ पढ़ी जाती हैं। आगे चलकर विद्यार्थी दूसरे और तीसरे वर्षों में अज्ञेय की, महादेवी वर्मा की, नागार्जुन की और हरिश्चंद्र की कोई-कोई गद्य रचना और नई पीढ़ी के कई गद्य लेखकों की भी कृतियाँ पढ़ते हैं। साथ ही उन्हें छायावादी कवियों से भी परिचय हो जाता है। मध्यकालीन साहित्य के क्षेत्र में तुलसीदास, सूरदास, नंददास और कबीर के उद्धत अंशों का ख़ास अध्ययन किया जाता है। दूसरे कवियों के साहित्य का भी यथा संभव अध्ययन किया जाता है। हम ऐसे दो तरफ़ा पाठ्यक्रम से, गहन अध्ययन और विस्तृत अध्ययन की ऐसी मिलावट करने से आशा करते हैं कि हमारे विद्यार्थी हिन्दी के साहित्य के विविध पहलुओं से यथारुचि लाभ उठायेंगे।
पिछले दशकों में हिन्दी संबंधी कई प्रकार के शोध कार्य ब्रिटेन में हुए हैं। हिन्दी सिखाने के व्यावहारिक क्षेत्र में और हिन्दी के व्याकरण के अध्ययन के क्षेत्र में कार्य भी हो रहे हैं और प्रकाशित भी हुए हैं। भाषा विज्ञान में वर्णानात्मक और रूपांतरणपरक दोनों प्रकार के कई अध्ययन हुए हैं। दूसरा कार्य क्षेत्र असंपादित पांडुलिपियों को संपादित करने का रहा है। हिन्दी साहित्य की कई रचनाएं अनुवाद के और साहित्यिक सांस्कृतिक टिप्पणी के विषय बन गई हैं और बन रही हैं। मध्य काल के साहित्य और उन्नीसवीं शताब्दी के साहित्य की रूपरेखाएं तैयार की गई हैं। कोश कार्य हो रहा है। आधुनिक साहित्य के कई पहलुओं पर लेख लिखे गए हैं। आशा है कि प्रबंध शोध भवन के पत्थर भी बनेंगे और विद्यार्थियों का काम सुलझाने की औजारें भी होंगे। हिन्दी की पढ़ाई में विदेशी विद्यार्थी के सामने बहुत-सी कठिनाईयां होती हैं- भाषा की अलग-अलग शैलियों की, विभाषाओं की, अज्ञात सांस्कृतिक विशेषताओं की। हर नये पाठ की अपनी-अपनी नई कठिनाईयाँ अक्सर होती हैं। विदेशी विद्यार्थी को कभी-कभी महसूस भी होता है कि भगीरथ परिश्रम करने पर भी कभी कठिनाईयों को पार न कर पाऊँगा। अब स्कूली विद्यार्थियों की भी बात है। हिन्दी के सब पढ़ाने वालों के सामने यह कर्तव्य है कि वे विद्यार्थियों के काम की उपयुक्त सामग्री तैयार करते जाएँ ताकि विद्यार्थी के संकट काल में हर विषय के लिए सुलभ सहायता मिल सके।
जस जस सुरसा बदन बढ़ावा। तस तस नव कपि-रूप दिखावा।।
आखिर में मैं एक और बात पर ज़ोर देना चाहता हूँ। विदेशी विद्यार्थी यह जानकर प्राय: आश्चर्यचकित रह जाता है कि आज का हिन्दी साहित्य आबदार चमकीले जवाहरातों से ठूंस-ठाँसकर भरा एक खजाना है। इस साहित्य में भारतीय तत्व इतने साफ सामने आ जाएँगे, वह वहाँ तक ओजपूर्ण और लाभदायक भी होगा, इन सब बातों पर अक्सर पहले से अनुमान ही नहीं होता। ऐसी बातों पर अगर शिक्षितों के दायरे में ध्यान खींचा जा सके, तो नतीजा यही होगा कि हिन्दी के साहित्य के अध्ययन के प्रति संयुक्त राज्य की अंग्रेज़ी और भारतीय दोनों आबादियों का चाब और उनकी रुचि सुसामयिक प्रकार से बढ़ जाएगी। आशा है कि जिस जिस ओर से इस शुभ विकास के लिए जितनी प्रेरणा और सहायता मिल सकती है, मिलेगी।
बवा से लुनिय, लहिय जो दीव्हा।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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